एक थी तरु / भाग 29 / प्रतिभा सक्सेना

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बहुत सी रहस्यमय अनुभूतियां, विभोर करती ध्वनियाँ, कोमल रंग, सुकुमार अनुभव और अनेक सुहानी महकें, जो बचपन में हमें मिली हैं अगली पीढियों को नहीं मिलेंगी, क्योंकि दुनिया अब बहुत बदल गई है।

अनेकानेक अनाम पंछियों का संयुक्त कलरव, जिनमें कुछ ध्वनियों का अपना अस्तित्व होता था, अब सुनने को नहीं मिलता।

तब लगता था दुनिया में अनेक प्रकार के प्राणी निवास करते हैं, वनस्पतियों के निराले संसार मे आश्चर्यजनक विविधता थी। हर मौसम की अपनी गंध, अपना स्पर्श, अपने रूप, रस और ध्वनियाँ थीं। अब वह सब नहीं लगता। सब तरफ आदमी ही आदमी दिखाई देते हैं या सड़कें और मकान। चाँदनी तो आज के जीवन से ही गुम गई, उसकी जगह बिजली की कृत्रिम रोशनी ने ले ली है।

रात्रियों के नित नये रूप कहीं खो गये हैं। चाँद-तारों का अनोखा संसार आँखों से ओझल रह जाता है।

पीछे के बाड़े में करौंदों के झुण्ड से उठती एक लम्बी संगीत की तान-सी आवाज जिस पक्षी की थी तरु उसे देखते ही पहचान लेती थी

स्वर्ण चंपा पर लगातार’ ठाकुर जी, ठाकुर जी' रटनेवाली चिडिया की झलक भर मिलती थी और सघन वृक्षों के पत्तों से आती क्रीं-क्रीं, चीङ्-चीङ्, , ट्यू-ट्यू और बहुत सी कर्ण-मधुर ध्वनियाँ वातावरण में अवर्णनीय माधुर्य भर जाती थीं। पता नहीं किस पक्षी की आवाज, जैसे कोई घडा भर -भर कर उँडेल रहा हो। गिलहरी दोंनो पाँवों पर बैठ कर हाथों में कोई छोटा सा फल पकडे, दाँतों से चिट्-चिट् करती खा रही होती और तरु की आहट पाते ही भाग जाती, जैसे तरु उसका फल छीनने आई हो।

भोर से साँझ डूबे तक प्रकृति की संगीतमय ध्वनियां! सारा परिवेश जीवन्त सा प्रतीत होता था।

अब वह सब कुछ नहीं है। सडकों पर दौड़ते वाहनों का प्रतिदिन बढ़ता अनवरत शोर, हर घर में गूँजते रेडियो के वही-वही फिल्मी गीत, कान फोड़ू लाउडस्पीकर या चक्कियों और मशीनों की अविराम एक-रस आवाज़ें! आरती की बेला में मन्दिर की घंटियों की प्रिय ध्वनि अब सुबह-शाम कानों में नहीं पडतीं। प्रसाद तो शायद अब कोई बाँटता ही नहीं। रास्ते के आस-पास तक छाया फैलाये घने वृक्षों की सघन-श्याम आकृतियाँ , परछाइयों की रोमाँचित करती अनुभूति, बादल और आकाश के रंग, अब जीवन से दूर हो गये हैं।

सारे रहस्य खुल जाने के बाद कौतूहल, माधुर्य, चाव, रोमाँच सब खत्म हो गये। अब जीवन एक सीधी सपाट कोलतार की सड़क पर अविराम दौड़ है।

शाम होते-होते आकाश में काफ़ी नीचे तक धुआँ-सा घिर आता है जिसमे बिजली की रोशनी धुन्ध के बीच तीर से चलाती है। बचपन सब कुछ बडी सहजता से स्वीकार लेता था पर अब हर जगह एक प्रश्न-चिह्न खडा हो जाता है। सारे संबंध अपना अर्थ खोते जा रहे हैं। हर जगह रिक्तता और तिक्तता भरती जा रही है।

कभी-कभी बड़ी भयंकर ऊब लगने लगती है तरु को।

ऐसी मनस्थिति से मुक्ति पाने के लिये सुहास चन्द्रा ने मायके हो आने का सुझाव दिया था -थोडा चेन्ज हो जायेगा और फिर मन हल्का हो उठेगा।

मायका? माँ-बाप ही नहीं तो मायका कैसा? भाग्यशालियों को नसीब होता है मायका!

मेरे लिये ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ कुछ दिन मुक्त मन से चिन्ताहीन होकर बिताये जा सकें। अब तो अदले-बदले वाले रिश्ते हैं। मनों में कहीं गुञ्जायश नहीं। जितना वह करेगी उसके हिसाब से बदला चुका दिया जायेगा, या संभव है उससे लोगों को शिकायत ही रह जाय!

शन्नो की एक बात तरु के मनमे बडी गहरी चुभी है -'गौतम मेरे कहने पर तुझे बुलाता है, बता कर शन्नो ने यह भी जोडा था, ’वह मेरे बच्चों को इतना चाहता है, मुझे इतना मानता है, तू बीच में अडंगा डालने आ जाती है

गौतमकी पत्नी के साथ हुये अनुभव, जो कभी सुखद नहीं रहे मन को और खिन्न कर देते हैं। गौतम के औपचारिक बुलावे आते हैं पर तरु जाना हमेशा टाल देती है। कितने वर्ष बीत गये, किसी शादी ब्याह में चलती-फिरती मुलाकात हो जाये तो हो जाये। बस!

और संजू के घर का हाल! इस हाथ दे उस हाथ से लेने की इच्छा करे। पर लेने की इच्छा न हो तो इस बेकार के हिसाब -किताब को चलाये रखने की जरूरत ही क्या है? और जहाँ जा कर सिर्फ परायापन लगे वहाँ जाने से क्या फ़ायदा? कुछ दिन भी काटने मुश्किल हो जाते हैं।

इन हिसाबी संबंधों से मन ऊब गया है।

ऐसी कोई जगह नहीं इस दुनिया में -जहाँ इस भागम-भाग से कुछ समय को निवृत्ति मिल सके? इस रोज-रोज के क्रम से कहीं कुछ अल्प-विराम मिल सकता है क्या? असित और चंचल, बाजार और घर, बाहर और भीतर और इन सबके बीच चक्कर खाती तरल!

"अरे मौज से रहो, तुम्हें परेशानी क्या है” असित कहते हैं, फिर जोड़ देते हैं,”मुझे लगता है तुम्हें आराम से रहने से एलर्जी है।”

सही कहते हैं वे!

तरु सोचती है, कोई कुछ नहीं कर सकता। ये तो मेरी अपनी बनाई नियति है!

बने -बनाये खाँचों मे अगर कोई फिट न हो पाये तो बेचारे असित क्या करें?