ऑस्कर का तमाशा जारी है / जयप्रकाश चौकसे

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ऑस्कर का तमाशा जारी है
प्रकाशन तिथि :23 सितम्बर 2015


इस लेख के लिखे जाते समय हैदराबाद में फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया द्वारा चुनी गई समिति अमोल पालेकर की अध्यक्षता में इस वर्ष भारत की अधिकृत फिल्म ऑस्कर पुरस्कार प्रतिस्पर्द्धा के लिए भेजेगी। इस लेख के प्रकाशित होेने के बहुत पहले नाम की घोषणा हो चुकी होगी। इस वर्ष 32 फिल्मों के नामांकन आए थे, जिनमें सभी भारतीय भाषाओं में बनी फिल्मों के निर्माताओं ने आवेदन किया है। इस वर्ष इतनी कलात्मक फिल्में बनी हैं कि चयन कठिन होगा। हर वर्ष चयन की गई फिल्म पर विवाद होता है, क्योंकि विवाद करने वालों ने सारी फिल्में नहीं देखी होती है जबकि चयन समिति में सब क्षेत्रों के जूरी सदस्य होते हैं और भरपूर बहस के बाद बहुमत से फिल्म का चुनाव होता है। भारत के फिल्मकारों में ऑस्कर के लिए चुनी गई फिल्म को लेकर बहुत जोश होता है और इसे किसी गौरव से जोड़ा जाता है, जबकि विगत दशकों में एक भी फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार से नवाज़ा नहीं गया है। आमिर खान और आशुतोष गोवारिकर की 'लगान' उन पांच फिल्मों में एक थी, जिसमें से विदेशी भाषा में बनी एक श्रेष्ठ फिल्म चुनी जाती है।

हमारे यहां ऑस्कर के लिए ललक उस बीमारी का लक्षण मात्र है, जिसमें सदियों गुलाम रहने के कारण पश्चिम की मुहर को गौरव समझा जाता है। पश्चिम की मुहर लगाकर कई लोग बड़े-बड़े पद हासिल कर लेते हैं। हमारे नेता भी विदेशों में अपने लिए प्रायोजित तालियों के कारण स्वयं को महान समझने लगते हैं और देश की आह उनके इन तालियों के अभ्यस्त कानों तक पहुंच नहीं पाती। विदेशों में ऑस्कर से नवाज़ी फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर कम से कम पच्चीस प्रतिशत व्यवसाय अधिक होता है, जबकि हमारे यहां राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म को इस तरह का लाभ नहीं मिलता। प्राय: हमारी पुरस्कृत फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल होती है। यह सच है कि 1928 से प्रारंभ ऑस्कर समारोह गरिमामय माना जाता है। हमारे यहां प्रतिष्ठित राष्ट्रीय प्रकाशन के इस तरह के पुरस्कार तम्बाकू बेचने वाले प्रायोजित करते हैं, जबकि ऑस्कर अपना प्रायोजन किसी को नहीं देता। ऑस्कर की अपनी गरिमा और कुछ मूल्य हैं, जिनके प्रति वे समर्पित हैं। 1927 में जब ट्रॉफी बनकर आई तो दफ्तर में काम करने वाली एक महिला ने कहा कि इसकी शक्ल तो उसके अंकल ऑस्कर से मिलती है। बस एक साधारण कर्मचारी द्वारा कही गई इस बात के आधार पर ही ऑस्कर का नामकरण हो गया। हमारे देश में साधारण कर्मचारी को आला अफसर की डाट पड़ती। हम अमेरिका से तमाम वाहियात बातें सीखते हैं परंतु वहां की कार्य-संस्कृति को अनदेखा करते हैं। ऑस्कर समारोह में एक बार मर्लिन ब्रांडो ने पुरस्कार अस्वीकृत कर दिया, क्योंकि मूल निवासी रेड इंडियन्स के साथ सरकार निर्मम व्यवहार करती थी। अपनी न्यायप्रियता पर गर्व करने वाले अमेरिकी लोगों ने अपने समाज की जड़ों में समाए रंगभेद के कारण दशकों नीग्रो अभिनेताओं को अनदेखा किया और सिडनी पॉइटिए ही पहले नीग्रो पुरस्कार विजेता कलाकार हुए हैं। फिल्म थी, 'लिलीज ऑफ द फील्ड।'

मेहबूब खान की 'मदर इंडिया' को केवल इसलिए पुरस्कार से वंचित किया गया कि वहां की जूरी के लिए यह समझना कठिन था कि नायिका महाजन सूदखोर का विवाह प्रस्ताव क्यों नहीं स्वीकार करती और स्वयं अपने बच्चों सहित हमेशा फाके करती है। दरअसल, जूरी सदस्यों को यह नहीं मालूम कि भारतीय संस्कारवान विवाहिता पति के लंबे समय के लिए चले जाने के कारण स्वयं को विधवा नहीं मानती। सच्चाई यह है कि ऑस्कर के लिए व्यावसायिक प्रचारक की सेवा लेनी पड़ती है और अपनी फिल्म की देशज सांस्कृतिक परम्पराओं का ज्ञान जूरी सदस्यों को कराना होता है। यह सब बहुत खर्चीला है। मराठी भाषा की 'श्वास' के निर्माता के पास प्रचार के पैसे नहीं थे।

इसी तरह शशि कपूर द्वारा निर्मित व अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित '36 चौरंगी लेन' को सारे जूरी सदस्यों ने पसंद किया परंतु वह फिल्म अंग्रेजी भाषा में बनी थी और उसे विदेशी भाषा की फिल्म श्रेणी में नहीं भेजकर मुख्यधारा की फिल्म की तरह भेजा जाना चाहिए था। फिल्म फेडरेशन द्वारा तय की गई जूरी द्वारा चुनी गई फिल्म के अतिरिक्त भी कोई भी निर्माता अमेरिका में फिल्म प्रदर्शित करके मुख्यधारा की प्रतिस्पर्द्धा में शामिल हो सकता है। ऑस्कर के लिए प्रचार का खर्च पांच करोड़ से कम नहीं है। अत: केवल समर्थ निर्माता ही प्रया कर सकता है। हमारी कलात्मक क्षेत्रीय भाषा में बनी फिल्म का निर्माता इतना धन नहीं खर्च कर सकता। सच है सारी प्रतिस्पर्द्धाएं समर्थ के लिए हैं। गरीबी उत्पादित करने वाली व्यवस्थाएं सेवकों की फौज के लिए सारे तमाशे रचती हैं।