एहसान / अन्तरा करवड़े

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"भूले बिसरे कभी हमारे घर भी आ जाया करो बेटी!"


आकांक्षा के पैर ठिठक गये। वैसे भी शहर के इस नये रहवासी इलको में अभी अभी रहने आई आकांक्षा को कोई इस तरह से पुकारेगा इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। उसे इस तरह से असमंजस में पड़े देख आवाज लगाने वाली महिला बोली¸ "बेटी मैं! प्रमिला अग्रवाल। श्यामली की मम्मी।"


"अ...अच्छा आँटी! आप यहाँ?"


कितना कुछ सोचते और याद करते हुए कहा था आकांक्षा ने यह। बचपन की सहेली की माँ और वह भी इतने सालों के बाद मिली थी। बातचीत का लंबा चौड़ा दौर निकल पड़ा। बात बात पर प्रमिला जी आकांक्षा की एहसानमंद होती जा रही थी। असल में आकांक्षा ने श्यामली को उसके परिवारवालों के विरोध के बावजूद कॉलेज की पढ़ाई के लिये प्रेरित किया था जो आज शादी के बाद उसके बड़े काम आ रही थी।


"श्यामली तो दिन रात तुम्हारा नाम जपती है!"


और बातचीत¸ आतिथ्य के बाद चलते चलते उन्होने उदार मन से आकांक्षा की कई समस्याएँ हल कर दी जो नई जगह आने पर सामान्यत: हर किसी को पेश आती है। कामवाली बाई¸ धोबी¸ सब्जीवाला¸ बिल भरनेवाला व्यक्ति इन सभी सुविधाओं से लैस वह अपने नये घर में पहुँची तब वहाँ का अकेलापन खाने को दौड़ता था।


उसे स्वयं के संयुक्त परिवार से अलग होते समय अपने पति से हुई बहस के दौरान के अपने तर्क याद आए।


"उन्होने तुम्हें पाल पोसकर बड़ा किया¸ इंजीनियर बनाया तो क्या एहसान किया? ये तो उनका कर्तव्य था। और यदि एहसान किया भी तो क्या उसके बदले में तुम जिंदगी भर उनका नाम जपोगे?"


श्यामली यदि कुछ दिनों के साथ और एहसान को ताउम्र याद रख सकती है तब : जीवन देने और जीने लायक बनाने के एहसान के बदले में माँ बाप को...


शाम तक उसका वापसी का सामान पैक हो चुका था।