ए वेरी ईज़ी डेथ / भाग 4 / सिमोन द बोउवा

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जिस बात ने हमें इससे भी ज्‍यादा आश्‍चर्यचकित किया वह थी कि उसने अंत समय में भी किसी धर्मगुरु से मिलने की कोई इच्‍छा जाहिर नहीं की, उस दिन भी नहीं जब उसे लगा कि उसका अंत इतना निकट है कि "मैं फिर कभी सीमोन को देख नहीं पाऊँगी!" मार्था उसके लिए एक ताबीज, क्रॉस और रोजरी ले कर आई थी, जिसे मामन ने कभी ड्रॉअर से निकाला ही नहीं। एक सुबह जीन बोली - "आज रविवार है, आंट फ्रैंकोइस, क्‍या तुम चर्च चलोगी?" "ओह प्‍यारी जीन, मैं बहुत थकी हूँ, प्रार्थना नहीं कर पाऊँगी, ईश्‍वर तो दयालु है!" मादाम तारदिउ ने तो और भी जोर दे कर पपेट के सामने ही पूछा कि क्‍या उसे "कन्फेशन" के लिए पादरी की जरूरत नहीं : मामन की प्रतिक्रिया जबरदस्‍त थी - "बहुत थक गई हूँ।" और बातचीत पर विराम लगाने के लिए उसने आँखें मूँद लीं।

मादाम-द-सेंट आँगे ने हमीं से कहा- "वह इतनी तकलीफ और चिंता में है, जरूर चाहती होगी कि धर्म उसे थोड़ी राहत दे।"

"लेकिन वह नहीं चाहती थी।"

"उसने हम कुछ मित्रों से वादा लिया था कि हम उसके अंत समय में उसकी सहायता करेंगे और जितना हो सके उसके जीवन के अंत को सुखद बनाएँगे।

"वह सिर्फ इतना चाहती थी कि वह जल्‍दी से जल्‍दी स्‍वस्‍थ हो जाए।"

आरोप हमारे ऊपर लगा। ये तो तय था कि मामन को अंतिम समय में पादरी से संस्‍कार ग्रहण करने से हमने नहीं रोका, लेकिन हमने इसके लिए प्रेरित भी तो नहीं किया। हमें उसे बता देना चाहिए था - "तुम्‍हें कैंसर है, तुम मरनेवाली हो," कोई न कोई धर्मप्रवण औरत उसे सूचना दे ही देती अगर हमने उसे अकेला छोड़ा होता हो (उसकी जगह मामन में विद्रोही भाव जगाने का पाप मैंने किया, यह आरोप मुझ पर लगाया जाता, जिसका परिशोधन करने में मामन को सदियाँ लग जातीं)। मामन को ऐसे प्रसंगों पर बात करना पसंद नहीं था। वह तो अपने आस-पास मुस्‍कुराते-हँसते ताजा युवा चेहरे देखना चाहती थी। "विश्राम गृह जाने पर तो मेरे पास ढेर-सा समय होगा अपने जैसी ढेरों बुढ़ियाओं को देखने का..." उसने अपनी नातिनों से कहा था। वह जीन, मार्था तथा अपनी दो-तीन धार्मिक लेकिन समझदार मित्रों की संगति पसंद करती, जिन्‍हें मालूम था कि हम मामन से असलियत छिपा रहे हैं। वह दूसरे कइयों पर विश्‍वास नहीं करती, कइयों के बारे में तो उसके मन में दुर्भाव भी था - ये बड़ा आश्‍चर्यजनक था कि वह संवेदना के बल पर ऐसे लोगों को पहचान जाती जो किसी न किसी रूप में उसकी दिमागी शांति को भंग कर सकते थे। ऐसी जगहों पर वह दुबारा जाती भी नहीं, जैसे क्‍लब की औरतें, "जिनसे मिलने मैं दोबारा कभी नहीं जाऊँगी, कभी नहीं जाऊँगी।"

लोगों को लग सकता है - उसका विश्‍वास सतही था, सिर्फ शब्‍दों तक, क्‍योंकि पीड़ा और मृत्‍यु के क्षणों में वह खंडित हो गया, टिक नहीं सका। "मुझे मालूम नहीं आस्‍था किसे कहते हैं। लेकिन उसका पूरा जीवन धर्म पर आधारित था : धर्म उसके भीतर था, उसके डेस्‍क में मिले कागज इस बात की पुष्टि करते हैं। यदि वह ईश्‍वर की प्रार्थना को यांत्रिक मानती थी या माला फेरने की जगह उसे क्रॉसवर्ड सुलझाना ज्‍यादा अच्‍छा लगता था तो मेरा मानना है कि वह प्रार्थना-पूजा या आत्‍मस्‍वीकृति को अभ्यास की वस्‍तु नहीं बल्कि आत्‍मा की एक विशिष्‍ट अवस्‍था मानती थी, उसने मरने के पहले कोई प्रार्थना नहीं की, और मैं उससे सहमत हूँ। मुझे मालूम है उसने ईश्‍वर से क्‍या कहा होगा - "मुझे स्‍वस्‍थ कर दो लेकिन क्‍या ऐसा होगा : मैं मृत्‍य-उन्‍मुख हूँ।" उसने समर्पण नहीं किया, सत्‍य के इन क्षणों में उसने मिथ्‍या शब्‍दों को कहना निश्चित रूप से स्‍वीकार नहीं किया। लेकिन ठीक इसी समय उसने स्‍वयं को विद्रोह करने की छूट भी नहीं दी। वह मूक रही : "ईश्‍वर दयालु है।"

"मेरी समझ में नहीं आता," - झुँझलाई और संशयमिश्रित आवाज में मादामोसाइले वाउथियर ने कहा, "तुम्‍हारी माँ इतनी धार्मिक और पवित्र हो कर भी मृत्‍यु से इतना डरती है!" क्या उसे मालूम नहीं था कि संत भी मरते वक्‍त चीखते-चिल्‍लाते हैं।

इसके अलावा मामन देवता या राक्षस किसी से भी नहीं डरी : केवल जीवित व्‍यक्तियों को छोड़ कर। मेरी दादी मरने के ठीक पहले जानती थी कि वह मरने जा रही है। बड़ी तृप्ति से उसने कहा - "मैं उबला हुआ अंडा अंतिम बार खाने जा रही हूँ, उसके बाद मैं फिर से गुस्‍ताव से मिलने चली जाऊँगी।" उसने जीवन से कभी बहुत ज्‍यादा लगाव नहीं दिखाया, चौरासी वर्ष की अवस्‍था में वह परिस्थितिवश शाकाहारी थी, मृत्‍यु ने उसे बिल्‍कुल व्‍यथित या उत्‍पीडि़त नहीं किया। मेरे पिता ने भी कुछ कम साहस नहीं दिखाया, "अपनी माँ से कहो मेरे लिए पादरी को न बुलाए।" वह मुझसे बोले - "मैं किसी नाटक में पार्ट अदा नहीं करना चाहता।" और उन्‍होंने कुछ मुद्दों पर व्‍यावहारिक निर्देश दिए। ध्‍वस्‍त और जीवन के प्रति कड़वाहट से भरे पिता ने अपनी मृत्‍यु ठीक उसी शांति के साथ स्‍वीकार कर ली, जिस शांति से दादी ने परलोक स्‍वीकार कर लिया था। मामन ने जिंदगी को मेरी ही तरह प्‍यार किया और मृत्‍यु के सम्‍मुख आ कर उसमें प्रतिरोध का भाव वैसे ही उपजा, जैसा मुझमें है। उसके अंतिम दिनों में, मेरी ताजातरीन पुस्‍तक पर मुझे कई लोगों ने पत्र-टिप्‍पणियाँ भेजीं - "अगर तुमने अपनी आस्‍था नहीं खोई होती तो मृत्‍यु तुमको इतना डराती नहीं।" - यह किसी धर्मप्रवण की विद्वेषपूर्ण सहानुभूति थी, दृढ़-निश्‍चयी पाठकों का इसरार था - "अदृश्‍य हो जाना कुछ कम महत्‍वपूर्ण नहीं है, तुम्‍हारे बाद तुम्‍हारा लेखन तो रहेगा।" मन ही मन मैंने उन सबको बताया कि वे गलत हैं - धर्म मेरी माँ के लिए उससे ज्‍यादा कुछ नहीं कर सकता जितनी मरणोपरांत मेरी सफलता। मेरे लिए, मरने के बाद मेरी सफलता का क्‍या अर्थ रह जाएगा - कम से कम मेरे लिए! आप इसे चाहे जैसे लें -इहलौकिक या पारलौकिक, यदि आप जीवन से प्रेम करते हैं तो अमरता मृत्‍यु के लिए सांत्‍वना नहीं हो सकती।

क्‍या होता अगर मामन के चिकित्‍सक शुरुआती दौर में ही कैंसर का पता लगा लेते? कोई संदेह नहीं कि रेडियोथेरेपी चलती और मामन दो-तीन साल और जी पाती। लेकिन जब वह अपने रोग की प्रकृति जान पाती, या कम से कम संदेह तो कर ही लेती, तब वह अपने जीवन का अंतिम समय भीषण भय में पार करती। हमें जो खेद है वह यही कि डॉक्‍टरों की गलती ने हमें धोखा दिया नहीं तो मामन को खुश रखने पर ही हमारा पूरा ध्‍यान केंद्रित रहता। जीन और पपेट गर्मियों में मामन को अपनी समस्‍याओं की वजह से नहीं ले जा सकी थीं, शायद ऐसी स्थिति में मामन को वे ले जातीं, मैं कुछ और दिन उसे देख पाती, उसे प्रसन्‍न रखने के नए तरीके खोज पातीं।

डॉक्‍टरों ने ऑपरेशन करके गलत किया या सही? वह, जो एक दिन भी व्‍यर्थ में खोना नहीं चाहती थी, डॉक्‍टर उसे जीवन की ओर लौटा कर उसके लिए खुशियाँ लाए, लेकिन साथ ही चिंताएँ-यंत्रणा और पीड़ा भी। वह शहादत से बच गई, जबकि कभी-कभी मुझे लगता था कि शहादत उसके ऊपर मँडरा रही है, दरअसल मैं उसके लिए कुछ ठीक-ठीक निर्णय ले नहीं पाती। मेरी बहन के लिए मामन को खोना एक सदमा था। यह सदमा उसे उसी दिन लगा चुका था, जिस दिन उसने मामन को अस्‍पताल में देखा था और उससे वह किसी तरह बाहर निकल ही आती।

और मेरे लिए? वे चार हफ्ते मेरे लिए कई तस्‍वीरें, दु:स्‍वप्‍न, उदासी छोड़ गए, जिन्‍हें मैं कभी जान नहीं पाती, यदि मामन बुधवार की उसी सुबह मर जाती। लेकिन मैं उस व्‍यवधान को कभी नहीं माप सकती, जो मैंने महसूस किया क्‍योंकि मेरा दु:ख उस तरह से फट ही पड़ा था, जिसके बारे में मुझे स्‍वयं भी अंदाजा नहीं था। नि:संदेह इन सबमें हमारे लिए कुछ न कुछ अच्‍छा ही हुआ : इसने हमें पूरी तरह से या लगभग अनुताप से तो बचा ही लिया। जब कोई प्रियजन मरता है तो आप बहुत-से अनुतापों के साथ उसके पास होते हैं, मृत्‍यु उसकी विशिष्‍टताओं को प्रकाशन में ले आती है, वह बढ़ कर संसार जितनी व्‍यापक हो जाती है कि उसकी अनुपस्थिति उसके समक्ष नगण्‍य हो जाती है और वह, जिसका संसार में अस्तित्‍व ही उसकी वजह से है, महसूस करती है कि काश उसके जीवन में उसकी और बड़ी जगह होती - यदि जरूरी हो तो उसी की जगह सबसे बड़ी होती। लेकिन क्‍योंकि तुम किसी के लिए इतना सब नहीं करते - उतना भी नहीं जितना तुम कर सकते थे, कम से कम अपनी सीमा में रहते हुए जितना तुम कर सकते थे - अपने पुनरीक्षण के लिए तुम्‍हारे पास ढेर सारी जगह बच रहती है। मामन के प्रति पूरे सम्‍मान के साथ मैं यह महसूस करती हूँ कि हमने मामन के प्रति कोई अपराध नहीं किया, वे अंतिम वर्ष जिनमें उसकी देखभाल नहीं की गई, मामन के प्रति बेरुखी, विलोपन और अनुपस्थिति के वे पिछले कुछ वर्ष जिनमें मामन की उतनी देखभाल हमने नहीं की, उसके अंतिम समय में शांति दे कर, उसके पास रह कर, भय और पीड़ा पर विजय पाने में उसका साथ दे कर हमने उसका प्रायश्चित कर लिया, ऐसा हमें लगता है। हमारी लगभग दु:साध्‍य रात-दिन की निरंतर देखभाल के बिना वह ज्‍यादा यंत्रणा झेलती।

सच है, बल्कि तुलनात्‍मक दृष्टि से मैं कह सकती हूँ कि उसकी मृत्‍यु एक सहज और आसान मृत्‍यु थी - "मुझे निर्दयी और क्रूर लोगों के भरोसे मत छोड़ो।" सोचती हूँ उन लोगों के बारे में जिनके निकट ऐसा कोई नहीं होता, जिससे वे ऐसी विनती कर सकें, कैसा लगता होगा उन्‍हें, जो स्‍वयं को अंतिम समय में अरक्षित महसूस करते होंगे।

हृदयहीन डॉक्‍टरों और थकी चिड़चिड़ाई नर्सों पर पूरी तरह से निर्भर, माथे पर कोई हाथ नहीं जो भय के चरम क्षणों में दिलासा दे सके, बक-बक करनेवाला कोई नहीं जो सूनेपन को आवाजों से भर दे| "रातों-रात उसके बाल सफ़ेद हो गए" - जैसी उक्ति ने मेरे दिमाग को आच्‍छादित कर लिया। आज भी क्‍यों बहुत-से लोग भयानक, दर्दनाक मृत्‍यु को प्राप्‍त करते हैं? जनरल वार्डों में जब कोई रोगी मरनेवाला होता है, तो उसे चारों ओर से पर्दों से घेर देते हैं - वह जानता है इसका मतलब, पर्दे खिंच जाते हैं और अगले दिन वह बिस्‍तर खाली मिलता है। मेरी आँखों में मामन की तस्‍वीर है - उसकी फटी, निष्‍प्रभ, सूरज की ओर भी सीधे देख सकनेवाली आँखें, घूरती हुई, भयभीत करनेवाली स्थिर, निष्‍प्रभ, स्थिर पलकोंवाली आँखें। उसे एक बहुत सहज मृत्‍यु मिली, एक उच्‍च कोटि की मृत्‍यु।

पपेट मेरे घर ही सो गई। सुबह दस बजे हम वापस नर्सिंग होम को चले : होटल की तरह ही दोपहर से पहले यहाँ भी कमरा छोड़ना पड़ता है। एक बार हम फिर से सीढ़ी चढ़े, दरवाजा खुलने पर बिस्‍तर खाली था, दीवारें, खिड़कियाँ, लैंप, फर्नीचर सब कुछ अपनी-अपनी जगह पर था, चादर की सफेदी पर कुछ नहीं था। हम मामन की मृत्‍यु के लिए जैसे तैयार ही नहीं थे। हमने आलमारी से सूटकेस निकाले, किताबें, कपड़े, साबुन वगैरह, कागज-पत्‍तर, छह सप्‍ताह की आत्‍मीयता का क्षय अचानक धोखे से हुआ था। हमने लाल रंगवाला ड्रेसिंग गाउन वहीं छोड़ दिया। बागीचा पार करके, कहीं नीचे हरियाली से घिरे एक शवगृह के अंदर ठुड्डी पर पट्टी बाँधे मामन का शरीर पड़ा है। पपेट ने संत्रास भोगा - अपनी इच्‍छा से भी और कुछ संयोगवश, जिससे बाहर निकलने में उसे बड़ी तकलीफ हुई। वह इतनी संत्रस्‍त थी कि वह मुझे मामन को दुबारा देखने के लिए कह नहीं पाई और खुद अपनी इच्‍छा मुझे मालूम नहीं थी कि मैं मामन को देखना चाहती थी या नहीं।

हमने "रूब्‍लोमेट" जा कर केयरटेकर के पास सूटकेस रखवा दिए। काले कपड़ेवाले दो भद्र पुरुषों ने हमारी इच्‍छा पूछी, उन्‍होंने हमें विभिन्न प्रकार के कौफीन दिखाए। "ये ज्‍यादा सुंदर है," पपेट सिसकते-सिसकते हँस पड़ी।

"ज्‍यादा सुंदर! वह डिब्‍बा! वो डिब्‍बे के भीतर जाना कभी पसंद नहीं करती!"

शुक्रवार का दिन अन्‍त्‍येष्टि के लिए नियत हुआ। दो दिन बाद! क्‍या हमें फूल चाहिए? इसके जवाब में हमने हामी भरी, बिना कारण जाने हमने इसके जवाब में हामी भरी : न माला, न क्रॉस, बस एक बड़ा-सा गुच्‍छा। बहुत अच्‍छा : बाकी सारी व्‍यवस्‍था वे स्‍वयं कर लेंगे। अपराह्न में हम सूटकेसों को फ्लैट में ऊपर ले आए; मादामोसयिले लेबलान ने फ्लैट का रूप ही बदल दिया था, वह अब पहले से ज्‍यादा साफ-सुथरा और खुशनुमा था, हम तो पहले फ्लैट को पहचान ही नहीं पाए - पहले से बहुत बेहतर, हमने बैग में बेडजैकेट और रात्रि-पोशाक भरी और आलमारी में ठूँस दी। किताबें आलमारी में रखीं, यूडीकोलोन, चॉकलेट और साबुन वगैरह फेंक दिया और बाकी चीजें मैं अपने साथ ले आई। उस रात मैं सो नहीं सकी। मुझे इस बात का खेद नहीं था कि मैंने मामन को अंतिम समय से पहले "मैं इस बात से खुश हूँ कि तुमने मुझे ठीक-ठाक अच्‍छी हालत में देखा" कहते सुना और वही उससे मेरा अंतिम मिलना था, वही अंतिम शब्‍द मैंने सुने थे। बल्कि मुझे ऐसा लग रहा था कि मैंने मामन के शरीर को यूँ ही इतनी जल्‍दी अकेला छोड़ दिया। उसने, और मेरी बहन ने भी कहा था - "देह मृत हो कर निरर्थक हो जाती है।" फिर भी ये उसकी अस्थिमज्‍जा थी, कुछ और समय के लिए उसका चेहरा भी। अपने पिता के पास तो मैं उस क्षण तक रही जब तक वे सिर्फ वस्‍तु के रूप में परिवर्तित न हो गए। मैं वर्तमान और शून्‍य के बीच संचरण कर रही थी। मामन के साथ तो, मैंने उसे चूमा और तुरंत चली गई थी। यही कारण था कि मुझे लग रहा था कि वह शवगृह की ठण्‍डक में लेटी, अकेली ठिठुर रही होगी। कौफीन में शव रखे जानेवाला संस्‍कार अगले दिन अपराह्न में होगा : क्‍या मैं जाऊँगी?

लगभग चार बजे मैं बिल भुगतान करने नर्सिंग होम गई। मामन के लिए चिट्ठी और फलों का थैला आया था। मैं नर्सों को विदा कहने ऊपर गई। मार्टिन और पेरेंट कारीडोर में दीखीं - वे खुश थीं। मेरा गला रुँध गया था और मैं बड़ी कठिनाई से दो-चार शब्‍द बोल पाई। मैं एक सौ चौदह नम्‍बर कमरे के सामने से गुजरी - "नो विजिटर्स" वाला नोटिस हटा लिया गया था। बागीचे में, मुझे क्षण भर के लिए संकोच-सा हुआ, मेरा साहस जाता रहा : और अब फायदा भी क्‍या था? मैं चली आई। मैंने कार्डिन को फिर देखा और सुंदर ड्रेसिंग गाउन को भी, खुद को बताया कि मुझे अब कभी यहाँ तक की यात्रा नहीं करनी चाहिए : मैं इन आदतों को खुशी से छोड़ देती अगर मामन स्‍वस्‍थ हो जाती, लेकिन मुझमें इनके लिए मोह था, क्‍योंकि उसे खो देने से मैंने इन सबको खो दिया था।

हम उसकी चीजों को उसके नजदीकी मित्रों को स्‍मृति के तौर पर देना चाहते थे। हमने उसकी सींकवाली डलिया देखी जो ऊन के गोलों से भरी थी, अधबना स्‍वेटर, उँगली में पहननेवाली कैप, सुई, कैंची, भावनाओं का ज्‍वार उठा और हम डूब गये। हर व्‍यक्ति वस्‍तुओं की अहमियत को जानता है, जिंदगी उन्‍हीं में ठोस रूप ग्रहण करती है, किसी भी अन्‍य घटना से ज्‍यादा वस्‍तुएं हमें उसकी याद दिलाती है। वे मेरी मेज पर पड़ी हैं , अनाथ, बेकार, कूड़े के ढेर में तब्‍दील होने या किसी और पहचान को पाने के लिए प्रतीक्षारत। मामन की घड़ी हमने मार्था के लिए अलग रख दी। पपेट काला रिबन उठाते वक्‍त रो पड़ी -

"हाँ ये बड़ी बेवकूफी है और मैं ऐसे, चीजों की पूजा भी नहीं करती, फिर भी मैं रिबन को फेंक नहीं सकती।"

"रख लो।"

क ही समय में जिंदगी और मौत को एकीकृत करने की बेकार कोशिश और तर्क सम्‍मत दृष्टि से व्‍यवहार करना किसी के लिए संभव नहीं है : प्रत्‍येक व्‍यक्ति को अपने विक्षुब्‍ध क्षणों में, क्षोभ के चरम क्षणों में भी स्‍वयं को ज्‍यादा से ज्‍यादा नियंत्रित करने की कोशिश करनी चाहिए। समझ सकती हूँ उसकी सारी अंतिम इच्‍छाओं को और अचानक उन इच्‍छाओं का न रहना भी : मृतक की हड्डियों का आलिंगन - जिसे हम प्रेम करते हैं यह वैसा ही है जैसे हम मृतक के साथ-साथ जिंदा दफन हो जाएँ। फिर मेरी बहन, जो मामन की मृत देह को सुंदर-सुंदर नए कपड़े और शादी की अँगूठी पहनाना चाह रही थी, उसकी इच्‍छाओं को मुझे स्‍वीकार कर लेना चाहिए था जैसे वह मेरी भी इच्‍छा हो। हमें अंतिम संस्‍कार के लिए आपस में एक-दूसरे को कुछ पूछने की आवश्‍यकता नहीं थी। हमें मालूम था कि मामन क्‍या चाहती थी, और हमने उसका ध्‍यान रखा।

लेकिन हमें कुछ भीषण समस्‍याओं का सामना करना पड़ा। पेरेलाइचे कब्रग्राह जो हमारी पैतृक कब्रगाह थी, जहाँ हमारे पारिवारिक सदस्‍यों को अनंत समय तक किफायती दरों पर दफनाए जाने की सुविधा थी, जिसे एक सौ तीस साल पहले मिगनोट द्वारा - जो हमारे परदादा की बहन थी - खरीदा गया था। वह वहीं दफन थी। इसके अलावा हमारे दादा, उनकी पत्‍नी, भाई, मेरे चाचा गेस्तोन और पापा भी वहीं दफन थे। अब कोई जगह नहीं बची थी। ऐसी दशा में अक्‍सर नए मृतक को अस्‍थायी कब्रगाह में दफन कर दिया जाता था। पुरानी कब्रों में से मृतकों की अस्थियाँ चुन कर एक ही कौफीन में रख दी जाती थीं, इस तरह पारिवारिक कब्रगाह में पुन: नए मृतक को दफन किया जा सकता था। सिमेट्री की जमीन काफी महँगी होती है और प्रबंधन की यह कोशिश रहती है कि वे किफायती दरवाली जमीन को वापस अपने नियंत्रण में ले लें, प्रबंधन इस बात पर बल देता है कि हर तीस साल में मालिकाना हक दाखिला किया जाए। लेकिन वह अवधि बीत चुकी थी। हमें समय पर नोटिस नहीं मिला इसलिए अब यह डर था कि हम सिमेट्री की जमीन पर से मालिकाना हक खो देंगे - यदि लेडी मिगनोट का कोई वंशज आ कर सिमेट्री की जमीन पर अपना दावा पेश कर दे तो विवाद हो जाएगा। जब तक कोई वकील मिगनोट के किसी वंशज के बचे न होने को प्रमाणित नहीं कर देता तब तक मामन का शरीर शवगृह में ही रखा रहेगा।

हम अगले दिन के संस्‍कार से डरे हुए थे। हमने मन को शांत रखने की दवाएँ लीं, सात बजे सुबह तक सोए, थोड़ी चाय पी, कुछ खाया, कुछ और दवाएँ निगलीं। आठ के थोड़ा पहले सुनसान गली में काले रंग की शवगाड़ी रुकी, भोर से पहले ही यह गाड़ी मामन की देह को लेने नर्सिंग होम को गई थी। सुबह के ठंडे कोहरे को पार कर हम गाड़ी में बैठे, चालक और मेजीउर्स डूरण्‍ड के बीच पपेट, पीछे मैं, धातु के एक तालाबंद केबिन के पास बैठ गई। "क्‍या वह वहाँ है?" अपनी बहन से पूछा।

"हाँ, वह वहाँ है।" एक नन्‍ही सिसकी के साथ उसने कहा - "मेरे लिए बस यही एक तसल्‍ली है कि मुझे लगता है कि ऐसा ही एक दिन मेरे साथ भी होगा, नहीं तो यह कितना बड़ा अन्‍याय होता।"

"हाँ," हम अपने ही अंतिम संस्‍कार में भाग लेने के लिए ड्रेस रिहर्सल कर रहे थे। जबकि दुर्भाग्‍यवश हर व्‍यक्ति को यहीं आना होता है, तब भी हरेक अपने अनुभव में एकाकी होता है।

गहराई से हम मामन से अलग थे, फिर भी उसके अंतिम दिनों में हमने उसे कभी अकेला नहीं छोड़ा।

हम पेरिस के बीच से गुजर रहे थे, मैंने गलियों, रास्‍तों और उन पर चलते लोगों को देखा, सावधानीपूर्वक किसी चीज के बारे में न सोचते हुए मैं रास्‍तों और लोगों को देखती रही। सिमेट्री के गेट पर कारें प्रतीक्षारत थीं : परिवार भी : वे हमारे साथ चैपल तक आए। इसके बाद सब बाहर ही ठहर गए। जब कौफीन अंदर ले जाया जा रहा था, मैंने और पपेट ने मामन की बहन को देखा जिसका चेहरा लाल और रोते-रोते सूजा हुआ था। हम अंदर गए, प्रोसेशन में शामिल हो गए। चैपल लोगों से भरा हुआ था। कौफीन अंदर लाया गया। उस पर फूल नहीं थे, फूल गाड़ी में ही रह गए थे - कोई बात नहीं।

एक युवा पादरी, जिसने अपने चोगे के नीचे ट्राउजर पहन रखा था, भीड़ को संबोधित किया और एक बहुत छोटा, अजीब शोकयुक्‍त उपदेश दिया। "ईश्‍वर बहुत दूर है," उसने कहा, "यहाँ तक कि आपमें से, जिनकी आस्‍था ईश्‍वर में अटूट है, उन्‍हें भी लगता है कि ईश्‍वर उनसे बहुत दूर है, इतना कि जैसे लगता है कि वह है ही नहीं। किसी को ऐसा लग सकता है कि ईश्‍वर लापरवाह है, हमारी ओर देखता नहीं। लेकिन उसने अपना पुत्र भेज दिया है।"

दो नीची कुर्सियाँ रखी गई थीं, शोक संदेश के लिए। लगभग सभी ने शोक संदेश दिया। पादरी ने संक्षेप में फिर कुछ कहा। जैसे ही उसने "फ्रैंकोइस द बोउवार" कहा, भावना के उद्वेग से हम दोनों बहनों के गले रुँध गए : शब्‍दों ने उसे जीवित कर दिया, शब्‍दों में उसका इतिहास, जन्‍म से विवाह, वैधव्‍य से कब्र तक, पुनर्जीवित हो उठा, फ्रैंकोइस द बोउवार - वह अवकाशप्राप्‍त स्‍त्री और जिसे बमुश्किल लोग जानते थे - अचानक महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति बन गई।

लोग कतारबद्ध ही बाहर निकले। औरतों में से कुछ रो रही थीं। हम लोगों से हाथ मिला ही रहे थे, इसी बीच मामन का कौफीन चैपल से बाहर ले जाया गया। पपेट उसे देखते ही मेरे कंधे पर भहरा गई, "मैंने मामन से वायदा किया था कि उसे बक्‍से में नहीं रखा जाएगा।" मैंने स्‍वयं को बधाई दी कि उसे मामन की दूसरी प्रार्थना याद नहीं आई - "मुझे गड्ढे में मत गिरने देना।"

मैजीउर्स डूरण्‍ड के किसी आदमी ने लोगों को बताया कि वे अब जा सकते हैं - सब कुछ खत्‍म हो गया है। शव गाड़ी अपने-आप चलने लगी, मुझे पता भी नहीं चला कि वह किस ओर गई।

मामन के हाथ का लिखा कागज का टुकड़ा, जिसे मैं क्लीनिक से ले आई थी उस पर सधे हाथों, सुघड़ अक्षरों जैसे कि वह युवावस्‍था में लिखा करती थी में - "मैं चाहती हूँ कि मेरा अंतिम संस्‍कार बहुत सादगीपूर्ण हो, फूल मालाएँ कुछ भी नहीं, बस ढेर सारी प्रार्थनाएँ - तो हमने उसकी अंतिम इच्‍छा पूरी कर दी और भी ज्‍यादा आज्ञाकारी भाव से, क्‍योंकि फूल तो भूल से रह गए थे।

मेरी माँ की मृत्‍यु ने मुझे भीतर तक क्‍यों हिला दिया? जब से मैंने घर छोड़ा तब से माँ के प्रति भावुकता के क्षण बहुत ही कम आए। जब उसने मेरे पिता को खोया तब उसके दु:ख की सादगी और गहराई ने मुझे हिला दिया, वैसे ही उसके दूसरों के प्रति जुड़ाव ने भी - अपने बारे में सोचो - उसने कहा था मुझसे, उसे लग रहा था कि मैंने अपने आँसुओं को इसलिए छिपा रखा है ताकि वह और तकलीफ न पाए, एक वर्ष के बाद उसकी माँ की मृत्‍यु, पति की दुखद स्‍मृति बन कर आई, अन्‍त्‍येष्टि के दिन नर्वस ब्रेकडाउन के कारण उसे बिस्‍तर पर ही पड़े रहना पड़ा। मैं रात भर उसके बगल में लेटी : उस सुहागशय्या के प्रति अपनी जुगुप्‍सा को भूल कर, जिस पर मैं जन्‍मी, जिस पर मेरे पिता मरे, मैंने उसे सोते हुए देखा, पचपन की उम्र, बंद आँखों और शांत चेहरेवाली मामन अब भी खूबसूरत थी। मुझे आश्‍चर्य हुआ उसके भावाद्रेक ने कैसे उसकी इच्‍छाशक्ति पर विजय पाई। सही तो यह है कि उसके बारे में बगैर किसी विशेष भावना के मैंने सोचा फिर भी मेरे सपनों में (हालाँकि मेरे पिता सपनों में गाहे-बगाहे ही दीखते थे) उसकी सबसे महत्‍वपूर्ण भूमिका थी। वह सार्त्र के साथ घुल-मिल गई, हम सब साथ में खुश थे और तभी वह स्‍वप्‍न दु:स्‍वप्‍न में तब्‍दील हो जाता, क्‍यों एक बार फिर मैं उसके साथ रह रही हूँ? मैं कैसे उसके प्रभाव में एक बार फिर आ गई? तो हमारा अतीत का संबंध मुझमें दो आयामों में जिंदा रहा - एक दासता जिससे मैं प्‍यार और घृणा - दोनों करती थी। वो सब पुनरुज्‍जीवित हो गया - अपनी पूरी ताकत के साथ।

मामन के साथ हुई दुर्घटना, उसकी बीमारी और उसकी मृत्‍यु ने पूरी दिनचर्या अस्‍त-व्‍यस्‍त कर दी और हमारे संपर्कों को भी प्रभावित किया। जो संसार छोड़ कर चले जाते हैं समय उनके पीछे से स‍ब कुछ धो-पोंछ देता है, उम्र बढ़ने के साथ मेरे अतीत के वर्ष और नजदीक दिखाई देते हैं।

मेरे दस वर्ष की उम्र की मामन डार्लिंग की तुलना मेरी किशोरावस्‍था की विरोधी औरत से की नहीं जा सकती थी, जिसने मेरी समूची किशोरावस्‍था का दमन कर दिया था, मैं उन दोनों के लिए भी रोई जब मैं अपनी बूढ़ी माँ के लिए रोई। मुझे लगा था कि अपनी असफलताओं को स्‍वीकार कर, समझा कर अपने-आपको तसल्‍ली दे दी है, लेकिन दु:ख मेरे हृदय में बार-बार लौट आता है, कुछ फोटो हैं हम दोनों के, मैं अठारह की और वह लगभग चालीस की : आज मैं लगभग उसकी माँ और उदास आँखोंवाली दादी की उम्र की हूँ। मुझे उन दोनों के लिए खेद है - अपने लिए तो इसलिए क्‍योंकि मैं इतनी छोटी हूँ कि कुछ नहीं समझती, उस के लिए इसलिए कि उसका कोई भविष्‍य नहीं है और वह कभी कुछ नहीं समझी, लेकिन मुझे ये मालूम नहीं कि मैं उन्‍हें समझाती कैसे! ये मेरी शक्ति के बाहर था कि मैं उसके बचपन के सारे दुखों को पोंछ दूँ, जो मामन ने उसे अपने दुखों के बदले दिए, जिसने मेरे जीवन के अनेक वर्षों को कड़वाहट से भर दिया, मैं उन्‍हें वापस जरूर दे देती अगर ये मेरे वश में होता। वह मेरी आत्‍मा के विषय में बहुत चिंतित थी। जहाँ तक इहलोक की बात है वह मेरी सफलताओं से बहुत खुश थी, लेकिन वह उस अपयश से आहत थी जो उसकी जान-पहचान के लोगों में मैंने अर्जित किया था। किसी रिश्‍तेदार के कहने पर - "सीमोन परिवार की बदनामी का कारण है..." मामन को बुरा लगा था।

बीमारी के दौरान मामन में आए परिवर्तनों ने मेरा दु:ख और बढ़ा दिया। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, वह बहुत ही व्‍यग्र और तीव्र मनोवेगोंवाली स्‍त्री थी, आत्मत्‍यागी बनते ही वह बहुत ही कठिन और उलझ-सी गई, बिस्‍तर तक ही सीमित, बिस्‍तर पर पड़े-पड़े उसने सिर्फ अपने लिए जीने का फैसला किया और साथ ही उसमें दूसरों की परवाह करने की भावना भी थी। उसके अपने अंतर्विरोधों में एक तरह की संगति दिखाई पड़ने लगी। मेरे पिता और उनका सामाजिक चरित्र - दोनों एक दूसरे के अनुरूप थे : उनका वर्गीय चरित्र और वे स्‍वयं एक समय में एक जैसी बात ही मुँह से निकालते : उनके अंतिम शब्‍द "तुमने बहुत कम उम्र में ही अपने खर्च के लिए कमाना शुरू कर दिया, सीमोन, तुम्‍हारी बहन के ऊपर मेरे बहुत पैसे खर्च हो गए।" इन शब्‍दों को सुन कर किसी तरह भी आँसू नहीं आ सकते थे। मेरी माँ एक आध्‍यात्मिक आदर्श में जकड़ी हुई थी, लेकिन उसमें एक तरह की पशुवत जिजीविषा थी जो उसके साहस का स्रोत थी। उसके लिखे कागजों में मुझे उसकी आत्‍मीयता और प्रेम की गर्माहट मिली जिसे अक्‍सर ईर्ष्‍या के कारण वह बुरी तरह से अभिव्‍यक्‍त करती। उसके कागजों में मुझे बड़े आत्‍मीय प्रमाण मिले, उसने दो चिट्ठियाँ अलग करके रख दी थीं जिनमें से एक जेसुट और दूसरी एक मित्र द्वारा लिखी गई थी, दोनों ने उसे सांत्‍वना दी थी कि एक दिन मैं खुदा की राह पर वापस लौट आऊँगी। उसने सैक्‍सन के अंश की प्रतिलिपि भी की थी, जिसमें वह "प्रभाव" में कहता है - "अगर मैं बीस वर्ष की उम्र में उस बुजुर्ग आदमी से मिलता, जिसने मुझे नीत्‍शे और मुक्ति के विषय में बाद में बताया था, तो घर से भाग जाता।" उसी फाइल में एक लेख जिसका शीर्षक था - "ज्‍याँ पाल सार्त्र ने एक आत्‍मा की रक्षा की," जिसमें "बहुत ही अविश्‍वास के साथ "बारिओना" के स्‍तालॅग XII द में मंचन के बाद एक नास्तिक चिकित्‍सक आस्तिक बन गया।" मैं अच्‍छी तरह जानती थी कि वह कागज के इन टुकड़ों से क्‍या चाहती थी - वह स्‍वयं को आश्‍वस्त करना चाहती थी मेरे बारे में, लेकिन वह मेरी "मुक्ति" की जरूरत को महसूस नहीं कर सकती थी, उसने एक युवा नन को लिखा था - "हाँ, मैं स्‍वर्ग जरूर जाना चाहूँगी, पर अकेली नहीं, अपनी बेटियों के बिना नहीं।"

कभी-कभी, हालाँकि विरल, ये होता है कि प्रेम, दोस्‍ती या सहयोगिता की भावनाएँ मृत्‍यु के अकेलेपन से उबार लेती हैं। शरीर से सामने रह कर भी, यहाँ तक कि जब मैंने मामन का हाथ थामा हुआ था, मैं उसके साथ नहीं थी। मैं उससे झूठ बोल रही थी, क्‍योंकि उसे हमेशा धोखा ही दिया गया, ये अंतिम धोखा मुझे बड़ा ही घिनौना लगा, उसके भाग्‍य के साथ-साथ मैं भी उसका दुरुपयोग करने में बराबर की अपराधी थी, साथ ही मैं अपने शरीर के प्रत्‍येक अणु के साथ उसकी अस्‍वीकृति, उसके विद्रोह में उसके साथ थी, शायद यही कारण था कि उसकी पराजय में मैं भी पराजित महसूस कर रही थी। यद्यपि मामन के मरते वक्‍त मैं उसके पास नहीं थी और यह भी कि मैं इससे पहले तीन आत्‍मीयों की मृत्‍यु के समय उनके नजदीक थी लेकिन मामन की शय्या के निकट ही मैंने वास्‍तविक "मृत्‍यु" को देखा, मृत्‍यु का नर्तन, वास्‍तविक नर्तन, विकराल जबड़ों में अट्ठहास करती मृत्‍यु, बचपन में अलाव के निकट सुनी कहानियों की डरावनी "मृत्‍यु", "हाथ में फावड़ा लिए मृत्‍यु" जो पता नहीं कहाँ से आती है - अजनबी और अमानवीय : उसका चेहरा मामन के उस चेहरे-मसूढ़े दिखाती विकराल हँसी, अपरिचित आँखों - से मेल खाता था।

"अह उसकी तो यह मरने की उम्र है।" वृद्धावस्‍था की उदासी, निर्वासन की पीड़ा, ज्‍यादातर लोग यह नहीं सोचते कि यह अवस्‍था एक न एक दिन उनकी भी होगी। मैं भी ये शब्‍द मामन के संदर्भ में बार-बार दोहराती थी। ये मेरी समझ के बाहर था कि कोई अपने आत्‍मीय के लिए वास्‍तव में रो सकता है जो संबंधी उसका दादा हो और सत्‍तर वर्ष से ऊपर का हो चुका हो। अगर मैं एक ऐसी स्‍त्री से मिलती जो पचास की हो चुकी और अपनी माँ को खोने के दु:ख से बाहर नहीं आ पा रही हो तो मैं उसे विक्षिप्‍त समझती। हम सब नश्‍वर हैं, अस्‍सी वर्ष की उम्र काफी है मृतकों में शुमार होने के लिए...

लेकिन यह सच नहीं है, तुम इसलिए नहीं मरते कि तुम पैदा हुए, न ही इसलिए कि तुम पर्याप्‍त जीवन जी चुके हो, न ही बुढ़ापे के कारण। तुम "किसी चीज" से मरते हो, यह जान लेने से कि मेरी माँ की उम्र हो चली है, इसलिए उसकी मृत्‍यु भयावह आश्‍चर्य नहीं लाएगी, उसे सरकोमा था, कैंसर, थ्राम्‍ब्रोसिस, न्‍यूमोनिया : यह इतना हिंसक और अनपेक्षित था कि जैसे बीच आकाश में किसी जहाज का इंजन अचानक रुक जाए। मेरी माँ ने आशावादी सोच, सकारात्‍मक विचार रखने के लिए तब भी कहा था जबकि वह गँठिए से बुरी तरह पीड़ित और मरणासन्‍न थी लेकिन उसका हठ निरर्थक था, जिसने नगण्‍यता पर पड़ा हुआ पर्दा चीर कर फाड़ डाला। नैसर्गिक मृत्‍यु जैसी कोई चीज नहीं होती : मनुष्‍य के साथ जो भी होता है वह कुछ भी नैसर्गिक नहीं, क्‍योंकि उसका होना सृष्टि के समझ प्रश्‍न उपस्थित करता है। सभी मनुष्‍यों को मरना जरूर है, लेकिन प्रत्‍येक व्‍यक्ति के लिए उसकी मृत्‍यु एक दुर्घटना है, लेकिन वह जीवन के इस अनौचित्‍यपूर्ण अपमान को झेलता है।