एक थी तरु / भाग 31 / प्रतिभा सक्सेना

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पूरे एक सप्ताह बाद असित अटैची लटकाये रिक्शे से उतरे।

आना था परसों, पर दो दिन पहले अचानक आकर तरु को सरप्राइज़ देना चाहता है। उतावले कदमों से घर की ओर बढ़ते हुए उसे बंद दरवाज़े पर ताला लटकता दिखाई दिया।

'अरे, ’ उसके मुँह से निकला, सात बज रहे हैं, आखिर गई कहाँ है?”।

आहट सुन कर पीछे के क्वार्टरों से महरी की लड़की शोभा निकल आई।

'बाबू जी, दीदी तो गई हैं, ’

“कहाँ?'

'एक बाबू जी और बीबी जी आए रहे उनहिन के साथ।’

अटैची रख चाबी निकाली असित ने, घर की एक चाबी उसके पास रहती है।

ताला खोल कर कमरे में जा बैठा।

पानी लेने उठ कर रसोई में गया, लगता है आज सुबह से खाना नहीं बना।

न खाना बनने का कोई चिह्न, न सिंक में जूठे बर्तन।

फ़्रिज खोला, दो स्लाइस के साथ मक्खन जैम निकाला, बैठक में ला कर खाने लगा।

फिर उठा-चाय का पानी गैस पर रख आया। दूध है थोड़ा-सा। गैस धीमी कर दी शायद तब तक तरु आ जाय!

वह चाय पी चुका।

तरु अभी भी नहीं आई। सात, फिर आठ बज गये।

बड़ी खीझ लग रही है -क्यों चला आया बेकार में!

नौ बज चुके देखा तरु चली आ रही है, ।’अरे, तुम कब आये?’

असित का चढ़ा मुँह देख सफ़ाई देती-सी बोली, ’ जितेन्द्र का मीना से झगड़ा हो गया, वह मिट्टी का तेल डाल कर आग लगाने को तैयार थी। वो अपनी बहिन के साथ मुझे लेने आया।’

'हाँ, तुम्हें औऱों के झगड़े से कहाँ फ़ुर्सत है। हमारी ही ग़लती है जो समय से पहले घऱ चले आए।’

'ग़लत मत समझो। यह बात नहीं। लेकिन कोई बुलाने आए तो कैसे मना कर दूँ? वह तुम्हारा ही दोस्त है। कितनी मदद करता है तुम्हारी। मजबूरी में रुकना पड़ा।’ वस्तुस्थिति पर ध्यान जाते ही वह शान्त हो गया।’

'फिर क्या हुआ सब ठीक है न?’

'बड़ी मुश्किल से समझाया है। जितेन्द्र की माँ उससे बहुत असंतुष्ट है। हमेशा शिकायतें करती है, उसे भरती रहती हैं।”

'अब बस भी करो। वो जाने उसका काम जाने। जिसे देखो मदद के लिये चला आ रहा है। सब के लिये तुम्हारा घर खुला है एक मेरे लिये छोड़़ कर।’

'तुमने कुछ खाया कि नहीं।’तभी उसकी दृष्टि चाय के प्याले और प्लेट में पड़े ब्रेड की कोरों पर गई।

'अभी खाना तैयार करती हूँ, भूख लगी होगी तुम्हें।’

वह झट-पट किचेन में जा घुसी। फ्रिज में से गुँधा हुआ आटा निकाला और अंडे लेने फिर बाहर आई, असित वैसा ही कुर्सी पर बैठा है।

'अब उठो न, हाथ-मुँह धो कर कपड़े बदल लो।’

आमलेट बना कर पराँठे सेंकते-सेंकते उसने प्लेट असित के आगे रख दी।

'लो शुरू करो।’

'तुम भी आ जाओ। आज सुबह तो खाना बना नहीं था?'

'सुबह, हाँ, सुबह। नहीं बनाया था कुछ। चंचल को स्कूल भेज कर कुछ बनाने का मन नहीं किया। शाम को लवलीन , चंचल को ले जाने को कह गई थी, अकेले मन नहीं लग रहा था उसका।

'फिर तुमने क्या खाया?’असित का स्वर सुन वह चौंकी-सी वर्तमान में लौट आई।

असित उत्तर की प्रतीक्षा में।

'रखा था। शाम का काफ़ी बच गया था। फिर अकेले के लिये बनाने का मन नहीं हुआ। तुम शुरू करो, बस मैं अभी आई।’

वह फिर चौके में जा घुसी।

खा-पी कर सोते-सोते ग्यारह बज गए।

'मुझे घर चाहिये और तुम चाहिये। तुम नहीं होतीं तो मुझे घर अच्छा नहीं लगता। तरु, मुझे हर पल तुम्हारा साथ चाहिये। बाहर से भटक कर आता हूँ तुम्हारी बाहों में शान्ति पाने के लिये। तुम सिर्फ़ मेरी हो और किसी की नहीं’

'हाँ, मैं सिर्फ़ तुम्हारी हूँ।’

'तुम्हें अपने से बिलकुल अलग नहीं रहने देना चाहता।’असित तरु को अपने में समेट लेना चाहता है, ’तरु तुरइया।’

'तरुइया क्या होती है, जानते हो?’

'क्या?'

'तुरई को लोग तरुइया भी कहते हैं।’

'सच में तुम तरुइया होतीं तो मैं तुम्हें खा जाता। तरुई। तुरई। तुरई।’

यों ही लेटे-लेटे, असित का सामीप्य। अनुभव करते वह बहुत बातें करना चाहती है। बहुत-कुछ है कहने को उसके पास, बहुत कुछ असित से पूछना है। पर बात करने का अवकाश वह नहीं देता। इस समय नहीं, बिलकुल नहीं। तरु के बोलने पर मुँह बंद कर देना उसे आता है।

नौकरी छोड़़ चुकी थी तरु। चंचल के साथ, गृहस्थी के साथ न्याय नहीं हो पाता था।

एक तो ढंग के नौकर नहीं मिलते ऊपर से रोज-रोज की किच-किच। पैसा खर्च हो सो अलग और निश्चिन्ती का नाम नहीं। असित का प्रमोशन हो गया , घर का खर्च अच्छी तरह चल रहा़ है फिर बेकार की दौड़-भाग से क्या फ़ायदा?

चंचल स्कूल चली जाती है और असित दौरे पर। घर पर अकेली रह गई तरु। कुछ करने का मन नहीं होता, अक्सर ही तो।

अकेली तरु घर में, खाना खाने की बिल्कुल इच्छा नहीं। पर अब खा लेना चाहिये, सोच कर उठी। खास भूख तो है नहीं। थाली परोस कर क्या करना। उसने फ्रिज में से सब्जी निकाली रोटी पर रक्खी और कौर तोड़ती हुई कमरे में आ गई

कद्दू की सब्जी!

पिता को तरु की बनाई कद्दू की सब्जी बहुत अच्छी लगती थी। बहुत साल पहले की एक घटना मस्तिष्क में कौंध गई --

तरु चौके में बैठी, कड़ाही से कटोरे में सब्जी निकाल रही है, बाहर किसी के आने की आहट हुई। जाली में से दिखाई दिया पिताजी ते़ज़-तेज़ कदमों से आ रहे हैं।

कुण्डी खटके इसके पहले ही वह दरवाज़ा खोल आई।

"तरु, तुमने आज कद्दू की तरकारी बनाई है न?”

"हाँ, पिता जी।”

वे चौके के दरवाजे पर खड़े हो गये। तरु ने दाल छौंकने के लिये चमचा अंगारों पर रख दिया था।

"रोटी सेंक चुकीं?”

"बस सेंकने जा रही हूँ।”

तरु ने थाली परसी। पहली रोटी सेंक कर थाली में रखी और थाली उन्हें पकड़ा दी।

अम्माँ पूजा कर अपने कमरे से बाहर निकल रही हैं

"आ गये तुम! जानती हूँ, कोई बिना खाये कैसे रह सकता है।”

पिता चेहरा स्याह पड गया है।

"अम्माँ।” तरु चिल्ला पडी।

"चुप रह! बड़ी खैरख्वाह बनी है।”

हाथ का टूटा हुआ कौर उन्होने थाली में ही फेंक दिया है,”रोटी मैं नहीं खाता, वह मुझे खाती है।”

वे थाली पटक कर चले गये।

तरु रोटी सेंक रही है। आँसू टप-टप कर गिर रहे हैं। वह बाँहे उठा कर पोंछ लेती है फिर रोटी बेलने लगती है।

ऐसा घर होता है? उसने सोचा था ऐसा घर मुझे नहीं चाहिये। वे भूखे लौट गये, परसी हुई थाली फेंक कर। यह नरक है। मुझे नरक नहीं चाहिये।

कद्दू की सब्जी वाला कौर हाथ में पकडे तरु कुर्सी पर बैठी है। आँसू भरी आँखों की दृष्टि धुँधला गई है। हाथ उठाकर ब्लाउज की बाँह से आँखें पोंछ लीं।

आज भी उसे स्वप्न आता है -पिता आये हैं, चुपचाप खडे उसकी ओर देख रहे हैं

"पिताजी, खाना।”वह कहती है। और वे लौट कर चले जाते हैं। वह आवाज नहीं दे पाती। चुपचाप देखती रहती है। कितने घरों मे, कितने लोग ऐसे भूखे रहते होंगे? बिना किसी से कहे, बिना किसी के जाने, यों ही तिल-तिल कर समाप्त हो जाते होंगे?

ये कैसे व्यवहार हैं दुनिया के, जहाँ जीवन भर साथ रह कर भी आदमी एक दूसरे को समझ नहीं पाता? अकेले बैठे-बैठे तरु को लगने लगा है सारा जीवन व्यर्थ बीता जा रहा है। लेखा-जोखा करने बैठती है, कुछ भी हाथ नहीं आता। उसने कभी सोचा था जिन्दगी का क्या है, यों ही बीत जायेगी। दूसरे की जान का जंजाल बन कर घर क्यों बसाया जाय? पर घर के लोग पीछे पडे, असित को लेकर मन दुर्बल हो गया और अब यह गृहस्थी। क्वाँरी रहती तो भी सबकी सुनती, इतराती किसके बल पर? रूप उसके पास था नहीं, स्वभाव सदा का ऐसा, जिसकी सदा आलोचना ही सुनती आई -सोच समझ कर बोलना नहीं आता, लट्ठ सा मारती चलती है।

पर जो लगता है वही तो कहती है। अगर न कहे और कुछ और बना कर कह दे तो भीतर -भीतर कुछ कचोटता रहता है, अन्दर ही अन्दर उफान सा उठता रहता है। उस स्थिति को वह किसी तरह सहन नहीं कर पाती। सारी दुनिया धिक्कारती रहे वह चुप सुनती है पर अपने ही भीतर से उठती धिक्कार उससे सही नहीं जाती।

मन का उद्वेग बार-बार जागता है। तरु को बराबर लगता है, जिसने हमे दुनिया में सिर उठा कर जीने योग्य बनाया, हमने उसे जीने नहीं दिया। हमने कोशिश की होती तो वे इतनी जल्दी न मरते। यह क्या उनके मरने की उम्र थी?

भीरे-धीरे मौत की ओर बढते हुये उनके कदमो को देखा है तरु ने। मृत्यु से पहले ही उनकी जीने की इच्छा समाप्त हो गई थी। गड्ढे मे धँसी आँखें और निष्प्राण सी देह। अच्छा हुआ जो मर गये वे। उस कष्टमय जीवन से मुक्ति पाली उन्होने। नहीं तो कितना और घिसटते?

उसकी समझ में आ गया है कि जीवन के सुख बहुत सतही होते हैं और दुख अपने में पूरी तरह डुबो लेने मे सक्षम।

और अम्माँ! उनका अन्त भी कैसा हुआ! आधे शरीर को लकवा मार गया था। जुबान बन्द हो गई थी। हमेशा कुछ न कुछ कहती रहने वाली जीभ पूर्णतः शान्त हो गई थी। आँखों से देखती रहती थीं, इशारे करती रहती थीं, कभी समझ मे आते कभी नहीं, जितने दिन घिसटीं साक्षात् नरक। न स्वयं को चैन न दूसरों को। भाभी को क्यों दोष दे। उन्होने जो किया बहुत किया, कोई दूसरा शायद उतना भी न करता। उस अन्तिम सप्ताह मे तरु ने एक दिन उनके साथ बिताया था। फिर वह चली गई थी और उसे तार द्वारा हा ही उनकी मृत्यु की सूचना मिली थी। अन्त काल मे उन्होने याद किया होगा मस्तिष्क सारी शक्तियाँ तो पहले ही जवाब दे गईँ थी। शायद किया हो!

तरु की कहीं नहीं चल सकी थी। उसके ऊपर भी कितने आरोप लगे थे। माँ कुपित रहतीं थीं, बहिन असंतुष्ट। विवाह के बाद शन्नो की तरु से उम्मीदें और बढ गईं थीं। उन्हें लगता था वे तो अब मेहमान बन कर आती हैं, तरु को उनकी हर तरह से खातिर करनी चाहिये, आराम देना चाहिये। वे कहती भी थीं मै आती हूं पर इसे अपनी पढाई और घूमने से ही छुट्टी नहीं -घर का काम किसी तरह निपटा दिया और चल दी।

"कहाँ जाती है रोज-रोज? घर में नहीं बैठा जाता?” शन्नो जवाब तलब करतीं तो वह कुछ नहीं बोलती।

तरु आवारा है, घंटों घर से बाहर रहती है, किस-किस के साथ जोड दिया था उसका नाम उन्होने। घर में रिश्तेदारों के आने पर तीखी -तीखी आलोचनायें होतीं। रिश्तेदार थे कौन मौसी, मामा और उनके बाल-बच्चे। वे तो बहुत पहले से ही तरु को अपनी नजरों से गिरा चुके थे। अब वह उनकी परवाह नहीं करती थी।

उसे वे सब बद -दिमाग और स्वेच्छाचारी कहते थे, पर उसने कभी सफाई देने का प्रयत्न नहीं किया उसे लगता था सफाई देने से वह और नीचे गिर जायेगी।

हाँ, रोज जाती थी वह। दो आठवीं की ट्यूशने की थीं उसने, मीना ने दिलाई थीं। कुल तीन महीने वह ट्यूशन कर पाई थी, बिना किसी को बताये। बताने पर घर मे हल्ला मच जायेगा। पर पिता की भी कुछ जरूरतें हैं यह कोई नहीं समझता!

तरु बता देगी तो अम्माँ नाराज होंगी, कहेंगी हाँ, तुम्हीं तो एक लगी हो उनकी! मेरे लिये तो आज तक कुछ नहीं सोचा, और रुपये उनके पास चले जायेंगे। अपने मायकेवालों के लिये अभी बहुत कुछ करना है उन्हे। शन्नो कहेंगी -मेरे बच्चों के लिये कभी कुछ लाने का मन नहीं हुआ तेरा?

पिता की चाय की आदत थी। जब माँ आस-पास नहीं होतीं तो चुपके से बना कर दे आती वह। वे तरु के लाने पर मना नहीं कर पाते थे चाय उनकी कमजोरी थी, उनकी तलब थी, उनकी शक्ति थी। पर माँ बहुत कटु थीं। किसी बात पर तिनक कर बोलीं थीं,”तुम अपनी चाय छोड़ सकते हो?”

"तुम्हें इतनी ही दुश्मनी है तो वह भी छोड़ दूँगा।”उन्होने भी ताव में आकर कहा था।

तलब लगती है तो उन्हें कितना कष्ट होता है तरु जानती थी। पर वे जिद के मारे पीते नहीं थे। दो-चार बार अपने दफ्तर जाते समय उन्होने तरु से पूछा था,”एकाध रुपया है तुम्हारे पास?”

उन्हे मालूम था, गौतम भइया जब-तब तरु को कुछ दे जाते हैं। जब तक रहे वह पकड़ा देती थी पर अब कुछ नहीं है उसके पास। पिता की जेब मे कुछ पड़ा रहे तो अच्छा है। वे चाहें तो चाय पी सकते हैं, चाहें तो रिक्शा ले सकते हैं। वे एक बार रास्ते मे गिर पड़े थे, उन्होने बताया नहीं पर उसे मालूम है।

उसी बीच मौसी अपने लडके नवीन के साथ आई थीं। नवीन उससे कुछ बड़ा था। तरु की आलोचना सुनकर उसने जानना चाहा था।

नवीन का समाधान कर रही थी वह। घर आकर रहनेवाला वैसे भी घर की स्थितियों का अन्दाज लगा लेता है, उससे सब कुछ तो छिपा भी नहीं सकती थी।

उसे धीमे-धीमे बता रही थी, माँ की कठोरता के बारे मे नहीं, पिता की जिद के बारे मे नहीं, वह बता रही थी आजकल मै खाली हूँ, कई साथिने भी अच्छे-खासे घरों की होकर ट्यूशन करती हैं।

बातों के बीच में अम्माँकी ज़ोरदार आवाज आई थी,”बेशरम कहीं की, नवीन से घुट-घुट कर क्या बातें किया करती हो? समझ लिया कि हम लोग बेवकूफ हैं!”

मौसी ने तेज स्वर मे नवीन को आवाज दे ली थी। जब उसने तरु की वकालत की तो बात और बिगड़ गई। मौसी ने तिरस्कार से कहा,”भाई को भी नहीं छोड़ा।”

अगले दिन नवीन वापस लौट गया था। चलते-चलते वह शन्नो को बता गया था,”वह ऐसी नहीं है। उसने बच्चों की ट्यूशने की हैं इसमे क्या बुराई है।”

शन्नो ने तरु से पूछा,”कितने रुपये कमा लिये? मेरे बच्चों के लिये तो कभी कुछ किया नहीं। ट्यूशन की थी तो कह कर करती। बहाने बनाने और झूठ बोलने मे तू शुरू से होशियार है।”

फिर सन्देह भरी दृष्टि से देखते हुये बोलीं थीं,”अच्छा, मीना का भाई नहीं होता था वहां?”

"मीना का भाई? वह तो उन बच्चों की बहन विभा से मिलने आता था। अब उन दोनों की शादी हो रही है।”

"तू चाहेगी भी तो तुझे लिफ्ट देगा कौन?”

शन्नो हमेशा चुभनेवाली बात कहती हैं। पर तरु से कुछ कहते नहीं बनता, वह चुपचाप उठ कर चली जाती है, इन झूठे आरोपों का खण्डन करना उसे अपनी ही हेठी लगता है। हमेशा की अडियल है शन्नो ठीक कहती हैं।

मुझे कोई नहीं चाहता पर इसमे मेरा क्या दोष? तरु सोचती है पर समझ नहीं पाती। जो ठीक समझ कर करती है वह भी सबको गलत लगने लगता है।

पर पिता? उन्हें कुछ हो गया तो? कहो जिसे कहना हो कहो, पर मेरे पिता का कुछ अनिष्ट न हो!

लेकिन अनिष्ट कहाँ रोक सकी थी? कुछ नहीं कर पाई तरु। जो सोचती है कभी नहीं होता। उनकी निर्बलता बढती गई, वे बिस्तर पर पड़ गये, उन्होने खाना-पीना बिल्कुल बंद कर दिया उठना मुँह धोना कुल्ला करना छोड़ दिया। बोलना छोड़ दिया, सुनना छोड़ दिया और तरु बेबस देखती रही। उस असह्य स्थिति का साझीदार तब कोई नहीं था, फिर अब उसकी स्मृति का साझा करके क्या होगा?

डॉक्टरों का क्या? कोई भी बीमारी बता देंगे, दवा लिख देंगे, लउनके बूते का कुछ नहीं। जिन्दगी में क्या घट जायेगा पहले से मालूम नहीं पड़ता। बड़ी-बड़ी घटनायें अनायास ही घट जाती हैं। मन जाने कितनी योजनायें बनाता है, उन्हे साकार करने को एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया जाता है, पर सारे किये धरे पर पानी फेर देनेवाली घटनायें अचानक ही घट जाती हैं। तरु का मन सुन्न सा हो गया है

भीतर से कोई पूछता है,”किसी के सही गलत का निर्णय करनेवाली तू कौन? तूने क्या किया? माँ को फालिज गिरा तेरे ही कारण। ?

वह अपने आप से कहती है -मैं अपराधी हूं, मैं पापी हूं, हाँ, पापी हूँ!