एक बार फिर... / रिशी कटियार

Gadya Kosh से
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आज सुबह 3 बजे से जग रहे हैं वह,या शायद सोये ही नही.पता नही.पलकों से नींद ही गायब है.रात भर बार बार घडी देखते रहे,जैसे देख देख कर ही वक़्त की रफ़्तार बढ़ा देंगे..उलट पुलट के देखी,बैटरी भी चेक की.ठीक तो है,फिर इतने धीरे क्यों चल रही है घडी.आखिर मन मारकर चार बजे उठ ही तो बैठे....देखा तो पत्नी जो अब सिर्फ एक ‘माँ’ ही रह गयी थी पूरे घर में झाड़ू,बर्तन,साफ़-सफाई करने के बाद चूल्हे पे आलू उबालने के लिए चढ़ा रही थी.इन्हें देखते ही मुस्कुरायी.

“अभी क्यों उठ गये....अभी तो बहुत रात है...”

“फ़ोन किया?कहाँ पहुंची ट्रेन,कानपुर तो आ चुकी होगी?”

“हाँ,तीन बजे ही आ गयी थी,कानपुर से सुबह वाली ट्रेन भी मिल गयी है.”

‘ओह’.एक खीज सी आई खुद के सोते रहने पे.सात बजे गाड़ी आ जाएगी.हडबडा गए थोड़ा.जल्दी जल्दी चप्पल पहनी,पानी पिया और निकल गए अपने नियमानुसार खेत-खलिहान जाने,बाग़ देखने और दैनिक कार्य के लिए. अपनी 5 पेड़ो की बगिया देखी.सिर्फ 2 पेड़ों में ही आम आये हैं.उनको भी गिन चुके हैं,हर आम गिना हुआ,रोज गिना जाता.कितने?कहाँ?उनका बेटा आएगा,उसी के लिए बचा के रखने हैं, सभी से-बच्चों से,बड़ों से,चिड़ियों से.उन गिने चुने आमों के लिए ही सारी झुलसाती दोपहर वहीँ रहना,सुबह-शाम को एक-एक चक्कर.उसे बहुत पसंद है न ये आम.कैसा चहक उठता है वो इस पेड़ के कच्चे-पक्के,टपके,चिड़िया के अधखाए आम को भी देख कर.रात को पेड़ पे नही चढ़ा जाता.सोते पेड़ से मांफी माग कर, उसके पैर(पेड़ के पैर?) छू कर चढ़ ही तो गए वो.एक-दो डाल को हिलाया,कुछ पके,अधपके आम गिर गये.सधे कदमो से,डरते हुए नीचे उतरे.साँस फूल गई.हाँफ गये.,मगर आराम करने का समय कहाँ?अप्रैल की सुबह का धुंधलका,हलकी,गुनगुनी सी सर्दी लिए हुए चारों ओर अपनी चादर पसेरे सो रहा था.हालाँकि ग्रामीण जीवन की सुबह शहरी जीवन की अपेक्षा थोडा जल्दी होती है,पर फिर भी जीव जंतु,पशु-पक्षी अभी भी अलसाये से सो रहे थे.पूरब की बढती हुई हलकी रक्ताभ लालिमा सूर्यदेव के आगमन की तैयारी कर रही थी.

“माँ”लगी थी,अपने बेटे के पसंद के पकवान बनाने में.पेडे,बर्फी,गुलाब जामुन,लड्डू तो बना के रख चुकी थी वो पहले ही.खीर भी बन गयी.आज बेटे के पसंदीदा आलू के पराठे और फिर धनिया की चटनी में लगी हैं सुबह से.

जल्दी घर आ,गाय का सानी-चारा कर,मोटरसाइकिल पोंछ,हाथ मुंह धो,कपडे पहन स्टेशन जाने के लिए तैयार हो कर खड़े हो गए .

“अभी तो 6 बजे हैं,अभी तैयार खड़े हो गये....”

“पहले ही पहुँच जाये तो सही है.फाटक बंद हो जायेगा क्रासिंग का,तो मुश्किल हो जाएगी.”

“10 मिनट का ही तो रास्ता है स्टेशन का.”

वह इस कमरे से उस कमरे में ,बरामदे में टहलते रहे.थोड़ी देर बाद खुद ही बोर हो गए तो बैठ गए कुकर से गरम गरम आलू निकल के छीलने के लिए.हाथ भी जला बैठे.पर आज फुर्सत कहाँ, बरनोल ढूंढने की.बार बार घडी की ओर ताकने के बाद फिर उठ कर बाहर गए...टहले..आसपास एक दो को बिन पूछे ही बताया “आज आ रहा है न बेटा,सुबह वाली ट्रेन से.”फिर दो बार पोंछी गयी मोटरसाइकिल की हाथ से पोंछ कर धूल हटाई...

“मैं जा रहा हूँ....ट्रेन आने वाली होगी.....”

परीक्षा के रिजल्ट निकलने जैसी हालत हो जाती है,दोनों की. पहले किसने देखा.एक होड़ सी मच जाती है,जिसमे कोई पीछे नही रहना चाहता.आज पूरे 8 महीने बाद आ रहा है उनका बेटा.....उनका लाडला,प्यारा,काबिल बेटा.

स्टेशन पे जाके एक कोने में मोटरसाइकिल लगायी,और खड़े हो गये,बार बार सिग्नल,पटरी,घडी पे नज़रें दौड़ा रहे हैं और साथ में स्टेशन मास्टर से भी पूछते जा रहे हैं....टाइम हो गया ,हाँ अब इसने झंडी उठाई,मतलब आने वाली है.

ट्रेन आते ही एक जनसैलाब सा उतर आया.सैकड़ों चेहरे,बच्चे,बूढ़े,महिलाएं,लड़कियां.अनगिनत चेहरे,कुछ उदास,कुछ खुश,कुछ शैतानी भरे,कुछ खीज भरे,कुछ झुर्रियां भरे,अनुभव भरे.कुछ बस भावहीन.पर इनकी हैरान,परेशान,उत्सुक नज़रें बस एक ही चेहरे को तलाशती हुई....पिछली बार जब छोड़ने आये थे,तब भी वो ट्रेन के आँखों से ओझल हो जाने तक खड़े रहे थे,अपने को खुद से जुदा होते देखते.शायद बेटा एक बार दरवाज़े पे आके हाथ हिलाएगा,पर शायद भीड़ के कारण ये मुमकिन नही हो पाया था.कुछ देर ऐसे ही लुटे-पिटे से खड़े रहे. फिर उदास से कुछ सोचते हुए लौट गए थे वो.......

तभी उन्हें दिखा, ‘उनका बेटा’उनका प्यारा बेटा’,चिंहुक उठे,खिल गये,चहक उठे.

वैसा ही संजीदा-शांत,शायद थोडा दुबला हो गया था.

आते ही,थोडा मुस्कुराया,फिर नमस्ते की,और पैरों पे झुक गया था उनके...छाती गज भर की हो गयी.आसपास के लोगों को देखा,मानो कह रहे हो...’देखा...ऐसे हैं मेरे बेटे के संस्कार..इतना बड़ा मैनेजर हो गया है मुंबई में...फिर भी आते ही पैर छूता है...’अपनी ही नज़रों में ऊँचे उठ गए वह ,बहुत ऊँचे. मन हुआ कि कि गले से लिपट के प्यार करने को,अपना सारा प्यार उड़ेल देने को.’नही,बेटे को न अच्छा लगा तो,’सो रह गए..

“......कैसे हो पापा.”

“आधे शर्माए,आधे पुलकित,गदगद “मैं,एक दम फिट.तुम थोड़े दुबले हो गए...खाना सही नही है वहाँ का”

नही,ठीक तो हूँ....

‘”कुछ खाओगे,बताओ.कुछ ले लेते हैं यहाँ से.समोसे,जलेबी कुछ भी.”

सुन के हँसा वो ,”अरे,नही पापा,अब तो बस घर पे खाऊंगा मम्मी के हाथ का बना हुआ.”उन्हें खिसियाहट हुई,उंह अब बच्चा थोड़े रह गया है वह.

“भैया आ गए,भैया आ गये “

“चाची,चाची !!भैया आ गए,मैंने देखा,मोटरसाइकिल पे.चाचा के साथ.दो बड़े बड़े बैग”छोटे छोटे कई सारे बच्चे ‘माँ’ को खुशखबरी सुना रहे थे.

“पहले मैंने देखा था,मोड़ पे,तुमने बाद में देखा,जब हमने बताया तब.”रोमांचित,मगन,’माँ’ बच्चों की इस लड़ाई को छोड़, दौड़ बाहर आई,कढ़ाई धोने से हुए काले हाथ साड़ी में ही पोंछते हुए.

“....कैसी हो मम्मी”

रोमांचित,गदगद,विकल,रुआंसी,खुश...कितना कुछ कहाँ चाहती थी वो,इतने दिनों बाद,इस चेहरे को फ़ोन पे शब्दों में टटोलती,सहलाती,पुचकारती,चुमकारती.पर आज जैसे शब्दों ने साथ ही छोड़ दिया,हर्षातिरेक से कंठ अवरुद्ध हो गया.गले से लगाया.महीनो से जमा प्यार आँखों से बह निकला.

बैग रख दिए गए..वो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी,क्या दे सबसे पहले खाने को.सब ले आई थोडा थोडा प्लेट में सजा के.उसने नही नही करते हुए,बहुत थोडा सा खाया.वो देखते रहे,माँ बेटे का मिलन पितृत्व को थोड़ी ईर्ष्या सी हुई मातृत्व से.कितना आसान है, एक माँ के लिए प्यार जताना.खिला देना.रूठना,मनाना.रो लेना. खाली हो जाना.और वह.प्यार जताना आज तक नही सीख पाए थे.अपने बेटे के लिए सबसे लड़ जाना.कभी न डांटना,उसकी हर इच्छा पूरी करना, अपनी आँखों से दूर,किसी रिश्ते में भी जाने से मना करना.यही सब सब था उनके पास.और क्या?

“लो,ये खा के देखो,अपनी बगिया के आम,पकने लगे हैं अब”,गर्व से,एक मैडल लाके,माँ बाप से शाबाशी के लिए उत्सुक बालक की तरह, अपने हिस्से के प्यार के लिए उन्होंने दावा पेश किया.

“wow!!” बहुत खुश होने की पूरी ईमानदार कोशिश के बाद भी शायद वो उतना नही चहक पाया.एक आम ले के खाया.अब क्या किया जाये.क्या बात?थैंक यू भी तो नही बोला जाता मम्मी पापा से.फॉर्मल थोड़े ही है कुछ.पर फिर क्या?सारे टॉपिक एक साथ खत्म हो गये. पूछने बताने को कुछ रहा ही नही.क्या बोला जाये,यही उधेड़बुन सबके के मन में चल रही थी.

उसे याद आया,ओह बैग खोले जाएँ.बैग खुले.मम्मी के लिए साड़ी.पापा के लिए शर्ट,घड़ी,आस-पास के चाचा-ताई के बच्चों के लिए खिलौने.प्यार बाज़ार के रूप पे बिखर गया.पर पापा अभी भी उसकी छोड़ी हुई कॉलेज वाली टीशर्ट पहने बैठे थे.उसी की पुरानी पैंट के साथ.उसके बचपन के कपडे सहेज के रखे हुए थे.जब से बेटे के कपडे उनको आने लगे,उनको वही पहनना अच्छा लगने लगा. विकास प्रकिया का एक चक्र पूरा हो चुका था.

अब. अब क्या?कितना कुछ पूछना था उन्हें,कैसे रहता है वहाँ,खाने की क्या व्यवस्था है,ऑफिस में क्या काम है,ज्यादा मेहनत तो नही पड़ती आदि आदि.पर अभी वो सारे अंतहीन सवाल जाने कहाँ चले गए?

वो भी समझ रहा था,ये सब.और कुछ विश्वसनीय सवालों की जुगाड़ कर रहा था ,”और पापा,कैसे हैं सब लोग”

पहले फ़ोन पे इसी सवाल का जवाब देने में पूरे मोहल्ले की खैरियत एक बार में पहुंचा के,बेटे की उन सबकी चिंता करने का ये सन्देश वो कई कई बार सबको बता बता के भी नही अघाते थे.पर आज जैसे कुछ है ही नही बताने को.

”सब बढ़िया हैं.”

अब.अब क्या? ”खाना लगाया जाये,बेटा.भूख लगी होगी?”

हाँ हाँ,हाथ पैर धो लूं.”हाथ पैर धो के आने तक,वह दो प्लेट में चटनी,अचार,पराठे लगा चुके थे.वहीँ बैठ गया वो रसोई में ही,मम्मी-पापा से बात करने के लिए.पर क्या बात.?इधर उधर के प्रश्न,रिश्ते-नातों के बारे में.खाली समय को बातों से भरने की कोशिश करते रहे.

10 साल की उम्र का था,उनका ये लाडला इकलौता बेटा,जब नवोदय में होने के बाद वही बोर्डिंग में रहने चल गया था.मन किया रोक लें,यहीं रहे मेरी आँखों के सामने.पर प्यार वाले पिता पर कर्तव्य वाला पिता भारी पड़ा.वो गुनाहगार नही बनना चाहते थे,अपने पिता की तरह, अपने बेटे के भविष्य को अनिश्चित कर. तब से किश्तों में ही मिल रहे है वो उससे ,साल में कुछ दिन बस.स्कूल के दिनों में त्योहारों,दो महीने की छुट्टी में,कॉलेज में होली-दिवाली सेमेस्टर-ब्रेक पे.और फिर जॉब में त्यौहार भी खत्म हो गये,कभी कभी साल में 1-2 बार,हफ्ते भर के लिए.इन्ही एक –दो हफ़्तों के बीच में ही साल बीतते जा रहे हैं.बड़ी कंपनी में काम करने का,बेहतर भविष्य का गर्व,पितासुलभ स्नेह पर भारी पड़ जाता.पर कभी कभी वे उद्वेलित हो उड़ते थे,बेकल,बेचैन,और गर्व,पद,भविष्य सब सारहीन नज़र आने लगता, बाकी रह जाता तो सिर्फ गाढ़ा,शुद्ध,प्रगल्भ,पितृत्व,बेटे का प्यार.लालसा.

दोपहर में सोने के बाद,कुछ देर वो लैपटॉप में तसवीरें दिखाता रहा,घर की,कंपनी की,दोस्तों की,वहाँ के फ्लैट की.सबके बारे में बताता भी रहा,वो अनजानी उत्सुकता से सुनते रहे,पूछते रहे.खुश होते रहे.

वो 3 दिन घर पे रहा.

क्रिकेट खेलता रहा,एक दिन रिश्तेदारी में सबसे मिलने भी गया.लैपटॉप में तस्वीरे दिखाता रहा,उनकी पसंद की पुरानी फिल्में दिखाने की फरमाइश करता रहा,खेत में अगली फसल,पिछली फसल की बात करता रहा.फ़ोन पे लगा रहा.लैपटॉप पे काम करता रहा.आसपास के बच्चों के साथ खेलता रहा.माँ-बाप के साथ भविष्य के सपने संजोता रहा.उनसे उसकी शादी के लिए चिंता न करने के लिए कहता रहा.

माँ पूरी-पुए तलती रही,कचौड़ी,पकौड़ी बनाती रही.अचार,पेडे,बर्फी,गुलाबजामुन खिलने की कोशिश करती रही.बेटे के दुबले होने की चिंता करती रही.शादी के लिए लड़कियां गिनाती रही.अपने पास बैठने की बातें करने की जिद करती रही.अतीत में टहलती रही.

और वह ,वह बस उसके आसपास टहलते रहे,आम खिलाने की कोशिश करते रहे.दूर से चुपचाप उसे देखते रहे,माँ के पास बैठे,बच्चों के साथ बैठे,खेलते,मूवी देखते,तस्वीरें दिखाते,जागते ही नही सोते भी....बीच बीच में झांक के देख आते.निहाल होते रहे.उसका बचपन ढूंढते रहे.

आज उसे वापस जाना है.वह तैयार हो चुके हैं.बेटा आस पास के चाचा-चाची,दादा-दादी सभी के पैर छू रहा है,वह भावनाओं को दबाये गाडी छूट जाने के डर से जल्दी चलने की जिद कर रहे हैं.पर आज वो तेजी नही.हाथ-पाँव शिथिल हो रहे हैं.मन डूब रहा है.अन्दर से बह जाने,रिसने को,पर बाहर से कड़े,ठोस.’माँ’ की ममता और जल्दी करने के लिए ‘पिता’ की शुष्क हृद्नाहीनता का उलाहना सुन रहे हैं.पर कर्तव्य भी तो कोई चीज है....जा रहे है एक बार फिर विदा करने इस इंतज़ार में,कि फिर लौटेगा उनका बेटा.......अगली बार....