ऑस्कर के लिए भेजी जा सकती है 'भूलन' / जयप्रकाश चौकसे

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ऑस्कर के लिए भेजी जा सकती है 'भूलन'
प्रकाशन तिथि : 14 अगस्त 2018


फिल्मकार मनोज वर्मा ने संजीव बक्षी के उपन्यास 'भूलन कांदा' पर 'भूलन द मेज' नामक फिल्म बनाई है। यह फिल्म प्रदर्शित नहीं हुई परंतु प्रदर्शन के लिए प्रयास जारी हैं। इसे संसद, विधानसभाओं और अदालतों में भी दिखाया जाना चाहिए। यह फिल्म फणीश्वरनाथ 'रेणु' की कथा से प्रेरित 'शैलेन्द्र' की फिल्म 'तीसरी कसम' की याद इस मायने में दिलाती है कि दोनों ही फिल्मों में साहित्य की रचनाओं को सिनेमा के परदे पर पूरी निष्ठा से प्रस्तुत किया गया है। यहां तक कि कथा में प्रयुक्त अर्ध विराम और पूर्ण विराम को भी फिल्म माध्यम के दृश्यांतर, मोन्ताज एवं डिज़ोल्व के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। यह फिल्म मनुष्यता के मूलभूत मुद्‌दों को बाल सुलभ सहजता के साथ उठाती है। कहीं कोई चुनौती नहीं दी जाती, ना ही 'तारीख पर तारीख' जैसे दहाड़ू सवाल उठाए जाते हैं परंतु व्यवस्था की कमतरी को ऐसे सटीक ढंग से उठाया गया है, जैसे हमारे शरीर में रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

आज जीवन से मासूमियत का लोप हो रहा है, बचपन पर भी कुटिलता के साये फैल गए हैं। इस फिल्म में ग्रामीण एवं जनजातियों में मौजूद मासूमियत कुछ इस ढंग से प्रस्तुत की गई है कि हमारे मुखौटों की धज्जियां उड़ जाती हैं और हम शर्मसार हो जाते हैं। फ्योदोर दोस्तोवस्की की कालजयी रचना 'क्राइम एंड पनिशमेंट' में कई मुद्दे उठाए गए हैं और क्रिश्चियन दंड और दया अवधारणा प्रस्तुत की गई है। संजीव बक्षी इसको जक्टापोज़ करते हैं यानी अनपढ़ ग्रामीण जनजातियों के दंड विधान के साथ जिसका आधार दया और व्यावहारिकता है। गांवों में खेतों के मालिकाना अधिकार मेढ़ों द्वारा सदियों पूर्व हुए हैं परंतु सरकार जमीनों की नपती करके मेढ़ों में परिवर्तित करती है। इस विकास के कारण थोड़ा-सा रकबा इधर-उधर हो जाता है। दो किसान अपना काम कर रहे हैं और नए रकबा विभाजन को लेकर, उन बचपन से आज तक नज़दीकी रहे मित्रों में तकरार हो जाती है जो धक्का-मुक्की में बदल जाती है। एक धीमे से मारे गए धक्के और फिसलन पर पांव पड़ने के कारण एक किसान कुदाल पर गिर जाता है जो उसकी छाती फाड़ देती है। दूसरा किसान पूरे गांव को वहां बुला लेता है।

शहर से पुलिस आने वाली है। पंचायत यह तय करती है कि किसान के जेल चले जाने से उसकी पत्नी और दो बच्चे भूखे मर जाएंगे। गांव में एक बूढ़ा व्यक्ति खटिया पर लेटा रहता है और आने जाने वाले से बतौर चुंगी दो बीड़ियां वसूल करता है। पंचायत तय करती है कि वह अपराध अपने सिर पर लेकर जेल चला जाए। वह भी सहर्ष तैयार हो जाता है। जेल का डॉक्टर उसका इलाज करता है। बीड़ी पीना छूट जाता है। जेल में उसे दो वक्त का भोजन मिलता है। उसकी सेहत में सुधार आ जाता है। याद आता है राज कपूर की 'आवारा' का दृश्य, जिसमें जेबकतरा नायक जेल की रोटी को देखकर कहता है कि यह कमबख्त रोटी बाहर मिल जाती तो मैं जेल के भीतर क्यों आता। इस तरह फिल्म समाज के हर कोने के कचरे को उजागर करती है। वह कैदी जेल की बीहड़ जमीन पर गेंदे के फूल उगाता है और गुलदस्ता जेलर को भेंट करता है। जेल का अटाला बेचने के लिए बाहर भेजा जा रहा है, कैदी दो बरतन मांग लेता है और इसी सामग्री से एक मूर्ति बनाकर जेलर को भेंट करता है। अंधी आधुनिकता ने हमारी पारम्परिक हस्त-कला को नष्ट कर दिया है। किसी दौर में मलमल की साड़ी अंगूठी में से निकल जाती थी। कैदी द्वारा बनाई गई लक्ष्मी की मूर्ति जेलर के घर दीवाली पर पूजी जाती थी। हमारी छलनीनुमा असमानता आधारित व्यवस्था ने कहीं दीवाली कहीं दीवाला रच लिया है। इतनी गहराई से सोच विचार करके फिल्म गढ़ी गई है कि दीवाली पूजन पर गेंदे के फूल उपयोग में लाए जाते हैं। अटाला सामग्री से लक्ष्मी की मूर्ति गढ़ी गई है। मेहनतकश कारीगर लक्ष्मी (धन) पैदा करता है परंतु उस पर अधिकार किसी और का है।

फिल्म का क्लाइमैक्स अदालत में है। वर्षा होने पर गांव के लोग खुले अहाते में भीगते हैं तो तय करते हैं कि अदालत कक्ष में शरण लें। वहां एक मासूम व्यक्ति न्याय की मूर्ति की आंख पर बंधी काली पट्‌टी खोल देता है कि न्याय को अंधा नहीं होना चाहिए। यह पारम्परिक पट्‌टी इसलिए लगाई जाती है कि न्याय के समक्ष सभी लोग समान हैं परंतु गंवई गांव का व्यक्ति इसे नया अर्थ देता है। ग्रामीण का तकिया कलाम है 'हाव' जिसे सरकारी वकील उसकी स्वीकारोक्ति कहता है जबकि बचाव पक्ष साबित करता है कि यह हाव 'महज' तकिया कलाम है। जिस तरह सुजीत सरकार की अमिताभ बच्चन व तापसी पन्नू अभिनीत फिल्म के अदालत दृश्य में 'नो' अर्थात 'नहीं' के बारे में वकील कहता है कि 'नो' महज शब्द नहीं एक पूरा वाक्य है, उसी तरह इस फिल्म में पात्र का तकियाकलाम 'हाव' का अर्थ स्वीकारोक्ति नहीं है।

जज पक्ष विपक्ष की दलीलें सुनता है, उपलब्ध साक्ष्य का अध्ययन करता है और उसका फैसला दूध का दूध और पानी का पानी कर देता है। पूरे गांव को अपराध से बरी कर दिया जाता है। फिल्म के निर्देशक मोहन वर्मा का काम सधा हुआ है और सोद्देश्य मनोरंजन के आकाश में नया तारा उदित हुआ है। पार्श्व संगीत प्यारेलाल के भाई मोरी शर्मा ने दिया है और दृश्यों के प्रभाव को धार प्रदान करता है। मधुर गीत संगीतकार सुनील सोनी ने रचा है। थीम गीत के बोल हैं 'भूले से जो खूंद गया मैं, खूंद के सब कुछ भूल गया मैं, पांव में जैसे पड़ा हो फांदा, भूलन कांदा भूलन कांदा'। सिनेमाघर से निकले दर्शक का हमसाया बन सकता है यह गीत। उपन्यास आधारित है एक किंवदंती पर कि छत्तीसगढ़ के जंगल में एक 'भूलन कांदा' नामक पौधा होता है जिस पर पैर पड़ जाए तो व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है। अन्य व्यक्ति द्वारा स्पर्श किए जाने पर वह भूलन के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। हमारी व्यवस्था का पैर भी भूलन कांदा पर पड़ गया है और हम सब भूल चुके हैं। चीन के स्पर्श से देश 'भूलन' सेे मुक्त होगा। सारे कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं को ऐसे जिया है मानो वे अल्काजी के दौर के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में प्रशिक्षित होकर आए हैं। फिल्म में प्रेमिन की भूमिका अनिमा पगारे ने निभाई है जो मध्यप्रदेश के सीहोर में जन्मी और मुंबई में सक्रिय हैं। वे सहज सीधी सपाट लकीर की तरह हैं। फिल्म फेडरेशन को चाहिए कि 'भूलन' को ऑस्कर प्रतिस्पर्धा में भारत की प्रतिनिधि फिल्म की तरह भेजें।