ओम जय उल्लू देवा / गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

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दीपावली का पर्व मुख्यतः लक्ष्मी जी का पर्व माना जाता है। इनको पाने के लिए भक्त तरह-तरह के उपक्रम करते हैं।

इंदौर के जंगलों में भटकते भक्तों को देखकर मुझे तो केवल हैरानी हुई लेकिन गिरगिट तो पगला ही गया कि देवी-देवताओं के लिए प्रयोग की जाने वाली आरती अब उल्लू को अर्पित की जाने लगी है। उसके अनुसार अब कलयुग का नाश होके रहेगा। मुझे यह सुनके बहुत सुखद अनुभव हुआ कि अब कलयुग का नाश हो जाएगा। यानी सतयुग आने वाला है यानी भ्रष्टाचार का खात्मा...।

सतयुग आ जाएगा तो लोग अपना काला धन स्वयं ला-ला कर सरकारी खजानों में भरने लगेंगे। वैसे इसकी शुरुआत एक ऑटो चालक से दिल्ली में होभी चुकी है। हो भी क्यों न भ्रष्टाचार का आरंभ भी वहीं से हुआ था। वैसे बाबा जय गुरुदेव तो आठवें दशक में ही सतयुग के आने की घोषणा कर चुके हैं। अब दूसरी घोषणा अपने गिरगिट की है। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। लेकिन मुझे तो अभी दूर-दूर तक यह कलयुग जाता हुआ नहीं दिखता। केवल उल्लू की आरती उतारने से बुरे दिन आ जाएंगे गिरगिट की यह बात भी हमारे गले नहीं उतरती। बुरे दिन आने हैं सो वैसे ही आ जाएंगे। जब इंसानी ट्रैक पर गाय-बैलों को दौड़ाया जाता है तब तो बुरे दिन आते नहीं तो भला उल्लू की आरती उतारने से कैसे आ जाएंगे । मुझे तो यह दृश्य देखकर और बड़ी खुशी हुई कि इस देश के समझदार गाय-बैलों ने अपने नीचे लेटे भक्तों का सबसे बड़ा भला तो यही किया कि उन्हें घायल नहीं किया वरना मन्नत तो बाद में पूरी होती पहले तो घाव पुरवाना पड़ता।

एक दूसरे पर पत्थर मारने, अंगारों पर चलने और एक दूसरे पर पटाखे छोड़ने की स्वस्थ परंपराओं वाले त्योहारी देश भारत में जब भगवान शूकरावतार की पूजा की जा सकती है तो उल्लू की क्यों नहीं? वैसे चौरासी लाख योनियों में से हर योनि की अपनी विशेष महत्ता है। इनमें एक उल्लू भी है। कुछ वर्षों पहले गिद्धों को अचानक गायब होते देख कर पर्यावरण विद् विचलित हो उठे थे। मेरी दृष्टि में ये भक्त दूरदर्शी हैं। अब आप पूछेंगे कैसे? इसपर मेरा यही प्रतिप्रश्न होगा कि लक्ष्मी जी की सवारी कौन है? आपका उत्तर होगा कि उल्लू। अब यदि लक्ष्मीजी को खुश रखना है तो उनकी सवारी का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा।

दीवाली के दिन तांत्रिकों के फेर में अनावश्यक बलि चढ़ते उल्लुओं के जीवन की रक्षा का यह नया तरीका है। जब भक्त इन उल्लुओं की आरती उतार रहे होंगे ऐसे में किसकी औकात है कि वह उनके उनके आराध्य देव का अपहरण कर सके।

उल्लू का पक्ष लेने से निश्चय ही गिरगिट मेरे गले पड़ने वाला है। वह सायवादी है। थोड़ा-बहुत प्रगतिशील मैं भी हूँ पर बीबी के करवा चौथ पर बड़े मजे से अपनी आरती उतरवाता हूं। इस बार करवाचौथ पर जब मेरी आरती उतारी जा रही थी उस समय मैं स्वयं को उल्लू से कुछ कम सौभाग्यशाली नहीं समझ रहा था। उसका सीधा सा कारण था धर्मपत्नी का लक्ष्मी का रूप। हर पति बड़े गर्व से अपनी धर्मपत्नी को गृहलक्ष्मी कहता है और गाहे-बगाहे स्वयं के उल्लू होने की घोषणा भी कर देता है। इस तरह वह लक्ष्मी जी की सवारी तो बन ही जाता है। वह इसे न भी स्वीकारे तो भी जगत यह स्वीकारने को कतई तैयार नहीं होगा कि पति देवता पर धर्मपत्नी जी कभी सवार ही नहीं होती हैं। इस प्रकार उल्लू की यह नवजात परंपरा अपनी संपूर्ण मिथकीय गरिमा के साथ अगले वर्ष से प्रतिष्ठापित होने वाली है। इसलिए प्रिय पाठको तब तक इस आरती का अच्छी तरह से अभ्यास तो कर लो... ओम जय उल्लू देवा।