ऐसे हैं प्रो. अक्षय कुमार जैन / अक्षय कुमार जैन

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हिंदी के आधुनिकतम पत्रकार - अरविंद कुमार

अगस्त या सितंबर 1957 के एक वर्षाहीन दिन दिल्ली का तपता हुआ तीसरा पहर. मन मेँ खीझ थी, क्रोध था, निराशा थी और झिझक थी.

उसी दिन दोपहर को दिल्ली के एक अन्य बड़े दैनिक के तत्कालीन संपादक के व्यवहार ने मुझे पूरी तरह निराश कर दिया था. नवभारत टाइम्स के संपादक से भी वैसे ही व्यवहार की पूरी आशंका थी. अतः उन के पास जाने का मन नहीँ था. पहले कभी उन से मिला नहीँ था. हाँ, कुछ सभाओँ बैठकोँ मेँ उन्हेँ उन्मुक्‍त हँसी हँसते देखा था. इस तरह हँसने वालोँ के स्वभाव के भरोसे ही मैँ अक्षय जी से मिलने जा रहा था.

उन दिनोँ मैँ दिल्ली प्रेस प्रकाशनोँ (सरिता, कैरेवान, मुक्‍ता) के संपादकीय विभाग मेँ काम करता था. जुलाई, 57 की सरिता मेँ मेरी एक कविता छपी थीः राम का अंतर्द्वंद्व. कविता शैक्सपीयर के पात्रों के स्वगत भाषणों जैसी थी. छंद भी वही था. सीता वनवास के ठीक पहले राम की मनःस्थिति को मैँ ने अपनी तरह समझने की कोशिश की थी. उस मार्मिक स्थिति मेँ राम को किन मानसिक अंतर्द्वंदोँ मेँ से गुजरना पड़ा होगा—यही कविता का विषय था.

मेरे कवि सामर्थ्य की कमज़ोरी कहिए या तत्कालीन राजनीतिक स्थिति की विस्फोटनशीलता कहिए, मेरी वह कविता ग़लत समझी जा कर जन विवाद का केंद्र बन गए थी. दिल्ली के एक हिंदी दैनिक के सारे के सारे पृष्‍ठ भी इसी विवाद मेँ रंगे रहते थे. अनेक उर्दू दैनिक भी आग भड़काने मेँ लगे थे.

तो, उस गरमी के दिन, खरे और मैँ (हम दोनोँ दिल्ली प्रेस मेँ सहयोगी थे) उन दैनिकोँ के संपादकोँ से अपनी पैरवी करने निकले थे, जिन्हेँ हम जिम्मेदार समझते थे.

पहले हम कनाट सरकस मेँ एक बड़े हिंदी दैनिक के संपादक से मिलने गए. वहाँ मुझे कुछ अधिक सहारे की उम्मीद थी. 1947 मेँ मेरी पहली रचना इसी दैनिक मेँ छपी थी. इसी संस्थान से प्रकाशित होने वाले दैनिक और साप्‍ताहिक के कई संपादकीय कर्मचारियोँ से हमारा निकट परिचय भी था.

लेकिन संपादक जी मेरा नाम और कविता का संदर्भ सुनते ही उबल पड़े. कहने लगे की हजरत मोहम्मद के बारे मेँ कुछ लिखिए, एक दिन भी जीना आप के लिए असंभव हो जाएगा. हाँ, भाषा उन की इतनी संयत न थी. उन के मुँह से झाग निकलने लगे थे. हिंदुओँ की जिस सहिष्णुता की बात वह कर रहे थे, वह उन के व्यवहार मेँ नहीँ थी.

खरे ने और मैँ ने बोलने की बहुत कोशिश की. हम उन्हेँ बताना चाहते थे कि इस मेँ इस धर्म या इस संप्रदाय की कोई बात नहीँ थी. मेरी मंशा किसी वर्ग की धार्मिकता को ठेस पहुँचाना नहीँ थी. हम उस कविता के लिए नहीँ, बल्कि अभिव्यक्‍ति की स्वतंत्रता के हक़ मेँ उन का समर्थन चाहते थे. अगर वह समर्थन न भी करें तो एक बार वह मूल रचना पढ़ तो लेँ, पर उन्होँ ने हमेँ बोलने का अवसर ही नहीँ दिया.


उन के दफ़्तर से निकलते समय हमेँ खीझ थी, क्रोध था और निराशा भी थी. लग रहा था हर जगह यही देखने सुनने को मिलेगा. मैँ नवभारत टाइम्स कार्यालय जाने का इरादा छोड़ देना चाहता था. यहाँ कुछ को जानता तो था, वहाँ तो किसी से परिचय तक न था. खरे की अक्षय जी से जान पहचान थी. उस ने हिम्मत बंधाई पर मन ही मन वह भी डगमग था. उस आवेशपूर्ण वातावरण मेँ क्या पता, कौन जाना अनजाना बैर बांधे बैठा हो और हमेँ देखते ही उबल पड़े. रोज सड़कोँ पर, मुहल्लोँ मेँ मेरे साथ ऐसा ही होता था. जुलूस निकलते थे, पुतले जलाए जाते थे. ऐसे मेँ कौन पत्र इस प्रज्वलित जन समूह के विरुद्ध जाएगा और हमारी बात सुनेगा?

फिर अक्षय जी ने तो नवभारत टाइम्स मेँ युगपुरुष राम नाम की एक बहुत ही लोकप्रिय लेखमाला लिखी थी. यही सही है, उन्होँ ने राम को पुरुष ही माना था, पर पूरे आदर के साथ. निरादर तो मैँ ने भी नहीँ किया था, पर प्रचार तो यही था कि मैँ ने राम का तिरस्कार किया है.

नवभारत टाइम्स का कार्यालय उन दिनोँ 10 दरियागंज मेँ था. अपना परिचय और उद्देश्य उन के पास पहुँचाया. कुछ लोग उन के कमरे से निकल रहे थे. उन्होँ ने हमेँ तुरंत अंदर बुला लिया. उन की मुस्कान की सौम्यता, व्यवहार की सहजता और जानने की इच्छा ने मुझ पर शीतल बयार का काम किया. खरे ने भी राहत की साँस ली. उन के बारे मेँ उस का कहना ग़लत नहीँ निकला था. हम ने एक दूसरे को देखा. हम अब आराम से बैठ गए. हमेँ लगा, हम तपते रेगिस्तान से शीतल छाँह वाले पीपल के नीचे आ गए हैँ.

वह हम से तरह तरह की बातेँ करते रहे, पूछते रहे. हम उन्हेँ बताते रहे. अक्षय जी ने वह रचना पढ़ी थी. उन्होँ ने कहा कि प्रश्‍न उस मेँ उन की निजी सहमति या असहमति का था ही नहीँ. प्रश्‍न था कि क्या भिन्न विचारोँ और अभिव्यक्‍तियोँ को प्रकाश मेँ लाने का अधिकार है या नहीँ? भारत को संकुचित मनोवृति से निकलना ही होगा. उन्होँ ने यह भी कहा कि अगर उन्हेँ कोई रचना पसंद न आए तो उस की कटु आलोचना करना उन का अधिकार है. मगर उस पर पाबंदी की माँग करना उन के सिद्धांतोँ व स्वभाव के विरुद्ध है.

यह हैँ अक्षय जी. उस दिन उन्होँ ने उदार पत्रकारिता का मूल पाठ मुझे पढ़ा दिया था. अगर वह हमारी अपनी मान्यताओँ से सहमत न भी होते तो भी हमेँ अफसोस न होता, क्योंकि उन्होँ ने हमारे आवेश को समझ कर हम से सहज मिष्‍ट व्यवहार किया था. हमेँ उस मानसिक स्थिति मेँ पहुँचा दिया था कि हम अपनी उस परेशानी मेँ शांत भाव से दूसरोँ के दृष्‍टिकोण को समझने की कोशिश कर सकेँ. उन के कमरे से हम बड़े प्रसन्न मन से बाहर निकले थे.


यह पहली मुलाक़ात थी. वह मेरे मन मेँ हिंदी के आधुनिकतम पत्रकार के रूप मेँ स्थापित हो गए. इसके बाद तो मुलाकातेँ बढ़ती गए. मैँ उन मेँ एक विचित्र आकर्षण पाने लगा. उन्हेँ मैँ ने कभी किसी को अपने से छोटा मानते नहीँ देखा. किसी से कड़वा बोलते नहीँ देखा. किसी की बात न माननी हो ता उन के मुँह पर ‘नहीँ’ शायद कभी नहीँ आता है. हद से हद वह ‘जी, हाँ’ के साथ ‘पर…’ लगा देते हैँ या अपनी मजबूरी प्रकट करते हैँ.

कब वह ‘अक्षय जी’ से ‘भाई साहब’ हो गए—यह बताना इसलिए मुश्किल है कि याद करने से भी याद नहीँ आता. यह प्रक्रिया उतनी ही सहज रही होगी जितनी उन से पहली मुलाक़ात. और ‘भाई साहब’ भी केवल मुँह से कहने के नहीँ. उन के परिवारजन और मेरे परिवारजन जैसे एक साथ ही बड़े हुए होँ, आरंभ से ही एक दूसरे के नज़दीकी रिश्तेदार होँ.

रिश्तेदारोँ की बात मैँ इसलिए ले आया कि अपने दैनिक वातावरण मेँ ही आदमी की असली पहचान होती है. ऐसे बड़े लोग हज़ारोँ होते हैँ, जिन्हेँ परिवारजनोँ के लिए, अपने बिलकुल आसपास के लोगोँ के लिए, बरगद का पेड़ कहा जा सकता है. जो सब को दबा कर रखते हैँ. उन से कट कर रहते हैँ. अपने वातावरण मेँ बाहरी लगते हैँ. जिन का अहम् बड़े बड़े काले और डरावने अक्षरोँ मेँ लिखा मालूम पड़ता है. जिन के सामने जिन की पत्‍नी, जिन के बच्चे, सहचर डरे डरे रहते हैँ या अपने को अजनबी पाते हैँ.

पर भाई साहब अपने घरेलू वातावरण मेँ बिलकुल घरेलू हैँ. कोई उन के बारे मेँ कुछ न जानता हो, पहली बार उन के घर पर उन से मिल रहा हो, तो उसे सपने मेँ भी अंदाज़ा नहीँ हो सकता कि वह भारत के सब से बड़े दैनिक पत्र के संपादक को देख रहा है. पोते पोतियोँ से खेलकूद, कहकहे, बेटे बेटियोँ, बहुओँ से उन के कामधाम, सुख दुःख के चर्चे और भाभी जी से रसोई की पूछताछ, क़ुनबे भर की हारी बीमारी की खोज ख़बर, हँसी मज़ाक.


यह आदमी गंभीर है, पर गंभीरता को ओढ़े नहीँ फिरता. उस का दिखावा नहीँ करता—न घर मेँ, न बाहर. चाहे तो बड़े से बड़े सिद्धांत बघार सकता है, पर वह अपने ज्ञान का ड्राइंगरूम मेँ सजी भारी भरकम किताबों की आलमारियोँ जैसा दिखावा नहीँ करता. कई बार दिखावा न करना भी एक तरह का दिखावा होता है. जान बूझ कर कल्टीवेट की गए एक इमेज होता है. पर अक्षय जी के मामले मेँ यह केवल उन की स्वाभाविक सहजता के कारण है.

मैँ ने तो यहाँ तक देखा कि अनेक नए लेखक व पत्रकार अपना पांडित्य प्रदर्शित करने के लिए देशी और विदेशी शास्त्र बखानते रहते हैँ, और अक्षय ऐसे उत्कट भाव से, मनोयोग से सुनते रहते हैँ जैसे पहली बार ही उस विषय की जानकारी उन्हेँ मिल रही हो. सुनाने वाले का उत्साह भंग करना वह नहीँ जानते. वह जानते हैँ अक्सर नए लोग अपना रौब ग़ालिब करने के इरादे से बड़ी बड़ी बातेँ करके लोगोँ को प्रभावित करना चाहते हैँ. भाई साहब उन के अधकचरे ज्ञान के दंभ को ताड़ कर उन्हेँ अनुत्साहित नहीँ करना चाहते. बल्कि वह उन्हेँ कुछ न कुछ करने को प्रोत्साहित करते हैँ. ऐसे अवसरोँ पर मुझे लगता है कि उन्हेँ किसी भी क़ीमत पर किसी का दिल तोड़ना मंज़ूर नहीँ. मेरे साथ भी उन्होँ ने यही किया.

वास्तव मेँ उन्होँ ने अपने जीवन को कला के उच्च स्तर तक पहुँचा दिया है. दूसरे शब्दों मेँ कहें तो मुझे वह ऐसे भक्‍त नज़र आते हैँ, जिसे भजन कीर्तन नहीँ करना होता, जिस का जीवन स्वयं भक्‍ति होता है.

- अरविंद कुमार