एक भारतीय / ओमप्रकाश क्षत्रिय

Gadya Kosh से
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वह रेलवे स्टेशन से लौट कर माथा पकड़ कर बैठ गया, "अब मैं वहाँ नहीं जाऊंगा," कह कर उस ने उल्टी कर दी।

"क्या हुआ?" मोहन ने कहा, "बापू आए."

"नहीं," केशव बड़ी मुश्किल से कह पाया, "रेलगाड़ी पूरी खून से लाललाज रंगी हुई है। कहते हैं कि हमारा गांव पाकिस्तान में चला गया। वहाँ के 90 प्रतिशत व्यक्तियों ने 10 प्रतिशत हिन्दुओं की जान बचाने के लिए अपनी जान दे दी। मगर, गांव वालों को कुछ नहीं होने दिया।"

"फिर पिताजी क्यों नहीं आ पाए?" मोहन ने पूछा।

"वे अपना पैतृक मकान, खेत और अपार संपत्ति कैसे छोड़ सकते थे।"

"अब हम वहाँ कैसे जाएंगे?" मोहन ने कहा और स्वयं ही बड़बड़ाने लगा, "वह तो ठीक रहा कि हम आगरादिल्ली घुमने आए थे और देश आजाद हो गया। मगर, यह त्रासदी, मारकाट और खूनी मंजर देखा नहीं जाता है।" कह कर उस ने सिर पकड़ लिया।

तभी कैंप से बाहर किसी ने पुकार कर कहा, "अपना नाम शराणार्थी शिविर में लिखवा लीजिए." कहते हुए वह एक रजिस्टर ले कर उन के पास आ गया।

नाम लिखने के बाद उस ने पूछा, "भाई अब अपना पता बता दीजिए. कहाँ का लिखूं? हिन्दुस्तान का या पाकिस्तान का?"

यह सुन कर केशव के मुंह से चींख निकल गई, "भाई! मैं भारतीय था और हूँ। बंटवारा होते ही मैं एक दिन में पाकिस्तानी बन गया। क्या यह मेरी गलती है कि मुझे अपनी मातृभूमि में ही शरणार्थी बन कर रहना पड़ेगा," कहते हुए वह शिविर से निकल कर अपने लखनऊ वाले चाचा के घर की ओर चल दिया। यह सोचते हुए कि यदि पिताजी की किस्मत में जिंदा रहना लिखा होगा तो वे कभी तो मिल पाएंगे।