एक शिक्षक की डायरी / भाग ३ / मनोहर चमोली 'मनु'

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05 सितम्बर 2006 - कुछ बच्चों ने शिक्षक दिवस के अवसर पर मुझे पैन भेंट किए। सिर्फ मुझे ही क्यों? मुझे अजीब-सा लगा। मैं समझाना चाहता था कि इस तरह ठीक नहीं है। मगर मैं नहीं लेता, तो बच्चों को बुरा लगता। लेकिन मैंने देखा अन्य शिक्षकों को खराब लगा। मैंने कक्षा नौ में उत्तीर्ण हुए प्रथम चार बच्चों को पैन पुरस्कार में दिये थे। एक बालिका पंजिका के अनुसार कभी अनुपस्थित नहीं हुई थी। उसे भी मैंने एक पैन पुरस्कारस्वरूप दिया। बच्चों का हौसला बढ़ाना चाहिए। उनमें आगे बढ़ने की प्रेरणा हमें ही तो फूंकनी है।

15 सितम्बर 2006 - आज ज़ल्दी छुट्टी हो गई। मुझे आज ही देहरादून एक लेखन कार्यशाला में पंहुचना था। मैं दौड़ा। मेरा बायां पैर मुड़ गया। इतना तेज़ दर्द कि मैं जस का तस ही जीमन पर बैठ गया। पीछे से बच्चे भी आ रहे थे। बस सन्न रह गए। कोई कुछ नहीं पूछ पाया। प्रिंसिपल साहब और शाह जी भी आ रहे थे। पूछा तो मैंने बता दिया। शाह जी ने मालिश करने को कहा। पैर को इधर-उधर मुड़ाया। बच्चे खड़े रहे। मैंने ही कहा कि चलो अपने-अपने घर जाओ। कुछ देर के बाद चलना ही था। दर्द बहुत था। नहीं जा पा रहा था। एक-डेढ़ घंटे तो मुझे पैदल ही चलना पड़ता है। जाते समय ढलान हो जाती है और आते समय खड़ी चढ़ाई। देर शाम पौड़ी पहुंचा। घर तक आते रात हो गई थी। लगभग आठ बजे बच्चों ने फोन किया। कक्षा दस के बच्चे ज़्यादा संवेदनशील हैं। पूछा तो पता चला कि रावत जी से नंबर लिया। दस-बारह दिन बाद लौटा तो सब मेरे पांव को ही घूर रहे थे। मैं तो भूल ही गया था। बच्चे क्या-क्या याद रखते हैं। छोटी-छोटी चीज़े उन्हें प्रभावित करती हैं। और हम? हम क्या वो सम्मान और प्यार देते हैं, उन्हें? जिसके वो हकदार हैं।

01 अक्टूबर 2006 - बच्चों को कहानियां सुनना अच्छा लगता है। मैं तो पढ़ाते-पढ़ाते कहानियां सुनाने लगता हूं। बस प्रसंग पढ़ाये जा रहे पाठ या अवतरण से जुड़ा होना चाहिए। मानवीय मूल्यों की कथाएं तो जरूर सुनाता हूं। मैं साफ देखता हूं। बच्चे उदाहरणों, प्रेरक प्रसंगों, कथाओं और विनोदपूर्ण बातों से ज़्यादा सीखते हैं। इस बहाने मेरा खुद का कथा कोश भी बढ़ता है और पढ़ने-लिखने की रूचि बनी रहती है।

02 अक्टूबर 2006 - गांधी जी एक अच्छे विचारक तो थे। उनमें एक अच्छे शिक्षक के गुण भी थे। मेरी राय में शिक्षक वो नहीं जो कक्षा-कक्ष में श्यामपट्ट पर चॉक घिसता हो। जो शिक्षा देता है वही शिक्षक है। शिक्षा केवल शिक्षित ही दे सकता है। मैं नहीं मानता। सभी शिक्षक वाकई शिक्षा दे रहे हैं? यही मेरी दुविध है। मैं इस विषय पर बार-बार सोचता हूं। ये दुविध कई बार मुझे भीतर तक हिला देती है। एक शिक्षक होने के नाते मुझे लगता है कि हम शिक्षकों को कई शौक, मस्ती, खुलापन को समेटना होता है। मेरे अध्किांश सह शिक्षक और शिक्षिकाएं भी मेरी राय से मेल नहीं रखते। उनका मानना है कि हम शिक्षक भी तो इंसान हैं। हम किसी दूसरे लोक के जीव तो नहीं हैं।

मगर मेरी दुविधा है या मेरी राय कि मुझे लगता है कि हम शिक्षकों को हर पल-हर दिन, कॉलेज में-कॉलेज से बाहर भी ‘हम शिक्षक हैं शिक्षक’ इसे हमेशा याद रखना चाहिए। बल्कि शिक्षक का चरित्रा खेलना नहीं जीना चाहिए। आत्मसात् करना चाहिए। मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं होता कि हम अध्किांश शिक्षक याद ही नहीं रख पाते कि हम शिक्षक हैं। कार्य के क्षणों में भी हमारा मर्यादित आचरण नहीं होता।

मैं मानता हूं कि पूरी दुनिया में शिक्षक का शिक्षण कार्य सबसे अनोखा, महत्वपूर्ण और शीर्ष पर रखा जाने वाला है। खैर वो जमाना तो गया जब शिक्षक को पूजनीय माना जाता था। उसकी हर बात अनुकरणीय होती थी। आज तो शिक्षक क्या, छात्रा क्या, अभिभावक क्या, समाज क्या और शिक्षाविद् ही क्या? सब शिक्षक और छात्रा के संबंध् को सिपर्फ सुविध देने वाला और सुविध पाने वाले के रूप में देख रहे हैं। मुझे लगता है कि समाज में जो भी अराजकता, अमानवता, अनैतिकता बढ़ रही है, उसके पीछे सिर्फ शिक्षक-छात्र के संबंध में आए ठहराव आना ही प्रमुख कारण है। एक दिन आएगा, जब यह समाज दोबारा शिक्षक की महती भूमिका को स्वीकारेगा। मगर शिक्षक? वे शिक्षक जो अपने आचरण को और अपने कार्य को अपने दायित्व के अनुकूल ही नहीं कर पा रहे हैं। कभी-कभी तो लगता है कि अधिकांश शिक्षक शिक्षक है ही नहीं, वे तो शिक्षक के रूप में अनायक की भूमिका को गोपनीय ढंग से निभा रहे हैं। आखिर शिक्षक अपनी भूमिका से मुंह क्यों मोड़ रहा है? क्यों शिक्षक को यह नहीं दिखाई दे रहा है कि उसका ओढ़ना, रहना, जागना, चलना और बोलना ही नहीं सब कुछ को देखा जाता है। क्यों शिक्षक आज नई पीढ़ी का आदर्श हो रहा है? यही दुविध मुझे और मेरे अन्र्तमन को झकझोरती है। बार-बार लगता है कि ये मैं क्या कर रहा हूं। क्या मैं उतना कर पा रहा हूं? जितना मुझे करना चाहिए।

03 अक्टूबर 2006 - कक्षा नौ और दस के बच्चों को मैं बाल हंस, नंदन, बाल भारती, पाठक मंच बुलेटिन, विज्ञान प्रगति आदि पढ़ने के लिए देता रहा हूँ। मैंने देखा कि पत्रिकाओं को घर ले जाने का और उन्हें समूह में पढ़ने का उत्साह उनमें हैं। वे जोर-जोर से एक साथ पढ़ने की कोशिश करते हैं। पिछले दो तीन महीनों में उनमें पढ़ने की आदत बनी है। वे कहानियों, चित्रों से अपनी समझ बनाते हैं। मात्राओं की सही पहचान और सही पढ़ने की आदत भी अच्छी हो जाती है। मगर किसी शिक्षक ने प्रिंसिपल साहब को बताया। प्रिंसिपल साहब ने कहा कि यार बच्चों को कहानियों की किताबें देने से क्या होगा। उनका सारा ध्यान तो बँट जाता है। मैंने कहानियों के पीछे का उद्देश्य बताया, मगर वो सहमत नहीं थे। बच्चे फीस डे के दिन ही एक-एक रुपया जमा करते थे। कुछ रुपये मैं भी जमा करता था। इस तरह से हमारे पास 50 से अधिक किताबें हो गई थीं। मगर सब किया धरा बेकार हो गया। मैं बच्चों से ये तो नहीं कह पाया कि हम इस योजना पर काम नहीं कर सकते। मगर अब ये धीरे-धीरे बंद हो जायेगा। कुछ किताबें गुम भी हो गईं हैं। हमारी ही शिक्षक किताबें ले गए और वापिस नहीं लाये।