एक दिल और सौ अफ़साने / प्रमोद यादव

Gadya Kosh से
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पिछले दिनों एक फिल्म देखी थी- ‘ चुप चुपके ’। उसमे एक किरदार (राजपाल यादव) जब अपने गुजराती सेठ (ओमपुरी) के यहाँ ढेरों कपडे धोते रहता है तो वहां का मैनेजर (शक्ति कपूर) उसे कुछ और कपडे फेंककर कहता है-‘ ले। इसे भी अच्छी तरह धो दे। ’ तब राजपाल चीखकर पूछता है- ‘ कितने लोग रहते हैं इस घर में? ’

‘ तीस-बत्तीस ‘ शक्ति कपूर जवाब देता है।

‘ तो इसे जिला घोषित क्यूं नहीं करते? ’ राजपाल झुंझलाकर कहता है।

सचमुच। राजपाल की बातें किसी दिन हकीकत न बन जाए। जिस तरह इन दिनों नए - नए छोटे राज्यों के उदय होने की अनंत संभावनाएं नजर आ रही है ऐसा ही लगता है। नए राज्य बनेंगे। तो अनेकानेक नए जिले भी बनेंगे। मेरा राज्य ‘छत्तीसगढ़’ जब अपने ‘नाल’(मूल) से मतलब कि एम। पी। से अलग हुआ (सन २००० में) तब इसमें सोलह जिले थे। विकास यात्रा करते,२००७ से २०११ के बीच चार सालों में सत्ताईस हो गए। इस साल के अंत में फिर चुनाव है। एक-दो और घोषित हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। यानी औसतन हर साल – एक नया जिला। पचास साल बाद राजपाल को हम बेहद याद करेंगे।

त्वरित विकास की दुहाई देते गाँव-कस्बों तक को जिलों में तब्दील कर दिए। नए जिलों में न कोई ढंग का स्कूल न ही कोई कालेज। ना कोई सिनेमाहाल ना कोई ‘माल’। कई बार तो शहरवासियों को पेट्रोल भराने भी पड़ोस के जिले में जाना पड़ता है। पडोसी जिले वाले भी अपनी खास जरूरतों के लिए अपने पडोसी जिलों का ‘सफ़र’(suffer) करते हैं। पडोसी जिले वाले आगे फिर अपने पड़ोस के जिलों में। घोर-घोर रानी करते अंततः सब राजधानी पहुँच जाते हैं और वहां अपनी सारी जरूरतें पूरी करते हैं।

देश के कर्णधारों की महानता है कि सब कुछ जानते-बूझते भी अपनी गलतियों को (स्वार्थवश) दोहराते हैं। चुनाव निकट आते ही सारे नेता (पक्ष - विप क्ष) एक जैसे ही राग अलापते हैं। लोक-लुभावन कार्य करने को उद्यत (मजबूर) हो जाते हैं। और ऐसी ही स्थितियों-परिस्थितियों में एकाध नए राज्य का प्रसव हो जाता है। जैसे- ‘ तेलांगना’। प्रसव कराने की बात अभी डाक्टर्स (राजनीतिज्ञ) कर ही रहे हैं कि कई और राज्य ‘ प्रेगनेंसी’ के मूड में आ गए है। बच्चे का नामकरण तो जन्म के बाद होता है, यहाँ नामकरण पहले होता है फिर जन्म। तभी तो बच्चे की आवाज अभी से गूंजने लगी है- ‘विदर्भ। विदर्भ’। ’बुंदेल। बुंदेल’। ’गोरखा। गोरखा। ’

किसी घर में जब कोई नवजात का आगमन होता है तो पूरा घर खुशियों से झूम उठता है। घर तो घर अडोस-पड़ोस भी इस अवसर पर फटाके फोड़ने से नहीं चूकते। पर कोई राज्य जब ‘डिलवरी’ के कगार पर होता है तो जनमने के पूर्व ही घर (मूल राज्य) में सर-फुटौव्वल का खेल शुरू हो जाता है। दो-चार शहीद भी हो जाते है। सर-फुटौव्वल का रोमांचक खेल और कई राज्यों को भी प्रेरित करता है और कई-कई हाथ (भीख माँगने की शक्ल में) उठ जाते हैं- ‘ हमें भी चाहिए। हमें भी चाहिए। ’

एक दिल (केंद्र) और सौ अफसाने (राज्य)। अब दिल क्या करे?। और कहाँ तक करे। हर बार ‘परिवार नियोजन’ की तरह ‘ अब बस ’। ’ अब बस ‘ करते बेबस भी है और (वोट की राजनीती के चलते) विवश भी।

एक दिन मेरे एक अल्हड ग्रामीण पडोसी ने नए राज्य के मुद्दे पर चर्चा करते पूछा- ‘ नया राज्य बनने से केंद्र को क्या मिलेगा? ’

‘ वोट ‘ मैंने कहा।

‘ छोटे राज्य बनने से क्या होगा? ’

‘ विकास ’ नेताओं की तरह मैंने जवाब दिया।

‘ विकास ही करना है तो नक्सलियों का क्यूं नहीं करते। वो भी तो विकास चाहते हैं। आदिवासियों का विकास। गरीबों का विकास। कई राज्यों में भटक रहे हैं। इन्हें ही एकाध राज्य क्यूं नहीं बनाकर दे देते - ’नक्सल राज्य’ मैं चुप रहा।

वह किसी नेता की तरह बोले जा रहा था – ‘देश का अरबों-खरबों रूपया इन पर खर्च हो रहा है। खून-खराबा हो रहा है। ये एक राज्य में रहेंगे तो पैसा भी बचेगा और खून-खराबा भी थम जाएगा। वे अमन के साथ रहेंगे तो हम भी चैन के साथ। आप क्या कहते हैं? ‘ वह मेरी ओर तांका। मैं मुस्कुराकर रह गया।

उसने फिर अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते, कहा - ‘ एकाध राज्य बिना किसी मांग या सत्याग्रह के बन जाए तो इसमे हर्ज क्या? ठीक कह रहा हूँ ना? ‘ फिर मुझे उत्तर की लालसा में घूरा।

“नक्सल राज्य ” तक ठीक है दोस्त। अब आगे ‘ किन्नर-राज्य ‘ बनाने मत कहना नहीं तो दौड़कर शबनम मौसी तेरे पास “आय-हाय”’करते ताली पीटते अभी आ जायेगी अपना इनाम मांगने। । आखिरी इनाम। क्योंकि राज्य बनने के बाद तो तू उन्हें देने जाएगा नहीं। ’।

अब वह निरुत्तर था और मैं पहले से बेहतर।