औघड़ फिल्म उद्योग की संदिग्ध गाइड / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
औघड़ फिल्म उद्योग की संदिग्ध गाइड
प्रकाशन तिथि :12 मार्च 2015


आयुष्मान खुराना की ताजा फिल्म 'दम लगा के हईशा' खूब सराही जा रही है। 'विकी डोनर' से उनकी पहचान बनी परंतु बाद की फिल्में असफल रहीं और अमागे का ठप्पा लगने से उन्हें ताजा फिल्म ने बचा लिया! फिल्म उद्योग के तौर-तरीकों से अपरिचित आयुष्मान 'विकी डोनर' को भुना नहीं पाए। विकी में उनका गाया गीत भी कर्णप्रिय रहा और उनके संगीतकार बनने की खबरें भी रहीं। फिल्म के चयन में कलाकार की सूझबूझ के साथ अवसर का बहुत महत्व है। सफलतम निर्माता आदित्य चोपड़ा ने उन्हें तीन फिल्मों के लिए अनुबंधित किया, जिसमें से दो असफल रहीं जिनका दोष आयुष्मान को नहीं दिया जा सकता। वे 'एमटीवी रोडीज' नामक टेलीविजन कार्यकम के विजेता के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। बहरहाल, आज चर्चा उनकी पहली किताब 'क्रैकिंग कोड' के कारण हो रही है। यह फिल्म उद्योग में आने वाले युवाओं की गाइड की तरह लिखी गई है। 'विंची कोड' का हल सरल है परंतु फिल्म उद्योग का कोड उतना आसान नहीं है और इस उद्योग में सफलता का कोई गुर या फॉर्मूला नहीं है। एक का अनुभव दूसरे के काम नहीं आता। यहां तक कि पिछली फिल्म के अनुभव नई फिल्म बनाने में कोई खास मदद नहीं करते। इस उद्योग में 'औघड़ गुरू का औघड़ ज्ञान, पहले भोजन फिर स्नान' चलता है। सचमुच इस उद्योग को औघड़ ही कहा जा सकता है।

आयुष्मान फरमाते हैं कि ज्ञान के दरवाजे खुलते हैं जब आत्म-मोह से मुक्ति मिले और पूरी किताब उनके अपने मोह में उलझे रहने का परिणाम है! भारत में अभिनय के कुछ स्कूल हैं परंतु मौलिक लेखन सिखाने वाला कोई संस्थान नहीं है। लेखिका निर्मला भुराडिया का सुपुत्र अमेरिका के किसी संस्थान में सृजन के अध्ययन के लिए गया है। उससे मिलकर ही जाना जा सकता है कि इस औघड़पन को कैसे विधिवत सीखा जा सकता है। किवदंती है कि औघड़ गुरु परंपरा रही है परंतु उनका कोई शास्त्र नहीं है गोयाकि पाठ्यक्रम का नहीं होना ही सृजन का पाठ्यक्रम है। महाभारत की मेरी व्याख्या में गुरु द्रोणाचार्य ने पांडव-कौरव पुत्रों को जंगल ले जाकर बताया कि उनका कोई आश्रम नहीं है और उन राजपुत्रों को ही आश्रम बनाना पड़ा, जिसके बन जाने पर गुरु ने कहा कि आधा पाठ्यक्रम तो पूरा हो गया। आश्रम के लिए आम आदमी की तरह राजपुत्रों का परिश्रम करना ही ज्ञान का शुभारंभ था।

आयुष्मान सही फरमाते हैं कि यहां स्वयं पर ही निर्भर होना पड़ता है। खेल करोड़ों का है, इसलिए सिफारिश के बल पर काम नहीं मिलता। फिल्म उद्योग के इतिहास के व्यावसायिक दृष्टि से सफलतम निर्माता शशधर मुखर्जी ने अनेक नए कलाकारों को सितारा बनाया परंतु लाख कोशिश के बाद वे अपने पुत्रों को लंबी दौड़ का सितारा नहीं बना पाए। सच तो यह है कि फिल्म क्या हर क्षेत्र में आत्म-निर्भरता सर्वश्रेष्ठ है।

आयुष्मान संवेदनशील और सरल व्यक्ति हैं; उनके इरादे नेक हैं, परंतु उन्हें अभी तक ऐसी सफलता नहीं मिली है कि वे पथ प्रदर्शक की हैसियत से प्रस्तुत हों। दरअसल, विज्ञापन और बाजार शासित इस काल खंड में पकने के पहले बिकने की जल्दी रहती है। यह जल्दबाजी हमारी सोच का हिस्सा हो गई है। यह तात्पर्य नहीं कि दशकों का अनुभव ही किसी को गुरु बनाता है। बहरहाल, आयुष्मान को मांगने के बाद वैनिटी वैन मिली। विगत बीस वर्षों से लंबी वैनिटी वैन का चलन प्रारंभ हुआ, जिसका किराया निर्माता को चुकाना होता है। भूतपूर्व सितारा पूनम ढिल्लो ने वैनिटी वैन का व्यवसाय प्रारंभ किया और सितारे के मेकअप तथा आराम की चलती-फिरती लंबी गाड़ी को 'वैनिटी वैन' नाम भी पूनम ढिल्लो का दिया है। यह सितारों की शान का प्रतीक है। महिला पर्स को भी वैनिटी सदियों से कहा जा रहा है। इसमें उसके प्रसाधन का सामान होता है। विक्टोरिया कालखंड में अमीरों को दिखावे का शौक था और थैकरे नामक लेखक ने 'वैनिटी फेयर' नामक उपन्यास लिखा था। आम आदमी की जबान में वैनिटी धनवालों का चोंचला है, शिगूफा है। हमारा विरोधाभास और उलटबासी वाला कालखंड ही वैनिटी-युग माना जाना चाहिए। मेक-अप अब मात्र प्रसाधन ही नहीं वरन् विचार शैली का हिस्सा बन चुका है।