एक थी तरु / भाग 21 / प्रतिभा सक्सेना

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तरु को लगता है अब वह वो नहीं है जो पहले थी। एक में से कितने रूप जन्म लेते गये। वह जो एक छोटी सी बच्ची है -नादान कौतूहलभरी दृष्टि से चारों ओर देखती हुई, समझने का प्रयत्न करती हुई। अपने आप में विभोर, कुछ रहस्यमय अनुभूतियों को जीती हुई, अपरिचित गन्धों को पीती हुई। मन्दिर के घंटे, जैसे उसी के लिये बजते हैं :सुबह जिसके लिये मधुर कलरवमय ध्वनियों और रंगों के सन्देश लेकर आती है, अँधेरे और सघन परछाइयों से भय खाती वह बालिका कहीं लुप्त हो गई है। उनमें से बहुत से रहस्य खुलकर जीवन का आनन्द कम कर गये हैं। आकाश और बादलों के रंग पहुँच से दूर होते जा रहे हैं।

दूसरी किशोरी तरु -अपने आप ही बड़ी होती हुई। बड़े होने के क्रम में जो जानना चाहिये उससे अनजान, धक्के खा-खा कर सम्हलती हुई। विचित्र परिस्थितियों से जूझती हुई। अस्त -व्यस्त, घबराई सी तरल!

तीसरी -जो अपने चारों ओर की घटनाओं की साक्षी है, जिस पर किसी के कहने-सुनने का असर नहीं पडता। अपने भीतर -भीतर उतरती हुई, जहाँ एक किशोर मन उसकी संवेदनाओं से जुडता है और परिस्थियों का चक्र उसे दूर खींच ले जाता है।

फिर राग -सिक्त तरु, असित की स्मृतियों में डूबी, मन में जागे नवोदित राग में लीन!

और अब यह सबसे नवीन तरु-चंचल की जननी।

हर क्रम में बदलता हुआ एक व्यक्तित्व! फिर मैं क्या हूं?

और असित?

वे वहीं के वहीं हैं तरु के पति। वहीं रह जायेंगे कि और आगे बढेंगे? पिता बनकर वत्सलता आ गई है। पर ऐसी वत्सलता तो प्रत्येक हृदय मे सोई रहती है। मन को रँग डाले ऐसी नहीं है। वैसा ही तन है उनका, वैसा ही मन। तरु से कहते हैं, ’ये तो दुनिया है। तुम्हारे करने से कुछ नहीं होगा सब अपना-अपना कर लें वही बहुत है। तुम अपनी ओर देखो तरु, तुम्हें औरों से क्या?”

ठीक कहते हैं तरु सोचती है -उनका कहना भी ठीक है। बचपन में जिसे घर सा -घर न मिला हो, अजीब स्थितियों में पले बढ़े और अब भी महीने में बीस दिन जो घर से बाहर रहता हो वह लौट कर घर ही तो चाहेगा, सुख, शान्ति और अपनापन चाहेगा। यह चाह गलत कहाँ है?

उसे सुनना पड़ता है”चंचल के पीछे ही घूमती रहोगी, बस उसी में लगी रहोगी, जैसे मैं तुम्हारा कोई नहीं हूँ।”

'वह हँस कर उत्तर देती है,”वह भी तो तुम्हारी ही है। बाहर जाते हो तो तो उसके लिये कुछ न कुछ ले कर आते हो। तब मेरा ध्यान आता है तुम्हें?”

"तुम्हारा ध्यान तो हर समय रहता है। तुम्हारे पीछे ही तो दौड़ा-दौड़ा चला आता हूँ, । तुम न हो तो घर मेरे लिये कुछ नहीं है।”

उसकी बहुत सी बातें असित को मूर्खतापूर्ण लगती हैं। चंचल की ज़रा-ज़रा सी बात पर परेशान हो जाना, उसके लिये हर बात की चिन्ता करना, उसकी हर मुद्रा के अर्थ लगाना, क्या बेवकूफी है! असित को चह सब बेकार लगता है।

पर तरु को लगता है चंचल का हँसना-रोना, हाथ-पैर पटकना सब अर्थपूर्ण है। वह

उसके साथ तोतली बोली में बात करती है, उसे गुदगुदाकर स्वयं हँस पड़ती है।

"तुम तो उससे भी छोटी बन जाती हो,”असित कहते।

उनका कमेन्ट ऊपर-ऊपर से निकल जाता है। उसे लगता है चंचल के मन से उसका मन ऐसा जुड़ा है कि उसके रूप में वह फिर से बचपन में जा बैठी है।

बच्चे का माँ की ओर देखना, देख कर मुस्कराना, लपकना, मुँह बनाना सब बेकार होता है? चंचल के चेहरे से वह अपनी निगाहें बार-बार हटा लेती है -कहीं नजर न लग जाय!

माँ बन कर स्त्री कुछ और होजाती है। इस स्तर से गुजर कर गँवार से गँवार स्त्री मानसिकता के जिस स्तर को पा लेती है, विद्वान से विद्वान पुरुष भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाता। तभी बहुत-सी बातें उसके लिये सार्थक हैं, असित के लिये मूर्खतापूर्ण।

एक जीवन के दाँव पर दूसरा जीवन आता है जिसकी पूर्व-भूमिका की उलझनें, उखाड़-पछाड़ और अव्यवस्था, अनजानापन और अनिश्चितता झेलनेवाले की चेतना का पुनः संस्कार कर जाती है। व्यक्तित्व अपने में ही सीमित न रह कर अधिक व्याप्ति पा लेता है।

वे स्थितियाँ मै नें भोगी है, असित तुमने नहीं। तुम उनके न शारीरिक दृष्टि से हिस्सेदार रहे न मानसिक रूप से। जिसे यंत्रणायें झेलनी थीं वह अकेली मैं थी, तुम नहीं। शरीर की विकृतियों और मन के बदलाव में तुम भागीदार नहीं बने। तरु को लगता है वही है एकान्त सृजनकर्त्री -प्रारंभ से अंत तक सब झेलनेवाली। यह आनन्द और तृप्ति उसी का प्रसाद है। सृजन के इस रहस्य और गाम्भीर्य को तुम्हारा चिर-अतृप्त मन कहाँ पा सकेगा असित!

तरु को लगता है -माँ बन कर चेतना के जिन सूक्ष्म स्तरों तक उसका मन पहुँच गया है, असित की पहुँच वहाँ नहीं है। वह बच्चे के मन की बात जान लेती है, उसके सुख-दुख, भूख-प्यास को उसी तीव्रता के साथ अनुभव करती है, कब उसे क्या चाहिये अनायास ही समझ जाती है। उसे लगता है उसका अहं विसर्जित होगया है, शायद अधिक व्यापक होकर। पर असित का अहं सदा उन पर छाया रहता है। चंचल के साथ मेरा संबंध जितना गहरा है, असित का नहीं हो सकता। तृप्ति के एक क्षण में जिसे पाया था, मैंने उसे अपने रक्त-माँस से रचा है, मेरे प्राणों से नये प्राण जन्मे हैं। मातृत्व की कीमत मैंने दी है -तन से मन से और जीवन के बदले हुये क्रम से। तुम्हें पितृत्व अनायास ही मिल गया, तभी तुम वैसे के वैसे ही हो। लगता ही नहीं -बिटिया के बाप हो गये!

मेरी उस एकान्त सर्जना को भले ही तुम अपना नाम देकर कृतार्थ हो लो, पर असित, तुम यहाँ भी पिछड़ गये हो!