एक मिठाई की ऐतहासिक खोज / दराबा / जयप्रकाश चौकसे

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एक मिठाई की ऐतहासिक खोज
जयप्रकाश चौकसे

नवरात्रे के कठोर व्रत के पश्चात् दशहरे के शुभअवसर पर महेश को धार्मिक रीति से गोद लिये जाने का अनुष्ठान रामकन्या ने बहुत धूमधाम से पूरा किया। उस समारोह में केवल आत्माराम की बहन सावित्री दुःखी थी। सावित्री को उम्मीद थी कि उसके आधा दर्जन बच्चों में से कोई एक गोद लिया जाएगा। रामकन्या की अपनी ननद के साथ कभी नहीं पटी। मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवारों में सास से ज्यादा घातक और जहरीला प्राणी ननद मानी जाती रही है। यह बात कुछ समझ में नहीं आती कि भाई के हाथ पर रक्षा के लिए राखी बाँधने वाली बहन अपनी भाभी के प्रति इतनी निर्मम क्यों होती है ? दुष्टता की इस धारा का प्रारंभ कहाँ से हुआ, यह बताना कठिन है। ननदों की इस निर्ममता के पीछे शायद यह हिन्दू रिवाज रहा है कि पिता की संपत्ति में पुत्री का कोई हक ' नहीं होता, परन्तु स्वतंत्र भारत में समान अधिकार की व्यवस्था के बाद भी ननद-भौजाई के रिश्तों में कोई आशातीत सुधार नहीं हुआ है। शायद डोली बिदा होने के बाद भी बहन के मन में यह स्थायी भाव रहता है कि मायका उसकी अपनी जायदाद और रियासत है तथा आगन्तुक भाभी एक तरह की आतंकवादी है, जिसने उसकी रियासत को हड़प लिया है। ननदें इस तथ्य को अनदेखा करती हैं कि भाभियों से मधुर रिश्ता बनाकर ही भाइयों पर अपने भावनात्मक अधिकार को कायम रखा जा सकता है।

जब बहादुर से बहादुर आदमी अपने घर के अखाड़े में बीबियों से पटखनी खा जाता है तब बीबी नामक महान योद्धा से टकराने की बेवकूफी ननद क्यों करती है ? दरअसल ननदें अपनी माँ के आतंक का एक हिस्सा होती हैं और सास-बहू के चिरंतन वैमनस्य का एक स्वाभाविक भाग होती हैं। सास-बहू और ननद के युद्ध में छल कपट के ऐसे अस्त्रों का प्रयोग किया जाता है कि उनके पूरे रहस्य आर्मी वालों को मालूम पड़ जाएँ तो उन्हें युद्ध लड़ने में आसानी हो जाए। सास, बहू और ननद के द्वंद्व की अनंतकथा को इस छोटी-सी रचना का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता। इसीलिए इतना कहना पर्याप्त है कि आत्माराम की बहन सावित्री को विषवमन के बाद भी कुछ प्राप्त नहीं हुआ। सावित्री के बच्चे भी अच्छे थे, परन्तु रामकन्या की गोद में महेश जैसा फिट हुआ, वैसा संयोग तो भाग्यवश ही मिलता है।

रामकन्या रिश्ते के अखाड़े की माहिर खिलाड़ी थी और वह इस आधारभूत सिद्धांत को जानती थी कि कोई भी लड़ाई निर्णायक और अंतिम नहीं होती। चोट पहुँचाने के साथ ही मरहम लगाते रहना इस गृहयुद्ध की रणनीति का आवश्यक हिस्सा है। गोद लेने की रीति के पश्चात् उसने बिदाई के समय सावित्री को बनारसी साड़ी, उसके पति के लिए सूट का कपड़ा, बच्चों के लिए खिलौने दिए और साथ में ननद को सौ रुपए भी हाथ में धर दिए। सावित्री को इतनी शानदार बिदाई की आशा नहीं थी। भाभी की इस दरियादिली ने सावित्री को अचंभित कर दिया। बिदाई के क्षण ननद गले लगकर ऐसी रोई मानो पहली बार बिदा हो रही हो। सारे रिश्तेदारों ने आत्माराम को बधाई दी। इस पूरे प्रकरण में महेश अपने शानदार कपड़ों के कारण अत्यंत प्रसन्न था और लोग उसे इतना प्यार कर रहे थे कि कई बातें उसकी नन्ही समझ के बाहर थीं। समारोह के पश्चात् यशोदा ने उसके कपड़े बदलने का प्रयास किया तो वह दौड़कर नई माँ की गोद में बैठ गया। बच्चों को आमतौर पर बहुत भोला और निष्कपट माना जाता है, परन्तु सच्चाई यह है कि बच्चे परिवार के सभी सदस्यों की कमजोरी और ताकत को बखूबी समझते हैं और अपने मन की बात मनवाने के लिए वे अपने इस ज्ञान से फायदा उठाते हैं। नन्हा महेश यह जान गया था कि रामकन्या उसे प्यार करती है और इस प्यार को कवच तथा शस्त्र के रूप में प्रयोग करने की कला भी उसने विकसित कर ली थी। वह अपने आँसुओं और मुस्कान की कीमत से अच्छी तरह परिचित था।

दरअसल बच्चों में जो मासूमियत का भाव होता है वह बड़ों की अपनी कल्पना है। बच्चे बहुत निर्मम भी हो सकते हैं। महेश से भी कम उम्र के बच्चे अपने स्वार्थ को समझते हैं और अपनी सुरक्षा और सहूलियत के लिए आँसू और मुस्कान का प्रयोग करना जानते हैं। अगर बचपन सचमुच में इतना अबोध और पवित्र होता तो बड़े होने पर बुरे लोगों का इतना अधिक प्रतिशत न होता। दरअसल जीवन की फिल्म बचपन की पटकथा पर आधारित होती है। महेश को कृष्ण की तरह दो माताओं का प्यार उपलब्ध था। महेश के कृष्ण बनने की कोई संभावना नहीं थी। गोद लिये जाने के कारण बचपन में उसे कृष्ण की तरह दूध, मक्खन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। भला हलवाई के लिए दूध-मक्खन की क्या कमी हो सकती है? गोद लिये जाने के समारोह के पश्चात् उसे स्कूल में दाखिल कराया गया, परन्तु महेश का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। उसे तो अपने मौसाजी के मिठाई के कारखाने में मिठाई बनते देखना अच्छा लगता था। स्कूल में काम नहीं करने के कारण उसे प्रायः मार खानी पड़ती थी। घर आकर वह हर चोट के बदले अपनी मनमानी कराने में सफल हो जाता था। रामकन्या ने उसकी शिकायत के आधार पर कई बार उसके स्कूल बदले, क्योंकि वो एक ऐसी माता थी जिसे अपने बच्चों में कोई खोट नज़र नहीं आता था। घर के सभी लोगों ने उस समझाया कि ममता में अंधी होकर वह अपने बच्चे की पढ़ाई और जीवन के साथ खिलवाड़ न करे। सारी समझाइश के बावजूद रामकन्या के रवैये में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ। वो घर-गृहस्थी से समय निकालकर किसी न किसी बहाने स्कूल पहुँच जाया करती थी। दरअसल उसने धीरे-धीरे गृहस्थी का सारा बोझ अपनी बहन यशोदा के कंधों पर डाल दिया।

दोपहर में आत्माराम भोजन करने घर आते थे और उनके भोजन की व्यवस्था भी यशोदा ही करने लगी। इस बात से वे मन ही मन खिन्न थे, परन्तु एक दिन उन्होंने जी भरकर अपनी साली को देखा और उन्हें वह अपनी घरवाली से ज्यादा सुंदर नजर आने लगी। भारतीय समाज में युवा विधवा पर जो भी निगाह पड़ती है वह काम भावना से ग्रसित होती है। मनुष्य का मन सूअर की तरह होता है, और जिस खुड्डी का दरवाजा उसे थोड़ा-सा खुला दिखाई देता है, वह उसी तरफ लपकने लगता है। बड़े शहर के पाठकों को यह बात समझ नहीं आ सकती क्योंकि उन्हें अंडरग्राउंड ड्रेनेज की जानकारी है। छोटे शहरों और कस्बों में टायलेट के निचले हिस्से पर टीन की चादर पड़ी होती है जिससे प्रवेश कर सूअर अपनी क्षुधा शांत करते हैं। ये सूअर सफाई व्यवस्था के अवैतनिक और अघोषित सदस्य होते हैं। आत्माराम भी उन्हीं पाखंडी पुरुषों की तरह थे जिन्हें नारी की उपलब्धता में ही उसका सौंदर्य नज़र आता था अर्थात् वे सब महिलाएँ सुंदर हैं जो सहवास के लिए उपलब्ध हैं या उनकी उपलब्धता की संभावना है। इसी मनोवृत्ति के कारण भारतीय समाज के निचले वर्ग की महिलाओं का कौमार्य और सतीत्व सुरक्षित नहीं रहा। जाति पांति के कठोर बंधनों के बावजूद भी सामाजिक प्रवृत्ति कुछ ऐसी रही कि जिन औरतों के हाथ का छुआ भोजन वंचित माना जाता रहा है उन औरतों की देह से ब्राह्मणों और ठाकुरों को कभी परहेज नहीं रहा। जीवन में पहली बार आत्माराम के मन में अपनी ही जाति की स्त्री के लिए पाप के विचार का जन्म हुआ। उम्र के इस दौर तक आत्माराम पत्नीव्रत पति रहे थे। यह बात अलग है कि वे गार्हे-बगाहे अपने घर की नौकरानियों से कभी-कभार छेड़खानी किया करते थे। सारी उम्र अत्यंत रूपवती रामकन्या ने उनके मन पर एकाधिकार जमा रखा था और वे काफी हद तक उसके दबाव में भी रहते थे, परन्तु इस बार तो अनजाने ही रामकन्या अपनी छोटी विधवा बहन को घर ले आई और इस छोटी-सी घटना ने आत्माराम के भीतर छुपे शैतान को जगा दिया। अब वो मौका निकालकर बार-बार घर आने लगे, परन्तु उनकी ये हरकत छुपी रही क्योंकि वात्सल्य में अंधी रामकन्या अपने बच्चे के स्कूल के चक्कर लगाती रही।

यशोदा ने आत्माराम के मन में आए विचारों को पढ़ लिया, क्योंकि हर स्त्री निगाहों के संदेश बखूबी समझती है और स्त्री की मौन सहमति के कारण ही इस तरह की बात को बढ़ावा भी मिलता है। यशोदा ने कुछ दिन तक तो इसे अपनी प्रशंसा समझा और मन ही मन वह मुदित भी रही, परन्तु बचपन से उसने यह महसूस किया था कि उसे अपनी बड़ी बहन के खेले हुए खिलौने, पहने हुए कपड़े मिलते रहे और अब बड़ी बहन के पति की आँख भी उस पर है। उसे बचपन से ही पहने हुए कपड़े और टूटे हुए खिलौने सख्त नापसंद थे और इन्हीं सब चीजों ने उसके मन में हीन भावना भी भर दी थी। एक क्षण के लिए उसके मन में बिजली की तरह यह विचार कौंधा कि आत्माराम बड़ी बहन द्वारा खेला हुआ खिलौना है, तो वह काँप उठी और उसने निश्चय किया कि वह आत्माराम को किसी प्रकार का मौन बढ़ावा नहीं देगी। फिर उसे यह लगा कि अगर इस परिवार में उसकी वजह से किसी प्रकार की महाभारत होती है तो उसके बेटे का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। अपने बेटे के भविष्य के लिए वह कुछ भी कर सकती थी।

एक दिन दोपहर जब आत्माराम ने अपने इस प्यार को प्रकट करने के लिए कोई बहाना खोजने का प्रयास किया तब यशोदा ने मौके का फायदा उठाकर अपने जीजा से बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि वह अपनी बहन के प्रति किसी प्रकार का अन्याय नहीं होने देगी। इसके साथ ही उसने वार्तालाप में आत्माराम के विशाल व्यक्तित्व और उससे भी बड़े उनके हृदय के लिए उनकी बहुत तारीफ की और सारा प्रकरण इस चतुराई से समाप्त किया कि आत्माराम के अहम को किसी प्रकार की चोट नहीं पहुँची और उनके मन के भीतर फनफनाता हुआ लम्पटता का साँप भी मर गया। उसने पापमय विचार के लिए आत्माराम को कतई धिक्कारा नहीं और यह भी स्पष्ट कर दिया कि उनकी पत्नी को वात्सल्य में अंधे होकर अपने पत्नी-धर्म को नहीं भूलना चाहिए और उसने आश्वस्त किया कि शीघ्र ही वह अपनी बड़ी बहन को भी समझा देगी। आत्माराम ने अपनी गाय जैसी साली को इस नए रूप में देखा और उसके अनदेखे सींगों की चुभन भी अपनी पसलियों में महसूस की। इसके साथ ही उस रूपवती विधवा के मुँह से अपने विराट व्यक्तित्व की प्रशंसा सुनकर वे खुश भी हो गए। मजे की बात ये है कि सारे प्रकरण में उनकी लम्पटता के धधकते हुए कोयले बुझ भी गए और कुंठा का कोई धुआँ भी नहीं निकला। यह अद्भुत अग्निशमन था। उन्हें ऐसा अहसास हुआ कि मन ही मन यशोदा उनसे प्यार तो करती है, परन्तु सामाजिक परिस्थितियों के कारण वह इसे स्वीकार नहीं कर सकती। पुरुष इतना मूर्ख होता है कि इस तरह की छोटी बातें भी उसके मन को बहला सकती हैं।

महेश के बचपन में गोद लिये जाने के बाद सिर्फ एक ही घटना ऐसी महत्वपूर्ण है जिसका बयान करना इसीलिए जरूरी है कि इस घटना ने न केवल महेश को स्कूल की सजा से बचाया, वरन पूरे बुरहानपुर शहर के खानपान में एक क्रांतिकारी परिवर्तन किया जिसका प्रभाव आसपास के कई गाँवों और कस्बों पर भी पड़ा। बल्कि सच तो यह है कि कई वर्ष बाद बुरहानपुर को सर्वाधिक खाद निर्माण के अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार भी इसी घटना के कारण मिले। हुआ यूँ कि आत्माराम के पास अपने दत्तक पुत्र की शरारतों की रिपोर्ट आती रहती थी। मसलन स्कूल में बच्चे गिल्ली-डंडा खेल रहे थे और महेश को शामिल नहीं किया गया था क्योंकि वह और उसका मित्र अख्तर खेल में बेईमानी करते थे। महेश ने खेल बिगाड़ने के लिए अग्गा में पेशाब कर दिया। अग्गा धरती पर बनाए गए उस छेद को कहते हैं जिसमें गिल्ली रखकर डंडे से उछाली जाती है। महेश कबड्डी के खेल में दुबारा साँस खींचकर बेईमानी करता था। अख्तर कसाई खानदान का लड़का था और शरारतें इजाद करने में माहिर था। अख्तर अपनी हर योजना में महेश को आगे कर देता था। नतीजा यह होता था कि महेश पकड़ा जाता और पिटता।

उसकी कक्षा में एक सुंदर लड़की पढ़ती थी। उसे जुनून की हद तक साफ-सफाई पसंद थी। अख्तर और महेश घर से साफ-सुथरे कपड़े पहनकर निकलते थे परंतु स्कूल तक आते-आते कपड़े गंदे हो जाते थे। लड़की इन दोनों गंदे लड़कों से बहुत चिढ़ती थी। अख्तर ने महेश को समझाया कि इस मगरूर लड़की की चोटी काट दें तो वह बकरी बन जाएगी। महेश योजना सुनकर उत्तेजित हो गया और एक दिन कैंची से चोटी काट दी। लड़की ने ऐसा बावेला मचाया मानो उसकी गर्दन कट गई हो। महेश को स्कूल में घंटे तक मुर्गा बना रहना पड़ा।

बात अगर यहीं खत्म हो जाती तो कोई विशेष हानि नहीं हुई होती, परन्तु हेडमास्टर साहब आत्माराम से मिलने दुकान पर जा पहुँचे और उन्होंने बड़े दर्दनाक अंदाज़ में महेश की ज्यादतियों का विवरण मिर्च-मसाला लगाकर प्रस्तुत किया। इत्तफाक से उस दिन दुकान पर आत्माराम के चंद रिश्तेदार भी मौजूद थे, जिन्होंने उनकी इतनी भर्त्सना की कि जोश में आकर आत्माराम ने महेश की जमकर पिटाई कर दी और एक कोठरी में बंद कर दिया। रामकन्या ने अपने लाड़ले को बचाने की बहुत कोशिश की, परन्तु आत्माराम टस से मस नहीं हुए। उस छोटे से बंद अँधेरे कमरे में बहुत देर तक महेश रोता रहा, फिर उसे अपनी हालत पर बहुत क्रोध आया। महेश ने क्रोध में आकर कमरे का सामान इधर-उधर फेंकना शुरू किया।

महेश ने देखा कि बड़ी परात में बहुत-सा रवा रखा है और पास ही घी का कनस्तर रखा है। उसके कनस्तर का सारा घी परात में डाल दिया। कोठरी में एक शक्कर की बोरी रखी थी, उसमें से शक्कर निकालकर परात में डाल दी और अपने पैरों से परात में पड़ी हुई सामग्री को जोर-जोर से रौंदना शुरू कर दिया। दीवार में ठुकी दो खूटियों पर उसने अपने हाथ रख दिए और पैरों की गति बढ़ा दी। वह सारा रवा, मैदा, घी और शक्कर बिगाड़ देना चाहता था, इसलिए पैरों से उसे रौंदता रहा। क्रोध की यह अजीबोगरीब प्रक्रिया काफी लंबे समय तक चलती रही। कई घंटे बाद रामकन्या आत्माराम के क्रोध को शांत करने में सफल रही और समझा-बुझाकर महेश को अपने साथ ऊपर ले गई। महेश के पैरों को देखकर वह चौंक गई। घी और रवे में लथपथ और अजीब से लगने लगे। महेश को नहाने का आदेश देकर वह उसके लिए गुंजिया बनाने बैठ गई।

दूसरे दिन सुबह आत्माराम अपनी दुकान पर गए और हमेशा की तरह गल्ले पर बैठ गए। उस दिन बढ़ई रामकिशन की बेटी की सगाई थी और दुलारा नामक गाँव से लड़के वाले आए थे। सभी लोग भांग चढ़ाकर आए थे और उनकी भूख खुल गई थी। सुबह-सुबह दुकान पर ज्यादा माल तो नहीं था, परन्तु जो कुछ भी था वे दस-बारह भंगेड़ी जीम गए, पर उनकी भूख शांत नहीं हुई। आत्माराम के नौकर परेशान थे कि वे भंगेड़ियों की भूख शांत कैसे करे। नौकरों ने इशारे से सेठ आत्माराम को भीतर बुलाया और सारी स्थिति समझाई। आत्माराम ने पैरों के निशान देखे और वे कोठरी में चले गए जहाँ बहुत बड़ी परात में उन्होंने एक अजीबोगरीब चीज देखी। उन्होंने नौकरों से कहा कि यह जो रवे और घी का सत्यानाश हुआ है इसी को उन भंगेड़ियों के सामने परोस दो। भांग के नशे में उन्हें कुछ समझ नहीं आएगा। सारे भंगेड़ियों ने इस नए मिष्ठान को जी भरकर सराहा और उँगलियाँ चाट चाटकर खाया। एक भंगेड़ी ने आत्माराम से इस नई मिठाई का नाम पूछा। आत्माराम बहुत भन्नाए हुए थे, उनके मुँह से निकल गया- दुलारा गाँव के अतिथियों के लिए दराबा बनाया है। रामकिशन बढ़ई ने सारा बिल चुकता किया और आत्माराम को धन्यवाद दिया कि उसने उसके रिश्तेदारों का जी खुश कर दिया।

इसी भीड़ के जाने के बाद आत्माराम फिर भीतर गए और परात में बची हुई मिठाई में एक उंगली डुबोकर उन्होंने चखी और उन्हें बहुत अच्छी लगी। उन्होंने केले के पत्ते में थोड़ी सी मिठाई रखी और जल्दी-जल्दी ऊपर जा पहुँचे। उन्होंने रामकन्या, यशोदा और घर में मौजूद सभी लोगों को एक-एक चम्मच मिठाई चखाई। सभी ने मिठाई की बहुत प्रशंसा की। आत्माराम ने अपने दत्तक पुत्र को बहुत प्यार से देखा और गले लगा लिया। उन्होंने महेश से मिठाई बनाने का तरीका पूछा और इस तरह मिठाई के इतिहास में बुरहानपुर के योगदान का सुनहरा पन्ना जुड़ा। कालांतर में इसी दराबे को बहुत ख्याति मिली और इसी मिठाई ने आत्माराम की छोटी-सी दुकान को बड़ी दुकान में बदल दिया और बुरहानपुर के नामी गिरामी धनाढ्‌यों में आत्माराम का नाम शामिल हो गया। इसी ऐतिहासिक दिन महेश की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली गई कि उसे स्कूल के आतंक से बचाया जाए और पूरे समय मिठाई बनाने का काम दिया जाए।

इस तरह दत्तक पुत्र ने एक इत्तफाक की वजह से दुकान में अपना स्थान बनाया और गद्दी पर भी बैठना शुरू किया। महेश ने यह भी महसूस किया कि इस नई मिठाई को जितना अधिक रगड़ा जाए उतना उसका स्वाद बेहतर होता है। आत्माराम ने साफ-सफाई की दृष्टि से मजदूरों को कहा कि वे इस मिठाई को रगड़ने के लिए हाथों का प्रयोग करें। आत्माराम की गैर हाजरी में महेश नौकरों को आज्ञा देता था कि वे पैरों से इसे जमकर रौंदे। धीरे-धीरे पैरों द्वारा रौंदने की परंपरा स्थापित हो गई और हाथों के बजाय पैरों के प्रयोग में मजदूरों को सहूलियत प्राप्त थी। धूल से सने शहर में गंदगी कोई मुद्दा नहीं थी। बुरहानपुर के आसपास का इलाका केले और कपास की खेती के लिए मशहूर था। गाँव के कोरकू जाति के लोग गाड़ी में भरकर कपास लाते थे और दलालों के मार्फत जीनिंग फैक्ट्री को बेचते थे। दलाल का काम यह था कि वह कोरकू को उसके माल के उचित दाम दिलाए और उस कोरकू की खरीददारी में पूरी मदद करे। दलाल को सब तरफ से कमीशन मिलता था। हर दलाल ने शहर में दुकानदारों से अपना कमीशन बाँध रखा था अर्थात् कोरकू की खरीदी और बिक्री-दोनों पर दलाल का कमीशन तय था। इतिहास के हर दौर में राजा बदले हैं परन्तु हर कालखंड में दलाल हमेशा कायम रहे हैं। यह वह कौम है जो न कुछ उपजाती है, न कुछ बेचती है परन्तु ढेर-सा धन कमाती है। कारंज बाज़ार के श्यामलाल दलाल ने अपनी दुकान बहुत चतुराई से जमा रखी थी। उसके पास इतना धन था कि वो कपास की कई गाड़ियाँ खुद खरीद सकता था और बाद में भाव बढ़ने पर कपास जीनिंग फैक्ट्री को बेचता था। वह अपने किसानों की भरपूर आवभगत करता था।

औत्माराम ने श्यामलाल से एक समझौता किया कि वह अपनी आढ़त पर आने वाले सभी किसानों और कोरकुओं को आत्माराम के भोजनालय पर खाना खिलाएगा और उस बिक्री पर उसे अच्छा-खासा कमीशन मिलेगा। मीलों के सफर से थके हुए किसान और कोरकू आत्माराम की दुकान पर दराबा खाकर बहुत प्रसन्न होते। उनका परिश्रम से सुता हुआ शरीर दराबे को पचाने का माद्दा रखता था। शहर के नाजुक और आलसी लोगों को यह मिठाई पसंद नहीं थी, क्योंकि उनकी नाज नखरे वाली अंतड़ियाँ इस गरिष्ठ मिठाई को पचा नहीं सकती थीं। शीघ्र ही दराबा गाँव के लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गया। हर गाड़ीवान अपने दलाल से ये जिद करता कि सबसे पहले तो उसे दराबा खिलाया जाए। गाड़ीवान वापस लौटते समय अपने परिवार के लिए दराबा ले जाना पसंद करते, क्योंकि अन्य मिठाइयाँ तो सफर में ही खराब हो जाती थीं परंतु दराबे को कई दिनों बाद भी गर्म करके खाया जा सकता था। गाँव वालों को ऐसी मिठाई पसंद थी जिसे जितनी बार गर्म करें उतनी ही बार उसमें से घी की सुगंध आने लगती थी। शीघ्र ही गाँव वालों की यह धारणा बन गई कि असली मिठाई तो दराबा ही है। बाकी सारी मिठाइयाँ तो सिर्फ शहर वाले बाबुओं का नखरा हैं। आत्माराम ने सब बड़े दलालों को खुश करके अपनी मिठाई को लोकप्रिय बना लिया। शहर के दूसरे मिठाई वाले जब तक यह बात समझ पाते तब तक आत्माराम की दुकानदारी बहुत जम चुकी थी।

हर तीन-चार महीने में आत्माराम अपने दराबे में कोई नई चीज मिलाकर उसको और भी अधिक सुस्वादु और आकर्षक बना लेता था। मसलन एक बार आत्माराम इंदौर से चाँदी का वर्क ले आया। महीन टीशू पेपर पर चाँदी के वर्क की एक परत लिपटी हुई थी जिसे दराबे की थाल पर लगा दिया जाता था। चाँदी का वर्क लगा दराबा सारे दराबे से महँगे दामों पर बेचा जाता था। किसानों और कोरकुओं को लगता था कि तांबे के पैसे देकर वे शुद्ध चाँदी का वर्क लगा दराबा खा रहे हैं। इससे बेहतर सौदा और क्या हो सकता था? आत्माराम के प्रतिद्वंद्वियों को ये बातें समझने में काफी समय लगा कि चाँदी के वर्क में चाँदी का कोई अंश नहीं होता है, वरन वह अपने रूप रंग के कारण चाँदी का वर्क कहलाता है। टके भाव के चाँदी के वर्क में मिठाई के दामों में चवन्नी किलो का फर्क पैदा किया। कुछ दिनों बाद आत्माराम ने अपने दराबे में काजू मिलाना शुरू किया। खाते समय जब ग्राहक के दाँत के नीचे काजू आता था तो उसको ये लगता कि उसे अपने पैसे से अधिक की प्राप्ति हो रही है। इस किस्से में घासलेट बेचने वाले कांतिलाल का जिक्र इसलिए करना पड़ा कि उसके बेटे की शादी श्यामलाल दलाल की बेटी से तय थी, परन्तु रातोंरात लखपति हो जाने के कारण उसके तेवर ही बदल गए। उसने अपने घासलेटी धन से चौक बाज़ार में एक दुकान खरीद ली। पैसा आते ही उसके बच्चे फैशनेबल हो गए और उन्हें किसानों और कोरकुओं से घिरे श्यामलाल दलाल की चौथी पास लड़की में कोई रुचि नहीं रही। अब ये भला किसे बताएँ कि योरप में लड़े जाने वाले इस युद्ध से हजारों मील दूर बसे छोटे शहर बुरहानपुर के घासलेटी दलाल में और कारंज बाजार के कपास के दलाल के बीच वर्षों पहले का जमा-जमाया रिश्ता टूट गया। युद्ध दुनिया के किसी भी भाग में लड़ा जाए, इसके परिणाम से दुनिया का कोई कस्बा, कोई शहर, कोई गाँव अछूता नहीं रहता।