एक थी तरु / भाग 35 / प्रतिभा सक्सेना

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विपिन के माता-पिता आ गये हैं। उसे साथ लेकर जायेंगे। स्थान परिवर्तन से उसके मानसिक संतुलन पर अनुकूल प्रभाव होने की संभावना है। डॉक्टरों ने आवश्यक हिदायतों के साथ अस्पताल से छुट्टी देने की अनुमति दे दी है।

"अच्छा है, यहाँ से चला जाय। यहाँ उसकी जान को खतरा है,”असित ने कहा,”फिर माँ-बाप की बात ही और होती है। उसका यहाँ से जाना ही ठीक है।”

शाम की गाड़ी से रिज़र्वेशन हो गया है उनका।

असित और तरु अलग से जा रहे हैं विपिन को सी-ऑफ करने।

कहने-सुनने को है ही क्या? विपिन को शान्त रखना है। , उत्तेजना से बचाना है। सब चुप-चुप से।

वह बहुत शिथिल -जो कहो चुपचाप कर लेता है। भान नहीं है शायद कि क्या हो रहा है-दवाओं के असर में।

पानी, फल, बिस्किट सब सँभलवा रही है तरु।

'भाभी, संकोच मत करना कभी भी कुछ ज़रूरत पड़े तो।

असित बाहर विपिन के पिता से कुछ चर्चा कर रहे हैं।’

'हाँ, आप ही लोग तो हैं। दवायें वगैरा यहीं से मँगानी पडेंगी वहाँ छोटे शहर में। पता नहीं।’

'उसकी चिन्ता मत कीजिये हम तो चाहते थे यहीं रहते पर।’

'अब यहाँ रहने का तो सोच भी नहीं सकते। बस किसी तरह ठीक हो जाये। हमारे बुढ़ापे का एक ही तो सहारा।’

आँखें भर आई हैं।

'ठीक हो जायेगा। थोड़ा समय लगेगा। पर मुझे विश्वास है।’

'बस, भगवान से यही मनाना।’

ट्रेन ने सीटी दे दी।

तरु खड़ी हो गई , चलते-चलते विपिन को देखा। एकदम चुपचाप -शिथिल।

अंतर से हूक सी उठी।

वह नीचे उतर गई।

विपिन के पापा आ गये थे।

गाड़ी चल दी।

तरु खड़ी-खड़ी एक के बाद एक डब्बों का निकलना देखती रही। साथ में असित।

'अब चलो तरु।’

बिना कुछ कहे-सुने, रिक्शा कर बैठ गये दोनों।

असित कोई बात कह रहे हैं।

तरु कभी हाँ-हूँ करती है कभी सिर हिला देती है। उसके दिमाग तक कुछ नहीं पहुँच रहा। असित के उत्तर की अपेक्षा करने पर’और क्या”अच्छा’ बिना सोचे-समझे बोल देती है। असित इशारा कर कुछ दिखाते हैं उस दिशा में देख भर लेती है, और सिर हिला देती है।

किसी बात के उत्तर के लिये असित ने उसकी ओर देखा।

"क्या कहा तुमने, मैं सुन नहीं पाई।”

असित फिर कुछ कह रहे हैं, वह मन-ही-मन खीझ रही है -ये आखिर इतना बोलते क्यों हैं ?

और बोलते भी हैं तो उत्तर की अपेक्षा क्यों करते हैं?

चंचल बेटा, एक गिलास पानी तो पिलाना”

पानी टपकाता गिलास लाकर उसने पकड़ा दिया।

असित ने अख़बार से सिर उठाये बिना पी कर वहीं मेज़ पर रखी चंचल की किताब पर रख दिया। और वहीं पड़ा फ़ुटा जो गिलास रखते समय उनके हाथ से टकराया उठा लिया और और उँगलियों में फँसा कर नचाने लगे।

'पापा, गिलास हमारी किताब पर मत रखिये, कवर खराब हो जायेगा।’

वे फ़ुटा नचाते अखबार पढ़े जा रहे हैं। चंचल की आवाज़ उनके कानों तक नहीं पहुँची।

, उधऱ आई हुई तरु ने सुनी, चंचल से बोली, 'तुम्हीं उठा कर नीचे रख दो।’

फिर खुद ही उठाया और रखने नीचे झुकी।

नाचता हुआ फ़ुटा सिर से टकराया। तरु ने सिर उठा कर असित की ओर देखा, ’ये क्या। ?'

तभी असित का ध्यान अख़बार से हटा, समझे क्या हुआ नोले, ’ईश्वर ग़लती का नतीजा हाथों-हाथ देता है, देखा तुमने?

'चंचल हँसी, ’मम्मी ने क्या ग़लती की थी?’

'ज़रूर की होगी, नहीं तो फ़ुटा क्यों लगता?’

'अच्छा तो अब तुम्हें फल मिलता है।’ कहते हुये तरु ने मेज़ पर पड़े कागज़ को गुड़ी-मुड़ी कर गोला बनाया और तान कर असित पर फ़ेंका।

असित ने हाथ से झटका वह चंचल पर जा गिरा।’असली ग़लती तो तुम्हारी थी।’

गोला उसके गाल से टकराया , वह हाथ रखे थी। तरु ने सहानुभूति प्रकट की’मुझ पर बस नहीं चला तो उसे छेड़ने लगे धोबी पर बस नहीं तो गधइया के कान उमेठे।’

इसी बीच असितने फिर गोला चंचल पर उछाला

बह बचती हुई घूम कर बोली, ’हमें गधइया कहा!’

असित ने ठहाका लगाया और उसे चढ़ाया, ’देख लो! और मम्मी-मम्मी कह कर उनसे चिपको जा कर।’

तरु हँस पड़ी, 'तुम जित्ता चाहे चढ़ाओं वह भड़कनेवाली नहीं।’ॉ

चंचल समझ नहीं पा रही, गधइया की बात पर मुँह चढाये या जाकर माँ से चिपक जाये?’