एक शून्य शाश्वत / विमल चंद्र पांडेय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

{कभी मन अचानक ही विरक्त हो जाता है... बिना किसी खास कारण के या ढेर सारे कारणों के हुजूम से। पूरी दुनिया से वीतरागी... कुछ भी अच्छा नहीं लगता मन को। हम साधारण मनुष्य हैं, कुछ देर बाद सामान्य हो जाते हैं। यह वैसी ही किसी विरक्ति के विस्तार पाने की कहानी है।}

शब्द रास्ता हैं और शून्य मंजिल

मैं इन सस्ते और ऐयाश लोगों के बीच

जो सिक्के चबाते हैं और

केकड़े की तरह चिपक जाते हैं

रहते-रहते सोचता हूँ -

क्या पड़ी थी ईश्वर को

जो बैठे बिठाए

मांस के वृक्ष बनाए - कैलाश बाजपेयी

(‘शायद’ शाश्वत की तत्कालीन मनःस्थिति)

‘काश! मुझमें भी थोड़ा भय बाकी रहता, थोड़ा प्रेम और थोड़ा लोभ। तब शायद मैं भी इस सन्निपाती समय में अपने हाथों को जोर-जोर से हिलाता हुआ अभिमान और आभासी ज्ञान की आँच में पके झूठे शब्दों को फिच्च-फिच्च करके बाहर फेंकता। ये शब्द मुझे थोड़ा और सम्मान दिलाते जिससे मैं वास्तविकता से थोड़ा और दूर जाकर अपने निजी अंधकार से अनभिज्ञ एक अस्थायी गुब्बारे की तरह फूल जाता। परंतु इन यशस्वी कपटियों के निचुड़े दिमागों में यह बात शायद तब आती हो जब अंतिम हिचकी में उनके प्राण अटक जातें हों और उन मूर्खों को मृत्यु से भय सा लगता हो। मालविका, मुझे क्षमा करना। तुम्हें देने को मेरे पास कुछ नहीं रहा, सिवाय शून्य के। इस दुनिया में दो ही चीजों का महत्व है, शब्दों का और शून्य का... और यदि ध्यान से देखोगी तो पाओगी कि शब्द भी दरअसल शून्य में जाने का रास्ता ही हैं। न मुझे तुम पर क्रोध आता है, न प्रेम, न घृणा...। मुझे सिर्फ हँसी आती है दुनिया के कारोबार पर। कभी-कभी उस पर, कभी-कभी तुम पर और कभी-कभी खुद पर...।’

ये बातें और इस तरह की बहुत सी बातें करने लगा था शाश्वत उन दिनों। उसका मूड हर पल बड़ी तेजी से बदला करता था। कभी बहुत खुश दिखता और कभी अचानक उदास हो जाता। कभी बहुत देर तक गुमसुम रहता और अगले ही पल इतनी तेज किलकारी मारकर हँसने लगता कि आस-पास के सब चकित हो कर उसे ही देखने लगते। बोलता-बोलता अचानक चुप हो जाता। शून्य में देखने लगता और घंटों देखता रहता। वह उन दिनों सामान्य नहीं रह गया था और यही बहस का मुद्दा भी तो था।

जिला बदर बनाम जिंदगी बदर

ये सब उन बेरौनक दिनों के बहुत बाद से शुरू हुआ था जब हम यह मानने लगे थे कि हमारी उम्र के आधे कबूतर उड़ गए हैं और हर दिन हमारे कंधे पर एक लाश की तरह भार बढ़ाता जा रहा है। हम अपनी विशिष्टता के अंधे विश्वास से तब तक भी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए थे जब हमारे कई समौरिया अपने छह-छह साल के बच्चों को अपने कंधे पर बिठा कर गुब्बारे दिलाने लहरतारा पुल के नीचे ले जाते थे और अठन्नी कम कराने के लिए गुब्बारे वालों की माँ-बहन किया करते थे।

हम उनके तुष्ट वात्सल्य की तुलना में अपने कुत्सित विचारों के अंधे गलियारों से जन्मे अबोध और अधूरे बच्चों को गलीच नालियों में माँ-माँ की कातर पुकार करते बहते हुए देखते और हर बार पिछली बार से दुगुना शर्मिंदा होते। यह अपराधबोध हमारे कंधे पर एक अतिरिक्त भार बढ़ाता और कम-अज-कम इस फ्रंट पर ताकतवर होने के लिए हम एक मादा (निःसंदेह अलग अलग) की तलाश में भी उसी तेजी से मुब्तिला थे जितनी तेजी से रोजी की।

हमारे मानदंडों पर कोई ऐरा गैरा खरा भी तो नहीं उतर सकता था क्योंकि हम विशिष्ट थे। यह विश्वास हम एक दूसरे को प्रायः दिलाया करते कि हममें से कहीं कोई साधारण न बन जाए। हमारे अधिकतर ‘साधारण’ समकालीन बच्चों और बाप की किच्चमपों के बीच भी बीवी से प्रेम करने का अवसर निकाल लिया करते और संभोग से संतुष्ट होकर गोल गालों और अनवरत बढ़ती जा रही तोंद के साथ भर लहरतारा इतराया करते जिसे हम ‘छटकना’ कहते (साला कैसे छटक रहा है)। एक हाथ में दुधमुँहा बच्चा पकड़ उसकी पें-पें बंद करने की कोशिश व दूसरे हाथ से सामान्य ज्ञान दर्पण पढ़ते नजर आते मित्रों के दृश्य लहरतारा में आम थे। हम निरंतर सूखती जा रही काया और पिचकते जा रहे गालों के बावजूद जीवन की आशा से सिर्फ इसलिए चिपके थे क्योंकि हम विशिष्ट थे। हमारे पास एक तथाकथित प्रौढ़ दिमाग था, कुछ स्वघोषित महान विचार थे और एक स्वपोषित चमकदार स्वप्न था जो बकौल हमारे पूरा होने पर हमें लहरतारा क्या, बनारस क्या, पूरे देश या प्रदेश की कथित तौर पर सबसे शक्तिशाली गद्दी पर आसीन कराने वाला था।

उल्लेखनीय बात उन दिनों की भी नहीं है जब हम पोथी पढ़-पढ़ कर मरते रहते थे और हमारे बहुत से समवय एम.आर.की नौकरी या डी.टी.पी., टैली और ए. लेवल, ओ. लेवल के कोर्स कर रहे थे। उस समय तो कोई इतर बात हमारे मष्तिष्कों में समा ही नहीं सकती थी। हम सोचते ज्यादा थे और काम कम करते थे। वह एक तेज बहती नदी का दौर था जब समय रुई के रेशे की तरह जलता जाता था। हम घर के खाने को गले तक भर कर घर के पैसों से सिनेमा और यायावरी करते हुए अपनी कड़ी तैयारी को और-और धार देते रहे पर सफलता वाले फल की डाली हमारी पहुँच से और-और दूर जाती गई। बनारस को अपने महान स्वप्नों के आकार में छोटा और संकुचित पाकर हम राजधानी की ओर कूच कर गए। अपने विचारों की तुलना में बनारस गँवार लगता और बनारसी यानी हमारे समवय मित्र इस नाली में रेंगते कीड़े जो यहीं पैदा होकर यहीं मर जाएँगे। हमें लहरतारा में नहीं रहना था। हमें बनारस में नहीं मरना था... हमें दिल्ली में मरना था। दिल्ली के बी-32 में।

रोज बुतों की आईनों से मारामारी दिल्ली में

पांडव नगर के बी-32 नामक आशियाने में हमारे सपने दिल्ली का बड़ा आकाश पाकर इतना परवान चढ़ गए कि उतरने में हमारी पूरी दिमागी व्यवस्था हिल गई। जब हमारे सपनों की लौ बुझने से ठीक पहले वाली लपलपाहट में अचानक गगनचुंबी आकार ले रही थी तब इसे शाश्वत ने सबसे पहले भाँप लिया था और वैकल्पिक रोजगार की तलाश में यहाँ-वहाँ सिर मारना शुरू कर दिया था।

दूसरे फ्रंट पर भी शाश्वत ही सबसे पहले या यों कहें एकमात्र सफल हुआ था। कई अदृश्य बोझों से लगातार झुकते जा रहे अपने कंधों को हम यह कह कर सांत्वना देते कि शाश्वत हम सबमें सबसे ज्यादा स्मार्ट, हैंडसम और वाकपटु वगैरह है पर हम जानते थे कि असली कारण यह नहीं था। हमारे अंदर की आँच उन स्वप्नमहलों की ईंट पकाने में पूरी तरह खर्च हो गई थी जिनके आर्किटेक्ट हम नहीं थे। ये हमने कहीं से चुराए थे या हमारे घरवालों ने जबरदस्ती हमारी आँखों में रोप दिए थे जो अब बालिग हो गए थे, चुभने लगे थे और बेतहाशा दर्द देते थे। इन उधार के सपनों ने टूटने से पहले एक महत्वपूर्ण कार्य यह किया था कि हमारे भीतर से वह तत्व चुरा लिया था जिसे जीवन जीने का उत्साह या सरल शब्दों में शायद जिजीविषा कहते हैं। कभी बड़े आसमान के आकांक्षी रहे हम एक छोटी सी जमीन के लिए तड़प रहे थे। ये तैयारी के शुरुआती चार-पाँच सालों को घोर ऐयाशी में बरबाद करने का खामियाजा था जो भुगतते-भुगतते अब हम उस मोड़ पर खड़े थे जहाँ से आगे जाने के रास्ते अव्वल तो थे नहीं और यदि कहीं थे भी तो दूर तक अँधेरे का ट्रैफिक जाम दिखाई देता था। घोर गुरबत में सिर्फ चुहल करने के लिए एक ज्योतिषी को हाथ भी दिखाया गया पर वक्त-ए-मुफलिसी में वह भी सरकारी ज्योतिषी निकला, यानी पूछो कुछ तो बताए कुछ। शाश्वत और सुनील दोनों के हाथ देखकर सुनील की आँखों में झाँक कर और शाश्वत की ओर उँगली उठा कर बोला था, ‘इससे सावधान रहना’ और हम किलक कर हँस पड़े थे।

उसका नाम मालविका था और वह उसके अनुसार सभी आम लड़कियों से अलग एक विशिष्ट लड़की थी जो चॉकलेट पर जान छिड़कती थी, आइसक्रीम की दीवानी थी और जिसे गुलाब के फूल बहुत पसंद थे।

उसके आने से पहले हम तीन थे। मैं, शाश्वत और सुनील। हम हर फैसले में शाश्वत की राय चाहते और हमारे हर फैसले में उसकी छाया शामिल होती। वह इस अबूझ दुनिया को डिकोड करने के लिए हमारा शब्दकोश था जिसे धीरे-धीरे हम नासमझों ने इन्साइक्लोपीडिया बना दिया था।

मालविका और उसकी निकटता बढ़ने में दोनों के विशिष्ट होने का कारक काम आया। शायद दो अलग परिवेश और संग में विशिष्ट बने दो जनों ने आपस में अपनी विशिष्टता जाँच ली। शाश्वत नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा और मालविका ने पब्लिकली मान लिया कि उसे चॉकलेट, आइसक्रीम और चाट बहुत पसंद हैं।

इधर शाश्वत ने नौकरी की तलाश शुरू की और इधर हम धड़ाम से सच्चाई की उस जमीन पर आ गिरे जिससे आँखें मूँदकर हम जबरदस्ती आँखों में चुभ रहे सपनों को महसूसते रहते थे।

‘अब वक्त आ गया है कि हम वास्तविकता को समझें और उसका मुकाबला करें। हम हार गए हैं। हमने अपनी जिंदगी के सबसे खूबसूरत साल उन आकांक्षाओं को पूरा करने में लगा दिए जो दरअसल हमारी थी हीं नहीं। हम किन्हीं के दिए हुए सपनों को किसी की लगाई झूठी आशा पर ढो रहे थे। हम गलत समझते थे कि हम विशिष्ट हैं। यदि अब न सँभले तो हमारा वजूद खत्म हो जाएगा।’

शाश्वत की बातों को और उसकी तपती सच्चाई को हमने कहीं बहुत गहराई से महसूस किया था जहाँ हमारे सपने अब कैंसर की गाँठ की तरह हो गए थे। वहाँ छूने पर एक जानलेवा दर्द उठता था जो एक तवील इंतजार के बाद ही खत्म होता था। हम शाश्वत की आड़ में अपनी उम्मीदों की रक्षा कर रहे थे पर उसके एकदम से अपनी जगह से हट जाने से हमारी उम्मीदें एकदम नंगी हो गईं थीं और उनका रोगग्रस्त शरीर साफ दिख रहा था। अब हम इन उम्मीदों को उढ़ाने के लिए किसी दूसरी उम्मीद की छोटी ही सही चादर ढूँढ़ने लगे थे।

मगर राजधानी वह शै है जो उम्मीद देती तो है पर मरीचिका की तरह। हर बार उसकी तलाश में वहाँ पहुँचने पर वह फिर किसी ऐसी जगह नजर आती है जहाँ वह दरअसल होती नहीं है। वास्तव में दिल्ली कहा जाने वाला यह शहर किसी भी माँग के लिए सीधे मना नहीं करता। इच्छित चीज का कभी न मिल सकने वाला वर्चुअल प्रतिबिंब सामने तो होता है पर पकड़ में नहीं आता। फिर इच्छाएँ दबाई जाने पर घाव के नासूर बनने की प्रक्रिया में जीवन भर कष्ट देती हैं या कम-अज-कम निशान छोड़ जाती हैं।

एक छोटी सी प्रेम कथा विद फूको एंड मार्क्स, यू नो

असली मुद्दे पर आने से पहले और यह बाँटने से पहले कि वह खतरनाक दिन कब शुरू हुए थे, मालविका से शाश्वत की नजदीकी बढ़ने वाले दिन भी सामने की दीवार पर जहाँ मक्खी बैठी है, फिल्म की तरह चल रहे हैं और अनायास ही याद आ रहा है कि कैसे वह शुरू-शुरू में नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती थी।

मालविका के साथ शाश्वत की पहली मुलाकात हुई तो हम भी साथ थे। वह हमें बहुत बोल्ड और हाइ-फाइ चीज लगी थी। कारण कई थे। कहीं कहीं हम तो कहीं कहीं वह। हर बात में यू नो, बुलशिट और फक आल जैसी चीजें हमारे लिए दिलचस्प और निसंदेह एक अच्छे अभ्यास की आकांक्षी थीं। हम अभ्यास भी गँवारों की तरह कर पाते यानी फक यू बोलने में निर्लज्जता और बेपरवाही के अलावा सही उच्चारण भी शामिल होना चाहिए पर हम आपस में हर बार फक में नुक्ता लगाना तक भूल जाते और स्वयं को भाषा का दोषी मानते। हमारे अंदर छिपा कस्बाई मेढक उसका रहन सहन और बोली-बानी देखकर कभी तो बिल्कुल सहम जाता और कभी हमारे गले से मुँह के पास आकर टर्राने लगता। हम थोड़े शर्मिंदा हो जाते। वह कानपुर के एक कपड़ा व्यवसायी की बेटी थी जो अपनी विशिष्टता के भ्रम में खबरों की दुनिया के मायाजाल का हिस्सा बनने चली आई थी। हमारी विशिष्टता की तरह उसकी विशिष्टता भी उसका स्वयं अपने आसपास बनाया गया एक तिलिस्म था जो दुनियावी चोटें खाकर धीरे-धीरे टूट रहा था। जिस दुनिया में जाने का अभ्यास वह वर्षों से आइने के सामने बोल-बोल कर कर रही थी उसमे दाखिले की कुछ और भी शर्तें थी जो खौफनाक थीं। ये शर्तें सुनने में बुलशिट थीं और यू नो, फक दिस कह कर भूल जाने लायक थीं। वह पहली कुछ मुलाकातों में एंगेल्स, मार्क्स, फूको, हैबरमास, माइकल एंजेलो, एल्टन जॉन, ईगल्स, कियानू रीव्स, नोम चोम्स्की, शकीरा, होटल कैलिफोर्निया और ट्विस्ट एंड शाउट वगैरह से नीचे बात करने को तैयार नहीं होती थी। हमारा इन्साक्लोपीडिया ही इतना हरफनमौला था, हम नहीं। हम अपने अंदर के मेढक के जबड़े दाबे पीछे हो लेते और शाश्वत पूरी कुशलता से उस लड़की को टैकल करता।

धीरे-धीरे दोनों के स्वप्नों के छोटे-छोटे वृत्त एक दूसरे से टकराने लगे और विसरण या परासरण जाने कौन सी क्रिया से एक बड़े वृत्त का आकार लेने लगे। वह एक शर्मीली सी लड़की थी जो मार्क्स, फूको और शकीरा का खोल नोच देने पर काफी हद तक एक मासूम बच्ची सी लगती थी और उसी हद तक देसी भी। एकाध बार हमने उसे रफी और किशोर सुनते भी रंगे हाथों पकड़ा था और ‘यू नो, पहले आवाजें ज्यादा अच्छी थीं और आज म्यूजिक’ सुनकर इसे उसकी रुचियों में न डाल उसकी उत्सुकता में जोड़ लिया था।

‘मैं आइसक्रीम खाऊँगी।’ वह मचली थी। वह दिन शाश्वत के लिए यादगार था। हम दोनों वेटर को पचास रुपए देकर बाहर आ गए थे और उसने पहले से बुक न होने के बावजूद दोनों को एक केबिन दे दिया था।

आइसक्रीम खाने के क्रम में कुछ आइसक्रीम उसके होंठों पर लग गई। शाश्वत का दिल जोरों से धड़कने लगा था और पेट में जाने कैसी कड़बड़ कड़बड़ होने लगी थी। वह पोंछने को तत्पर हुई तो उसने उसका हाथ थाम लिया। वह सहम गई जैसे उसकी छठी इंद्रिय ने उसे बता दिया हो कि अगले पल क्या होने वाला है। शाश्वत ने अपनी जबान से आइसक्रीम साफ कर दी। मालविका की आँखें बंद हो चली थीं। शाश्वत की जबान उसके होंठों पर फिर रही थी। दोनों के होंठ आपस में कुछ देर अपनी गर्मी को महसूसते लाल हो चले थे। फूको, मार्क्स और हैबरमास खिड़की से खड़े यह देख कर मुस्कराते रहे। अचानक इनमें से एक को न जाने क्या सूझा कि वह जाकर बिल्कुल मालविका के सामने खड़ा हो गया।

मजे की बात शाश्वत ने बाद में बताई थी कि चुंबन के दौर के थोड़ा लंबा खिंच जाने पर उसने अचानक सिर झटक कर मेक-अप ठीक करना शुरु कर दिया था। शाश्वत के ‘क्या हुआ’ पूछने पर छूटते ही बोली थी, ‘मुझे शादी से पहले यह सब पसंद नहीं।’

शाश्वत उन नाजुक क्षणों में भी अपने को हँसने से नहीं रोक पाया था और वह बदले में लजाती हुई फिल्मी हीरोइनों की तरह उसके सीने पर इस तरह से मुक्के मारने लगी कि अगले को चोट न आए। जिसके तुरंत बाद वाले दृश्य में नायक नायिका आलिंगनबद्ध हो जाते हैं और पार्श्व में एक युगल गीत चलने लगता है।

हम भी बहुत हँसे थे। हमारे साथ कई चिंतक, दार्शनिक और क्रांतिकारी भी हँसे थे। मार्क्स तो बहुत देर तक खिलखिलाते रहे थे।

मैं, सुनील, पिंटू 97 और एक नया फन

शाश्वत का समय हमारे समय से कुछ अलग सा होने लगा था। उसके वर्तमान की देह पर खरगोश जैसे कोमल रोएँ उग आए थे जिन्हें वह दुनिया से बेखबर सहलाता रहता था। हम अपने वर्तमान की पीठ पर उगे साही के काँटों से छिदने से खुद को बचाने का प्रयास करते हुए इस सनातन प्रश्न से जूझते रहते कि हे ईश्वर, तूने पेट क्यों कर बनाया।

हम शाश्वत की ताकत, क्षमता और हिम्मत को अपने चलने के लिए मशाल मानते। उसके उत्साह से उत्साहित होते और उसकी थोड़ी सी भी निराशा देखकर हमारे भीतर भी नैराश्य का गाढ़ा अँधेरा उतरने लगता। उसे हम अपना बाप छोड़कर सब कुछ मानते और वही हमारा बाप छोड़ कर सब कुछ आजकल एक छोटी सी अदद (कुछ भी चलेगा टाइप) नौकरी पाने के लिए दिल्ली के बाजारों की खाक छान रहा था और हर शाम एक अलग सी रुआँसी सूरत बना कर लौटता था। हम अपनी जतनों पाली गई विशिष्टता के लिए सबसे ज्यादा उसी को जिम्मेदार यानी दोषी मानने लगे थे। जब उसकी ये हालत है इस बाजार में तो हम तो खैर...।

हम मतलब मै और सुनील। सुनील मतलब सुनीलपिटू97ऐटरेडिफमेलडॉटकॉम जिसके इंटरव्यू का यह आलम है कि एक इंटरव्यू से तो वह अपनी ई मेल आई डी की वजह से ही खदेड़ दिया गया। अंग्रेजी बोलते समय सहायक क्रियाओं से ऐसे ही परहेज करता है जैसे दारू पीते समय पानी से।

मैं भी साक्षात्कारों की कई श्रृंखला से गुजरने के बावजूद एक भी नौकरी का आउटपुट नहीं पा सका था। सुनील भी और शाश्वत तो पता नहीं कितने प्रयास कर चुका था। उस दिन तीनों बारी-बारी आकर कमरे में इस तरह बैठते गए, बिना एक दूसरे से कुछ बोले गोया विश्वकप के फाइनल में क्रमश आउट हो रहे भारतीय बल्लेबाज हों। उस दिन ऐसा लग रहा था कि हमारे और शाश्वत में कोई खास फर्क नहीं है... कुछ हो भी तो दिल्ली की कठोर मिट्टी ने उसे पाट दिया है। पर उसने हमेशा की तरह साबित किया कि उसमें और हममें फर्क है। हम हर असफलता से निराशा और कुंठा की पूँजी जमा कर रहे थे और वह इन्हीं परिस्थितियों से जिंदगी जीने का एक नया बहाना चुरा लाया था। इसमें बहुत बड़ा हाथ मालविका का भी था जिससे बकौल शाश्वत वह उन दिनों जीना सीख रहा था।

उसकी योजना वाकई लाजवाब थी। सच कहा शाश्वत, दिल्ली में धन तो बहुत है बस उसे खींचने का फन चाहिए। उसके फनपर हमें कोई शंका नहीं थी। सिर्फ अपनी किस्मत पर शक था। कुछ सवाल और ढेर सारी आशाओं के सितारे चमकना लाजिमी था।

‘क्या गारंटी है कि यह कामयाब होगा?’ मैंने पूछा था या शायद सुनील ने।

‘कोई गारंटी नहीं। इस दुनिया में मौत के अलावा किसी चीज की गारंटी नहीं जिसके काफी पास हम पहुँच चुके हैं। अब हम कहीं गारंटी नहीं ढूँढ़ेंगे।’

कुछ सवाल और उछाले गए, कुछ आशंकाएँ और व्यक्त की गईं लेकिन आशंकाओं और हिचकिचाहटों के बकवास बादलों के बीच एक ठोस और नुकीला प्रश्न तीनों के ठीक बीच वाली मेज पर रखा हमें मुँह चिढ़ा रहा था ‘कोई और विकल्प?’ इस सवाल का जवाब पूरी तरह से नकारात्मक आने पर हम उस योजना के क्रियान्वयन पर विचार करने लगे जो पूरी तरह से झूठ पर टिकी थी और इस झूठ के रंग हमारे चेहरों पर लग जाने पर हम बरबाद भी हो सकते थे। पर यह खेल अंतिम दाँव था ‘आर या पार’ सरीखा जिसे हमारे खाली पेट (जिसमें अक्सर सिर्फ पानी और धुआँ भरते रहने के कारण रेलगाड़ी चलती महसूस होती थी) खेलने को मजबूर थे।

फिर जो चीज निकल कर आई वह कुछ ऐसी थी।

‘योग गुरु श्री शाश्वताचार्य विश्व भ्रमण करने और टारंटों में अपने हालिया प्रशिक्षण शिविर के बाद अगले कुछ माह के लिए दिल्ली में हैं। योग से हर शारीरिक समस्या का निदान करने वाले आचार्य इस बार आपकी मानसिक समस्याओं को भी दूर करने का उपाय बताएँगे। प्रशिक्षण और समाधान के लिए संपर्क करें - सचिव, बी-32, तृतीय तल, पांडव नगर, नई दिल्ली

सीधे संपर्क के लिए समय तय करें -

दूरभाष - 9312234178, 9818833048, 9868219486

उन सभी जगहों पर ये पैंफलेट चिपकाए और चिपकवाए गए जहाँ बकौल शाश्वताचार्य ‘आँख के अंधे, गाँठ के पूरे’ लोग रहते थे। ग्रेटर कैलाश, कैलाश कॉलोनी, डिफेंस कॉलोनी, पंजाबी बाग, लोदी गार्डन (जिनमें लाइन मारने जाना हमारा स्वप्न हुआ करता था जो आत्मविश्वास की कमी के कारण स्वप्न ही रहा) जैसे बहुत से इलाकों में हमने अपनी दो बाइ दो की उम्मीदों में लेई लगा कर ऊँची-ऊँची दीवारों और ‘कुत्ते से सावधान’ वाले चमकदार फाटकों (जिनमें आदमी भी रहते थे) पर चस्पाँ कर दिए। कुछ हॉकरों को सेट कर (जो ऐसी कॉलोनियों में अंग्रेजी अखबार डालते थे) अंग्रेजी अखबारों में इस पूरे मैटर का अंग्रेजी तर्जुमा डलवा दिया गया।

हम दोनों योग गुरु के साथ पूरे तन मन से लगे रहते (धन रहता तो लगाने से हम शर्तिया नहीं हिचकते) और मालविका पूरे तन मन व धन से। वह उन दिनों शाश्वत का सबसे बड़ा संबल थी।

दो दिन तक जब न कोई फोन हमारे मोबाइल पर घनघनाया और न ही किसी योग प्रेमी के चरण बी-32 में पड़े तो हमारी हिम्मत डोलने लगी। मैं और सुनील दोनों निराश होने लगे। शाश्वत ने दो साल पहले (जब हमें लोग लौंडियाबाज कहते थे) एक कमललोचनी के कई अंगों को देख उसकी फिटनेस से प्रभावित होकर स्वयं भी फिट रहने के लिए उसके योग संस्थान से बाकायदा योग सीखा था, यही कारण था कि उसका स्वयं पर नियंत्रण उच्चकोटि का था। हमने योग नहीं सीखा था। मैंने तो कुछ भी नहीं सीखा था और सुनील जिस कन्या के हाथों की चपलता देखकर कराटे कक्षाओं में जाने लगा था, उसी से कुछ चपल हाथ खाकर वापस लौट आया था।

चूल्हे पे क्या उसूल पकायेंगें शाम को

तीसरा दिन था। हम पैंफलेट को सामने रख कर उसे घूर रहे थे कि उसमें गलती कहाँ है। शाश्वत अपने मोबाइल (जिसमें सिर्फ दो गेम थे) पर साँप वाला कोई गेम खेल रहा था। सुनील ने बनारसी अंदाज में घोषणा की कि हमारी किस्मत की किताब में हर्फों को लिखने के लिए गधे के एक अंग विशेष को कलम की तरह इस्तेमाल किया गया है। ऊपर वाले लेखक पर यह सीधा आक्षेप था। उसने तुरंत प्रतिकार किया।

मेरा फोन घनघनाया था। जी, जी हाँ बताइए। हाँ, मैं उनका सचिव ही बोल रहा हूँ। कल चार बजे...? जरा रुकिए, मुझे देखने दीजिए। नहीं, क्षमा करें, चार नहीं साढ़े चार बजे। हाँ, हाँ बिल्कुल। शुल्क के लिए हमें कोई निर्देश नहीं है। आचार्य का काम आपकी समस्याओं को दूर करना है, धन कमाना नहीं। अच्छा, हाँ... ठीक है। नमस्कार।

मैंने फोन रखकर दोनों के चेहरों की तरफ देखा। शाश्वत मोबाइल हाथ में लिए मेरी तरफ भौंचक देख रहा था। उसके साँप आपस में लड़ गए थे और खेल खत्म हो गया था। सुनील अपनी आदत अनुसार बहुत खुशी में निर्वात में माँ की गाली देकर किलकारी मारना चाहता था पर मेरी तरफ से हरी झंडी पाने के लिए चेहरे पर विशेष भाव लिए उतावला खड़ा था।

‘कुलदीप खुराना, पेशे से बिल्डर। कल साढ़े चार बजे... पहली अप्वाइंटमेंट। मेरे कुछ और बोलने से पहले दोनों ने मुझे मिलकर मुझे हवा में उछाल दिया। ‘साले क्या एक्टिंग की है। चार बजे... मुझे देखने दीजिए। हा हा हा... साढ़े चार बजे। बहुत खूब। हाहाहाह हाहाह... मजा आ गया।’

टटटाटै टटटाटै ट ट टाटै टाटे टाटे। ये सुनील के मोबाइल की रिंगटोन थी। सारा शोर क्षणांश में थम गया और कमरे में पिन ड्रॉप साइलेंस हो गया। जी, हाँ, हाँ। क्या...? साढ़े चार बजे? जी नहीं, यह समय पहले से बुक है। हाँ पाँच ठीक रहेगा। जी बिल्कुल। ठीक है, नमस्कार।

हम निमिष भर में व्यस्त हो गए थे। शाश्वत योग और ध्यान की ढेर सारी किताबें लाया था और अपने ज्ञान का पुनर्भ्यास और विस्तार कर रहा था। हम भी पढ़ कर सीख रहे थे। आखिर आचार्य के शिष्यों को भी तो प्रवीण होना चाहिए।

शाश्वत किसी भी तरह के शुल्क निर्धारण के खिलाफ था। उसका मानना था कि शुल्क निर्धारित करने से हमारी औकात पता चलने का खतरा है और कुछ फायदे में रहने के बावजूद हम अपनी सीमा बाँध लेंगे। जो उनकी श्रद्धा होगी, वे देंगें। साले बड़े लोग हैं, इनकी श्रद्धा भी बड़ी ही होगी।

इसका फायदा अगले ही दिन दिख गया।

पहले ही श्रद्धालु मरीज ने (जिसने बड़ी मेहनत से अपनी बीमारी खोजी थी) स्वामी श्री शाश्वताचार्य से परामर्श करने और कुछ आसन सीखने के बदले हमारी उम्मीदों से बहुत ज्यादा रुपए अर्पित कर दिए। कुछ प्राणायाम बताने के अलावा आचार्य ने उसके सामने एक रहस्योद्घाटन भी किया कि सुबह उठकर ताजी हवा में टहलने से उसका मधुमेह नियंत्रण में आ सकता है। वह इस रहस्योद्घाटन से कृतकृतार्थ हो गया और आचार्य के चरणों में मय हजार रुपए झुक गया। हालाँकि झुकने से पहले वह क्षणांश को ठिठका था और हमने इसे रीड कर लिया था।

उस पचास वर्षीय मरीज को प्रस्थान करने से पहले हम ऐसी जगह ले आए जहाँ से आचार्य न दिखें। आचार्य के विषय हमने ऐसी ऐसी छोड़ी कि उसे आश्चर्य में भरकर हमारा वांछित प्रश्न पूछना ही पड़ा।

‘आचार्य जी की उम्र कितनी है?’

‘श्री आचार्य जी की अवस्था इस समय सैंतालिस वर्ष है पर योगबल से उन्होंने इसे सत्ताईस पर रोक रखा है। अब योगबल से उनकी अवस्था तीन वर्ष में एक वर्ष इतनी बढ़ती है।’

योगप्रवीर श्री सुनील के मुख पर इस झूठ का आभामंडल साफ देखा जा सकता था कि कैसे उन्होंने अट्ठाईस साल के लौंडे को खड़े-खड़े सैंतालिस का बना डाला। उनकी शिष्या सुश्री मालविका बहन भी कोई अड़तीस चालीस के आस पास थीं और उनके चेहरे पर तेइस साल की कन्या की कमनीयता थी। वाह योग... आह योग।

दुकान का विस्तार और एक मद्धम-सी उम्मीद

तो हमारा धंधा चल निकला। और वह भी काफी कम समय में। हमने इस अविश्वसनीय काम को संभव बनाने के लिए सिर्फ एक सावधानी बरती थी। वह था मीडिया को अपने साथ मिला लेना। शाश्वत ने समझ लिया था कि इस युग की सबसे बड़ी और सबसे भ्रष्ट शक्ति यही है जो किसी को भी उठा और गिरा सकती है। हमने अपने सारे क्रेडिट और संपर्क खँगाल डाले और मीडिया को साम दाम दंड भेद से अपने साथ कर लिया था। यही कारण था कि हम चार दिन की उपलब्धि एक दिन में पाने लगे थे। फिर भी हमारे सामने कई परेशानियाँ थीं। मसलन हमारे पास आगंतुकों से मिलने के लिए कोई अच्छा स्थान नहीं था। आचार्य थोड़ी दूरी पर स्थित एक सुंदर और साफ पार्क (जिनकी संख्या दिल्ली में साफ पानी के नलों से ज्यादा है) में सुबह-शाम अपना अड्डा जमाते और इस बीच सिगरेट की तलब होने पर जार-जार छटपटाते। पार्क में हरी घास पर श्वेत वस्त्र (सफेद कपड़ा नहीं) बिछा कर नेत्र (आँखें नहीं) मूँद कर बैठ जाने पर इतना दिव्य लुक आता कि साला ग्राहक हमारे जाल में यूँ चुटकी बजाते फँस जाता।

किसी के पेट को कम करने के लिए आचार्य उसे उग्रासन करके दिखाते, किसी की रीढ़ के दर्द को चक्रासन का रामबाण सुझाते, किसी का पेट साफ कराने के लिए पवनमुक्तासन की राह पकड़ाते। आचार्य कुछ ही दिनों में बम पारंगत हो गए थे। बैठे-बैठे सट से शीर्षासन कर लेते और उसी अवस्था में शरीर की शुद्धता और पवित्रता जैसे पूरब विषय पर बोलते तो अगले ही पल शरीर की नश्वरता और आत्मा की सनातनता जैसे पश्चिम विषय पर अपना ज्ञान बघारने से खुद को नहीं रोक पाते। जैसा कि हमेशा से होता आया है, जनता को जितनी ज्यादा वाहियात चीज हो उतनी ज्यादा पसंद आती है, आचार्य के प्रवचनों की माँग योग और आसनों की अपेक्षा बहुत ज्यादा बढ़ने लगी।

शाश्वत के ‘बोलने’ के हम शुरू से कायल थे। उसकी आवाज साफ थी, उच्चारण शुद्ध था और उसके पास दिमाग था। उसने हमसे राय बात की, कई कोणों से विचार किया गया और दुकान का विस्तार करने का निर्णय लिया गया।

उसने पूरे दस दिनों तक गहन होमवर्क किया। खूब देखा, खूब सुना और खूब पढ़ा। सुबह दो तीन घंटे चैनल बदल बदल कर दाढ़ी वाले और क्लीन शेव्ड बाबाओं, बापुओं, स्वामियों और आचार्यों को ध्यान से सुनता, गुनता और कुछ नोट भी करता जाता। दिन में कई ऐसे गुरुओं के होम प्रोडक्शन की किताबें व पत्रिकाएँ पढ़ता और सोचने लगता, कभी हँस पड़ता और हमें भी कुछ सुनाता रहता।

एक बापू ब्रह्मचर्य विशेषज्ञ थे। भारत की जनसंख्या को नियंत्रित करने का उनका एक ही और सबसे असरदार अस्त्र (जिसे वे ब्रह्मास्त्र कहते थे) था ब्रह्मचर्य। उनके अनुसार औलादें औलाद नहीं ब्रह्मचर्य खंडन का परिणाम हैं। उनके ब्रह्मचर्य विषयक प्रवचन इतने असरदार होते कि परिवार समेत प्रवचन सुनने गया गृहस्वामी पत्नी और बच्चों को तंबू में छोड़ अकेला ही घर लौट आता। बापू ने ब्रह्मचर्य न पालने के परिणामों पर कई डरावनी पुस्तके भी लिखी थीं। कोई इज्जतदार इनसान इनमें से एक भी पढ़ ले तो उसे एक बार भी ब्रह्मचर्य खंडित होने पर इतनी ग्लानि हो कि वह तुरंत आत्महत्या कर ले। पालन के कई उपायों में से एक मंत्र का जाप भी था। कमाल यह पता चला कि कई पति इस मंत्र का जाप करते हैं और अपनी पत्नियों से अलग सोने लगे हैं। इस सफलता की बात को बापू कई बार अपने प्रवचनों में दिन दहाड़े बताते भी हैं।

एक बाबा जिन्हें योग सिखाने का जुनून था यह कहते हुए पाए गए कि भले ही सुबह खाने को न मिले, योग जरूर करना चाहिए। बिना खाए योग करने पर यदि कोई बीमारी हो जाए तो उसके इलाज के लिए उनके पास एक से एक औषधियाँ थीं जो उनकी पाँच सौ करोड़ की टर्नओवर वाली कंपनी में बनाई जाती थीं।

एक आचार्य थे जो हिंदू धर्म के बहुत बड़े झंडाबरदार थे। प्रवचन में उनके दो पसंदीदा विषय थे ‘मैं’ और ‘श्रीराम’ (श्रीराम और मैं नहीं)। जो भक्त इन दोनों विषयों में रुचि नहीं रखते थे उनमें वह रुचि नहीं रखते थे। अपने ईश्वर में इतनी श्रद्धा रखते थे कि उनके विषय में बातें करते वक्त उनकी आँखों से श्रद्धा के आँसू निकल आते (उनके साथ-साथ भक्तों के भी) और दूसरों के ईश्वरों से इतनी घृणा करते थे कि उनकी आँखों से लुत्तियाँ निकलने लगतीं (उनके साथ-साथ भक्तों के भी)। वह कक्षा में बच्चों को पढ़ाने की शैली में प्रवचन करते। वह सवाल करते, बच्चे जवाब देते।

दस दिन के अथक परिश्रम के बाद ऐलान-ए-शाश्वत कुछ यूँ था।

‘बेकार ही दस दिन इन सब पर रिसर्च की। ये लोग जो दिस दैट बोलते रहते हैं, मैं उससे लाख गुना अच्छा बोल सकता हूँ। बस ये ध्यान रखना है कि आवाज में थोड़ी माइल्डनेस और लानी है। साथ ही शाहरुख खान की तरह थोड़ी ओवरएक्टिंग भी सीखनी है ताकि बोलते-बोलते रोना आ जाए।’

‘और हाँ, अगर बोलना हो’ सीता की आँखों में आँसू आ गए तो बोलना पड़ेगा ‘मृगनयनी सीता माता के कमल लोचनों में जल भर आया’ और मुँह पूरा खुल जाना चाहिए और आँखें आधी बंद।’ यानी सुनील भी धंधे में पूरा ध्यान दे रहा था।

...आखिर यह भी हुआ और खूब हुआ। देखा, इस देश में जितनी अच्छी पैकिंग हो, चीज उतनी अच्छी बिकती है, शाश्वत ने कहा था। सचमुच, लोग चुपके से चंदा वगैरह भी देने लगे थे। बदले में वह अपने व्यवसायिक प्रतिद्वंदी को परास्त करने का रास्ता पूछते या किसी की पत्नी को अपने आगोश में प्राप्त करने का मंत्र यंत्र। आचार्य का काम यह नहीं था। उन्होंने ऐसे कई श्रद्धालुओं को डाँटकर भगा दिया था। मगर यह काम अब सुनील ने सँभाल लिया था। मोटी रकम के साथ आए ग्राहक को वह कोई चिरकुट सा धागा अभिमंत्रित बता कर थमा देता या सुडोकू जैसा कुछ बनाकर उसे कारगर यंत्र बताकर टिका देता। यह दीगर बात है कि शाश्वत को जब भी यह पता चला तो दोनों में जमकर बहस हुई जिसमें हर बार मालविका ने सुनील का पक्ष एक स्लोगन के साथ लिया - बिजनेस इज बिजनेस।

हमारा समय फिल्मों की तरह चट से बदल गया था। शाश्वत का नायक की तरह (उसके पास नायिका थी) और हमारा नायक के दोस्तों की तरह। वरना कुछ समय पहले तक हम इतनी बार टूट टूट कर जुड़े थे कि हमारे जोड़ मुस्कराहट के कपड़ों के ऊपर से भी साफ दिखते थे। अब नहीं। अब हमारे जोड़ों पर समय ने धन, सम्मान और खुशियों से प्लास्टर कर दिया था और हम मजबूत बन गए थे, थोड़े भारी भी। हमने मयूर विहार में एक फ्लैट ले लिया था और राजाओं की तरह ऐश कर रहे थे। एक बाबा के सौजन्य से गुड़गाँव के एक बहुत भीतरी इलाके में एक झोपड़ी भी डाल दी थी जिसे मीडिया ने हमारा आश्रम बताया और लोगों के हुजूम को बड़े आराम से उधर मोड़ दिया। ‘ये मीडिया और ये बाबा, सदी की दो सबसे ताकतवर और भ्रष्ट चीजें मिलेंगी तो कमाल तो होगा ही, ‘शाश्वत अपने पाँव छूने को बेताब लोगों की भीड़ को देखकर अक्सर मालविका से कहता। मालविका का फ्लैट मालवीय नगर में था पर वह ज्यादातर हमारे घर में ही रहती। जब हम साथ होते तो आगे के प्रवचन और कार्यक्रम की रणनीति बनाते और जब हम हट जाते तो शाश्वत और मालविका अपने भविष्य की रणनीति बनाते। ज्यादातर बातें कमरों के पर्दों के रंग, बड़े घर, और बड़ी गाड़ी पर होतीं।

उस दिन अचानक बातों का रुख पता नहीं कहाँ से कहाँ मुड़ गया।

शाश्वत की गोद में मालविका का सिर था और चारों तरफ हल्के प्रकाश में गाढ़ा प्रेम मिला हुआ था।

‘क्या हुआ? बहुत खामोश हो।’ मालविका ने सिर को टेढ़ा करके उसकी तरफ नजरें घुमाईं।

‘कुछ नहीं। बस यूँ ही...कुछ सोच रहा हूँ।’

‘क्या...?’

‘यही कि हम क्या कर रहे हैं।’

‘क्या कर रहे हैं? प्यार कर रहे हैं।’

‘नहीं, मैं हमारे व्यवसाय के विषय में बात कर रहा हूँ।’

‘क्या...?’

‘मुझे कभी-कभी ये सब अच्छा नहीं लगता। हालाँकि मैं अपने प्रवचनों में जो कहता हूँ, उसका अर्थ मुझे भली-भाँति पता है पर उनमें से कुछ बातें मुझे कभी-कभी बहुत सही लगने लगी हैं।’

‘तो...?’

‘मुझे आश्चर्य होता है कि मेरे प्रवचनों में बहुत भीड़ होती है। हजारों लोग आते हैं, मेरी बातों को ध्यान से सुनते हैं, मेरी हाँ में हाँ मिलाते हैं पर कहीं कुछ बदलता नहीं है।’

‘क्या बदले...? क्या चाहते हो तुम?’

‘मत उठो मत, लेटी रहो। पता नहीं क्या चाहता हूँ पर संतुष्ट नहीं हूँ। जानती हो जब मैं जब छोटा था तो सारी बुरी चीजों को देखकर सोचता था कि मुझे कहीं से कोई शक्ति मिल जाए गायब होने की तो सबकी परेशानियाँ दूर कर दूँ...।’

‘? ’

‘दरअसल इस कार्यक्रम को करते-करते न जाने कब मेरे अंदर एक और लालच भी जाग चुका था... सुंदरता को कायम करने का। बदसूरती को दूर करने का। एक खूबसूरत दुनिया बनाने का...लोगों को फूलों से प्रेम सिखाने का, उन्हें तितलियों, पहाड़ों और नदियों की खूबसूरती समझाने का। नफरत की बदसूरती दिखाने का...प्रेम का...। ‘

‘ये आज कैसी बे-सिर पैर की बातें कर रहे हो ? ‘

‘तुम उठ क्यों गई? जानती हो हम ये समझ रहे हैं न कि हम जनता को मूर्ख बना रहे हैं। हम दरअसल उन्हें अच्छी बातें बता रहे हैं पर वे हमें मूर्ख बना रहे हैं। वे कुछ भी ग्रहण नहीं करते न करना चाहते हैं। मैं सोचने लगा था कि मैं किसी को कुछ दे सकता हूँ, सिखा सकता हूँ। संतोष, आदर, प्रेम... वे कुछ लेकर नहीं जाते। दरअसल यह एक हास्यास्पद मगर क्रूर खेल है जिसमें हम मोहरे ये समझते हैं कि हम इस खेल के सूत्रधार हैं। मगर जो सूत्रधार हैं वे हम मोहरों से मनोरंजन करके, थोड़ा हँसकर, थोड़ा रोकर अपने घरों को चले जाते हैं, एक नई ताजगी के साथ। अब मुझे सब पाखंडी बाबाओं पर गुस्सा नहीं आता। वे जनता को मूर्ख बना रहे हैं पर कुछ शब्द उनके जरिए लिए जा सकते हैं, प्रेम, सम्मान, शांति...। पर कुछ नहीं, हमसे खेलने वाले बहुत क्रूर हैं। उस दिन जो झगड़ा हो गया मेरे प्रवचन के दौरान वाहन स्टैंड में...।’

‘ओह तो तुम उस छोटी सी वजह से परेशान हो...?’

‘परेशान नहीं...। बात कुछ और है। पर हाँ, परेशान तो हूँ ही। दरअसल उस दिन मैं रिश्तों और जीवन में धैर्य पर बोल रहा था। तुमने देखा न, मैं खूब बोला और कई कहानियाँ और प्रेरक प्रसंग सुनाए। जब मैंने पूछा कि कितने लोग अब से जीवन में धैर्य का पालन करेंगे और क्रोध पर नियंत्रण करेंगे, तो जानती हो क्या हुआ? ’

‘?’

‘कोई ऐसा नहीं था जिसने हाथ न उठाया हो। मुझे न जाने क्यो थोड़ी सी खुशी भी हुई थी उस समय जबकि मैं शायद हमेशा की तरह अभिनय ही कर रहा था। मुझे लगा...।’

‘छोड़ो न, हम भी क्या बातें लेकर बैठ गए। ये बताओ गाड़ी के बारे में क्या सोचा? तीनों ए.सी. लेंगे। यह क्या कि तुम्हारी गाड़ी ए.सी. और बाकी लोग साधारण गाड़ी में। तीनों कारें ए.सी. होंगी। जनता में भी सही और भव्य छवि बनेगी। सुनील होंडा सिटी के लिए ही कह रहा था। तुम क्या कहते हो ?

‘ठीक है। जैसा तुम लोगों को ठीक लगे, करो।’ यह कहकर वह बालकॅनी में आ गया और सिगरेट पीते हुए एकटक सितारों की ओर देखने लगा। ‘

मालविका भी कायदे से उसके पास आती और उसकी परेशानी की असली वजह खोजने में उसकी मदद करती पर उस समय वह इतनी खुश थी कि फोन मिलाकर सुनील से बातें करने लगी।

कमरे का प्रकाश धीरे-धीरे बहुत मद्धम होता जा रहा था।

उन बेरौनक दिनों की नींव

अब तक हमारी अध्यात्म की राष्ट्रीय कंपनी बहुत अच्छी चल रही थी। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ हमसे हाथ मिलाना चाह रही थीं। यह वह दौर था जब हम उन सभी चेहरों के संपर्क में आए जिन्हें देख सुन कर कहीं इस विचार का जन्म हुआ होगा।

एक बाबा जिन पर अपने आश्रम के लिए सरकारी जमीन हड़पने का केस चल रहा था (पर इससे उस जमीन पर का एक पौधा तक नहीं उखड़ पाया था), हमसे अपनी कंपनी का टाइ-अप करके युवाओं के हित में कई नई नई आध्यात्मिक स्कीमें चलाना चाहते थे। उनकी कंपनी का टर्न ओवर देश की अग्रणी कंपनियों में था। एक पूर्व प्रधानमंत्री तक उनकी कंपनी का नियमित ग्राहक था जिसे वह अपनी कंपनी का ब्रांड अंबेसडर बना कर पेश किया करते थे और देश-विदेश के भक्तों की आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार कराते थे व लंकाकांड बाँचते समय जरूर रोते थे।

एक बाबा जिनका कॅरियर ग्राफ बिल्कुल शाश्वत की तरह था यानी वह प्रवचन इंडस्ट्री में वाया योग अध्यापन आए थे, उन दिनों दो ही काम कर रहे थे। कैंसर और एड्स का इलाज योग और आयुर्वेद (मतलब उनकी कंपनी में बनी आयुर्वेदिक दवाइयाँ) से करने का दावा और शाश्वत को अपने खेमे में खींचने की कोशिश।

शाश्वत ने सबसे मुलाकातें की, किसी को निराश नहीं किया। सबको अपना बड़ा भाई माना (पिता मानने पर एक बाबा जो प्रवचन में साठ साल वालों को भी बेटा कहते थे, भड़क गए थे और अपनी पालतू नवयौवनाओं के सामने अपने दीर्घ स्तंभन की दो- चार डरावनी कहानियाँ सुना डाली थीं)। सबको आश्वस्त किया कि वह आध्यात्म इंडस्ट्री के नियमों के अनुसार ही चलेगा।

मगर इसमें एक अड़चन थी।

यह कदम तो उसने बहुत पहले ही सोच कर इस पर पर्याप्त शोध किया था। मार्केट में प्रचलित सभी बाबाओं से अलग और लोकप्रिय छवि बनाने के लिए, कुछ अलग। सबसे बीमार और सबसे गरीब बस्ती में उतर कर जमीनी कार्य। मीडिया जिसे खरीदने के लिए सिर्फ जेब में हाथ डालने की जरुरत भर थी, बहुत पहले ही सेट कर ली गई थी।

हालाँकि उसने इसके क्रियान्वयन में थोड़ी आनाकानी दिखाई। उसकी तबियत थोड़ी खराब थी शायद। पर चूँकि कार्यक्रम तय था, हमने समझा बुझा कर उसे फील्ड में उतारा।

वह उनकी बस्ती में उतरा तो बस्ती के लोग ऐसे उतरा गए जैसे उनकी बस्ती में स्वयं नारायन आए हों। शाश्वत बस्ती को और वहाँ के लोगों को देख कर हैरान हुआ। हैरान और क्रोधित तो मैं भी हुआ था। हमें यही बस्ती चुननी थी? चारों तरफ रोगों और गंदगी का साम्राज्य था। ऐसी-ऐसी बीमारियाँ फैली थीं कि कमजोर लोग नाम सुनकर ही छुआछूत का शिकार हो जाएँ। सुनील मजे में बाकी काम सँभाल रहा है और मैं फालतू में इसके साथ फील्ड में उतर आया।

उस बस्ती में नंग-धड़ंग बच्चे गलियों में अपने गरीब खेल खेलते दिखाई देते। साइकिल के बेकार हो चुके टायरों को धकेलते हुए वे उसके पीछे दौड़ते। कुछ एक दूसरे को कपड़े से बनी गेंद से मारने का खेल खेलते हुए आपस में माँ-बहन की गालियाँ देते हुए दौड़ते। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचना का प्रमाण अपने बदन और वदन पर लिए लोगबाग अपनी झुग्गियों के बाहर बैठ कर गाँजा, बीड़ी और तंबाकू का सेवन करते और हर बार नए कारणों से भीतर काम कर रही स्त्रीलिंगों को गालियाँ देते। गालियाँ देते वक्त बस्ती वाले पुत्री और पत्नी में भेद नहीं रखते थे। पिता और पुत्र इन्हें गालियाँ देते समय अपने झुके कंधे मिला लेते और इससे थक कर आपस में एक दूसरे को गलीज गालियाँ देते और छोटे-छोटे मुद्दों पर महाभारत जैसा घमासान करते।

इस समय बस्ती महामारी की चपेट में थी। सभी निवासी शरीर और सूरत से ही बरसों के रोगी नजर आते। किसी का शरीर सिर्फ हड्डियों का ढाँचा नजर आता तो किसी के शरीर में सिर्फ पेट ही नजर आता। सारा दृश्य किसी डरावने स्वप्न जैसा लगता। हर कदम पर पिछले से बढ़ कर हौलनाक व वीभत्स दृश्य दिखाई देते। ऐसा लगता अब यह स्वप्न इस अतिरंजक दृश्य से टूट जाएगा पर अगले ही क्षण उससे भी दहलाऊ दृश्य उपस्थित हो जाता। उल्टियों से भनभना रही बस्ती में मीडिया को कोई बहुत ज्यादा उत्साहजनक बात नजर नहीं आई। उन्होंने थोड़ी देर शाश्वत को कवर किया, थोड़ी लाइव की और नाक बंद कर, जान बचा कर चले गए।

अब हमें भी चल देना चाहिए था। मैंने चलने का प्रस्ताव रखा पर शाश्वत को न जाने क्या हो गया था। लोगों ने उसके पाँव छुए और सिर्फ एक बार अपने घरों में घुसने और बीमारों के सिर पर हाथ फेरने की विनती की। उनका विश्वास था कि उसके हाथ लगाने से ये लोग, ये लोग जो कई बार पहली नजर में भ्रम से एक लाश जैसे दिखते थे, ठीक हो सकते हैं। वह एक-एक करके सबके घरों में जाने लगा। लोग उसके स्वागत में डायरियाग्रस्त मरीजों की उल्टियों पर फटाफट मिट्टी डाल रहे थे। कुछ जिद्दी कुत्ते उस मिट्टी को पैर से हटाकर उल्टियों को जल्दी से जल्दी साफ कर रहे थे। मैंने उसे कई बार टोका। मारे बदबू के मैं बेहोश हुआ जा रहा था। वह सबके पास जा-जाकर बैठ रहा था।

‘आप हमारी बस्ती में थोड़ी देर रुक जाएँ तो सभी बीमारियाँ भाग जाएँ।’

‘यह मेरा दो साल का बेटा है। सुबह से आठ उल्टियाँ कर चुका है। देखिए इसका शरीर कैसे ऐंठता जा रहा है। इसके माथे पर हाथ फेर दीजिए आचार्य जी।’

‘मेरी पत्नी और बेटी दोनों उल्टी और दस्त से खाट से जा लगी हैं। मैंने दवाइयाँ खिलाईं और पानी भी पिला रहा हूँ पर बीमारी बढ़ती जा रही है गुरुदेव। दया करें।’

‘मेरे पिताजी को न जाने क्या हो गया है प्रभु। बहुत हिलाने पर भी कुछ बोल नहीं रहे हैं। आप एक बार देख लीजिए महाराज।’

मैं जितनी जल्दी हो सके इस नर्क से दूर भाग जाना चाह रहा था। मुझे लगा मैं थोड़ी देर भी और रुका तो मैं भी उल्टी करने लगूँगा।

‘मैं गाड़ी में बैठा हूँ आचार्य, आप जल्दी आएँ। ‘ मैं बस्ती के बाहर खड़ी होंडा सिटी में आकर उसका इंतजार करने लगा। पर बाप रे...वह शाम को आया। पाँच घंटे बाद जब मैं कार में लेटे-लेटे दो नींदें ले चुका था। वह बिल्कुल टूटा सा दिख रहा था, थका हारा, निराश और बदहाल। इसे घर चलकर तुरंत गरम पानी से नहा लेना चाहिए, मैंने सोचा।

घर पहुँच कर वह कुछ बोला नहीं और अपने कमरे में जाकर पड़ गया। उस दिन सुनील का जन्मदिन था। मालविका सुनील के लिए उसकी पसंदीदा मिठाई लाई थी। हमने मिठाई खाई, थोड़ा डांस किया और सुनील को उपहार दिए। काफी कहने के बावजूद शाश्वत कमरे से निकल तो आया पर एक भी मिठाई नहीं खाई। हमारी दोस्ती का यह पहला साल रहा जब हममें से किसी एक का जन्मदिन रहा और तीनों ने साथ शराब नहीं पी। उस दिन भी हम तीन पी रहे थे पर शाश्वत नहीं था। मालविका द्वारा जब जब प्रेम का वास्ता और कसम दिए जाने पर भी जब वह पीने को तैयार न हुआ और कमरे में बंद हो गया तो मालविका का मूड खराब हो गया। उसने गुस्से की पिनक में एकाध पैग ज्यादा पी लिया और सुनील जब उसे सहारा देकर उसके घर ले जाने लगा तो वह उसकी बाँहों में झूल गई। शायद नशे की अधिकता से वह होश खो बैठी थी।

बाजीचा-ए-अतफाल है दुनिया मेरे आगे

चीजों को जानना उनके खिलाफ होना है। प्रेम, वासना, मोह, आकर्षण आदि न दिखाई देने वाली चीजों से दुनिया चलती है और दिखाई देने वाली चीजों के लिए मरती मारती है। यह दुनिया न भोजन से चलती है, न धन से, न प्रेम से। ये सब भ्रम हैं। ये संचालित होती है दुखों के अकूत भंडार से। अकूत दुख हैं यहाँ। कई प्रकार के, कई आकार के, कई रंगों के, कई महक के...। कुछ खुले रूप में रखे हुए हैं और कुछ बंद दरवाजों के पीछे रखे हुए हैं। पर तुम इतने मूर्ख हो कि उस बंद दरवाजे को खटखटाने का मोह छोड़ नहीं पाते। तुमने देखा कि तुम्हारे पड़ोसी ने उस दरवाजे पर दस्तक दी और उसे दुख ही मिले पर अपने भाग्य को आजमाने को तुम विवश हो। तुम फिर-फिर वही गलती दोहराते हो और दुखों के अकूत भंडार में सिर से पाँव तक धँसते चले जाते हो। तुमने क्या कभी उन क्षणों को अनुभव किया है जब तुम पूरी दुनिया से वीतरागी हो जाते हो? तुम्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता, धन, भोजन, परिवार, मनोरंजन। तुम्हें किसी चीज की आकांक्षा नहीं रहती, यश, संतुष्टि, आराम, संभोग, समष्टि। अगर वह क्षण तुमने जीवन में एक बार भी अनुभव किया है तो इसका अर्थ है कि तुम्हारे भीतर मनुष्यता का एक अंश शेष है... अब भी। वह क्षण ही इस दुनिया का वास्तविक सत्य है। उस समय यदि तुम्हें पारस भी मिले तो तुम उसे ठोकर मार दो। वही सबसे पवित्र अर्थात सुख और दुख के मध्य की स्थिति है यदि कुछ समय रहे तो। पर तुम थोड़ी देर बाद ही फिर से सुखों के रूप में आए दुखों की ओर आकर्षित हो जाते हो। मैं तुमसे यह सब क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि यही सत्य है। अब तक मैं तुमसे जो कुछ भी कहता आया हूँ, विशेष तौर पर जीवन की सुंदरता के विषय में वह सब झूठ है, सर्वथा मिथ्या। जीवन कतई सुंदर नहीं है। नहीं, मैं पागल नहीं हो रहा हूँ। विक्षिप्तता हालाँकि एक आनंद है। दुखों के मूल भिज्ञता से जितना दूर खिसका जाएगा विक्षिप्तता उतनी ही पास आती जाएगी। विक्षिप्त मनुष्य धरती पर ईश्वर है। पर धरती के अलावा भी कहीं क्या ईश्वर है? नहीं, नहीं है और यदि है भी तो धरती पर प्राप्त क्रूरतम प्राणी से भी क्रूर है तुम्हारा ईश्वर!

एक बस्ती है मेरी नजर में। मेरी नजर में एक है, तुम्हारी नजर में भी एक होगी। यह बहुत बड़ी है। यह दुनिया के हर कोने में फैली हुई है। वहीं ईश्वर नहीं पहुँचता क्योंकि वह तुम्हारी जेबों में ओझल है, तुम्हारी तिजोरियों में कैद है और तुम्हारे शरीर पर रहता है। उस बस्ती के हर घर में एक-दो बीमार लोग हैं। हर घर में। क्या तुम बता सकते हो उनकी बीमारियाँ क्या हैं? नहीं हैजा और डायरिया तुम्हें होते हैं क्योंकि ये ठीक भी हो सकते हैं। उनके रोग कभी ठीक नहीं होते। उनकी बीमारियाँ बड़ी रहस्यमय हैं। जब उनके परिवार का एक सदस्य कुछ ठीक सा दिखाई देने लगता है तो दूसरा बीमार पड़ जाता है और यह सिलसिला चलता रहता है।

मैं आप सभी भक्तों से, जो प्रवचन में उपस्थित हैं और जो नहीं भी हैं, अपील करता हूँ कि बस्ती में चलें। तन, मन, धन जिस तरह भी संभव हो, उनकी सेवा करें। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि ईश्वर यदि कहीं हुआ तो वहीं मिलेगा।

बिगड़ी मनःस्थिति या पागलपन?

एक दिन तो वह मालविका को भी बस्ती में ले गया। वह बस्ती के दृश्य देखकर भागने लगी। उसका दुपट्टा नाक पर आ गया और भौंहें चढ़ गईं।

‘मेरा साथ नहीं दोगी?’

‘दूँगी, पर इस नर्क में नहीं...।’

‘यदि नर्क ही मेरी नियति बन जाए?’

‘मुझे जाने दो शाश्वत।’

वह हाथ छुड़ाकर भागी तो न जाने क्यों शाश्वत की नजरें बड़ी देर तक उस रास्ते पर लगी रहीं जिससे वह गई थी और थोड़ी देर बाद अचानक वह रहस्यमय ढंग से मुस्कराने लगा था। उसकी मुस्कराहट खासी डरावनी लगी थी।

शाश्वत अब अकेला था। कई प्रवचनों में लगातार भक्तों से अपील करते रहने के बावजूद एक भी भक्त उसके साथ नहीं था।

मुझे जल्दी ही महसूस हुआ कि शाश्वत का यह कदम गलत ही नहीं बल्कि बेवकूफी से भरा हुआ है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के कुछ बाबा भी उसके इस कदम से नाराज थे। कुछेक ने फोन करके कहा कि शाश्वत को ये मूर्खताएँ करने से रोको वरना वह किसी भयंकर बीमारी की चपेट में आ जाएगा।

अब वह नियम से बस्ती में जाने लगा था। बल्कि कुछ समय बाद तो वह नियम से फ्लैट पर आने लगा था। मीडिया ने उसे कवर करना छोड़ दिया था और भूत-प्रेतों और फिल्मी सितारों के विवाह जैसी महत्वपूर्ण चीजों को कवर कर रही थी। हम असमंजस की स्थिति में थे। हर विषय पर हमसे चर्चा कर निर्णय लेनेवाला शाश्वत उधर से ही एक पारदर्शी साउंडप्रूफ खोल में बंद होकर आता। हम कुछ बोलते तो उसे हमारे होंठ हिलते दिखाई देते और वह मुस्करा देता। वह अव्वल तो कुछ बोलता नहीं और बोलता तो हमें सिर्फ उसके होंठ हिलते दिखाई देते या मिलतीं न समझ में आनेवाली बातें।

उस रात सभी चोटी के बाबा हमारे फ्लैट पर आधे घंटे के लिए आए थे, शाश्वत को समझाने। वह रात ग्यारह बजे रोज रात की तरह थका हुआ आया। हम सभी कुर्सियों पर बैठे उसका इंतजार कर रहे थे। वह आया और एक कुर्सी पर ढेर हो गया गोया भरभरा कर झर गया हो। बाबाओं ने उसे अलग-अलग चीजों का अलग-अलग तरीके वास्ता दिया। पता नहीं वे सच में शाश्वत के हितैषी थे या शाश्वत की संभावित प्रसिद्धि से डर रहे थे। वह सब चुपचाप सुनता रहा।

‘खतरा यह नहीं कि ईश्वर मर चुका है।’ वह अचानक मुस्कराता हुआ बोला।

‘बल्कि खतरा इससे है आध्यात्मिक बनियों कि नीत्शे भी मर चुका है। मर गया है नीत्शे भी।’ वह उनका मजाक उड़ाता हँसने लगा।

‘मुझे आपके उस राम पर जरा भी श्रद्धा नहीं जो एक तरफ तो एकपत्नीक होने के कारण पुरुषोत्तम कहा जाता है तो दूसरी तरफ एक महिला के प्रणय निवेदन के जवाब में उसका परिहास करता है और उसके नाक कान तक काट लेता है।’

बाबा व्हिस्की का घूँट भरते हुए रुक गए। उनकी आँखों से लुत्तियाँ निकलने लगीं और वह पैग खत्म कर चलते बने।

‘आपका योग और इसके प्रयोग से देश को निरोग बनाने का संकल्प दोनों झूठे हैं। क्यों नहीं चलते आपके प्रशिक्षण शिविर पिछड़े गाँवों में? क्यों रहते हैं महीने में बीस दिन विदेशों में?’

शाकाहारी योगगुरु नमकीन खाते खाते रुक गए, धीरे से कुर्सी से उतर कर सुनील के पास ठिठके और बाहर निकल गए। उनका एक संवाद बड़े डरावने तरीके से कमरे में देर तक गूँजता रहा था, ‘अफसोस, तुम्हें पता ही नहीं कि तुम किन लोगों की अवहेलना कर रहे हो और तुम्हारे साथ क्या-क्या हो सकता है?’

‘और आप? ब्रह्मचर्य की क्या अवधारणा है आपकी? आप क्यों अपने मनु महाराज की बात उद्धृत करते रहते हैं कि व्यक्ति को माँ, बहन और पुत्री के साथ भी एकांत में नहीं बैठना चाहिए क्योंकि इंद्रियाँ बड़ी बलवान होती हैं। यह कथन क्या बताता है? कौन बड़ा मानसिक रोगी है? आप या आपके मनु महाराज?’

‘यही सब सुनवाने के लिए बुलवाया था सुनील?’ बापू बोले और खड़े हो गए। फिर शाश्वत की तरफ देखते हुए बोले, ‘मर जाओगे यदि भीड़ को बता दोगे कि तुम उनमें से हो। अगर जीवन के ऐश्वर्य को भेगना है तो एक ही रास्ता है, भीड़ जो कि भेड़ होती है उसे भरोसा दिलाओ कि तुम उनमें से नहीं हो। तुम विशिष्ट हो।’

‘निकल जाओ सब के सब। अभी, इसी समय।’ शाश्वत चीखा और कमरा खाली हो गया। अब हम चार बचे थे। सुनील क्रोध में हिंसक नजर आ रहा था। उसने मुर्गे की टाँग एक बार में ही खाली कर दी और अपना पैग एक साँस में खाली कर गया।

‘क्या नाटक लगा रखा है? क्या चाहते हो आखिर तुम?’ एसकी आवाज नशे में फँस रही थी।

‘कुछ नहीं, सिर्फ दुखों का शाश्वत समाधान।’ वह बिल्कुल शांत नजर आ रहा था।

‘क्या दुख दुख चिल्ला रहे हो? कहाँ है दुख?’ सुनील ने बात पर जोर देने के लिए नशे की झोंक में मेज पर रखा पापड़, नमकीन और चिकन जमीन पर गिरा दिया। ‘कहाँ है दुख? कहाँ है, दिखाओ मुझे।’ उसकी तेज आवाज पूरे अपार्टमेंट में गूँज गई। उसका चेहरा लाल होकर तमतमा रहा था और वह चीखता हुआ हिस्टीरिया का मरीज लग रहा था। मैं और मालविका स्तब्ध थे।

शाश्वत शांत भाव से सोफे पर बैठ गया और सुनील की ओर ममता भरी नजरों से देखता हुआ बोला, ‘मुझे तुम्हारे कॉलर के नीचे खुले बटन से झाँकता दुख दिखाई दे रहा है। अभी वह काले बाल की शक्ल में है जो कुछ समय बाद सफेद होने लगेगा। वह हालाँकि असली दुख नहीं है पर तुम्हारे लिए वही दुख है... एक आसान और सहज दुख।’

‘तुम ऐसी बातें इसीलिए कर रहे हो ना कि तुम दिखाना चाह रहे हो कि तुम कितने महान और ज्ञानी हो और हम कितने निकृष्ट पापी? तुम्हारा मकसद ये है न कि हम तुम्हारी इज्जत करने लगें और सिर्फ तुम्हारा प्रभुत्व मानें? ऐसा नहीं होगा, सुना तुमने? ऐसा नहीं होगा... कभी नहीं। धंधे में हम सबका बराबर हिस्सा है... हम सबका।’

वह गिरता, इससे पहले ही मैंने और मालविका ने उसे थाम कर सोफे पर लिटा दिया। वह उत्तेजना से हाँफ रहा था और उसकी साँसें तेज चल रही थीं। शाश्वत ने हम सब पर एक नजर डाली और कमरे में चला गया।

एक ही दिन में कितनी उम्र बढ़ गई मेरी

अभी तो दिन बीता भी नहीं!

रोज कितने आराम से

चलता चला जाता था दूर तक टहलता

आज क्या हुआ कि घने कुहासे में मेरे पाँव

एक बूढ़ी औरत की लाश में फँस गए

आज मैंने एक बाप को

मरा हुआ बच्चा बिना कफन के गंगा में फेंकते देखा

देखा दो लोग एक बाँस की फट्टी में बाँधे

टाँगे चले जा रहे हैं एक कुचला हुआ शव

दिन में कई-कई बार लाश ढोने वाली गाड़ियाँ देखीं - अरुण कमल

तुम जरूर जानना चाहती हो क्या हुआ है। मैं तो खुद नहीं जानता, तुम्हें कैसे बताऊँ? हाँ यह जरूर जानता हूँ कि वे एक हफ्ते मेरे लिए किसी दुखद स्वप्न जैसे थे। एक ऐसा दुखद स्वप्न जो टूटने से पहले मुझे पूरी तरह बरबाद कर गया।

...जिस दिन मैं पहली बार बस्ती में घुसा था उस दिन मेरे साथ एक हौलनाक हादसा पेश आया था जो मेरे साथ नहीं हुआ था। एक झोपड़ी के सामने एक बूढ़ा अपनी एड़ियाँ रगड़ रहा था। उसकी चंद साँसें ही उसके पास बची थीं। उसकी पत्नी और छोटे बच्चे उससे लिपट कर रो रहे थे और मुझसे उसकी जान बचाने की गुहार कर रहे थे। मैं उनकी जान कैसे बचा सकता था? इसी बीच बूढ़े का जवान बेटा उसके पास आया और उसकी जेब से पैसे निकालने लगा। घर वाले उसे रोकने लपके पर तब तक वह अपने बाप की जेब से पैसे निकाल चुका था। कितने...? कुछ सिक्के जो शायद उसकी जेब में छूटे रह गए थे। सबको लड़के पर बहुत गुस्सा आया पर मुझे लड़के पर बहुत प्रेम और दया आई। वह बाप की हालत देखकर रोने लगा और कच्ची शराब की दुकान पर चला गया। मैं हिल गया मालविका... पूरी तरह हिल गया। एक माँ थी जो अपने बच्चे को सिखा रही थी कि वह जाए और सामने वाली बस्ती की दुकान से कुछ रोटियाँ चुरा लाए ताकि उसके छोटे भाई-बहन खा सकें। वह चुराने में कामयाब हो गया पर अकेले ही सारी रोटियाँ खा गया और माँ की मार खुशी-खुशी खा रहा था। एक लड़की ने आत्महत्या करने की कोशिश की और उसके घर वाले उसे कहीं इलाज के लिए ले जाने की बजाय उसे गालियाँ दे रहे थे। नहीं तुम वजह मत पूछो। मैं खुद नहीं जानता। क्या कुछ चीजें बिना वजह के भी सही या गलत नहीं होतीं? ऐसी बहुत सी घटनाएँ हुईं जो बिना वजह के भी सही या गलत थीं। क्या सही था क्या गलत, मैं इस पर नहीं सोच रहा था... फिर किस पर सोच रहा था? सारी गड़बड़ी तब शुरू हुई जब मैंने यूँ ही... सिर्फ सोचने के लिए उन लोगों में अपने परिवार के चेहरे फिट करके देखा। मेरी प्यारी माँ जो एक दिन के लिए भी घर जाने पर बिना खीर खाए जाने नहीं देती। मेरे पिता जो मुझे अब भी अपनी सेहत का ख्याल न रखने के लिए डाँटते हैं। मेरे बड़े भाई जो मेरे लिए अपने हिस्से की मिठाइयाँ छोड़ दिया करते थे। फिर पता नहीं क्या हुआ... अचानक। मैं पता नहीं कहाँ जा रहा हूँ मालविका।

जानती हो उस बस्ती में एक प्यारा सा बालक मुझे मिला जिसकी आँखों में एक अजीब सी चमक है जो खुशी और कष्ट के बीच की रोशनी है। उसका नाम सिद्धार्थ है। वह कई तरह के कष्टों से घिरा है। वह सिर से पाँव तक नितांत दुख है। वह बस्ती के उन दो-चार बच्चों से भी काफी परिपक्व है जो स्कूल नाम की एक टूटी-फूटी चीज में पढ़ाई नाम का झूठा काम कर के आते हैं। वह सभी बच्चों से अलग है। वह मुझसे अक्सर पूछता है, ‘क्या ईश्वर सचमुच है?’ मैं कुछ देर सोचने के बाद कहता हूँ, ‘हाँ, है।’ तो वह फिर पूछता है, ‘यदि है तो मेरी बीमारियाँ और कष्ट क्यों नहीं दूर करता? मुझे बहुत दर्द होता है, मेरे दर्द क्यों नहीं कम करता वह...?’ जानती हो मै उसे प्रतिदिन कहता हूँ कि ईश्वर जल्दी ही उस ठीक कर देगा और अपने शब्दों के उदास खोखलेपन को महसूसते मेरी आँखें भर आती हैं। वह बच्चा एक अच्छा चित्रकार भी है। सुंदर-सुंदर चित्र बनाया करता है पर स्वयं वह अच्छे रंगों के प्रयोग से बना एक बिगड़ा हुआ चित्र है। पर वही सत्य है।

मैंने ऐसी-ऐसी कहानियाँ देखीं कि सारी तो तुम्हें बता भी नहीं सकता। क्या...? मैं तब के बाद से कुछ ज्यादा दुखी होने लगा हूँ? नहीं तब के बाद से मैं एक अजीब बीमारी से त्रस्त हो गया हूँ। मैं दुखी ही नहीं हो पा रहा हूँ। मैं डरता हूँ कहीं मैं असामान्य तो नहीं हो रहा हूँ। मुझे कितना भी दुखद दृश्य देखकर दुख का अनुभव नहीं हो पा रहा इन दिनों। पता नहीं मेरे भीतर ये बीज कहीं बहुत पहले से दबे थे या फिर मैं इधर बहुत कमजोर हो गया हूँ। मुझे माफ करना, तुम्हारे साथ रहने और तुम्हारे प्रेम में मुझे कुछ भी अनुभव नहीं हो पा रहा है। शायद एक कोटा होता होगा अनुभवों का जो धीरे-धीरे प्रयोग करने पर खत्म होता जाता हो। मुझे जो अनुभव हो रहे हैं वह शायद मैं बता नहीं पा रहा हूँ या तुम समझ नहीं पा रही हो...।

बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता

हम उसकी गतिविधियाँ देख कर स्तब्ध और कुछ-कुछ सहमे से थे। हमारा डर वह अपनी हरकतों से रोज-ब-रोज बढ़ाता ही जा रहा था।

एक दिन पानी सिर से ऊपर जाता देख हम दोनों ने उसे टोका।

वह गंदे कपड़े पहने बस्ती से आया और सोफे़ पर बैठकर किसी से बातें करने लगा। किससे? पता नहीं। उसके पास कोई नहीं था। हम तो जैसे दहल गए।

‘क्या है यह? क्या कर रहे हो तुम?’

‘खेल रहा हूँ इस बच्चे के साथ।’

‘कौन बच्चा? क्या बकवास कर रहे हो तुम? हम बहुत भयभीत हो उठे थे अचानक।

‘यही बच्चा। सिद्धार्थ नाम है इसका। यह बहुत दुख में है सुनील।’

मैं आगे बढ़ा और उसे झकझोर दिया।

‘कहाँ है बच्चा ? तुम पागल हो रहे हो शाश्वत।’

बदले में उसने ऐसी हरकत की कि हमारा कलेजा डर के मारे उछल कर हलक में आ गया। जमीन पर झुकते हुए फर्श को माथे से लगाते हुए बोला, ‘यह बच्चा मेरा गुरु है सुनील। इसने मुझे जीवन का अर्थ समझाया है और कमाल देखो न... जब अर्थ समझ में आया तो पाया कि कोई अर्थ ही नहीं है इसका।’

हम सन्नाटे में थे। हममें से सबसे मजबूत दिमाग का मालिक अपना दिमागी संतुलन खो चुका था। हम मालविका के फ्लैट के लिए भागे। शायद वह इस जाते हुए को वापस ला सके। निकलते हुए हमें उसकी कमजोर आवाज सुनाई दी - ‘मैं पागल नहीं हो रहा, काश हो पाता। बल्कि चाहो तो मुझे मानसिक दिवालिया घोषित कर सकते हो।’

मालविका उससे नजरे मिलाते हुए न जाने कौन से अपराधबोध से ग्रस्त थी या शायद उसके पागलपन से डर रही हो। वह उसके गले नहीं लगी। दोनों एक ही सोफे पर बैठे रहे। मालविका ने थोड़ी देर बाद उसकी हथेली ऐसे थामी जैसे कोई इलजाम लेने को विवश हो।

‘अगर मुझे कोई बीमारी हो जाए तो भी तुम मुझे इतना ही प्यार करोगी?’ उसने अचानक बिना भूमिका बनाए पूछा।

‘हँ... हाँ।’

‘अगर मुझे लकवा मार जाए तो...?’

‘हाँ शाश्वत, मगर तुम ये क्यों...?’ उसकी आवाज के दोनों सिरों पर भय लिपटा था।

‘और अगर मुझे कोढ़ हो जाए तो...?’ उसका लहजा पहले से भी ठोस था।

मालविका रोती हुई अंदर भाग गई। सुनील उसे चुप कराने अंदर दौड़ा और शाश्वत पागलों की तरह हँसने लगा। उस रात सुनील और मालविका दोनों एक मत से सहमत हुए कि शाश्वत का पागलपन अचानक खतरनाक और हिंसक मोड़ ले चुका है। उसी रात मुझे लगा कि जैसे वह पागल नहीं हुआ है बल्कि किसी मानसिक सदमे से उसका संतुलन थोड़ा सा बिगड़ गया है जो थोड़े से इलाज के बाद ठीक हो सकता है।

उसने तीन बड़े डॉक्टर अधिकृत कर लिए थे जो दिन भर अपने लाव लश्कर के साथ बस्ती में डटे रहते। बस्ती का आकार बढ़ता जा रहा था, रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही थी, शाश्वत की मूर्खताएँ बढ़ती जा रही थीं और हमारे पैसे घटते जा रहे थे।

हम मेहनत और बुद्धि से कमाए पैसों को इस तरह बरबाद नहीं होते देख सकते थे। हमने शाश्वत को समझाने की कोशिश में जमीन आसमान एक कर दिया पर वह था कि हमेशा उस पारदर्शी खोल में जा घुसता। घर आता तो उसकी हरकतें हमें और आश्वस्त करतीं कि वह पागल हो गया है। जिसे वह सिद्धार्थ बताता, हमें उसकी परछाईं तक नहीं दिखती। वह एक अनजान सा शख्स दिखने लगा था। ऐसा लगता उसने जितने चेहरे आज तक जिए हैं वे चेहरे उसके अब के चेहरे पर उग आए हैं। कभी वह संत लगने लगता है, कभी पापी, कभी निर्दोष बालक और कभी एक ऐसा अजनबी जिसे देख कर लगता है कि इसे कहीं देखा है।

इसी बीच मुझे उसके साथ बनारस जाना पड़ा।

उसके घर से खबर आई कि उसके पिताजी बीमार हैं और वे उसे याद कर रहे हैं। मैंने पूरी यात्रा के दौरान उसकी बीमारी को समझने की कोशिश की। आखिर वह मेरे बचपन का दोस्त था। रास्ते भर वह अपनी बर्थ पर एक तरफ दब कर सोया था। खाली जगह में उसके अनुसार सिद्धार्थ सोया था। मैंने खाली जगह में हाथ फिराया, एकाध बार वहाँ बैठा भी पर मुझे किसी की उपस्थिति महसूस नहीं हुई।

उसके पिता की तबियत बहुत ज्यादा नाजुक थी। जैसे वे शाश्वत को देखने के लिए ही अटके हों। शाश्वत के भाई उनका अच्छे डॉक्टरों से इलाज करा रहे थे। वह कुछ देर तक पिता के पास बैठा। पिता आँखों में प्रश्न लिए उसकी तरफ देख रहे थे। उसने पिता के माथे पर हाथ फेरा और एक ठंडी साँस लेकर बोला, ‘अनदेखे का भय हमें उसका आनंद लेने से राकता है। भय से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है।’

पिता ने कुछ न समझ पाने की स्थिति में आँखें मूँद लीं। वह गंगा की तरफ निकल गया। मैं उसके पीछे पहरेदार की तरह भागा। गंगा के घाट पर बैठ कर लहरों को बड़ी ममता से देखने लगा। लहरों में पता नहीं उसे कौन सा रहस्य दिख रहा था। मैं उसकी मनःस्थिति को समझने की कोशिश करता रहा और मूर्खों की तरह उलझा रहा। अचानक उठकर वह मणिकर्णिका घाट की तरफ चल पड़ा जिधर मुर्दे फूँके जाते हैं।

घाट पर हमेशा की तरह एक साथ कई चिताएँ जल रही थीं। वह एक तरफ बैठ गया और चिताओं को देखने लगा। मैं भी सहमा सा उसके बगल में बैठ गया।

‘जानते हो दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?’ सहसा उसने मेरी ओर मुँह करके पूछा। उसकी मुद्रा इतनी सामान्य थी जैसे हम येल चिको रेस्तराँ में बैठें हों और वह पूछ रहा हो कि मैं चाय लेना पसंद करूँगा या कॉफी। जलते मांस की गंध से मेरे सिर में खलबली मची थी। मैंने इतनी देर तक कभी श्मशान का सामना कभी नहीं किया था। शाश्वत तो इधर बस्ती के कई लोगों को खुद ही फूँकने गया था। श्मशान के पास देर तक बैठने पर जुगुप्सा के अलावा यह भी होता है कि श्मशान ढेर सारे सवाल पूछने लगता है। मैं चुप रहा।

‘?’

‘लोग श्मशान से लौट कर भी जीने की इच्छा शेष रखते हैं।’

उसके इस कथन पर मैं प्रतिवाद करता कि ‘मरने वाले के साथ मरा तो नहीं जा सकता’ या ‘ये तो प्रकृति का नियम है’ या ऐसा ही कुछ, पर मैं चुप रहा। इधर मैं मुँह खोलता, उधर उल्टी हो जाती। खुद को जज्ब किए बैठा रहा।

‘बनारस का आदमी कहीं भी चैन नहीं पा सकता उसे वापस लौट कर बनारस ही आना होता है चैन पाने के लिए।’ कहता हुआ अचानक वह पैंट झाड़कर यूँ खड़ा हो गया गोया फिल्म देख कर उठा हो। मैं खीज कर पूछता कि ‘इसमें क्या तर्क है’ पर चुप रहा।

उसी शाम डॉक्टरों के अथक परिश्रम के बावजूद उसके पिता की मौत हो गई। वह घर पहुँचा तो सामने बहुत भीड़ थी जिसने उसके लिए सादर रास्ता छोड़ दिया। उसकी माँ रो-पीट रही थी। वह सब कुछ एक नजर देख कर अंदर अपने कमरे में घुस गया।

पिता की चिता जलते वक्त वह किनारे खड़ा था। पूरा परिवार रो सुबक रहा था और वह निश्चल खड़ा चिता को जलता देख रहा था। मैंने उसकी ओर ध्यान से देखा। उसके चेहरे पर जरा भी गमी या नमी नहीं थी। मेरी आँखें गीली थीं। अपनी ओर घूरता पाकर उसने मुझसे धीरे से कहा, ‘रोओ मत। यह वही चिता है जो हमने सुबह जलती देखी थी। उस समय तो नहीं रोए, अब क्यों रो रहे हो?’

मैं निश्चित हो गया कि वह पागल हो गया है या पागल होने के क्रम में है। ढेरों आलोचनाएँ झेलते मैं उसे अगले ही दिन दिल्ली ले आया। आकर पता चला कि सुनील और मालविका ने मयूर विहार में ही एक कंबाइंड फ्लैट खरीदा है। मुझे बहुत गुस्सा आया। शाश्वत से बिना पूछे? माना उसका मानसिक स्वास्थ्य इन दिनों कुछ खराब है पर पैसों पर पहला जायज हक तो उसी का था। उससे पूछना नहीं था तो कम से कम उसे बताना तो चाहिए था।

मैंने रात को यह बात उसे घुमा फिरा कर बताई तो उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं आया। थोड़ी देर सोचता रहा फिर बोला, ‘एक जगह है जहाँ होने का अर्थ न होना है और न होकर होना ही पूर्ण होना है। सारा झगड़ा होने का है। होना ही बंधन है और शून्य मुक्ति।’

मैं असहाय सा वहाँ से उठ गया।

उसने फिर बस्ती में जाना शुरू कर दिया और चुप-चुप सा रहने लगा। कई बार पूछने पर जवाब देता, गुमसुम रहता और अचानक खिलखिलाकर हँसने लगता। वह सामान्य नहीं रह गया था।

सुनील मालविका के साथ अगले महीने होने वाले बहुप्रचारित अखिल भारतीय प्रवचन कम सम्मेलन में व्यस्त था और मैं शाश्वत को सँभालने में।

वह अजीब सी बातें करता। न जाने किस किस के बारे में बोलता। एक दिन मुझे पास बुलाया।

‘जानते हो कल रात क्या हुआ?’

‘क्या...?’ मैंने अन्यमनस्कता से पूछा।

‘कल रात फिर मैं बेचैन था। नींद नहीं आ रही थी। दुख मेरा गला घोंटने की कोशिश कर रहे थे। फिर मैं उठा, रात के अँधेरे में खुद को चादर की तरह तह करके सिरहाने रख दिया और अकेला खुद को लिए बिना ही चल पड़ा। थोड़ी दूर चला तो पाया कि मैं बिस्तर से उठकर अपने पीछे आ रहा हूँ। एक निराश गीत मेरे चलने से हवा में पैदा हो रहा था। जब मैं शहर के बीचोंबीच पहुँचा तो निराशा भरा गीत सुनकर शहर की नींद एक बार खुली और मुझे देख कर एक जोर की जम्हाई लेकर फिर सो गया। अगर मेरा शहर होता तो मुझसे ऐसा उपेक्षित व्यवहार न करता। मुझे अपनी गोद में लेकर समय के पंखे से तब तक हवा करता जब तक मुझे नींद न आ जाती। वहीं मेरे कुछ पुराने उतारे हुए दिन पड़े हुए थे। मैं बहुत खुश हुआ कि शायद अब मैं सुख को ढूँढ़ सकूँगा। मैंने उन्हें पहनने की कोशिश की पर अफसोस, वे अब छोटे हो चुके थे। ...जब मैं निराश तड़पता आगे बढ़ा तो वहाँ एक सफेद बालों वाला बूढ़ा खड़ा दिखा। उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे अपनी ओर खींच कर मेरे कान में बोला, ‘तह तक नहीं जाओ बेटे। वहाँ से कोई जैसा जाता है, वापस नहीं आता।’

‘तुम कल रात बाहर गए थे? जानते हो शहर का माहौल...?’ मुझे गुस्सा आ गया था। उसकी कीमती चेनें, जो अब सिर्फ दो रह गई थीं, ही खतरा बुलाने के लिए काफी थीं।

‘बता सकते हो वह बूढ़ा कौन था?’ उसने मेरी बात और उसके वजन दोनों को नजरअंदाज करते हुए पूछा। मेरे न बोलने पर खुद ही बोल भी पड़ा।

‘वह मेरी मृत्यु थी। जानते हो मृत्यु का अर्थ मेरे लिए पलायन नहीं है बल्कि इसका मतलब है बनारस। बनारस का अर्थ मृत्यु है और मृत्यु का नाम बनारस।’ वह शायद मुझसे कह रहा था।

मैं डर गया। तो इसकी बीमारी में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति भी शामिल है।

‘तुम उस नर्क में जाना छोड़ दो।’ मै। अंतिम प्रयास के रूप में गिड़गिड़ाया हालाँकि जानता था कि यह बेअसर है।

‘क्या करूँ? वह नर्क समूचा मेरे भीतर उतर आया है।’ वह बोलते हुए अपार कष्ट में दिखाई दिया।

वे बड़े अजनबी से दिन थे। खुशियाँ मेहमान हो गई थीं और उलझनें किराएदार। मुझे शाश्वत पर कभी सुनील और मालविका की तरह गुस्सा आता और कभी लगता कि वह सही है। वह अपने पैसे अगर किसी की सेवा में खर्च कर रहा है तो इसमें गलत क्या है। मैं उसकी मनस्थिति को समझने की कोशिश करता तो और उलझ जाता। आखिर उसकी कुछ हरकतें पागलों जैसी क्यों हैं?

हिम्मत करके उसे सब साफ बता देना ही ठीक था।

‘बहुत कुछ अजीब तरीके बदल चुका है। मैं इतने बदलावों को समझ नहीं पा रहा हूँ। सुनील और मालविका ने पास ही एक कंबाइंड फ्लैट लिया है और दोनों उसी में रहने वाले हैं... शादी के बाद।’

‘प्रेम बाँधता नहीं आजाद करता है... जो बाँधे वह प्रेम नहीं और यह भी एक दुख ही है... एक महँगा दुख।’ उसने कहा और बस्ती से उठा कर लाए कुछ बच्चों को भोजन कराने लगा।

बनारस और मृत्यु... अंतरसंबंधों के सूत्र

मुझे शुरू से शक था कि उसके पागलपन में बनारस का भी बहुत बड़ा हाथ है। वह बनारस और मृत्यु की बातें ऐसे करता जैसे दूसरे शहर में रह रही प्रेमिका की बातें कर रहा हो। क्या हाथ है, क्या संबंध है, यह लाख सिर पटकने के बावजूद मुझे समझ में नहीं आया था। समझ में तो मुझे यह भी नहीं आया था कि उसके और मालविका के बीच सुनील का समीकरण कब बन गया। वह कब और कैसे मालविका से दूर हो गया या मालविका कब और कैसे सुनील के करीब चली गई। सारी बातें मेरे सामने साफ नहीं थी इसलिए आधा पक्ष जानकर मैं कोई राय नहीं कायम करना चाहता था। हो सकता है मालविका का कोई दोष न हो।

सुनील और मालविका को एक दिन उसने अपने पास बुलाया और ऐलान किया कि वह अगले महीने होने वाले प्रवचन के कार्यक्रम से खुद को अलग कर रहा है। चूँकि वह शून्य हो चुका है और उसके पास किसी को देने के लिए कुछ नहीं बचा, लिहाजा वह यह प्रवचन नहीं दे सकता। दोनों बुरी तरह भड़क गए। दोनों ने उसे जाते समय काफी भला-बुरा कहा और वह मुस्कराता रहा। दोनों ने मुझे भी डाँटा कि मैं ठीक से उसका इलाज क्यों नहीं करा रहा। वह कुछ देर मुस्कराने और उससे भी ज्यादा देर हँसने के बाद अचानक नॉर्मल हो गया और एक बच्चे के फोड़े की पट्टी बदलने लगा।

बस्ती में डॉक्टरों के रात-दिन जुते रहने के बावजूद इस हफ्ते चार मौतें हुई थीं। मौत वहाँ हवा की तरह बहती थी जो कभी भी किसी को भी चपेट में ले सकती थी। उस रात शाश्वत बस्ती में ही रुका था। हम तीनों शराब पी रहे थे। मालविका की गोद में सुनील का सिर था और कमरे के हल्के प्रकाश में गाढ़ा प्रेम मिला हुआ था। हम तीनों तीन पैग लगा कर नशे की पहली तह में घुस चुके थे। मालविका ने बताया कि वह और सुनील मिल कर एक आध्यात्मिक चैनल शुरू कर रहे हैं जो पहले तो लोकल होगा बाद में उसे नेशनल बनाया जाएगा। मुझे थोड़ी चुहल सूझी या शायद मैंने गुम हो चुके कुछ लम्हों को खोजने की कोशिश सी की।

‘तुम ठहरी कान्वेंट एजुकेटेड और सुनील को’ राम गोज टु स्कूल बाइ बस’ और ‘व्हाट इज द टाइम बाइ योर वाच’ से ज्यादा अंग्रेजी नहीं आती। तुम सुनती हो शकीरा और एल्टन जॉन पर सुनील को पसंद है मनोज तिवारी और शारदा सिन्हा। तुम दोनों में जमेगी कैसे?’

मालविका ने सुनील के माथे का चुंबन लिया और दुलार से बोली, ‘प्रेम सिर्फ आपसी समझ माँगता है।’ सुनील उसे अपनी गोद में गिरा कर चूमने लगा। मैं उनकी ओर न जाने क्यों नहीं देख पाया और मेरी नजरें दूसरी ओर घूम गईं। मैं चौथा पैग बनाने लगा।

‘जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर।’ मेरे मोबाइल की सिंगटोन बजी। शाश्वत का फोन था। उसने कहा कि मैं दस हजार रुपए लेकर फौरन बस्ती पहुँचूँ।

मैं अपने कमरे में जाने लगा तो मालविका ने मुझे खींच कर सोफे पर बिठा दिया और खुद चौथा पैग बनाने लगी।

‘बस बहुत हो गया पागल के पीछे पागलपन दिखाना। अब सब बंद।’ सुनील ने ऐलान किया।

‘पीछे नहीं आगे देखना सीखो।’ मालविका ने नसीहत दी।

मैंने थोड़ा प्रतिरोध किया। वह पागल नहीं हुआ है बस थोड़ा सा दिमागी संतुलन बिगड़ा है, ठीक हो जाएगा। वह दुखों को शायद बहुत अनुभूति से देखने लगा है।

‘नहीं वह पागल हो चुका है और जैसा तुम बताते रहे हो वह जल्दी ही आत्महत्या भी कर लेगा।’ मालविका यह बताते हुए बहुत दुखी लग रही थी।

शराब मेरे भीतर जाकर न जाने कैसा असर दिखा रही थी। मेरा सिर और शरीर दोनों बुरी तरह हिल रहे थे। मैं कुछ कहना नहीं चाहता था पर अचानक मेरे शरीर ने जुंबिश ली और मुँह से आवाज निकली, ‘तुम बहुत कमीनी लड़की हो।’

उसके बाद मैंने बेहोश होने से पहले कुछ और भी कहा था पर मुझे याद नहीं। पता नहीं कैसे मेरे मुँह से निकल गया। मैंने सुबह मालविका को सॉरी भी बोला, वह मुस्करा दी। हाँ, उस दिन पहली बार मैं इतनी कम शराब पीकर बेहोश हुआ था।

मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों

अगले दिन जब शाश्वत फ्लैट पर आया तो वही बच्चा उसके साथ था जिसे वह सिद्धार्थ कहता था। आश्चर्य, मुझे बच्चा दिखाई दिया। शायद वह आज पहली बार उसे फ्लैट पर लाया हो। उस बच्चे को देखकर मुझे लगा जैसे मैंने उसे कहीं देखा है, किसी किताब में, किसी फिल्म में... लंबे कान, घुँघराले बाल, होंठों पर मुस्कान। मैंने दिमाग पर बहुत जोर दिया कि इससे मिलती जुलती तस्वीर कहाँ देखी है, पर असफल रहा।

शाश्वत बनारस जाने की तैयारी कर रहा था।

‘कल रात दो और बच्चे मर गए।’ उसने सामान पैक करते हुए बताया।

मैं चुप रहा।

‘मैं इस बच्चे के साथ बनारस जा रहा हूँ। पूछोगे नहीं मैं बनारस क्यों जा रहा हूँ’ ‘?’

‘?’

‘क्योंकि मैं कायर हूँ। अगर मैं कायर न होता तो मैं बुद्ध होता। पर मैंने पलायन का रास्ता चुना है क्योंकि मैं अपने भीतर वह साहस नहीं जुटा पा रहा हूँ जो यहाँ रहने के लिए चाहिए। मुझे मेरा बनारस बुला रहा है। मुझे मेरे पुराने निष्कपट और सच्चे दिन बुला रहे हैं जिन्हें मुझे फिर से पहन लेना है ताकि मैं इस जंगल समय से खुद को बचा सकूँ। मैं भाग रहा हूँ।’

‘कितना नॉस्टेलजिक है यह सब’, मैंने सोचा।

मैं भी उसके साथ समान पैक करने लगा। सुनील का कहना था कि वह जहाँ भी जाए मैं भी साथ जाऊँ ताकि वह आत्महत्या न कर ले। अखिल भारतीय प्रवचन के लिए शाश्वताचार्य का जिंदा रहना जरूरी था ताकि बताया जाय कि आचार्य अभी बनारस में शुद्धिकरण अभियान पर हैं और पार्टनर बन रहे बाबाओं की मदद से सुनील को लांच किया जा सके जिसकी पृष्ठभूमि बड़े नफासतपूर्ण तरीके बनाई जा रही थी। इधर वह पागलों जैसी हरकतें कर रहा था और उधर सारे बाबा एकजुट होकर पूरी दुनिया को यह बताने में लगे थे कि शाश्वत एक बुरी आत्मा है। उसके हिस्से में ईश्वर ने इतनी ही मानव सेवा लिखी थी। अब वह पागल हो गया है और सुनील नाम के उसके शिष्य में संबोधि का विस्फोट हुआ है। आगे वह मानव जाति की सेवा करेगा। हर चैनल पर यही कार्यक्रम चल रहे थे। सभी बाबा चैनलों पर इंटरव्यू दे रहे थे और शाश्वत था कि उसे अपनी दुनिया से ही फुर्सत नहीं थी। कभी-कभी तो मुझे उन कार्यक्रमों को देखकर लगता कि एक दिन जनता शाश्वत को तलवार लेकर काटने निकल पड़ेगी।

‘मैंने यह फ्लैट बेच दिया है और पैसे डॉक्टरों को दे दिए हैं।’ सुनकर मेरा पूरा शरीर एक अनजानी आशंका से काँप उठा। यह फ्लैट बिक गया। सुनील और मालविका ने ने अलग फ्लैट ले लिया। शाश्वत के शरीर पर एक चेन और घड़ी तक नहीं और वह तो खैर बनारस जा रहा है। मैं? मेरा क्या होना है?

बहरहाल, अभी तो उसके साथ बनारस निकलना था उसका बॉडीगार्ड बनकर।

बनारस से उसका अर्थ शायद एक ठहरी हुई नीरस जिदगी से था। मैं कुछ ही दिनों में ऊबने लगा। वही सुस्त दिनचर्या। शाश्वत रोज गंगा के किनारे बैठता और उस बच्चे से बातें करता। मैं जब भी बच्चे को देखता मेरी नजर वहीं ठहर जाती। मैं दिमाग पर बहुत जोर डालता कि इससे मिलती जुलती सूरत मैंने कहाँ देखी है पर मुझे याद नहीं आता। मैं शाश्वत की मनस्थिति को समझने के लिए रोज भिखारियों को देर तक देखता रहता और उनका दुख समझने की कोशिश करता। मुझे भी कभी-कभी थोड़ा दुख होता।

बच्चे की ड्राइंग अच्छी थी। वह रोज घाटों की, पतंग लूटते बच्चों की, नहाते लोगों की तस्वीरें बनाता और शाश्वत को दिखाता।

उस शाम बच्चा एक तरफ सीढ़ियों पर बैठा कोई तस्वीर बना रहा था। शाश्वत घाट पर टहल रहा था, नदी के उस पार देखता हुआ।

‘तुम दिल्ली चले जाओ। मेरे पीछे क्यों लगे हो?’ उसने अचानक पीछे घूम कर पूछ लिया।

‘ताकि तुम आत्महत्या न कर सको।’ मैंने भी बिना कुछ सोचे समझे कह दिया।

‘मैं आत्महत्या नहीं करूँगा। मेरी हत्या होगी।’ उसने धीरे से कहा और बच्चे के पास जाकर बैठ गया। बच्चे ने बनाया हुआ चित्र उसके हाथ में दे दिया। चित्र में एक सुंदर घर था जिसके छपरैल की हर ईंट अलग आकार व प्रकार की थी। इसमें कुछ लोग थे, स्वस्थ और सुंदर। घर के आस पास ढेर सारे फूल खिले हुए थे। तितलियाँ उड़ रहीं थीं। पंछी पंख फैलाए घरों की ओर जा रहे थे।

‘तुमने तितलियों और फूलों में रंग क्यो नहीं भरा?’ उसने बच्चे से पूछा।

‘मेरे पास रंग नहीं हैं।’ बच्चे ने मायूस स्वर में कहा।

वह गुमसुम हो गया।

‘आपके पास रंग हैं?’ बच्चे ने उसकी आँखों में अपनी निर्दोष आँखों से झाँकते हुए पूछा।

‘नहींऽऽऽऽऽऽऽऽ, मेरे पास भी नहीं। कोई रंग नहीं मेरे पास।’ वह अचानक फूट-फूट कर रोने लगा। ‘देखा, मेरी हत्या हो गई। रोज होती है।’ वह बोल भी रहा था और रो भी रहा था।

अचानक, ऐन उसी वक्त मुझे लगा जैसे मैं बहुत बड़ा बेवकूफ हूँ और मुझे ठगा गया है। सुनील और मालविका दिल्ली में ऐश कर रहे हैं और मुझे इस पागल के पीछे लगा दिया है। ये साला बना हुआ पागल है। ये कभी आत्महत्या नहीं करेगा, वह शिगूफा शायद हमें गुमराह करने के लिए छोड़ा था इसने। मुझे आज, अभी और इसी वक्त दिल्ली के लिए निकलना चाहिए।

मैं झल्ला कर पलटा और चल दिया। सिर्फ चार कदम ही चला होऊँगा कि उसकी आवाज सुनाई दी। वह शायद बच्चे को कोई कविता सुना रहा था।

अपने कमजोर से कमजोर क्षण में भी

तुम यह मत सोचना

कि मेरे दिमाग की मौत हुई होगी !

नहीं, कभी नहीं !

हत्याएँ और आत्महत्याएँ एक जैसी रख दी गई हैं

इस आधे अँधेरे समय में।

फर्क कर लेना साथी! - आलोकधन्वा

मैं पलटा और एक खतरनाक तारीकी मेरे पूरे वजूद में उतर गई। शाश्वत अकेला था। दूर-दूर तक कोई नहीं था। वह सामने जिस ओर मुँह करके बच्चे को कविता सुना रहा था, वह जगह खाली थी। बच्चे का अस्तित्व कहीं नहीं था मगर शाश्वत खाली जगह से बातें करता रहा था। उस बच्चे की शक्ल जो मुझे बहुत करीब से देखी जान पड़ती थी, उसकी छाया तक कहीं नहीं थी। भूत... मेरे मन ने चीत्कार किया और मैं चलने की बजाय दौड़ने लगा। हे भगवान, यह मुझे क्या हो रहा है? उफ्फ, कहीं इस पागल के साथ रहकर मैं भी पागल तो नहीं हो रहा हूँ? मैं बहुत तेज दौड़ने लगा। मैंने एक बार भी फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं अभी दिल्ली जाऊँगा। सुनील और मालविका भरोसे लायक नहीं हैं। बहुत बड़े हरामखोर हैं दोनों। कमीने साले।