एक देश और मरे हुए लोग (समीक्षा) / नताशा

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बंजर ज़मीन पर जिजीविषा की दूब
विमलेश त्रिपाठी के काव्य संग्रह "एक देश और मरे हुए लोग" की समीक्षा

इस कठिन समय में लिखना औए बोलना सबकुछ दुष्कर होता जाता जिसके लिए सोचिये कितना मुश्किल है इस समय में अपने मूल्यों को लेकर जीना। विमलेश त्रिपाठी किसी परिचय के मोहताज नहीं। उनका परिचय स्वयं उनके शब्द हैं जो समय समय पर विभिन्न साहित्य विधाओं के रूप में अपने आपको प्रस्तुत करते रहते हैं। यहाँ उनकी चर्चा प्रासंगिक हो उठी है उनके दूसरे कविता संग्रह के सम्बन्ध में जिसका नाम है 'एक देश और मरे हुए लोग 'जिसके माध्यम से उन्होंने सबसे कठिन समय से जद्दोजहद करने वाले व्यक्ति के आत्मसंघर्ष और 'मिसफिट' होने की वेदना का ब्यौरा प्रस्तुत किया है।

सवाल है की धड़ल्ले से प्रकाशित हो रहे संग्रहों के दौर में कैसे कोई संग्रह चुनिंदा संग्रहों में अपना नाम दर्ज करे। कथ्य और शिल्प के अलावा जो जरुरी चीज़ है वो है पाठकों की विश्वसनीयता को जीतना। अपने विलक्षण भाषिक शैली और कथ्य की सार्थकता के माध्यम से विमलेश जी ने इन कसौटियों पर खरा उतरने का सफल प्रयास किया है। इस संग्रह को समझने के लिए पहले इसके शिल्प पर विचार करना जरुरी है। भावनाओं की विविध अभिव्यक्ति के लिए संग्रह को खंडो में विभक्त किया है। इस तरह मैं ,बिना नाम की नदियां ,सुख दुःख का संगीत ,कविता नहीं और एक देश और मरे हुए लोग - इन पांच नामों से संग्रह को एक मुकम्मल शक्ल दिया गया है।

इस तरह मैं में कवि ने जन्म और कर्म के दरम्यान आने वाले तमाम स्थानो , परिस्थितियों ,धरती ,पेड़ चिड़ियाँ और अपने गाँव सबको याद करते हुए मुख्य रूप से अपने जिन्दा होने की बात करते हैं केवल इतिहास में नाम दर्ज के लिए नहीं बल्कि एक संकल्प के लिए । 'आदमी' कविता की ये पंक्तियाँ देखने योग्य है -नायकों से भरे इस समय में / मैं एक मामूली सिपाही / लोग लड़ते की एक दिन जीत जायेंगे वे / दर्ज होंगे उनके इतिहास / मुझे लड़ना है एक संकल्प के लिए / अपने ही सामने / विश्वास और गर्व से खड़ा हो सकने के लिए / आदमी की तरह दिखने / कुछ और आदमी बनने के लिए। शहर में रह कर भी कवि के मन में उसका गाँव बसा है जो अभी भी सांसे ले रहा है। कवि के शब्दों में -मेरा कोई शहर नहीं मैं / मैं किसी शहर में नहीं / मेरे अंदर एक बूढा गाँव हांफता। धरती को बचाने की कवायद में पूरा वैज्ञानिक खेमा लगा हुआ है । कवि किसी वैज्ञानिक तरीके से इस कोशिश में शामिल न होकर शाश्वत रूप से इसमें शामिल होना चाहता है। । । । आओ मेरे दुःख में शामिल हो जाओ / फूल में गंध की तरह / खेत में पानी और खाद की तरह / मंजरियों में टिकोले की तरह / गर्भ में भ्रूण की तरह। यही वो मूलभूत चीजें है मानवता को बचा पाने में सक्षम हो सकता है। सार्वभौमिक दुःख के गर्भ में ही सार्वभौमिक सुख का बीज छिपा है जो जन जन के ह्रदय में व्याप्त होने की मांग करता है। विमलेश जी की कविताओं में मैं बार बार आता है मगर वह व्यक्तिवादी कवि नहीं हैं। व्यष्टि के इर्द गिर्द समष्टि की चिंताएं ही घूमती टहलती नजर आती हैं। इस तरह मैं कविता में उनकी यह चिंता अभिलाषा का रूप ले लेती है की -धरती के साथ घूमता / चिड़ियाँ के साथ उड़ता / उगता खूब हरी दूब के साथ / इस तरह मैं आदमी एक / इस कठिन समय का / जिन्दा रहता अपने से इतर बहुत सारी चीज़ों के बीच।

निज के इस प्रक्षालन और परिशोधन के बाद कवि उन बेनाम नदियों को याद करता है जिसके स्नेह और ममता के पाठ से कवि का निज तैयार हुआ है। स्त्री नदी के समतुल्य अपनी विशालता और निर्मलता के कारण है जो माँ ,बहन और पत्नी के रूप में आदमी को सवारती और निखारती है। माँ के नाम कुछ पंक्तियाँ -पूरी दुनियां में / कितने लोग है / जो समझते हैं तुम्हारी वह जबान / जो सबकुछ सहकर भी / रहती है उतनी ही मीठी। आखिर ये माँ ही हो सकती है या वो बहने जिनका अपना कुछ नहीं था / सिवाए लड़की जात के उलाहने के। जो एक एक कर चली गई थी दूसरे घाट / किसी दूसरे खूंटे से बंध गई थीं। किन्तु इसी समय के सामानांतर एक और समय है जो यह खूंटा तोड़ने को व्याकुल है। वे बेनाम नदियां जो मरुस्थल को चीर कर अपनी धार बनाने की जिद में हैं। 'हॉस्टल की लड़कियां' कविता में यह भाव साकार हो कर आया है जिसमें पारम्परिक सौंदर्य -प्रसाधन की बेड़ियों को तोड़ती अपने हिस्से की चमकीली धूप और खूबसूरत सधे मीठे सुर का संगीत पाना चाहती है।

विमलेश त्रिपाठी की कविताओं की ताप है उनकी सधी हुई भाषिक शैली जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की उधारी से गुरेज करते हैं। शब्दों को उनके परिवेश से ज्यों की त्यों उठा लेने से भावों की विश्वसनीयता पाठकों पर अपनी छाप छोड़ जाती है। इनकी इस खूबी को चिन्हित करते हुए नामवर सिंह जी ने कहा है की -'यह कवि भाषिक संस्कार के जरिये अच्छी कवितायेँ लिखने में सफल हुआ है'।

तीसरा भाग 'सुख दुःख का संगीत' में मध्यम स्वर लिए कई तरह के राग और वीतराग से पाठक रु -ब- रु हो सकेंगे। बीहड़ और दुर्गम रास्तों पर चलने के क्रम में व्यक्ति भले ही अपना सर्वस्व गवां दे किन्तु उसी विसर्जन से वह सर्जनात्मकता भी पैदा करता है जो कविता के रूप में बाहर आती है। विमलेश जुझारूपन के साथ सुख दुःख के आरोह अवरोह में जीवन की संगीतात्मकता की खोज करते हैं। दुःख में व्यक्ति अपने सबसे करीब होता है और अपने भीतर की अन्तः सलिला शक्तियों को खोज पाने में सक्षम भी। कवि के मुख से - दुःख ने ही बचाया हर बार मर जाने से / लाकर खड़ा किया / सामने तुम्हारे / की कह सकूँ छूट गया सबकुछ फिर फिर। और फिर यह मान लेना की दुःख ने ही मुझे / अपने कवि के साथ / साबुत रहने दिया। जीवन के खुरदरापन से लगातार घर्षित होने के क्रम में कभी कभी उस पैनेपन की प्राप्ति होती है जो अास्था का निर्माण करती है। घर नामक कविता में वही आस्था है -घर एक जंगल है ,हम भयभीत रहते हुए भी यहीं रहते हैं / घर दुःख है उससे भागते हैं हम / घर सुख है बार बार लौटते हैं हम।

संग्रह के चौथे भाग 'कविता नहीं' में कविता-कर्म को लेकर विमलेश जी की सजगता देखते ही बनती है। कागज काला करना या कलम घिसना ही कविता नहीं है। काव्य के प्रयोजन को विस्तार की जरुरत है जो धन ,यश प्राप्ति से आगे बढ़कर आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ संरक्षित रख सकने का उपागम कर सके । उनका मानना है की महज लिखनी नहीं होती है कवितायेँ / शब्दों के महीन लीक पर तय करनी होती है एक पूरी उम्र / ज़मीन में धंस कर कुछ नम कतरे लाने होते हैं / आसमान के वीराने से कुछ लम्हा गुनगुनाने की प्रार्थना करनी होती है / आने वाली नस्लों के लिए। विमलेश जी बड़ी सादगी से अपने सवालों में जवाब ढूंढ लेते हैं और जवाब में एक नया सवाल खड़ा कर देते हैं जब वे अपनी कविता 'नकार ' में कहते हैं की नहीं कविता नहीं / दुःख लिखूंगा / प्यार नहीं / विछोह लिखूंगा / दोस्त नही / मुद्दई लिखूंगा। इस नकार में भी चेतना एक आकार प्राप्त कर लेती है जब अंत में वे कहते हैं की लिखूंगा सरकार / और लिखकर / उसपर कालिख पोत दूंगा / फिर शांति नहीं / युद्द लिखूंगा / और कलम की नोक तोड़ दूंगा। यद्यपि युद्द लिखना कवि कर्म नहीं तथापि समय के बरक्स कवि को यह चुनौती भी स्वीकार करने से कोई परहेज नही।

पांचवे और आखिरी खंड 'एक देश और मरे हुए लोग 'को संग्रह का चरम बिंदु कहा जा सकता है जिसमें पांच लम्बी कवितायेँ हैंये कवितायेँ अपने समय से जिरह करती हुई कुछ मान्यताओं को तोड़ती हैं तो कुछ नवीन मान्यताओं का प्रतिस्थापन करती हैं। 'गालियां' ऐसी ही एक कविता है। कुछ न कर पाने की स्थिति में संस्कारों को पीछे छोड़ आत्मरक्षा कवच के रूप जब गालियां निकलती हैं तो निःसंदेह वह भी बहस का मुद्दा बन जाती हैं। कवि ने इसे हृदय का लावा ,मन की आग आवेश और पीड़ा कहा हैं। कवि ने यह भी स्वीकारा हैं की मेरी मस्तिष्क की नसे फटने से बची हैं कई बार / इन्ही गालियों की बदौलत / भारत जैसे देश में गालियां / कीमती औषधि की तरह हैं / है यही इस लिजलिजे समय का अमृत / तारन हार। कहने की आवश्यकता नहीं कि गालियों की उत्पत्ति के मूल में परिस्थितियों की विसंगतियां हैं जो व्यक्ति को विवेकहीन बना डालती हैं वही गाली शादी विवाह में मजाक के तौर पर प्रयुक्त होता है। लेकिन यहाँ कवि की चिंता का विषय यह है कि सहनशीलता का वह सेतु टूट न जाये जिसके ऊपर से शब्द विकृत आकार लेने लगे क्योंकि ऐसा एक दौर अकविता के रूप में हिंदी सहित्य में पहले भी देखा जा चुका है।

विमलेश जी कि लम्बी कविताओं में भावों की जटिलताएं उनके प्रिय कवि मुक्तिबोध की याद दिला देती हैं। लेकिन इनके शिल्प -कौशल की सादगी के कारण इनकी कवितायेँ वो तनाव नहीं रच पाती जो पाठक की नसों में रक्त प्रवाह की रफ़्तार को तीव्रता प्रदान कर सके और इसलिए विमलेश जी की शैली विशुद्ध रूप से इनकी अपनी है। जो सीधे सीधे पाठकों से संवाद रखने में कायम हो पाती हैं। इनकी एक कविता है 'पागल आदमी की चिट्टी' जिसमें कई अनकही बातें हैं जो एक पागल आदमी ही कह सकने की हिम्मत रख सकता है या फिर जो सच कहने की हिम्मत रखता है उसे पागल करार दिया जाता है। उसमें अपने आस पास के माहौल में 'एडजस्ट 'करने की न तो जरुरत और न ही आदत। भोगे हुए यथार्थ को बिना लाग लपेट के कहने की शक्ति से सम्पृक्त होने के कारण ही वह समझौतापरस्त होने की शर्तों को नकार देता है। कविता की कुछ पंक्तियाँ यों हैं-समय की पीठ जलती हुई / रत का सर झुकता पूरब की खिड़की से / एक लाल पिला सूरज निकलता हुआ / एक और समय / जन्म लेता हुआ / पागल आदमी की चिट्टी में। इस कविता का अंत कुछेक शब्दों में पूरी कविता कह देता है -कविता का मतलब सन्नाटा / देश का मतलब चुप्पी / सरकार का मतलब महाजन / जनता का मतलब गाय कवि का मतलब साहित्य अकादमी / कलाकार का मतलब मसखरा और किसान का मतलब बेचारा। सचमुच इस चिट्टी में पाठक अपने समय के बहुत से पुलिंदों को खुलता हुआ पाएंगे जिससे अब तक वे अनजान हैं।

यह समय है 'बिन पानी सब सून'। आँखों के पानी से लेकर पीने के पानी तक हाहाकार की स्थिति है। कवि के तमाम मुद्दों में पानी का भी एक अहम मुद्दा है जैसे इस समय में भी यही देखा जा रहा है। पानी पर बहुत सी कवितायेँ लिखी जा चुकी हैं मगर आज भी यह प्रश्न बार बार हमारे समक्ष खड़ा हो जाता है और पहले से ज्यादा भयानक रूप में पानी के अस्तित्व पर ही मानव का अस्तित्व टिका है और उसी पानी का व्यवसायीकरण घोर निंदा का विषय है। पानी कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -पानी के बवेले में पता नही कितनी बार उतरा / सरकार का पानी / पानी बिकने लगा बोतलों में / रईस लोग अब नही पीते कुँए का पानी। कही पानी के लिए लोग नलकूपों के पास घंटों खड़े रहते हैं और कही स्विमिंग पूल में ऐय्याशों की सन्ततियां डूबती उतराती हैं। यह भी विडम्बना है की पानी से भरे इस देश में खोजा जा रहा पानी। इस पानी में कहीं औरतों के आंसू शामिल है तो कहीं दलितों के पसीने। कवि की इतनी इच्छा है की भीषण सूखे और भीषण जलप्लावन के बीच / खोज रहा हूँ एक जरुरी कतरा जो आदमी और कविता / दोनों के लिए जरुरी।

विमलेश जी आम आदमी के कवि है और आम आदमी आज एक पारिभाषिक शब्दावली का रूप ले चुका है। यह सच है की इस लोकतंत्र में शुरू से ही आम आदमी चले जाने के सिवा कुछ नही पा रहा सिवाए कुछ सवालों के -मेरी यह कही जाने वाली धरती / क्या मेरी ही है / अन्न जो उगाये मैंने / क्या मेरे ही हैं / यह देश जिसमें मेरे पूर्वज रहते आये वर्षों / क्या यह मेरा ही है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी संविधान यह जवाब नही दे पाया पर आम आदमी हर बार अपने कर्तव्य को निभाते चला जा रहा है। मगर अब आम आदमी तख्तापलट करने के लिए पूरी तरह तैयार हो चुका है। कवि चेतावनी भरे शब्दों में सत्ता में बैठी शक्ति को आगाह कर रहा है -सावधान हो राजधानियाँ राजमहल के वाशिंदों सावधान / मैं मेघ की तरह घिरकर / गिरना चाहता हूँ कठोर आतताई बज्र की तरह। विमलेश त्रिपाठी की सूक्ष्म संवेदना की ग्राह्य शक्ति समय की गति से उसके हश्र की कल्पना कर पाने में सक्षम हैं। लोकतंत्र नई सदी के लोगों की पहचान है उनका अस्तित्व है उनका हक़ है। एक देश और मरे हुए लोग इस संग्रह की आखिरी लम्बी कविता है जो मानव महासागर के इस देश में सत्ता के केंद्र में विराजित मृतप्राय लोगों की गाथा एक प्रतीक -कथा के माध्यम से कही गई है। इस कविता में स्पेस का भरपूर उपयोग कर उसे संगतपूर्ण निष्कर्ष तक पहुचाया है। कविता की पंक्ति है -एक आदमी पैदा होता है जिन्दा / और धीरे धीरे एक मुर्दे में तब्दील होता जाता है / वह जीत रहा चुनाव / हथिया रहा बड़े बड़े ओहदे / वह खुद को साबित करना चाहता है जिन्दा / कि उसके कंधे पर है एक देश का भार। लम्बी कविता के रूप में यह देश और दुखों के लम्बे आख्यान वाले लोकतंत्र की महागाथा सुनाने और उसमें पाठकों को रमाने में यह कविता अवश्य ही सफल हो पायेगी। एक देश / जहाँ मरे हुए लोगों के पास असंख्य मुखौटे / अपनी चमक से विस्मित करते / लुभाते / लैश गहरे आकर्षण से।

विमलेश जी वर्तमान कविताओं पर लगे कुछ प्रश्नचिन्हों को भी ख़ारिज करते हैं। एक तो यह कि लम्बी कविताओं का दौर ख़त्म होने लगा है दूसरा कि हिंदी कविता राजनैतिक मसलों से दूर दूर रहती है। मगर यहाँ ऐसा नही है। देखा जाये तो वर्त्तमान के सभी ज्वलंत प्रश्नो को केंद में रख कर ही इस संग्रह का ताना बाना तैयार हुआ है। 152 पृष्ठों के एक ही संग्रह में विविध भाव भंगिमाओं वाले तेवर ,भावावेश ,तीखे व्यंग्य की सतरंगी छटा पाठक एक साथ प्राप्त कर सकेंगे। यहाँ मैं के साथ हम ,देश के साथ जनता ,कवि के साथ कविता ,रिश्तों की अहमियत के साथ गाव ,घर ,लोक जीवन के रंग ,दोस्त महिम सम्मिलित रूप से हैं इसलिए कही भी कोई उबाऊपन की गुंजाईश नही है पुस्तक का आवरण नाम की सार्थकता लिए हुए है। उम्मीद है की यह संग्रह पाठकों की बुक -शेल्फ में ही नहीं बल्कि उनके मन में भी लम्बे समय तक अपनी जगह बना पायेगा।