औघड़ / नीलोत्पल मृणाल / पूजा रागिनी

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औघड़ (अघोर पंथी) समाज की वर्जनाओं को तोड़ने का प्रयास करते हैं। इसके प्रणेता भगवान शिव हैं। जिन्होंने समाज कल्याण के लिए विषपान किया और नीलकंठ कहलाए. अघोर पंथी काम में सोच विचार न करने वाले, छूत-अछूत, काल से ऊपर, मनमौजी, समाज की निचली दबी कुचली वस्तुओं का प्रयोग अपनी साधना में करके उन्हें महत्त्व दिलाने का प्रयास करते हैं। ये वही औघड़ होते हैं। जो श्मशान में पूजा करके श्मशान को भी पवित्र करने का प्रयास करते हैं। सम्भवतः अघोरियों (औघड़) की समाज कल्याण की भावना से प्रेरित है नीलोत्पल मृणाल जी द्वारा रचित उपन्यास 'औघड़' और उसका नायक बिरंची।

गाँव देहात के लोगों की चिंतन और चेतना की बयानबाजी है 'औघड़' । ये कहानी मात्र मलखानपुर की ही नहीं है बल्कि समस्त ग्रामीण भारत की झलक है। जहाँ चुनाव पूर्व का माहौल ऐसा ही होता है। जैसा उपन्यास में है। यदि आप गाँव के हैं तो उपन्यास के हर पात्र आपको जाने पहचाने लगेंगे और अगर गाँव न देखा हो तो उपन्यास के माध्यम से गाँव की हिताई नताई जान सकते हैं। पंडी जी की लात की महानता, ठाकुर साहब का अपने इतिहास के प्रति मोह, जनेऊ में चाभी ही नहीं वेद भी गुँथा मिल ही जाता है गाँव में। ये वही गाँव है जहाँ के लोगों को शौचालय से ज़्यादा मोटरसाइकिल ज़रूरी लगती है। ये वही समाज है जहाँ गरीब घर के इकलौते लड़के का भी अलग ही विशिष्ट बोध होता है। इस गाँव में चश्मा पढ़ाकू होने का प्रतीक है। शहर से पढ़कर लौटे मार्क्सवाद, नारीवाद से भरे लड़के की असमंजस की स्थिति का सटीक वर्णन है। महिलाओं की सरलता के कहने ही क्या हैं। वह पंचायत चुनाव के नॉमिनेशन में इसलिए गयी है कि वहीं से वह अपने मुफ्त में रिश्तेदारों से मिल लेंगी।

उपन्यास का नायक बिरंची अपना अलग ताना बाना बुन रहा है। ठाकुर फूंकन सिंह के विरोध में पबित्तर को उम्मीदवार बनाने से लेकर ठाकुर साहब की सामंती दीवार को अपने पेशाब से गिराने का बीड़ा उठाये हुए है। संस्कारों को बपौती समझने वालों के नशेड़ी बेटे को ज़मीन पर गिरा देख उनको चेताता है कि 'संस्कार चबूतरे पर गिरा है जाकर उठा लाएं'।

मात्र बिरंची ही मधु की पीड़ा से व्यथित होता है। जब मधु कहती है कि 'समाज की कालिख मुँह में लगाने से अच्छा है कि माँग में झूठ का सिंदूर लगाना'। मधु सही कहती है कि 'एक स्त्री के देह के साथ बलात्कार एक बार होता है मगर उसकी चेतना में वह ब्लात्कार बार-बार होता है। ये एक ऐसा मामला है जिसमें दोषी को सजा तो मिल जाती है लेकिन पीड़िता को न्याय नहीं'। तब बिरंची सोचता है कि 'कितनी बिडम्बना है कि जिस स्त्री के कोख से सभ्यताओं का जनम होता है, सभ्यताओं ने उसी को हमेशा मर्यादा और संस्कृति के बोतल में बंद करके रखा'। जबकि पत्रकार से लेकर दरोगा तक स्त्री की इज़्ज़त की कीमत दस हजार लगाकर पूरे मामले को रफा दफा करते हैं।

बिरंची की मृत्यु पर जब सब कहते है कि नशा से मरा तब उसका दोस्त लखन कहता है कि 'क्या नशा से मरा! अरे इससे ज़्यादा कोई होश में नहीं था पूरे गाँव में'।

इस उपन्यास में ईमानदारी से लेकर गद्दारी की पराकाष्ठा, चुगलखोरी, लखन जैसी दोस्ती, पबित्तर जैसी दोस्ती, कर्ज की पीड़ा, श्रेष्ठ होने का घमण्ड, बलात्कार का दुःख, साधु का ज्ञान इत्यादि जीवन के बहुत से भाव मिल जाएंगे। पत्रकार महोदय के समाज कल्याण की भावना से पाठक को भली भाँति ज्ञात होता है कि वास्तव में 'पत्रकारिता तो अब पक्षपात के दौर से आगे गर्भपात और बज्रपात के दौर में प्रवेश कर चुकी है'।

'औघड़' उपन्यास की भाषा पूर्वी उत्तरप्रदेश, बिहार की है। पात्रों ने अपनी सहज बोली का प्रयोग किया है। टाप जाओ, लोर, बुझाता, मिट्टी के कंतरी वाले दूध, सकियेगा, गछपक्कू आम, भकलोल, कपार, कपसन, नरभसाओ नहीं, जैसे शब्दों के प्रयोग से उपन्यास की सरलता बनी हुई है। मुहावरेदार और व्यंग्यात्मक लहजे का बखूबी प्रयोग किया गया है। जैसे 'साला देश ड्रेस और फेस से चलता है'। जहाँ खुद पंच परमेश्वर वास करते हों वहाँ पत्थरों के परमेश्वर ऐसे उपेक्षित हो ही जाते है। उपन्यास में शब्दशक्ति के तीनों रूपों अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का भी भलीभाँति प्रयोग हुआ है। जैसे 'राजनीति में जो निश्चिंत हो जाता है वह चित हो जाता है'। 'जिंदगी की जीवनधारा कोई भी किताब के विचारधारा से अलग होता है'। 'अछूत रस सबसे निर्मल रस है' इत्यादि। साधू द्वारा गाये गीत से लेखक के कवित्व और भारत की स्थिति ज्ञात होती है-

चल साधो कोई देश
यहाँ का सूरज डूबा जाए
यहाँ की नदियाँ प्यासी हैं
यहाँ घनघोर उदासी है
यहाँ के दिन भी जले जले
यहाँ की भोर भी बासी है

ये उपन्यास श्री लाल शुक्ल जी के 'राग दरबारी' से बहुत प्रभावित लगता है। पूरे उपन्यास में लच्छेदार भाषा गुदगुदाती है तो तकलीफदेह बातें पाठक को रुलाती भी हैं। लेकिन बिरंची की मौत पाठक को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है।

बाकी उपन्यास में कुछ पात्रों व घटनाक्रम की अधिकता है। लेकिन गाँव के विस्तार के कारण सम्भवतः लेखक ने ऐसा किया होगा। फिर भी गाँव देहात को समझने के लिए ये उपन्यास पढ़ना चाहिए. सबसे छोटे स्तर पर कुराजनीति को समझने के लिए इस उपन्यास को पढ़ना चाहिए। जाति की परंपरा से परिचित होने के लिए, गाँव, जहाँ हरिजन के घर खाना ग़लत है लेकिन उसी से कर्ज लेना सही है। अपने मतलब के लिए अछूत को भतीजा बनाने से परहेज नहीं है। जहाँ लखन जैसा दोस्त भी है और पबित्तर जैसा भी। वह गाँव जहाँ पहर बीतते हुए शोर नहीं मचाता। सुबह से शाम इठलाते हुए हो जाती है। अक्सर हम बड़े बुजुर्गों से सुनते हैं कि पहले बिना घड़ी के आदमी समय बता देता था। वह गाँव जहाँ हर जाति के नीचे एक जाति थी। जहाँ सबसे ऊपर की जाति तो खोजी जा सकती थी लेकिन सबसे निचली जाती खोजना अभी तक बाकी था। ऐसे गांवों वाले भारत को जानने के लिए उपन्यास पढ़ना चाहिए।

बिरंची के माध्यम से लेखक ने आदर्शवाद प्रस्तुत करने की कोशिश की है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात लेखक ने उपन्यास के पहले पृष्ठ पर लिखा है कि ' मैंने कोई उपन्यास नहीं लिखा है, मैंने अपने मारे जाने की जमानत लिखी है। मैं जानता हूँ कि आप मुझे छोड़ेंगे नहीं और मैंने भी पूरी कोशिश की है कि किसी को न छोड़ूँ। लेखक अपने इस वक्तव्य के साथ न्याय करने में पूरी तरह से सफल रहे हैं। उन्होंने ब्राह्मणवाद, समाजवाद, जातिवाद आदि सबका उचित ख़ाका खींचा है और किसी को भी नहीं छोड़ा है। सबपर भरपूर कटाक्ष किया है। इसके लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।