एक थी तरु / भाग 40 / प्रतिभा सक्सेना

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प्रस्थान का समय जैसे-जैसे पास आ रहा है, तरु की मनस्थिति अजीब होती जा रही है।

उसके उड़े-उड़े चेहरे को देख कर असित ने कहा, "तरु, मन न मान रहा हो तो अभी भी लौट चलो। "

"नहीं, असित, यह कैसे हो सकता है? जाना तो है ही। "

"तो निश्चिन्त होकर जाओ, दुविधा से रहित मन से। कौन बहुत दिन रहना है? तीन -चार महीने निकलते क्या देर लगती है। "

"हाँ। और क्या? वहाँ वालों को चिट्ठी समय से डाल देना। "

तरु का मतलब जहाँ चंचल की बात चल रही है।

"चिन्ता मत करो, तुम्हारे आते-आते तारीख भी पक्की हो जायेगी। "

चंचल बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई। तीनों एक दूसरे को हिदायतें दे रहे हैं। चंचल ने उसके गले में हाथ डाल दिये और सिर कंधे पर रख दिया, तरु चुपचाप थपक रही है।

घोषणायें हो रही हैं। तरु को सुनने की फ़ुर्सत नहीं। ध्यान रखने के लिये असित साथ हैं अभी तो। कोलाहल बहुत बढ़ गया है।

"अब चलो, बढ़ो तरु! "

असित ने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया है, तरु का हाथ असित के हाथ पर टिकता है -वे एक दूसरे को देखते हैं। असित ने बाँह से समेट लिया उसे, आँखें मूँद तरु ने सिर टिका लिया उस काँधे पर। बस कुछ क्षण, फिर चंचल का गाल थपथपा कर तरु उसे चूमा। असित की ओर देखा और आगे बढ़ गई।

असित और चंचल हाथ हिला रहे हैं, तरु हाथ में रूमाल पकड़े है, हिलाती है।

कण्ठ में कुछ उमड़ा चला आ रहा है, दृष्टि धुँधला-सी गई है। असित और चंचल छाया-चित्रों-से प्रतीत हो रहे हैं।

लगेज की चेकिन पहले ही हो चुकी है। तरु के पास बचा है बस एक बैग और एक ओवर कोट। कनाडा में बहुत ठंड होगी।

तमाम हिदायतें दे कर असित और चंचल आँखों से ओझल हो चुके है। कस्टम क्लियर हो चुका है, लाउंज में इंतज़ार कर रही तरु, चुपचाप बैठी है।

कुछ एनाउंसमेंट हुये। यात्री लाइन लगा रहे हैं।

उसने टिकट और पासपोर्ट पर्स से निकाल हाथ में पकड़ लिये, लाइन में लग गई।

आगे अकेले ही जाना है। हैंड-केरी घसीटते आगे बढ़ रही है

बस, घुमाव है आगे, और बहुत से लोग। सब अनजाने। इन्हीं के साथ होना है। चलती जा रही है, जैसे सब कर रहे हैं वैसे ही वह भी।

परिचारिका ने सीट दिखा दी। खिड़की से लगी है। चलो अच्छा है।

स्क्रीन पर जीवन रक्षा के तरीके बताये जा रहे हैं,

बेल्ट बाँध ली, एकदम झटका लगा। रन वे पर दौड़ पड़ा है प्लेन -कितनी आवाज़। कान भड़भड़ा रहे हैं -रूई निकाल कर ठूँस ली उसने। पर्स में रख लाई थी, मन्नो जिज्जी ने पहले से काफ़ी-कुछ बता दिया था।

तीन रातों से बहुत कम सोई है। -जाने की तैयारियाँ, घर के इंतज़ाम, मिलने आनेवालों का क्रम और मन की उलझन। असित और चंचल को छोड़़ कर अकेले इतनी दूर की यात्रा, इतने दिन बाहर रहना एक अनजाने देश में।

अब काफ़ी ऊपर उठ गया है प्लेन।

धरती दूर होती जा रही है।

लगा सब कुछ नीचे छूटा जा रहा है। जीवन की इतनी भूमिकायें निभाने के बाद एक दीर्घ -विराम!

कितनी भूमिकायें -सबके अलग रंग, अलग ढंग।

इनमें मैं कहाँ हूँ? मन में प्रश्न उठता है,

भीतर से कोई कहता है -तरु, अभिनय मे अभिनेता कहाँ होता है? वेश और रंग धुलने के बाद पात्रता समाप्त हो जाती है, संबंध समाप्त हो जाते हैं, रह जाता है केवल रिक्त मन!

जीवन का मध्यान्तर हो गया है, आरोपण हट गये हैं। तरु रह गई है यहाँ अकेली -पहचान रहित।

बैक को पीछे झुका कर सिर टिका दिया उसने।

। शिथिल हो कर यों बैठना भला लग रहा है अंदर हलकी रोशनियाँ रह गई हैं केवल।

। थकी हुई आँखें मुँद गई हैं।

पता नहीं कितनी देर।

अचानक कान में आवाज आई -'अब परेशान मत होन तरु, रोना मत! मैं नया जन्म ले रहा हूँ, बिलकुल सोच मत करना।’

लगा किसी ने सिर हाथ पेरा है हल्के से।

'अरे, पिताजी!’

चौंककर आँखें खोल दीं उसने।

सजग हो कर चारों ओर देखा। सब अनजान यात्री।

हाथ सिर पर गया बैक का कवर सिर पर आ गया था, हटा दिया।

नहीं, यहाँ किसी ने कुछ नहीं कहा।

झपकी लग गई होगी।

पर कैसा विचित्र अनुभव!

फिर वहीं के बारे मे सोचने लगी है तरु।

वहाँ जीवन दूसरी तरह का होगा।

असित और चंचल के लिये टूटता व्याकुल मन अब थिरा आया है।

प्लेन की खिड़की से धरती की इमारतें घरौंदों सी दिखाई दे रही हैं और लोगों के चलते-फिरते नन्हे आकार -जैसे गुड्डे-गुड़ियों का खेल चल रहा हो।

और ऊपर से घेरे है आकाश का अन्तहीन विस्तार!

समाप्त।