एक शिक्षक की डायरी / भाग २ / मनोहर चमोली 'मनु'

Gadya Kosh से
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7 जनवरी 2006 - मैं पढ़ा रहा था। बच्चे कुछ छिपा रहे थे। मैंने कॉपी-किताबों की तलाशी ली। मैंने एक बालिका की किताब से रंगीन अखबार निकाला। उलट-पलट कर देखा तो पंजाब केसरी था। अखबार में मेरी कविता नलई के पते के साथ छपी थी। बच्चे संकोचवश मुझे नहीं बता पाए। पूछा तो पता चला कि सब बच्चों ने वो कविता पढ़ ली है। कुछ ने अपनी कॉपी पर उतार ली है। हैरान था कि गांव में भी एक ऐसा अखबार जो स्थानीय नहीं है। उसे पढ़ा जाता है। लेखन आपको बहुत मशहूर करता है। बच्चों को अखबार में मेरी कविता, मेरा नाम और विद्यालय का नाम देखकर हैरानी हुई। जैसे बहुत बड़ा काम हुआ हो। विद्यालय में एक बालिका है। पोलियो की वजह से उसका एक पैर खराब है। बालिका बेहद भावुक है। लिखावट भी औरों से बहुत अच्छी है। जूनियर के बाद वो परसुंडाखाल पढ़ने नहीं गई। यही कारण है कि वो सभी बच्चों में बड़ी है। अब ये स्कूल हाई स्कूल हो गया है, तो उसने यहां प्रवेश ले लिया है। ये पढ़ना चाहती है। मगर लगता है कि उसमें ये हीन भावना है कि वो कमजोर है। मैं उसे भी और पूरी कक्षा को समझाता हूं कि मन से कमजोर नहीं होना चाहिए। शरीर के अपंग होने से भी बहुत कुछ किया जा सकता है। मैंने उसे समझाया कि पढ़ना है। खूब पढ़ना है। डिग्री कॉलेज पौड़ी तक जाना है। वो कुछ करेगी। मुझे ऐसा लगता है।

11 जनवरी 2006 - बच्चे कुछ छिपा रहे थे। मुझे पता नहीं क्या सूझा। मैंने बच्चों के बैग चैक करने शुरू कर दिये। कुछ बच्चों के बैग में से रुपये, खाने की चीज़ें, एक बालिका के बैग से गुलेल भी निकली। बिंदी, कान की बालियां, नाक की लौंग आदि, घर परिवार के सदस्यों की रंगीन फोटो भी बच्चों ने अपने बैग में रखी थीं। इस बहाने बच्चों के पूरे बस्ते की जांच हुई। बच्चों को बताया कि वे अपनी कॉपी-किताबों का रख-रखाव ठीक से रखे। एक बालिका का बस्ता साफ-सुथरा था। कॉपी-किताबें ज़िल्द से सजी थीं। मैंने उसे पुरस्कारस्वरूप एक पैन दिया। लड़कों की कॉपियों के पीछे कुछ शेर लिखे थे। लड़कों के बैग में कुछ विशेष नहीं निकला। एक छात्र ने माचिस की डिबिया को ताश के पत्ते के रूप में इकट्ठा किया हुआ है। मैंने उन्हें डाक टिकटों के संग्रह और रुपए-पैसों के संग्रह की जानकारी दी। इस बात पर जब मैंने एक शिक्षिका से चर्चा की तो उन्होंने कहा कि यूं अचानक बच्चों के वो भी खासकर लड़कियों के बस्ते चैक नहीं करने चाहिए।

16 जनवरी 2006 - दो-तीन दिन पहले की बात है। बच्चों ने काम नहीं किया। एक शिक्षक भड़क गए। पूरी कक्षा को खड़ा कर दिया। कुछ ही बच्चे थे जिन्होंने काम किया हुआ था। उन्हें बैठ जाने को कहा गया। बड़े बच्चे से कण्डाली (एक प्रकार का घास जिसे बिच्छू घास भी कहा जाता है, उसके पत्तों पर कई डंकनुमा तंतु होते हैं, जिसे छूने पर वह शरीर पर चिपक जाते हैं, छुए हुए अंग पर कई घण्टों तक तीखी झनझनाहट बनी रहती है, कई बार तो फफोले भी बन जाते हैं) मंगाई गई। बच्चों के हाथों पर और पैरों में कण्डाली से मारा गया। मेरे तो सारे शरीर में झनझनाहट फैल गई। बचपन में यदा-कदा पिताजी भी इस घास का प्रयोग हमें सजा देने के तौर पर करते थे। ये तो उत्पीड़न है। मगर इस क्षेत्र में अधिकांशतः यह स्वीकार्य है। अभिभावक भी जानते हैं। पूछा तो पता चला कि यह दण्ड इतना भारी नहीं है। मुर्गा बनाकर कमर पर ईंट-पत्थर रखना, स्टूल पर एक टांग से खड़ा कर रखना, धूप में खड़ा करना आदि कई सजाएं हैं, जो नन्हें-मुन्ने बालकों से लेकर छात्राओं तक को दी जाती हैं। मैं अभी तो कुछ नहीं कह पाया हूं, पर इसका विरोध करुंगा।

20 जनवरी 2005 - बच्चों को अनुशासन के नाम पर डांटना-मारना समस्या का समाधान नहीं है। बच्चों में असीमित उर्जा होती है। वे चिल्लाकर, बातें कर, घूम-घूम कर अपनी भावनाएं और दूसरों की भावनाओं का आदान-प्रदान करते हैं। यह हम बड़ों को गवारा नहीं होता। आखिर बच्चों पर चुप्पी का, मौन रहने का, खामोश रहने का, लगातार पढ़ते रहने का अनुशासन क्यों? क्या जरूरी है कि बच्चे सिर्फ मध्यांतर में ही खेलें? मध्यांतर से पहले कोई पानी पीने नहीं जाएगा, कोई लघु शंका के लिए नहीं कहेगा। ये क्या बात हुई। पता नहीं कैसे-कैसे नियम थोपे हुए हैं।

23 जनवरी 2005 - बच्चे संप्रेषण का सशक्त माध्यम होते हैं। उन्हें हम से ज्यादा खबर होती है दीन-दुनिया की। वे बिना लाग-लपेट के सारी बातें यहां-वहां प्रसारित कर देते हैं। हम बड़े ही उनका उपयोग नहीं कर पाते। मैं तो बच्चों को अपनी गतिविधियों में शामिल करता हूं। बच्चों को स्कूली गतिविधियों में शामिल करना चाहिए। इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। हमें भी आसानी रहती है। मैं तो कई बार हाजिरी रजिस्टर, शुल्क आदि का कार्य भी बच्चों को सौंप देता हूं। उन्हें एक बार समझा दीजिए। वे बड़ी सरलता और सहजता से काम करते हैं।