और इब्नबतूता गायब हो गया / उमा शंकर चौधरी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

और इस बार सोचा क्यों नहीं कहानी के नायक का नाम किसी ऐतिहासिक पात्र के नाम पर रखा जाए। इब्नबतूता नाम थोड़ा अजीब लगा और कहानी का नायक इब्नबतूता बन गया। इस तरह कहानी के नायक का नाम इब्नबतूता के जन्म के पीछे एक संयोग काम आया। लेकिन यह महज संयोग कहाँ है कि चैदहवीं शताब्दी में जब इब्नबतूता भारत आया था तब दिल्ली की शानो-शौकत को देखकर दंग रह गया था और फिर संसार में इसे अद्वितीय, ऐश्वर्यशाली और न जाने क्या-क्या कह दिया था। कहानी का नायक हमारा इब्नबतूता भी तो दिल्ली की चकाचैंध भरी दुनिया देखकर हतप्रभ है, आप चाहें तो इसे ही कहानी के नायक के नाम के पीछे का कारण मान लें, वरना संयोग तो है ही।

आज उसे अपने कारखाने के लिए देर हो गयी थी। उसे यह मालूम था कि उसके आधे दिन का वेतन आज कटना निश्चित है इसलिए वह काफी आराम में था। बगैर किसी देरी की चिंता किए उसने आज फिर अपनी साइकिल को अपने शरीर से टिकाये सड़क के किनारे खड़े होकर कनाॅट प्लेस की उस ऊंची बिल्डिंग पर नीचे से ऊपर की ओर नज़र डाली। आज चूंकि दिन चढ़ आया था इसलिए उस बिल्डिंग के ऊपरी सिरे तक पहुँचते ही उसकी निगाह सूर्य की तेज रोशनी में बिल्कुल चुंधिया गई। उसे अचानक लगा जैसे उस बिल्डिंग का ऊपरी सिरा सूर्य से जा मिला है। ऐसे जैसे उस फ्लोर के लोग कैंटीन से चाय लेकर अपनी बाल्कनी को टाप कर सूरज की गोलाई में घुस जाए और अपने दोस्तों के साथ चाय की चुस्की ले। सूरज की रोशनी से टकराते उस ऊपरी फ्लोर को वह बहुत साफ-साफ देख नहीं पाया। मुश्किल से उसने तीस से पैंतालीस सैकेण्ड तक निहारा होगा कि उसके सिर में चक्कर आने लगा और अचानक लगा जैसे वह गश्त खाकर गिर जाएगा। उसने अपनी निगाह नीचे कर ली और अपनी साइकिल के हैंडिल को कसकर पकड़ लिया। ऐसे जैसे साइकिल कोई गड़ा हुआ खम्भा हो और वह उसे पकड़कर गिरने से बच जाएगा। पर चूंकि साइकिल उसके सहारे खड़ी थी इसलिए वह नहीं गिरी और वह साइकिल के सहारे खड़ा था इसलिए वह भी नहीं गिरा। ज्यों ही वह थोड़ा-सा संयत हुआ उसके दिमाग में पहली बात यह आयी कि उस फ्लोर पर काम करने वाले लोगों के लंच बॉक्स में रखा खाना कभी ठंडा नहीं होता होगा। जब खाना निकालो तब एकदम गर्म। लेकिन दूसरे ही पल उसके दिमाग में आया इतनी गर्मी में तो बुशर्ट ही जल जाए। उसने सोचा उसके पास तो मात्र दो ही बुशर्ट हैं।

सड़क किनारे अपनी देह से साइकिल को टिका कर इस ऊंची बिल्डिंग को निहारना उसकी रोज की आदत में शामिल था। रोज वह इस बिल्डिंग के सामने खड़े होकर उसे नीचे से देखता और सोचता कि उसके मालिक केे पास कितना पैसा होगा। वह अपने मोहल्ले की जमीन के हिसाब से उसकी कीमत अपने मन के भीतर आंकने की कोशिश करता। बीस हजार रुपये उसके मोहल्ले की जमीन है यह कम से कम एक हजार गज तो होगी ही। दो करोड़ तो मेरे मोहल्ले के हिसाब से हुआ फिर उसके ऊपर यह बीस महल। वह सोचता कनाॅट प्लेस की जमीन तो महंगी भी होगी। लेकिन कितनी मंहगी उसे नहीं मालूम। रोज वह इन हिसाबों के चक्कर में पड़ता और चकरघिन्नी खाने लगता तो छोड़ देता। लेकिन आज की तरह वह इस सूरज की तेज रोशनी में पहली बार फंसा है।

चूंकि आज सुबह-सुबह उसके सिर में बहुत तेज चक्कर आ रहा था और वह बिस्तर से उठने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था इसलिए उसे देर हो गई थी। वरना वह रोज अपने नियम पर सुबह छः बजे जग जाता है। पहले उसे लगा जैसे वह अभी कुछ देर में उठने की हिम्मत कर लेगा और थोड़ी देर से ही सही कारखाने पहुँच जायेगा और फिर मालिक की डांट के साथ काम शुरू कर देगा। लेकिन जब वह दस बजे तक बिस्तर से उठ ही नहीं पाया तब वह निश्चिंत हो गया। जब अब आधा दिन का वेतन कटना निश्चित ही है तब इतनी आपाधापी क्यों? उसने अपने मन में सोचा आधा दिन का वेतन मतलब अठ्ठावन रुपये।

यह इब्नबतूता चैदहवीं शताब्दी का कोइ पुराना माॅडल है क्या?

उसकी उम्र लगभग पैंतालीस के करीब है। उसका नाम इब्नबतूता लोखण्डे है। इब्नबतूता! इब्नबतूता नाम सुनकर लोग चैंकते हैं और फिर उसकी तह में जाने की कोशिश करते हैं। इब्नबतूता से लोग इब्नबतूता का मतलब पूछते हैं। इब्नबतूता खुद नहीं जानता है इसका मतलब। उससे लोग पूछते हैं किसने रखा उसका यह नाम? इब्नबतूता इस प्रश्न पर अंदर से खीझ जाता है तेरा नाम राधामोहन किसने रखा? इसका नाम बिन्देश्वरी नारायण पटवर्धन किसने रखा? तेरे बाप ने। इसके बाप ने। सबका नाम उसका बाप ही रखता है। लेकिन खुद इब्नबतूता सोचता है जब उसके बाप का नाम राजमणि लोखण्डे था तब उसका नाम यह इब्नबतूता क्यों? इब्नबतूता ज़्यादा नहीं सोचना चाहता है। वह जानता है नाम कोई कपड़ा, चप्पल या साइकिल तो नहीं। इसे बदलना संभव नहीं। इसी के साथ जीवन निभाना है और जीवन शिकायत के साथ निभाना ठीक नहीं। लोग उसके इस भारी नाम को बोलने में दिक्कत महसूस करते हैं इसलिए लोगों ने उसे थोड़ा संक्षिप्त कर दिया है-इब्नू। लोग उसे इब्नू पुकारते हैं और इब्नबतूता समझ लेता है। जैसे लोग इब्नबतूता को साइकिल से आते देख दूर से कहते हैं 'अरे इब्नू तेरी साइकिल का पहिया घूम रहा है' और इब्नबतूता चलती साइकिल पर से उस पहिये की ओर सशंकित निगाह से देखने लगता है।

इब्नू महाराष्ट्र का है, यह महज एक तथ्य है। क्योंकि वह न ही आज तक दिल्ली से बाहर गया है और न ही उसे मराठी आती है। उसके बाबा दिल्ली आये थे और महाराष्ट्र का संस्कार थोड़ा बहुत उसके पिता तक चला भी परन्तु उस तक आते-आते वह संस्कार दिल्ली के संस्कार पर हावी नहीं हो पाया। उसके साथ अब महाराष्ट्र बस उतना ही है जितना उसके सरनेम लोखण्डे में दिखता है। लेकिन जो भी उसका पूरा नाम सुनता है उससे पूछ बैठता है 'कभी अमिताभ बच्चन से मिले हो कि नहीं?' वह सोचता है अमिताभ बच्चन से कैसे मिलता, वे कभी उसके गैरेज पर घर का ग्रिल बनवाने आए ही नहीं? लोग पूछते हैं 'मुम्बई में समुद्र कैसा लगता है? कितना बड़ा है?' इब्नू सीधा-सा जवाब देता है 'ज्यादा बड़ा नहीं है, हमलोग बचपन में तो रोज नाव से ही पार करके स्कूल जाया करते थे।'

इब्नबतूता के बारे में सारे गली-मोहल्ले वाले जानते हैं कि वह बहुत ही सीघा आदमी है। एकदम गऊ। कमाता है और खाता है। परिवार के साथ शांति से रहता है। लेकिन मोहल्ले के बच्चे घेर लेते हैं। 'इब्नू बता एक पेड़ पर तेईस चिड़ियंा हैं अगर एक बंदूक से गोली चलाने पर दो चिड़ियंा मर गईं तो पेड़ पर कितनी चिड़िया बैठी रह गईं।' और इब्नू सचमुच अपने हाथ की उंगलियों पर तेइस चिड़िया में से दो चिड़िया को घटाने में उलझ जाता। तब बच्चे कहते 'चल छोड़ तेरे मगज में यह नहीं आने वाला। तू यह बता एक किलो रुई भारी या एक किलो लोहा।' तब इब्नू एकदम से चहककर कह देता 'लोहा' । इब्नू इतना सीधा था कि वह अपने मोहल्ले में कभी साइकिल पर से गिर गया हो तो लोग दूर से ही उसे जोर से कहते 'बच के चला कर इब्नू, अभी गिर जाता।' और इब्नू वाकई सोचता कि बिल्कुल बाल-बाल बच गया अभी वह गिरने ही वाला था।

इब्नू जहाँ काम करने जाता है उसे कारखाना कहता है जबकि वास्तव में वह एक गैरेज है। एक ऐसा गैरेज जहाँ लोहे का काम होता है। वहाँ दरवाजे के ग्रिल बनते हंै, हैंडेल बनते हैं। जालियाँ बनती हैं। वेल्डिंग होताी है। एक ऐसी दुकान, एक ऐसा गैरेज जहाँ लोहे को मोड़कर और तोड़कर कुछ भी बनाया जा सकता है। हर समय ठक-पिट, ठक-पिट। गैरेज में एक बड़ी-सी मशीन भी है जिस पर लोहे को छांट कर छीलकर उसे गोल किया जाता है। इब्नू यहाँ हथौड़ा मारता है और लोहा बिल्कुल सीधा हो जाता है। इब्नू दो ऊंचे गुटखांे पर लोहे को रखकर हथौड़ा मारता है और लोहा मुड़ जाता है। उसने अपने हाथ की करामात से यहाँ लोहे को लचीला होते देखा है। एक सीधा लोहा हथौड़े के वार से फूल बन जाता है। एक सीधा लोहा मुड़कर दरवाजे की घुमावदार चिटकनी बन जाता है। इब्नू ने यहाँ आदमी की दृढ़ इच्छा शक्ति के सामने लोहे को पस्त होते देखा है।

इब्नबतूता जिस गैरेज पर काम करता है और जिसे वह कारखाना कहता है वह छोटा नहीं है। वहाँ चार-पांच मिस्त्री और कम-से-कम दस-बारह मजदूर काम करते हैं। एक कैश काउन्टर है जिसे गल्ला कहते हैं। सरदार भाग सिंह इस गल्ले के मालिक हैं। इस दुकान का सबसे पुराना मिस्त्री है इब्नबतूता। लगभग पंद्रह-सोलह वर्ष होने को आए उसे इस दुकान में काम करते। एक समय था इब्नू की बड़ी इज़्जत थी इस दुकान में। लेकिन अब बीत गए वे दिन। यह समय इब्नू का इस दुकान पर उसका स्वर्ण काल नहीं है।

अपना कोई घर नहीं होने का दुख इब्नबतूता जानता है। इब्नबतूता के पास अपना कोई घर नहीं है। लेकिन इब्नबतूता दिल्ली के गांधी नगर में रहता है। गांधी नगर की घिरी हुई बस्ती के एक कमरे में। एक कमरा किराये का। इब्नू रोज रात में तैयार होकर एक घंटा पूजा करता है। आठ बजे अपनी साइकिल से अपने कारखाने के लिए निकलता है और यमुना पर बने बड़े से पुल को पार करके आईटीओ, बाराखम्बा, कनाॅटप्लेस होते हुए पहाड़गंज पर स्थित अपनी दुकान पर पहुँच जाता है। इब्नू लगभग रोज दो घंटे साइकिल चलाता है। एक घंटा सुबह और एक घंटा शाम। उसकी साइकिल के कैरियर में दबा हुआ होता है उसका टिफिन। वह अपनी साइकिल पर बैठा रास्ते में देखता है ढेर सारी झोपड़ियाँ। दूर-दूर तक जहाँ तक नजर जाए वहाँ तक झोपड़ियाँ। यमुना किनारे बसी यह झोपड़ियाँ। आगे बढ़कर वह देखता है हाथी। वहाँ टंगा है एक बोर्ड 'यहाँ हाथी मिलते हैं।' वहाँ देखता है वह हाथी को घास खाता हुआ। इब्नू सोचता है 'दिल्ली में क्या प्रधानमंत्री हाथी से चलते हैं।' इब्नू देखता है यमुना नदी। यमुना नदी पर पुल। इस पुल पर बनी ऊंची-ऊंची जाली। यह जाली इसलिए कि कोई गंदगी न फेंक सके यमुना नदी में। लेकिन इब्नू बहुत सारे लोगों को जाली के पार गंदगी फेंकते देखता है। वह उस जाली को देखता है और उसकी बनावट के बारे में सोचता है। उसका मिस्त्री बाहर आ जाता है। वह उसकी बनावट की कमी को महसूस करता है। वह सोचता है जाली का ऊपरी हिस्सा अंदर नहीं बाहर की ओर मुड़ा होना चाहिए था। इब्नू रास्ते में कनाॅट प्लेस पर रुकता है और उस खास ब्ल्डििंग को रोज देखता हे और रोज ही उस बिल्डिंग के मालिक की हैसियत का अंदाज लगाने की कोशिश करता है। फिर वह अपनी साइकिल थाम पहाड़गंज की अपनी दुकान में पहुँच जाता है। फिर वही ठक पिट और वही लोहे का पस्त होना।

इब्नबतूता को अपने पिता से शिकायत महज इतनी ही नहीं है कि अपना नाम राजमणि लोखण्डे होते हुए उन्होंने पुत्र का नाम इब्नबतूता लोखण्डे क्यों रखा? इससे भी बड़ी शिकायत यह है कि उन्होंने अपने जीवन में ही सारी सम्पत्ति को धो-चाट लिया। इब्नू के बाबा यहाँ आकर बसे ज़रूर लेकिन उन्होंने जितना कमाया, उसे सहेजा भी। परन्तु इब्नू के पिता ने सिर्फ़ उन पैसों को बर्बाद किया। आज इब्नबतूता के पास अपना घर नहीं है और न ही कोई घोड़ा या फिर हाथी। आज अगर उसके पिता उसके लिए कम से कम एक घर छोड़ गए होते और कुछ पैसे तो उसकी भी ज़िन्दगी आराम से कट सकती थी। आज इब्नू अपने पूरे परिवार के साथ किराये के एक सीलनदार कमरे में रहने को अभिशप्त है। उसके पास है आज एक कमरा और बस एक कमरा। एक छोटी-सी रसोई और एक छोटा-सा बाथरूम। इसी पच्चीस गज की जमीन पर रहता है इब्नबतूता और इब्नबतूता का परिवार। परिवार में इब्नबतूता कि पत्नी और उसके तीन बच्चे। रसोई की खिड़की से बाहर की तरफ चेन से वह अपनी साइकिल को कसकर बाँध कर ताला लगाता है। रात में कम से कम दो या तीन बार वह उस साइकिल को देखने उठता है। साइकिल सुरक्षित है। इब्नू सिर्फ़ इस साइकिल की सुरक्षा के लिए रोज एक घंटा ईश्वर की पूजा करता है। साइकिल खोने का मतलब है रोज बीस रुपये आने-जाने का किराया। यानी महीने में लगभग पांच सौ रुपये।

क्रमशः पीछे से आगे की ओर बढ़ते हैं

इब्नबतूता के हालात शुरू से ही इतने खराब थे ऐसा नहीं है। जब से उसने होश संभाला है पिता को पैसा तहस-नहस करते ही देखा है। लेेकिन विपत्ति ने इब्नू को बहुत पहले समझदार बना दिया। वह तब महज बीस-बाइस साल का रहा होगा जब उसे डीसीएम मिल में चैकीदार की नौकरी मिल गयी। चैकीदार की नौकरी क्या मिली उसके दिन बहुर गए। चैकीदारी में काम ही कितना था बस वर्दी पहनकर दरवाजे पर बैठना। दो चार सैल्यूट, दो-चार पूछताछ का जवाब और दो-चार बार दरवाजा खोलना। वह भी कोई अकेले दरबान थोड़े ही न था वह। लेकिन इतने पर ही इब्नू को वहाँ बहुत आराम दिया गया था। डीसीएम मिल के कैम्पस में ही इब्नू का दो छोटे-छोटे कमरे का एक घर था। इब्नू ने अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत वहीं से की थी वहीं उसकी शादी हुई। उसके पिता-माता का बारी-बारी से निधन हुआ और वहीं इब्नू ने अपनी पहली संतान को प्राप्त किया। इब्नू के वे दिन बड़े सुहावने थे। उसी छोटे से कमरे में इब्नू ने अपनी दुल्हन का चेहरा पहली बार गौर से देखा था। उसी कमरे में उसे धीरे-धीरे उससे प्यार हुआ था।

उसी कमरे में उसने अपनी पत्नी को पहली बार अनावृत्त देखा था। उसने पहली बार जाना था कि अनावृत्त का मतलब होता है अनावृत्त। शरीर पर कुछ भी नहीं और अनावृत्त देखा ही नहीं था बल्कि उसे अपने हाथों से महसूस भी किया था। एकदम सफेद बर्फ की सिल्ली की तरह। इब्नू ने तब महसूस किया था यह जादू कि अनावृत्त शरीर पर जहां-जहाँ उसके हाथ चलते साथ-साथ शरीर के रोएँ एकदम खड़े हो जाते, दाने उभर आते। दोनों ही शरीरों में एक सिहरन दौड़ जाती। एक तनाव मस्तिष्क में दौड़ जाता। इब्नू ने धीरे-धीरे उस सम्पूर्ण शरीर का मुआयना किया, शरीर में कुछ खास जगह हैं जहाँ रोएँ अधिक उभरते। इब्नू उन रोओं को करीब से देखता और सोचता ये पहले कहाँ गायब थे। इब्नू उन रोओं को अपने दांतों से पकड़ने की कोशिश करता लेकिन असफल रहता।

इब्नू सुबह आठ बजे ड्यूटी पर पहुँचता और दिन भर शाम का इंतजार करता। शाम में पत्नी इंतजार करती और फिर इब्नू रात का इंतजार करता। रात आती और इब्नू उन रोओं के जादू को देखने में लग जाता।

लेकिन डीसीएम मिल बन्द क्या हुआ इब्नबतूता के सारे सुखों को जैसे नज़र लग गयी। नौकरी गयी, घर गया। सारा सुख-चैन गया। वह और उसका परिवार पूरी तरह सड़क पर आ गये। कहां-कहाँ धक्के नहीं खाये, क्या-क्या नहीं सहा।

लेकिन इब्नू की ज़िन्दगी का यह आखिरी बड़ा कष्ट नहीं था। इस कष्ट से उबरने में इब्नू को ज़्यादा वक्त नहीं लगा। हद से हद छः महीने। छः महीने में इब्नू की किस्मत ने एक बार फिर से करवट बदली। उसकी किस्मत ने उसका साथ दिया और उसने इस गैरेज को पकड़ लिया। इब्नू को तब लोहे की बिल्कुल समझ नहीं थी। दुकान में हेल्पर के रूप में तब उसने नौकरी पायी थी। वेतन कम था लेकिन उसे एक ठौर मिल गया था।

डीसीएम मिल में वर्दी पहनकर सम्मान की नौकरी करने वाला इब्नबतूता अब लोहे के एक गैरेज में हेल्पर की नौकरी कर रहा था। लेकिन उसके छः महीने के कष्ट ने उसके पहले के सारे सुख के अहसास को खत्म कर दिया था। उसे वेतन कम मिल रहा था, उसकी कोई इज्जत नहीं थी। लेकिन इब्नू खुश था। क्योंकि उसके परिवार को एक ठिकाना, रोटी और छत मिल गयी थी और तब उसका खर्च था ही कितना। मात्र तीन प्राणी। वह, पत्नी और एक बेटी। बेटी का नाम उसने रूबिया रखा था। स्कूल के रजिस्टर में जब लिखा गया तब यह नाम हो गया-रूबिया लोखण्डे।

इब्नबतूता ने पहली बार लोहे की सख्ती को यहाँ करीब से महसूस किया था। शुरुआत में उसे बहुत दिक्कत आई। वह एक हाथ से लोहे को पकड़कर दूसरे हाथ से हथौड़ा मारता तो हाथ एकदम से सन्न हो जाता। नसों के भीतर अजीब तरह की सनसनी दौड़ जाती। थोड़ी देर के लिए हाथ सुन्न हो जाता। लोहे को वेल्डिंग करने वाली चिंगारी को देखता तो उसे अचानक लगता जैसे उस चिंगारी के अलावा अब इस धरती पर कुछ नहीं बचा। आंखों के आगे एकदम गहरा अँधेरा और उसके बीच एक तेज चिंगारी। इब्नू अपने गैरेज के बगल की गली में देखता था लोहे की लम्बी-छरहरी पट्टियाँ और फिर अपनी आंखों के सामने उसे घुमावदार आकार लेकर ऐसी-ऐसी चीजों में परिणत होते देखता कि वह भौंचक रह जाता। शुरुआत में एक-दो महीने तक उसे लगा जैसे उसके दिमाग में ऐसा कुछ आने वाला नहीं है। वह बेचैन हो उठता, वह चाहता अपने सुन्न हाथ के साथ यहाँ से दौड़ लगा दे। लेकिन उसे फिर याद आ जाता अपना परिवार, अपनी पत्नी, अपनी बेटी रूबिया।

मजबूरी ही सही लेकिन इब्नू वहाँ रुका और फिर धीरे-धीरे उस लोहे को उसने अपने भीतर आत्मसात् कर लिया। लोहे की कठोरता को उसने समझना शुरू कर दिया। लोहे के साथ व्यवहार करने का अपना एक अलग ढंग, एक अलग तरीका होता है, यह उसने सीख लिया। उसने लोहे के सामने तनकर खड़ा होना शुरू किया और लोहे ने उसके सामने झुकना शुरू कर दिया। इब्नू ने जाना कि अगर लोहे को सही तरीके से पकड़कर उस पर हथौड़ा मारा जाए तो लोहे का प्रहार हाथ तक नहीं पंहुच पाता है। लोहे की मार्फत हाथ में सिहरन नहीं दौड़ती है।

इब्नू ने लोहे के साथ व्यवहार करना क्या सीखा वह धीरे-धीरे धुरंधर बनता चला गया। हर दिन उसकी ज़िन्दगी में अब ऊपर उठने का दिन था। लोहे के साथ उसने एक सम्बंध विकसित कर लिया था। लोहे के साथ जिस तरीके का इस्तेमाल किया जाना चाहिए उसने उस तरीके को अपना लिया था और महज एक-डेढ़ वर्ष गुजरे होंगे कि इब्नू धीरे-धीरे इसी दुकान पर हेल्पर से मिस्त्री तक का सफ़र तय कर लिया।

लेकिन यह उसके सफ़र का आखिरी पड़ाव नहीं था। उसने उसके बाद से कभी रुकना नहीें सीखा। हर दिन वह कुछ नया सीखता और कुछ नया करता।

लोहे पर कई तरह के प्रयोग उसने किए और वह सफल रहा। लोहे की पट्टी को सामने रखकर वह कुछ देेर तक उसे देखते हुए शांत बैठा रहता। वह उस लोहे को अपने मस्तिष्क में उतारता और फिर लोहे की उस उपयोगिता को। लोहे को अपने मस्तिष्क में वह उस खास वस्तु में तब्दील करता। वस्तु मस्तिष्क में तैयार हुई तब शुरू होता इब्नू की बाहरी प्रक्रिया। एक अतिरिक्त कार्य की तरह। अगर उस लोहे को एक ग्रिल में तैयार होना है तो उस ग्रिल का पूरा खाका, पूरी डिजा़इन इब्नू के मस्तिष्क में पूर्णतः तैयार होता। ग्रिल उसके मस्तिष्क में बन चुका होता। तब इब्नू अपने हेल्पर के साथ लग जाता उसे आकार देने में और फिर जब वह ग्रिल बनकर तैयार होेता तब ठीक वैसी ही जैसी उसके मस्तिष्क में तैयार थी, न एक इंच इधर न एक इंच उधर। न एक लोहा आड़ा न एक लोहा तिरछा।

बहुत जल्द एक समय ऐसा आ गया कि इब्नबतूता उस दुकान पर अपनी कारीगरी और अपने मस्तिष्क के लिए प्रसिद्ध हो गया। धीरे-धीरे इब्नू उस दुकान का मुख्य मिस्त्री तो बना ही, उसका वेतन भी बढ़ा, लेकिन सबसे बड़ी बात यह हुई कि इब्नू के कारण वह दुकान जानी जाने लगी। लोेग उस दुकान पर आते इब्नू के कारण। इब्नू के पास वक्त नहीं होता तो लोग इंतज़ार करते। घर बन कर तैयार है और उसमें लोहे का काम होना है और इब्नू अभी अपने दूसरे एसाइनमेंट में व्यस्त है तो वह घर जस-का-तस उसकी प्रतीक्षा करता।

लेकिन बड़ी-बड़ी बिल्डिंगों से ज़्यादा तंग गलियों में इब्नबतूता कि मांग लगातार बढ़ती रही। पांच-पांच फुट की तंग गलियों में बीस-पच्चीस गज के मकान में अक्सर याद किया जाता इब्नबतूता को। बस एक कमरा है और एक बाथरूम। बाथरूम का दरवाजा़ बाहर खुला तो बच्चे का बिस्तर कहाँ लगेगा? अगर अंदर खुलेगा तो आदमी खड़ा कैसे होगा और बाल्टी कहाँ होगी? छोटे से संकरे घर में जब कूलर, टेलीविज़न रखने की गुंजाइश निकालनी हो तो फिर ढूँढा जाता इब्नबतूता को। दुकान से पहले किसी अन्य मिस्त्री को भेजा जाता। मसला अगर संभल गया तो ठीक लेकिन वह उलझ जाता तब इब्नबतूता पंहुचता और निदान निकल आता। इब्नबतूता ने दिल्ली के ऐसे-ऐसे घरों में कूलर लगाने की जगह निकाल दी थी जहाँ चिड़िया को पांव रखने तक की जगह नहीं थी। दो-तीन महल पर एक छोटी-सी कोठरी है, नीचे से कोई सपोर्ट नहीं है लेकिन दिल्ली की गर्मी और इब्नू ने निदान निकाल दिया। ऐसे-ऐसे घरों में इब्नू ने रोशनदान निकाल दिया, थोड़ी-सी हवा जाने की गुंजाइश निकाल दी जहाँ लोग सोच भी नहीें सकते थे। अंधकारमय घर में बैठे-बैठे अपनी पूरी ज़िन्दगी निकाल देने वाली महिलाएँ इब्नू को दिल से धन्यवाद देती, उसने कभी सोचा नहीं था कि वह कभ्ी अपने घर से सूर्य की रोशनी का कोई भी टूकड़ा भी देख पायेगा। लेकिन इब्नबतूता ने इसे संभव कर दिखाया।

इब्नबतूता ने लोहे के साथ अपना एक ऐसा रिश्ता विकसित कर लिया था कि उसे लगने लगा था कि इस दुनिया में हर छोटी-बड़ी समस्या का निदान लोहे को तोड़-मरोड़कर निकाला जा सकता है। उसने अपने छोटे-से कमरे में लोहे को लेकर तरह-तरह के प्रयोग कर रखे थे। उसका लोहे का मंदिर था, लोहे का एक घुमावदार स्टूल था, चकला-बेलन, तवा सब लोहे का था। यहाँ तक कि मंदिर में जहाँ वह रोज़ पूजा करता उसमें बजाने वाली घंटी भी उसने खुद ही बना रखी थी। लोहे की चादर को गोल करके एक छोटा गिलास और उसके भीतर लोहे की एक डंडी। पूजा करते वक्त उस घंटी से जब वह आवाज़ निकालता तो ऐसा लगता जैसे अपनी प्रतिभा का प्रसाद वह ईश्वर को चढ़ा रहा हैै। उसको मिले ईश्वरीय हुनर का धन्यवाद।

इब्नू का परिवार घर के भीतर के किसी टूट-फूट से कभी चिंंितत नहीं होता, वह जानता था हर टूटन का इलाज एक चिंगारी के भीतर है। इब्नबतूता के घर में जगह की कमी थी तो इसका रास्ता उसने लोहे के कई प्रकार के प्रयोग से निकाला था। टेलीविजन रखने के लिए उसने चदरे का एक बाॅक्स बना रखा था। एक तरह से वह बहुउपयोगी बाॅक्स था जिसे अलमारी भी कहा जा सकता है। जहाँ टी.वी. रखा था उसके नीचे की जगह को उसने जालीदार अलमारी के रूप में बनाया था ताकि उसमें रसोई के खाने-पीने का सामान रखा जा सके। उसके ठीक नीचे बाहर को खींचने वाला दराज़ जिसमें उसके परिवार के जूते थे। स्टैण्ड के एक बगल में टूथ ब्रश रखने का एक ग्लास जैसा चिपका हुआ था, वहीं बगल में बच्चों के कलम रखने की जगह। उसी तरफ की दीवार में एक शीशा। दूसरी तरफ रसोईघर के चम्मचों, छलनी, कड़छुल टांगने की जगह। उस तरफ की दीवार पर कई कीलें थीं जिन पर रसोईघर के तमाम बरतनों से लेकर इब्नू की साइकिल की चाबी तक लटकी होती थी। टेलीविज़न के इस स्टैण्ड की छत का इस्तेमाल इब्नू के बच्चे अपनी किताबों को रखने के लिए करते थे।

टेलीविज़न के इस स्टैण्ड को इब्नू ने तब बनाया था जब उसके दिन ठीक चल रहे थे। तब भी उसके पास यूं तो कमरा एक ही था, लेकिन वह थोड़ा बड़ा था और तब उसके पास महज दो छोटी बच्चियाँ थीं। इब्नू ने तब इसे अपने हुनर के इस्तेमाल के तौर पर बनाया था। लेकिन इसे संयोग ही कहें कि जब इब्नू के दिन बुरे आए और उसके हिस्से एक बहुत ही छोटी-सी कोठरी आई और उसके परिवार में एक और बच्चे का आगमन हुआ तब इब्नू द्वारा बनाया गया यह बहुउपयोगी स्टैण्ड बहुत उपयोगी साबित हुआ। लेकिन इब्नू ने इसे जब बनाया था तब लोग उसे देखने आते थे। इसे टी.वी. स्टैण्ड को पत्नी गर्व से दिखाती थी और इसके कई तरह के इस्तेमाल को विस्तार से बताती थी। बताने में तो वह यह तक बता जाती कि टी.वी. के बक्स में रखे हुए टी.वी. के अगल-बगल में थोड़ी-सी जगह बची हुई थी उसका भी उपयोग कभी-कभार बची हुई रोटी या सब्जी को रसोईघर में चींटियों से बचाने के लिए वह रख देती है। जाते वक्त वह लोगों को टेलीविज़न का रिमोट भी दिखाती जो लोहे की चादर से बनी एक ऐसी जैकेट में समाहित था कि उसे बच्चे कितना भी पटक दें या दीवार पर दे मारें, रिमोट हिलने वाला नहीं था।

ल्ेकिन इब्नबतूता के हुनर का यह सबसे बड़ा और अनोखा नमूना नहीं था। इब्नू की कला का सबसे अनोखा और अचंभित करने वाला नमूना था उसकी अस्थमा कि बीमारी में इस्तेमाल होने वाला उसका इनहेलर। इब्नू इसे धुकनी कहता था। धुकनी जिससे लोहार के यहाँ हवा भरने की कोशिश की जाती है। उन दिनों जब इब्नू को लगभग इस गैरेज पर काम शुरु किए पांच वर्ष से ऊपर हो गए थे तब वेल्डिंग से निकलने वाली चिंगारी के धुएँ से उसे अस्थमा कि बीमारी हो गई थी। अस्थमा कि बीमारी कैसे हुई यह इब्नू को उस बीमारी के हो जाने के काफी बाद में पता चला। इब्नू लगभग एक वर्ष तक बगैर जाने-बूझे इस बीमारी से जूझता रहा। उठते-बैठते, खाते-पीते, काम करते वक्त वह बिल्कुल ही ठीक होता। उसे देखकर कोई एक झलक में नहीं कह पाता कि उसे अस्थमा जैसी बीमारी है और अस्थमा क्या, उसे जुकाम भी है। लेकिन जिस दिन भी इब्नू ने कोई भारी काम कर लिया बस उसी दिन उसका अस्थमा उखड़ जाता। चेहरे पर पसीने की बूंदें छलछला जातीं, धड़कनें बढ़ जातीं और चेहरा लाल हो जाता। काफी दिनांे तक तो इब्नू ने सिर्फ़ बैठकर, सुस्ताकर और चेहरे पर पानी डालकर इससे राहत पाने की कोशिश की लेकिन जब वह लगातार बढ़ता ही चला गया, तब सरकारी अस्पताल में दिखलाना उसकी मजबूरी हो गई। डाॅक्टर ने रोग का नाम अस्थमा बतलाया और फिर चिट्ठी पर दवा के साथ-साथ आॅक्सीज़न लेने के लिए इनहेलर लिख दिया।

इब्नू ने सिर्फ़ एक बार इस मशीन को खरीदा और फिर उसे इसे खरीदने की ज़रूरत नहीं पड़ी। हर बार उस मशीन को इस्तेमाल कर उसे फेंक देना इब्नू को नागवार गुजरता। आखिर कहाँ से लायेगा वह इतना पैसा? इब्नू ने सोचा जब अब सारी ज़िंदगी इस मशीन के साथ रहना है तो फिर कुछ स्थायी-सा ही क्यों नहीं हो?

यह अपने आप में बहुत बड़ा आश्चर्य है कि इब्नबतूता ने अपनी कलाकारी से इस मशीन को अपने हाथ से तैयार कर लिया था। लोहे की पतली चादर को घुमाकर उसे एक बंद डिब्बे जैसा बनाकर इब्नू ने उसके भीतर एक छोटी-सी मोटर फिट कर दी थी। इस मोटर का आकार छोटा-सा था और यह कहीं और इस्तेमाल होने वाली मोटर थी। इस मशीन के एक भाग से मोटर की तार निकली हुई थी और आगे के भाग में लोहे की एक नली फिट थी। लोहे की इस नली के सहारे प्लास्टिक का पाइप फिट किया गया था जिसे इब्नू अपने मुंह में ले लेता था। इब्नू की यह मशीन बिजली से चलती थी। इस मशीन के ऊपरी भाग में एक छोटा-सा छेद था जिधर से इब्नू टेबलेट डाल देता था। इस टेबलेट का नाम था-रोटाकैप। अस्थमा का दौरा चढ़ा नहीं कि इब्नू इस मशीन की तार को बिजली से कनैक्ट करता, उसमें एक टेबलेट डालता और उस पाइप को मुंह में डाल लेता। यह महज दस मिनट की प्रक्रिया थी और इब्नू राहत की सांस लेने लगता। यूं तो हर बार इस मशीन में नया टेबलेट डालने की ज़रूरत पड़ती। लेकिन इब्नू अक्सर कोशिश करता कि एक टेबलेट को कम से कम वह दो बार तो चला ही ले। पहली बार वह समय से पहले मशीन को बंद कर देता और फिर दूसरी बार उसी से काम चला लेता।

अगर सामान्य दिन होता तो इब्नू को मशीन की ज़रूरत दिन-रात मिलाकर महज दो बार पड़ती थी। एक बार दिन में कभी भी और एक बार रात में सोने से पहले। लेकिन जिस दिन इब्नू को बहुत मेहनत करनी पड़ जाती थी, उस दिन इस मशीन का इस्तेमाल एक-दो बार अधिक करना पड़ जाता था।

इब्नबतूता कि इस मशीन को देखने के लिए लोग आते थे और इस मशीन को देखकर अचंभित होते थे। अक्सर जब इब्नू अपनी दुकान पर इस मशीन का इस्तेमाल करता था तो लोग उसे देखने लग जाते थे। लोग इब्नू को देखते थे और सोचते थे कि इब्नू को ईश्वर की ओर से वरदान मिला हुआ है। लोग इब्नू की किस्मत से रंज करते थे। उनकी नज़र में इब्नू अब सामान्य लोगों से ऊपर उठता जा रहा था। एक ऐसा आदमी जो मनुष्य तो है किंतु जिसे ईश्वर ने कुछ खास तरह की क्षमता दी है। एक ऐसा आदमी जिसके पास हुनर की खान है। एक ऐसा आदमी जिसका लोहे से एक खास तरह का रिश्ता है। एक ऐसा आदमी जिसका दिमाग काफी तेज चलता हैै।

और धूमिल ने एकदम आखिर में कहा लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।

लेकिन तेज़ दिमाग चलाने वाले इस इब्नबतूता का स्वर्णकाल उस दुकान में तब खत्म हो गया जब उसके मालिक ने तेजी से समाज की बदलीे बयार में इस दुकान को भी डाल दिया और इस दुकान में कंप्यूटर लाकर रख दिया। कंप्यूटर क्या आया इब्नू एकदम से फिसड्डी हो गया। मालिक सरदार भाग सिंह ने उस कंप्यूटर पर सूट-बूट पहने एक लड़के को नौकरी पर रख लिया। लड़का यानी अरमान आहूजा।

कंप्यूटर क्या आया इब्नबतूता धीरे-धीरे इस दुकान में किनारे होता चला गया। ग्रिल के जिस नक्शे और डिज़ाइन के लिए इब्नू की इतनी पूछ थी उसका स्थान अब कम्प्यूटर ने ले लिया। जींस टीशर्ट पहना हुआ वह लड़का उस दुकान पर आता और पेचीदे से पेचीदे ग्रिल के डिजाइन को उस कम्प्यूटर पर तैयार कर देता। अपने दायें हाथ से माऊस को वह सिर्फ़ हल्का-सा इधर से उधर हिलाता कि ग्रिल के लिए आड़ी-तिरछी रेखाएँ उस बंद डिब्बे से बाहर निकल आतीं। उसे सिर्फ़ खिड़की दरवाजे का नाप दे दिया जाता बस वह अपने कम्प्यूटर पर उसके नाप का डिजाइन तैयार कर देता।

जो ग्रिल तैयार होने से पहले इब्नू के मस्तिष्क में आकार लेता था वह अब उस कम्प्यूटर पर आकार लेने लगा। इब्नू अपने मस्तिष्क से उसकी काॅपी नहीं निकाल सकता था लेकिन अरमान फटाफट उसकी काॅपी निकाल देता बिल्कुल हू-ब-हू ग्रिल की शक्ल में। अब उस काॅपी को सामने रखकर बस ग्रिल को तैयार करने का काम बचता। दिमाग की कोई ज़रूरत नहीं। ग्रिल की उस काॅपी पर उकेरी गई हर रेखा पर उसका साइज, उसका मोटापा, उसका आकार लिखा रहता। ग्रिल की इस काॅपी पर कोई उलझाव नहीं था। अब बड़े-बड़े प्लाॅटों को देखने के लिए अरमान को भेजा जाता। अरमान वहाँ से सिर्फ़ उसकी माप को ले आता और फिर अपने उस कम्प्यूटर से उसका पूरा खाका निकाल कर सामने रख देता। जिन छोटी-छोटी तंग गलियों और छोटे-छोटे घर की समस्याओं को दूर करने इब्नू पहुँचता था वहाँ अब अरमान को जाने की भी ज़रूरत नहीं रह गई थी। घर का मालिक सिर्फ़ उसके साथ बैठकर अपने घर के नक्शे को बतलाता और अरमान उसके घर के उस नक्शे को तुरंत उसके सामने ही डंडों के सहारे खड़ा कर देता। प्रिंट निकलता तो उसका घर एक कागज पर दिख जाता और फिर घर वाला उस कागज पर बगैर सामान के खाली घर अपनी नजर के सामने देखता। अरमान पहले घर तैयार करता और फिर उसके नाप के आधार पर वहाँ के उलझाव को भी दूर कर देता।

इब्नबतूता अरमान द्वारा उस डिब्बे में किये गए काम को चमत्कार की तरह देखता। कहाँ से आया यह डंडा, कहाँ से आयी यह बिंदी, कहाँ से आये ये फूल। डिब्बे के अंदर बैठा कौन मापता है उन डंडों को? माउस को देखकर उसे चमत्कार जैसा लगता, उसे वह पान रखने वाला गिलौरी दान की तरह समझता और सोचने की कोशिश करता कि आखिर उसके भीतर ऐसा क्या है जो उसके हिलाने से डंडा सीधा, तिरछा, लेटा या गायब हो जाता है। उस नक्शे का प्रिंट इब्नू को चक्कर में डाल देता। बिल्कुल घर का नक्शा आँख के सामने। घर जाकर देखें तो उसको समझने में कितना दिमाग लगाना पड़ता है। इधर से, उधर से फीते से नापो। यहाँ आपकी दीवार की लम्बाई-चैड़ाई सब आपके सामने है। अब सामान से भरे घर में चकरघिन्नी खाने की ज़रूरत ही नहीं। अरमान एक-एक बिल्डिंग की अलग-अलग फाइल बनाकर रख छोड़ता और इब्नू सोचता जब ज़रूरत होती है तो आखिर कौन है जो उसी बिल्डिंग का नक्शा निकाल कर सामने कर देता है? यहाँ लिखा हुआ अक्षर बड़ा और छोटा कैसे होता है? रखा हुआ चित्र रंगीन से श्वेत-श्याम कैसे होता है? सब आश्चर्य हंै इब्नू के लिए।

वह गैरेज जहाँ इब्नबतूता अपने स्वर्णकाल जी रहा था, जहाँ लोग उसके हुनर को ईश्वरीय देन समझते थे वहीं इस कम्प्यूटर के कारण वह एक मजदूर में तब्दील हो गया। शुरुआती एक-दो महीने तक तो दुकान के मालिक को भी यह विश्वास नहीं था कि लोहे का कोई बक्सा इब्नबतूता के करिश्माई हुनर को चुनौती दे सकता है इसलिए उसने इब्नू के महत्त्व को कम नहीं होने दिया। क्या पता कम्प्यूटर धोखा ही दे जाए? वह इस महान हुनरबाज मिस्त्री को नहीं खोना चाहता था। लेकिन महज दो महीने में इस डिब्बे ने सरदार भाग सिंह को अपने चमत्कार की गिरफ्त में ले लिया और उसे देखकर मालिक ने इब्नू पर लगाम कसना शुरू कर दिया।

इब्नू जब इस दुकान पर आया था तब भले ही एक हेल्पर के रूप में आया हो, परन्तु उस दिन से वह लगातार ऊपर ही चढ़ता रहा था। दुकान पर इब्नू के ओहदे में भी तरक्की हुई थी और उसके वेतन में भी। आज से सात-आठ वर्ष पहले जब इस गैरेज पर यह कम्प्यूटर आया, इब्नू का वेतन बढ़कर अपनी ऊंचाई को छू रहा था। इब्नू को तब आठ हजार रुपये मिल रहे थे और तब इब्नू बहुत खुश था। लेकिन जब भाग सिंह का उस कम्प्यूटर पर विश्वास जम गया तब उसका किसी और को इस ऊंचाई पर रखने का इरादा खत्म हो गया। भाग सिंह ने इतने दिनों के साथ की इतनी ज़रूर कद्र की कि उसने इब्नू को यह मौका दिया कि अगर उसे कहीं और नौकरी मिले और यहाँ से ठीक वेतन पर मिले तब वह आजाद है। भाग सिंह ने उसे यह साफ कह दिया कि वह अब उसे मात्र पैंतीस सौ रुपये महीने ही दे सकता है।

इब्नबतूता जब इस बड़े झटके के बाद नौकरी ढ़ूढ़ने बाहर निकला तो उसे अचानक लगा जैसे वह वर्षों बाद नींद से अब जागा है और इस बीच दुनिया अचानक बहुत तेजी से बदल गई है। उसने यह महसूस किया कि उसने अभी तक इस गैरेज और लोहे से अपने को ऐसा जोड़ लिया था कि इस दुनिया को बदलते देख ही नहीं पाया। दुनिया बदल गई और दुनिया के बदलने का अहसास तक उसे नहीं हो पाया। वह लगा रहा लोहे को आकार देने में। जबकि इस बीच दुनिया कोई और ही आकार ले रही थी। इब्नू एक बार फिर नौकरी की तलाश में निकला और इस बार उसके ऊपर पत्नी और दो बेटियों की जिम्मेदारी थी। वह बाहर की दुनिया को देखकर चमत्कृत था। हर तरफ ऊंची-ऊंची बिल्डिंगें, कम्प्यूटर, लैपटाॅप, मोबाइल, बड़ी-बड़ी दुकानें, चमक-दमक। इब्नू ने देखा कि महल जैसी दुकान और उस दुकान में आटा-चावल से लेकर सब्जी तक बिकता हुआ। उसने देखा सब्जी खरीदने पर उसका प्रिंटेड बिल आता है और वह भी उसी कम्प्यूटर के डिब्बे से।

इब्नू एक बार फिर एक अदद नौकरी की तलाश में था और दुनिया पूरी तरह बदल चुकी थी। इब्नू को उसके मालिक ने दो से तीन दिन की मोहलत दी थी और उसके बाद उसका वेतन कटना शुरू हो जाता। इन दो-तीन दिनों में इब्नू इस नई चमत्कृत दुनिया को देखे-समझे या उसमें अपने वजूद की तलाश करे। इब्नू के मस्तिष्क में यह घूमता रहा कि दो-तीन दिन में नौकरी नहीं तो वेतन का कटना तय। वेतन का कटना भी नये वेतनमान में यानी साढ़े तीन हजार में से एक सौ सालह रुपये रोज। इब्नू ने हर छोटी-बड़ी दुकान में अपने लिए जगह तलाशी, लेकिन उसे लगता जैसे हर अच्छी दुकान पर वह डिब्बा बैठा है और उसे तिरछी निगाह से घूर रहा है। छोटी दुकान जहाँ के मालिक अभी कम्प्यूटर रखने लायक अमीर नहीं हुए थे इब्नू को नौकरी देने के लिए तैयार तो थे लेकिन वेतन वही ढ़ाई से तीन हजार। इब्नू ने अपना काम बदलना चाहा लेकिन कोई उपाय नहीं। हर जगह वही कम्प्यूटर, वही इंग्लिश और वही स्मार्टनेस। इब्नू ने सोचा वह पढ़ा लिखा है, कुछ न सही तो किसी बड़ी दुकान पर हिसाब खाता ही देख लेगा। लेकिन जिस दुकान, जिस छोटे से छोटे आॅफिस में वह पहूंचता हर जगह वही काबिलियत। इब्नू ने उस बड़ी महलनुमा दुकान में भी घुसने की हिम्मत की जहाँ सबकुछ ठंडा-ठंडा है। जहाँ चावल-दाल और सब्जियाँ मिलती हैं। लेकिन कोई फायदा नहीं। इस दिल्ली जैसे बड़े महानगर में नौकरियाँ बहुत थीं लेकिन सब तीन हजार कीं। या फिर आप उस लायक हों जैसा वह आपको मांग रहा है। एक दम चुस्त, एकदम रफटफ और एकदम पैना।

इब्नू ने इन तीन दिनों में बहुत दौड़ लगाई यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ। वह घंटों साइकिल की सीट पर बैठा रहा। लेकिन कोई फायदा नहीं उसकी समय सीमा खत्म हो गयी और उसने हारकर भाग सिंह के गैरेज पर साढ़े-तीन हजार की नौकरी को स्वीकार कर लिया। हाँ इन तीन दिनों की भागा-दौड़ी में उसकी अस्थमा कि बीमारी बढ़ती रही और अपनी उस मशाीन का इस्तेमाल इस बीच उसे प्रतिदिन कम से कम चार से पांच बार करना पड़ गया। इब्नू साइकिल से दुकान दर दुकान भटकता रहता और इस बीच उसको जहाँ भी अस्थमा का अटैक पड़ता उसके चेहरे पर पसीने की बूंद छहल जाती और उसकी धड़कनें बढ़ जातीं, वह वहीं पर साइकिल को किनारे लगा इधर-उधर निगााहें दौड़ा किसी भी घर-दुकान की तलाश करता और बगैर कुछ कहे उस घर-दुकान में प्रवेश कर बिजली से अपने मशाीन को जोड़ लेता। लोग भौंचक हो जाते। लोग इस वाकया को सोचने समझने की कोशिश करते। लेकिन इब्नू कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं होता। जब तक लोग कुछ समझने की कोशिश करते, तब तक इब्नू अपना काम कर चुका होता। राहत मिलते ही वह अपने मशीन को समेटकर उस घर-दुकान के मालिक से क्षमा मांग कर आगे बढ़ जाता। लेकिन इब्नू जितना भी आगे बढ़ता रहा उसका अँधेरा भी उतनी ही तेजी से बढ़ता रहा और अंततः वह हार गया।

इब्नू इन तीन दिनों तक पस्त हाने के बाद जब वापस लौटा तब वह एक मिस्त्री से एक मजदूर की हैसियत में आ चुका था। ऐसा नहीं है कि वह उस दुकान पर वाकई मजदूर बन चुका था वह अभी भी था मिस्त्री ही लेकिन उसकी पदवी में अब मिस्त्री नाम के इतर कुछ बचा नहीं था। अब इब्नू से उसके हुनर के बारे में नहीं पूछा जाता था। उसके सामने अब कम्प्यूटर से निकाला गया एक पेपर आता था जिस पर ग्रिल का पूरा नक्शा, उसकी माप, उसकी चैड़ाई-मोटाई-लम्बाई सब उसपर लिखा होता था। इब्नू बस उस नक्शे को सामने रख उसे आकार देने में लग जाता था। पहले इब्नू ग्रिल बनाते वक्त लोहे को इधर-उधर घुमा कर देख लेता था कि कहीं वह किसी और एंगल से ठीक तो नहीं लग रहा है। लेकिन अब यह सब अरमान आहूजा उस कम्प्यूटर पर ग्रिल के मालिक के साथ बैठकर पहले ही देख चुका होता था। ग्राहक को यदि किसी भी लोहे की सेटिंग उचित नहीं लगती तो अरमान अपने कम्प्यूटर पर ही उसे उस ग्रिल में विभिन्न कोणों से लेाहे को फिट कर उसकी डिजाइनिंग दिखा देता। जबतक ग्राहक अपने ग्रिल या अपने घर में फिक्स हो रहे दरवाजे के डिजाइन से संतुष्ट नहीं हो जाता अरमान माउस पर अपने हाथ फिराता रहता और कम्प्यूटर के स्क्रीन पर ग्रिल विभिन्न रूप लेता रहता। दुकान के मालिक भाग सिंह, अरमान और उस ग्रिल के ग्राहक से पास होने के बाद ही काॅपी उस कम्प्यूटर से निकलती थी और एक फाइनल काॅपी के रूप में इब्नू के सामने आ पाती और फिर शुरू होता इब्नबतूता का लोहे पर वार करने का अनवरत सिलसिला।

इब्नू कई बार सोचता कि वह बहुत जल्दी हार मान गया है आखिर उसने अच्छे-अच्छे लोहे को अपने वश में किया है। यह तो लोहे की प्रजाति का कमजोर उपकरण मात्र है। कई बार वह काम करते-करते अरमान को उस कम्प्यूटर पर बैठेे काम करते देखने की कोशिश करता। कई बार इब्नू अरमान के लंच के समय उस कम्प्यूटर पर बैठने की कोशिश भी करता। वह लोहे की इस प्रजाति को भी अपने वश में करना चाहता उससे भी एक अंतरंग सम्बंध विकसित करने की कोशिश करता। परन्तु आश्चर्य, वह असफल हो जाता। लेकिन सबसे अजीब यह था कि जब भी इब्नू कम्प्यूटर के सामने बैठने की कोशिश करता उसके पेट और मस्तिष्क में एक खास तरह की गुर्ड़गुड़ी शुरू हो जाती। वह कम्प्यूटर की स्क्रीन की ओर देखता। अपने हाथ को माउस पर रखता कि बस उसके पेट और मस्तिष्क में एक अजीब तरह का सन्नाटा छा जाता। एक वैक्यूम। ऐसा लगने लगता जैसे पेट के मस्तिष्क के सारे औजार-पुर्जे सभी अचानक कहीं गायब हो गये। पेट और सिर में एक खालीपन। ठीक रेगिस्तान के खालीपन की तरह सांय-सांय की आवाज़। इब्नू उस कम्प्यूटर को छोड़कर भाग जाता। वह कई बार कोशिश कर चुका है और हर बार यही सन्नाटा, यही खालीपन और यही गुड़गुड़ी। इब्नू अपने जीवन में इस लोहे से पस्त हो गया। लोहे की इस प्रजाति से उसकी गति नहीं बैठ पायी। इब्नू इस लोहे से हारता रहा और ज़िन्दगी इब्नू को हराती रही।

ये तीन दिन, जिनमें इब्नू के सिर पर पहाड़ टूटा और नौकरी के लिए दर-दर भटकता रहा, इब्नू की ज़िन्दगी के बड़े ही परिवर्तनकारी दिन थे। इब्नू की पहली बार जब डीसीएम मिल से नौकरी छूटी थी तब उसके पास पत्नी के अलावा मात्र एक बेटी थी-रूबिया लोखण्डे। रूबिया तब लगभग तीन वर्ष की थी। जब इस बार इस गैरेज से इब्नू की नौकरी छूटने की बारी आयी तब इब्नू दो बेटियों के पिता बन चुका था। एक रूबिया लोखण्डे और दूसरी सोनिया लोखण्डे। इस बार रूबिया लगभग दस वर्ष की थी और सोनिया लगभग पांच वर्ष से थोड़ा ऊपर। ऐसा नहीं है कि इब्नबतूता को दो बेटियाँ हैं तो उसकी पत्नी ने दो बेटियों को ही जन्म भी दिया है। उसकी पत्नी ने इसके बीच एक और बेटी को जन्म दिया था जो मृत पैदा हुई थी। शरीर में पानी की कमी ने उस बच्ची को अंदर ही मार दिया था। बच्ची अंदर पानी नहीं हाने के कारण प्यासी मर गयी थी और जब बच्ची पैदा हुई तब बस मांस का एक लोथड़ा। इब्नू इन सब चीजों पर भले ही कभी नहीं सोच पाया कि क्या उसका भी एक बेटा होना चाहिए, लेकिन उसकी पत्नी तब बहुत उदास हुई थी जब तीसरी बार भी उसने जन्म के समय होने वाले बच्चे के वजन से कम वजन वाली एक बच्ची को जन्म दिया था। इब्नू की पत्नी ने उस बच्ची को देखा और उसे लगा जैसे नहीं अब नहीं। इब्नू की पत्नी और चीजें जानें नहीं जानंे वह यह जानती थी कि मर्द जब ज़्यादा गर्म होकर साथ दे तो बेटा होता है। लेकिन उसने इब्नू को एक ठंडा आदमी मान लिया था। इब्नू लोहे से जोर-आजमाइश करके लौटता और पस्त दिखता। इब्नू को पत्नी का शरीर चाहिए होता था। लेकिन उसकी पत्नी को लगता बस इतने से बेटा पैदा होने वाला नहीं है। चुंकि इब्नू की पत्नी को इस मद में इब्नू से उम्मीद नहीं थीं इसलिए उसने अपने भीतर एक बेटे की इच्छा को दबाकर नसबन्दी करवाने का निर्णय लिया था। सरकारी अस्पताल में तीन दिन अकेले धक्का खाने के बाद नसबन्दी हुई। इब्नू की पत्नी को तब दो सौ रुपये और एक कम्बल मिला, उपहार के रूप में और उसने इसी कम्बल के सहारे अपने पुत्र की आशा को जीवन भर के लिए ढ़ंक कर रख दिया।


हताशा कि रात की सुबह भी हताशा भरी थी

यह उन तीन दिनों का आखिरी दिन था जब, इब्नू नौकरी की तलाश के बाद हार कर हताश और बेचैन होकर बिस्तर पर पड़ा हुआ था। यह वही आखिरी रात थी जब इब्नू अपने मन के भीतर अपने आप को अपनी सत्ता से च्यूत होने के लिए तैयार कर रहा था। यह रात इब्नू के मुख्य मिस्त्री से अघोषित रूप से मजदूर में तब्दील होने की रात थी। हताश सोये जब रात को इब्नू की नींद खुली तो उसे कमरे में घोर अंधकार दिखा। उस अंधकार में अंधेरे का कोई कण तक नहीं दिख रहा था। अंधेरे के कितने कणों से जोड़कर बना है यह अंधकार। नींद से जगे इब्नू को अचानक लगा कि वाकई रात का अँधेरा इतना घना होता है या फिर उसकी आंखों पर छायी यह अंधेरे की एक मोटी परत है। उसने अपनी आंखों को मलकर देखा। हाथ हटाते ही उस अंधेरे में दस बारह सितारे चमक गये। इब्नू को लगा जैसे यह भी उसके साथ किया जा रहा एक षडयंत्र है। इस धरती पर कहीं भी इतना घना अंधकार न हो जबकि उसको दिखाया जा रहा हो। इब्नू को अचानक लगा जैसे इस धरती पर अब सिर्फ़ अंधकार है और उस अंधकार के बीच उसके शरीर को रख भर दिया गया है। उसे लगाा जैसे अभी रोशनी की एक तेज धार आयेगी और उसकी आंखों को चुंधिया देगी, हाथ-पैर कटकर अलग हो जायेंगे, मस्तिष्क फट जाएगा। इब्नू को लगा जैसे उसका शरीर उसके साथ नहीं है। बल्कि उसका हाथ अपने वश में नहीं। पैर अपने वश में नहीं। सुनने, देखने, सूंघने की क्षमता उसकी बिल्कुल खत्म हो चुकी है। इब्नू ने अपना हाथ उठाना चाहा लेकिन कुछ मालूम नहीं कहाँ क्या है? यह कैसे हुआ मालूम नहीं, लेकिन उसके हाथ से उसके पत्नी का शरीर टकराया तब अचानक इब्नू की तंद्रा टूटी। इब्न ने महसूस किया यह उसका घर है। एक पलंग है और यह हाथ जिसको छू रहा है यह उसकी पत्नी का शरीर है। इब्नू के चेहरे पर पसीने की बूंदे छलछला आयीं थीं। जो अंधेरे में दिख नहीं सकता था और जिसे इब्नू ने अब महसूस किया था। पसीने की बूंदों से चेहरे पर ठंड महसूस हुई।

इब्नू ने उस अंधेरे में अपनी पत्नी के शरीर को महसूस करने की कोशिश की। उसने पहले पत्नी के चेहरे का अंदाजा लगाया और फिर उसका हाथ पत्नी के पेट पर आकर रुक गया। इब्नू ने पत्नी को कसकर पकड़ लिया। कम से कम दस मिनट तक इस तरह रहने के बाद उसकी बेचैनी थोड़ी कम हो पायी। इब्नू ने पत्नी के पेट को सहलाना शुरू किया। उसके दायें हाथ की चैथी उंगली पत्नी की नाभि की कोटर से खेल रही थी। इब्नू ने हाथ को और नीचे जाने दिया। फिर इब्नू कुछ देर तक अपने हाथ से यहाँ वहाँ खेलता रहा। ज़्यादा देर नहीं बीता कि उसे लगा जैसे पत्नी का चिकना शरीर दानों से भरने लगा था। फिर वही जादू। वही रोमांच। इब्नू को अंधेरे से डर लग रहा था उसने अपनी आंखें बंद कर रखी थीं। घुप्प अंधेरे में इब्नू ने महसूस किया रोओं के खड़े होने की अपनी एक आवाज होती है। अंधेरे की उस खास नीरवता में रोओं की एक सरसराहट यहाँ से वहाँ तक तैर गयी थी। इब्नू की पत्नी का शरीर जग चुका था। उसने हताश इब्नू को अपने शरीर से खेलने दिया। इब्नू ने अपनी पत्नी को कसाव से मुक्त कर दिया। इब्नू शायद अपने जीवन के हार के पार जाना चाहता था। इब्नू की पत्नी ने इब्नू को अपने शरीर के भीतर भींच लिया।

यह इस सहवास का अंतिम दौर था। इब्नू की आंखें अब तक इस अंधेरे के अनुकूल हो चुकीं थीं। इस अंधेरे में अगर इब्नू इस कमरे में रखी किसी भी चीज को गौर से देखना चाहता तो वह उसका अंदाजा लगा सकता था। लेकिन इब्नू को अभी कुछ भी देखने की फुर्सत नहीं थी। इब्नू जब इस सहवास के अंतिम दौर में था और उसकी गति काफी तेज थी तब वह अपनी पत्नी के ऊपर था। इब्नू की आंखें खुली थीं और वह पत्नी का कोई भी हिस्सा नहीं छोड़ना चाहता था। सहसा उसकी नजर ऊपर उठी और पलंग के कोने पर अपनी दस वर्ष की बेटी को बैठे देख वह चैंक गया। चूंकि इब्नू का शरीर ऊपर था इसलिए सामने बैठी बेटी सिर्फ़ उसे ही दिख पायी। उस अंधेरे में कुछ भी साफ नहीं था। इब्नू को बेटी रूबिया का सिर्फ़ आकार दिखा। चूंकि यह इब्नू की उत्तेजना का चरम था इसलिए वह अपने आप को इस परिस्थिति में भी रोक नहीं पाया। इब्नू ने सहवास के अंतिम दौर को बहुत ही जल्दी अंत दिया। इब्नू की पत्नी औचक इस उत्तेजना को समझ नहीं पायी। लेकिन उसने आज अपने पति में एक गजब की गर्मी महसूस की, एक जोश जिसकी उसे वर्षों से तलाश थी। इब्नू जब निढ़ाल होकर अपनी पत्नी के शरीर पर गिर पड़ा तब पत्नी ने उसे अपनी बांहों में कसकर घेर लिया।

इब्नू ने उठने में ज़्यादा समय नहीं लिया। वह सहसा उठा और अपने कपड़े उठाकर अपनी पत्नी के शरीर पर एक चादर खींचकर कमरे से बाहर निकल गया।

अभी जिस कमरे में इब्नू रह रहा था उसमें इस एक कमरे के अलावा एक बरामदा था जो बाहर से खुला था। खुले में बेटी को सुलाया नहीं जा सकता था इसलिए इब्नू सपरिवार अभी तक इसी पलंग पर सोता था।

रूबिया कि नींद जब रात को खुली तब उसे लगा जैसे भूकंप आ गया है। वह उठकर बैठ गयी और नींद में अपने आप को संयत करने की कोशिश करने लगी कि उसने अपने माता-पिता को एक-दूसरे में गुत्थम-गुत्था देखा। बस इतना ही। रूबिया को उस अंधकार में न कुछ दिखा और न कुछ वह समझ पायी। इब्नू के बाहर जाते ही उसकी पत्नी ने रूबिया को आभासित किया। उसने चादर से लिपटे अपने शरीर से हाथ निकालकर अपनी बेटी को खींच लिया और उसे सुला दिया। इब्नू बाहर दरवाजे की सीढ़ियों पर काफी देर तक बैठा रहा।

दिल्ली का सरकारी अस्पताल दिल्ली की ऊंची इमारतों से अलग है

इसे सरकारी अस्पताल की महिमा कहें या फिर ईश्वर का चमत्कार, इब्नू की पत्नी गर्भवती हो गयी। इब्नू के जीवन की यह रात जब वह काफी हताश था और जब वह अपने दुख को कम करने के लिए पत्नी को प्यार कर बैठा था, तब ईश्वर का यह चमत्कार हुआ।

इब्नू जब अगली सुबह अपने गैरेज पर काम कर रहा था तब उसका वेतन घटकर साढ़े तीन हजार रह गया था। इब्नू को अब इस आधी रकम में अपने परिवार का गुजारा करना था। परिवार मतलब इब्नू, इब्नू की पत्नी और इब्नू की दो बेटियाँ। इस साढ़े तीन हजार में इब्नबतूता को कष्ट शुरू हुआ और उसे इस कमरे और इस बरामदे वाले घर से अपने आप को एक कमरे के सीलनदार घर में शिफ्ट करना पड़ा। इब्नू के इस नये कमरे का किराया था आठ सौ रुपये। आठ सौ रुपये के इस कमरे में एक कमरा और एक बाथरूम के अतिरिक्त कोई जगह नहीं थी। बाथरूम का दरवाजा काफी लचर था और कमरे में रोशनी और हवा कि कोई गुंजाइश नहीं थी। इब्नू की पत्नी दिन में बल्ब जलाना नहीं चाहती थी कि बिजली का बिल कौन बढ़ाये। इब्नू की पत्नी दिन भर अंधेरे कमरे में चुपचाप बैठी रहती और दरवाजे के सहारे छन कर आने वाली रोशनी की कुछ बंुदों को निहारा करती थी। जब बच्चे स्कूल से लौटकर आते तब वह लाइट को कुछ मिनटोें के लिए जलाती थी और फिर घुप्प अंधेरा। पूरा परिवार उस घुप्प अंधेरे में बैठा रहता था जब तक बाहर अँधेरा न हो जाए। बाहर के अंधेरे में भीतर के लिए रोशनी जलाने का एक तर्क समझ में आता था।

इब्नबतूता कि पत्नी को जब पता चला कि वह फिर से गर्भवती हो गई है तब उसे गर्भवती हुए चार-पांच महीने बीत चुके थे। इस बीच अपने महीने के नागे को उसने अनियमितता माना था और सरकारी अस्पताल की नसबंदी पर पूरा विश्वास जताया था। इब्नबतूता कि पत्नी का पेट जब फूलने लगा और उसे जब पेट के अंदर हलचल महसूस होने लगी तब उसने अपने गर्भवती हो जाने को महसूस किया था। इब्नबतूता कि पत्नी ने जब इब्नू को इस बात की जानकारी दी तब इब्नू गैरेज से थका-मांदा अपनी साइकिल से आया था, इब्नू की पत्नी ने इब्नू को पानी देकर एकांत में अपनी साड़ी को पेट पर से हटाकर पेट का उभार दिखाया था। इब्नू ने पेट के उभार को देखा थ और सब समझ लिया था, लेकिन वह कुछ बोला नहीं। वह अपने बिस्तर पर लेट गया था-एकदम सुन्न। इब्नू समझ गया था कि उसके घटे हुए वेतन-साढ़े तीन हज़ार में अब चार महीने बाद एक सदस्य और बढ़ेगा। इब्नू का परिवार-इब्नू, इब्नू की पत्नी, इब्नू की दो बेटियाँ और आने वाला एक बच्चा।

इब्नू ने अपने जीवन से समझौता कर लिया था इसलिए उसने कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं किया कि कैसे नसबंदी के बाद भी यह पेट फूल गया। इब्नू को याद आई थी वह रात, उस रात का आवेग और उस रात पलंग के कोने पर बैठी बेटी रूबिया लोखण्डे। इब्नू जानता था कि यह उस रात का ही फल है क्योंकि उस रात के बाद से इब्नू ने पत्नी के शरीर को छुआ तक नहीं, छुआ नहीं क्या, देखा तक नहीं। इब्नू अब जिस अपने नए कमरे में है उसमें उसका बिस्तर भी इसी कमरे के भीतर लगता था। रात में सोते वक्त खाट को उस कमरे में बिछा दिया जाता था। पलंग पर इब्नू की पत्नी अपनी जन्मी दो बेटियों और एक अजन्मे बच्चे के साथ सोती थी; और खाट पर इब्नू। इब्नू को अगर रात में अस्थमा का अटैक पड़ता और वह बेचैन हो उठता तो उसकी पत्नी जगती और उसे उसकी मशीन से रात में ही उसके मुंह में हवा भरने का प्रयास करती।

इब्नू की पत्नी ने अब जीवन से सुख की आस छोड़ दी थी। लेकिन तब वह बहुत खुश हो गई थी जब उसने नियत समय पर एक पुत्र को जन्म दिया था। इब्नू को चूंकि अब कुछ फर्क नहीं पड़ता था इसलिए उसे इसका भी कोई फर्क नहीं पड़ा कि उसकी पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया है या पुत्री को। लेकिन इब्नू की पत्नी के दिल की ख्वाहिश पूरी हो गई थी। जिस पुत्र की आस को अपने मन में दबाकर उसने नसबंदी करवा ली थी ईश्वर ने उस नसबंदी के बाद भी उसे वह खुशी दे दी थी। इब्नू की पत्नी को याद आती है वह रात, उस रात की इब्नू की हताशा और इब्नू का अत्यधिक गर्म हो जाना। इब्नू की पत्नी ने इब्नू की उस गर्मी को पहली बार महसूस किया था। वह जानती थी कि इस पुत्र की प्राप्ति में इब्नू की उसी गर्मी का हाथ है।

इब्नू हर महीने अपना वेतन साढ़े तीन हज़ार रुपये लाकर अपनी पत्नी के हाथ पर रख देता था। बिजली बिल जोड़कर लगभग एक हजा़र रुपये इस घर के किराये में जाता था। बाकी के ढाई हज़ार में यह घर चलता था। यह घर यानी यह परिवार, परिवार यानी नए बच्चे के साथ परिवार के पांच जन। इब्नू अपने गैरेज पर अब शांत होकर बस अपना काम करता था। काम, जो उसे दिया जाता था। अब वह कंप्यूटर की ओर देखता भी नहीं था। कंप्यूटर के सामने से गुजरने पर वह मुंह को विपरीत दिशा में घुमा लेता था। इब्नू के ठक-ठक और वेल्डिंग की चिंगारी के धुंए से उसकी अस्थमा कि बीमारी बढ़ती जा रही थी। इब्नू अपनी अजीबोगरीब मशीन का इस्तेमाल करके उसे कंट्रोल में रखता था। इस मशीन को अभी भी लोग अजीब निगाह से देखा करते थे। काम के बाद इब्नू अपनी साइकिल से अपने घर आता था। उसके कमरे मेें उसके द्वारा अपने स्वर्णकाल में बनाया गया बहुउपयोगी स्टैण्ड अब ज़्यादा उपयोगी हो गया था। जगह कम थी और बहुत सारे सामान का बोझ अब उस पर आ गया था। रात में इब्नू की खाट इस कमरे में बिछा दी जाती थी और इब्नू उस पर सो जाता था।

इब्नबतूता का कष्टमय जीवन बीत रहा था और उसके बच्चे बड़े हो रहे थे। इब्नबतूता कि दूसरी बेटी सोनिया जब आठ-नौ वर्ष की हो गई, तब यह साफ लगने लगा था कि उसके शारीरिक विकास में दिक्कत है। सोनिया का जब जन्म हुआ तब भी उसका वज़न कम था लेकिन उसका विकास तब और अधिक रुक गया जब इब्नू का वेतन अचानक घट कर आधा रह गया और वह जीवन में मन मसोसना सीख गई थी। सोनिया कि उम्र तो बढ़ रही थी लेकिन उसका शारीरिक विकास उससे समानुपातिक रूप से नहीं बढ़ रहा था। सोनिया बहुत पतली थी और उसके हाथ-पांव छोटे-छोटे थे। चेहरे की हड्डियाँ निकल आईं थीं और वह देखने में बहुत ही अजीब लगने लगी थी। सरकारी अस्पताल के डाॅक्टर ने उसके लीवर में सूजन बतलाई थी। वह खाना बहुत कम खाती थी और खाना देखकर उसे बेचैनी होने लगती थी। उसे खाना कम से कम खाना पड़े इसलिए अक्सर वह सोयी रहती थी। वह घर में जब भी होती थी, लगभग सोई हुई रहती थी। उसके माता-पिता उसे नींद से कम ही जगाते थे क्योंकि वह सोये से जगने पर घबरा जाती थी और उसके मुंह से झाग जैसा चलने लगता था। अब वह खाने के डर से नहीं जगने के लिए इतना नाटक करती थी या फिर वह सचमुच इतनी परेशान थी, यह मालूम नहीं। उसके शरीर में सिर का आकार सही था और उसके शरीर का अन्य हिस्सा छोटा। शरीर के अन्य हिस्से के बनिस्पत चूंकि सिर का आकार सामान्य था इसलिए वह उसके शरीर में अनफिट लगता था। सोनिया को देखकर किसी को भी ऐसा लगता था कि उसके सिर के बोझ से उसका शरीर दब जाएगा। इब्नबतूता और उसकी पत्नी सोनिया को देखते थे, चिंतित होते थे लेकिन उनकी समझ में कुछ नहीं आता था।

इब्नू बार-बार सोनिया को लेकर अस्पताल नहीं दौड़ सकता था क्योंकि छुट्टी में उसका पैसा काट लिया जाता था। उसके पास पैसे नहीं थे और वह पैसा कटवाकर समस्या को और अधिक गंभीर नहीं बनाना चाहता था। इब्नू की पत्नी कई बार सरकारी अस्पताल के चक्कर लगा चुकी थी। डाॅक्टर ने जितने प्रकार के चेकअप बतलाए थे और जितनी दवाइयाँ लिखीं वे उस अस्पताल में उपलब्ध नहीं थीं। इब्नू की पत्नी को कुछ समझ नहीं आता था। उसने कुछ दवाइयाँ खरीदीं थीं लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। सरकारी अस्पताल में बदबू बहुत थी और सोनिया को लेकर दौड़ते-दौड़ते एक दिन वह खुद बीमार पड़ गई। उसने हारकर सोनिया का झाड़-फूंक भी करवाया। तांत्रिक ने सोनिया को अपने भभूत से बेहोश कर दिया था और फिर मंत्र से उसके ठीक हो जाने का आश्वासन दिया था। लेकिन सोनिया ने खाना-खाना शुरु नहीं किया था और उसका शरीर वहीं का वहीं रुक-सा गया था। सोनिया कि उम्र ज्यांे-ज्यों बढ़ रही थी वह और अजीब लगने लगी थी।

इब्नू के जीवन का यही एक कष्ट होता तो इब्नू चिंतित हो सकता था। लेकिन उसके पास तो कष्टों का जैसे अंबार था।

बेटी जब जवान होती है तो साथ में उसका शरीर भी जवान होता है

इब्नू की बड़ी बेटी रूबिया धीरे-धीरे अपने यौवन की ओर बढ़ रही थी। वह सुंदर थी और उसके बाल सुनहरे थे। उसका चेहरा गोल था और उसके गाल फूले हुए थे। वह स्वस्थ भी थी और हंसमुख भी। लेकिन रूबिया कि हंसी हर महीने एक सप्ताह के लिए गायब हो जाती थी। रूबिया घर में रहती तो घर में रौनक रहती। रूबिया के निखरने वाले रूप को देखकर उसकी माँ को बहुत संतुष्टि रहती। यह अलग बात है कि वह अपनी बेटी को अच्छी तरह से रात के अंधेरे मेें घर के भीतर जली ट्यूब की दूधिया रोशनी में ही देख पाती थी, क्योंकि दिन में उसके घर प्रायः अँधेरा ही होता था। रूबिया का बदन काफी गठीला था और उसका वक्ष धीरे-धीरे भरता जा रहा था।

रूबिया जब लगभग सोलह वर्ष की हो गई थी तब उसे कमरे में सोेने में दिक्कत महसूस होने लगी थी। वह कमरा जिसमें उसके पिता सोेते थे उसमें उसका सोना उसे अजीब लगता था, लेकिन वह मजबूरी समझती थी। उन दिनों रूबिया दसवीं करके लगभग दो वर्ष से घर बैठी हुई थी। रूबिया कि माँ ने उसे स्कूल छुड़ा दिया था क्योंकि उसके पास स्कूल की फीस और स्कूल आने-जाने के किराये के पैसे नहीं थे। रूबिया घर में रहती थी और घर के काम मेें माँ का हाथ बंटाती थी। रूबिया अंधेरे में माँ के साथ कमरे में बैठने में भी साथ देती थी। रूबिया कि माँ उस कमरे के अंधेरे में अपनी आंखों से आंसू बहाती रहती थी, रूबिया को यह मालूम नहीं था।

इब्नू जब तक सुबह घर से तैयार होकर निकलता, तब तक उस कमरे की बत्ती जलती थी क्योंकि तब इब्नू तैयार होता था, पूजा करता था और बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करते थे। रूबिया सुबह देर से जगती थी। रूबिया कि माँ रसोई में जुटी होती थी। सुबह रूबिया गहरी नींद में होती थी और कई बार उसके शरीर से उसके कपड़े खिसक जाते थे। उसकी टांगें बाहर आ जातीं थीं और उसकी छाती के उभार दिखने लगते थे। इब्नू उस कमरे से बाहर नहीं जा सकता था। क्योंकि उसके पास मात्र यही एक कमरा था। लेकिन उसे वहाँ बहुत झेंप होती थी। इब्नू सबसे अधिक रूबिया को प्यार करता था और उसे प्यारी बेटी कहा करता था। रूबिया बड़ी हो गई है, इब्नू यह जानता था। इब्नू कमरे की बत्ती बंद रखने लगा। वह अंधेरे में तैयार होता, पूजा करता। वह पत्नी से कहता उसे अंधेरे में कोई दिक्कत नहीं है, उसे सभी चीज़ों का अंदाजा़ है।

रूबिया को मासिक धर्म देर से शुरू हुआ जब वह पंद्रह वर्ष की हो गई थी। शुरू में कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा लेकिन रूबिया फिर अंदर से बीमार पड़ गई। इब्नू की पत्नी अगर इब्नू को नहंीं बताती तब भी इब्नू को पता चल ही जाता कि रूबिया अंदर से बीमार है। रूबिया एक सप्ताह बिस्तर पर पड़ी रहती थी। रूबिया मासिक धर्म के समय दर्द से छटपटाती थी और उसे उस दौरान बहुत खून आता था। रूबिया अपने बिस्तर पर दिन भर लेटी रहती थी और खून की धार चलती रहती थी। रूबिया कि माँ उन दिनों काफी परेशान रहती। वह लगातार कपड़े और चादर बदलती रहती। जब पिता घर पर आ जाते थे या छुट्टी वाले दिन घर पर होते तो रूबिया को बहुत शर्म आती थी लेकिन वह कहीं भाग नहीं सकती थी। वह बिस्तर पर औंधे मुंह दिन-रात बस लेटी रहती थी।

रूबिया कि माँ रूबिया को लेकर भी कई बार अस्पताल के चक्कर लगा चुकी है लेकिन सब बेकार। रूबिया कि माँ के हाथ में थोड़े भी पैसे नहीं थे। उनके पास जितने भी पैसे थे उससे वह सिर्फ़ अपना घर किसी तरह चला पा रही थी। रूबिया कि माँ की सबसे बड़ी चिंता यह थी कि आखिर इस इतने से रुपये में आगे घर कैसे चलता रहेगा और जवान होती रूबिया कि शादी कैसे होगी? उसे अक्सर लगता कि रूबिया के लिए इस घर में लड़का ढ़ूंढ़ेगा कौन? इब्नू का एक दिन भी छुट्टी करने का मतलब था एक दिन का वेतन यानी लगभग एक सौ सोलह रूपये का कटना। यदि महीने में एक-दो दिन का वेतन कट जाता तो वह परिवार जिंदा कैसे रहता। रूबिया कि माँ सोचती कि अगर कोई लड़का मिल भी जाए तो उसके पास तो जमा पूंजी एक भी रुपया नहीं जिससे वह अपनी बेटी का कन्यादान कर सके। वह इसे लेकर उदास रहती थी। वह किसी को बतलाती नहीं थी लेकिन उसे अक्सर ऐसा लगता था कि यह हो जाए तो ज़्यादा बेहतर है कि किसी दिन कोई लड़का बाहर गयी रूबिया को लेकर भाग जाए। वह रूबिया कि ओर देखती और उसकी सुन्दरता को देखकर आश्वस्त होती। उसे लगता, ऐसा एक दिन संभव है।

इब्नबतूता पूरी लगन से नौकरी करता था। लेकिन वह जानता था कि इसका कोई फायदा नहीं है। वह जानता था कि यहाँ अब वेतन बढ़ने का कोई चांस नहीं है। लेकिन वह मजबूर था। वह जानता था कि उसकी अब कोई हैसियत नहीं है और अगर वह नौकरी छोड़ देता है तो सरदार भाग सिंह के पास कई अन्य विकल्प हैं। इस नौकरी के लिए भी लोगों की यहाँ एक कतार है। इब्नू यह सोचकर भौचक रहता था कि आखिर इसी पैसे में आगे सबकुछ चलेगा कैसे?

अस्पताल का चक्कर लगा-लगाकर और कई प्रकार की चिंता कर-कर के इब्नू की पत्नी का रक्तचाप नीचे गिर गया था। इब्नू की पत्नी कई बार उठ नहीं पाती थी और उठते ही उसे चक्कर आ जाता था। उसकी आंखों के नीचे काले घेरे हो गये थे। जिस दिन उसका रक्तचाप बहुत नीचे चला जाता उस दिन इब्नू की पत्नी को अपने शरीर का कोई आभास तक नहीं हो पाता था। उसके मस्तिष्क में सिलाई मशीन चलाने जैसी आवाज़ आने लगती थी और कान एकदम सुन्न हो जाते थे। इब्नू की पत्नी अपनी बीमारी किसी को नहीं बतलाती थी और दिन भर उस कमरे में घुप्प अंधेरे में चुपचाप बैठी रहती थी। उस घुप्प अंधेरे में कई बार ऐसा होता था कि उसका रक्तचाप काफी नीचे चला जाता था और वह बेहोश हो जाती थी। रूबिया उस कमरे में होती लेकिन उसे उस घुप्प अंधेरे में कुछ पता नहीं चलता था। उसकी माँ उस अंधेरे में बेहोश होती और फिर होश में आ जाती थी।

इब्नू की पत्नी की उम्र बयालीस-तेंतालीस के करीब हो गयी थी। घर के संकट ने उसके चेहरे के नमक को खत्म कर दिया था। वह दुबली हो गयी थी। लेकिन अभी भी आकर्षक लगती थी। इब्नू उसको देखता था और उसकी आंखों के नीचे बन आये काले घेरे को अपने दिल पर महसूस करता था। उसे याद आते थे वे दिन जब वे डीसीएम मिल वाली नौकरी करता था और उसकी नई-नई शादी हुई थी। उसके मस्तिष्क में अभी भी अपनी पत्नी का छहलता हुआ बदन था और उसमें रोओं की अटखेलियाँ। उभरे हुए दानों का जादू। लेकिन इब्नू अब जानता था कि ये अब सिर्फ़ मधुर यादें ही बनकर रह जायेंगी। इब्नू सोचता कि क्या उसकी पत्नी का शरीर अब भी जादू दिखलाता होगा। क्या अब भी दानों का उभरना जारी होगा। इब्नू के लिए उस रात के बाद जब वह हताश था जब उसके बेटे का बीज उसकी पत्नी में गया था, से उसकी पत्नी का शरीर रहस्यमय हो गया था। इब्नू उस एक अकेले कमरे में न ही अपनी पत्नी को सहला सकता था और न ही उसके रहस्य को अब भेद सकता था। इब्नू सोचता था कि उसकी पत्नी की टांगों का गोरापन क्या उतना ही होगा? इब्नू अपनी पत्नी की आंखों के चारों ओर बन आये घेरों को अपने होठों से चूमना चाहता था।

इब्नबतूता के परिवार में सिर्फ़ एक उसका बेटा स्वस्थ था। वह अब लगभग छः वर्ष का हो गया था। वह काफी चंचल था। उसका नाम था-रत्नगिरि लोखण्डे। उसकी माँ उसे रत्नी कहती थी और उसका बाप रत्ना। वह खूब उछलता-कूदता था और प्रायः बाहर गली में निकल जाता था। उसकी खाने में खासी दिलचस्पी थी। उसे खूब भूख लगती थी और हमेशा वह खाने के फिराक में रहता था। वह ज़्यादा देर तक भूखा नहीं रह पाता था। ज़्यादा देर भूखा रहने पर उसके पेट में हवा भर जाती थी और उसका पेट घड़े की तरह फूल जाता था। लेकिन घर में खाना कम था इसलिए प्रायः वह भूखा रहता था। रत्नगिरि खाने की थाली को ललचायी निगाह से देखता था और उसके मां-बाप उसे अपनी थाली से निकाल कर खाना दे देते थे।

अगर माधुरी दीक्षित नहीं कहती तब क्या दिल धक-धक नहीं करता, दिल का तो काम ही है धड़कना

इब्नबतूता के घर में इस पुत्र को छोड़कर सभी बीमार थे। लेकिन हद तब हो गयी जब इब्नबतूता खुद एक दिन बहुत जोर से बीमार पड़ गया। रोज दिन भर गैरेज पर ठक-पिट करने और दस किलोमीटर साइकिल चलाने के कारण उसका अस्थमा बढ़ता रहा और एक दिन वह अपने गैरेज पर ही गश्त खाकर गिर पड़ा। उन दिनों वह किसी महलनुमा घर के बड़े ग्रिल को तैयार कर रहा था। उस बड़े ग्रिल को उठाने की कोशिश में इब्नू को अस्थमा का अटैक हो गया। उसने अपनी मशीन के पाइप को मुंह में लगााकर उससे मुंह में आॅक्सीजन भरने की कोशिश की किन्तु कोई फायदा नहीं। इब्नू की मशीन उसके मुंह में रह गयी और इब्नू बेहोश हो गया। इब्नू को अस्पताल में भर्ती कराया गया। इब्नू की पत्नी अपने अंधेरे कमरे को छोड़कर अस्पताल की ओर दौड़ी और फिर गंभीर रोग का पता चला।

मेडिकल की भाषा में इस गंभीर रोग का नाम क्या था इब्नू की पत्नी को कुछ समझ में नहीं आया। वह सिर्फ़ इतना समझ पायी कि लंबे समय तक अस्थमा कि बीमारी से ग्रसित होने और उसके बाद भी अनवरत भारी काम करते रहने, लम्बी दूरी तक साइकिल चलाने के कारण उसके दिल पर दबाव बन गया है। उसका दिल सिकुड़ गया है। दिल का सिकुड़ जाना एक गंभीर बीमारी है। इसका इलाज यह है कि एक बड़ा आॅपरेशन होगा और दिल के भीतर एक लोहे की स्प्रिंग लगायी जायेगी। लोहे का यह स्प्रिंग दिल को धकधक करने के लिए मजबूर करेगा। वह दिल की दोनों परतों के बीच एक गैप बनाएगा, उसमें हवा भरने देगा और दिल अपना काम सुचारू रूप से करने लगेगा।

अस्पताल के बिस्तर पर इब्नबतूता काफी कमजोर लग रहा था। वह उठ नहीं पाता था उसे बाथरूम जाने के लिए पत्नी का सहारा लेना पड़ता था। अस्पताल में चार दिन रहने के बाद इब्नू को छुट्टी दे दी गई। दो-तीन दिनों तक घर में आराम करने के बाद एक सप्ताह के बाद वह अपने गैरेज पर पहुँचा। इब्नू के इस महीने के वेतन से एक सप्ताह का वेतन कटा और इब्नू की पत्नी को आने-जाने और दवाओं में खर्च हुए पैसों को मिलाकर लगभग डेढ़ हजार खर्च हो गए। इब्नू की पत्नी को इस महीने मात्र दो हजार से काम चलाना पड़ा। दो हजार में एक हजार मकान का किराया और एक हजार में इब्नबतूता का पूरा परिवार यानी पांच जन। इस महीने उसके घर में खाना कम बना और उसके बेटे रत्नगिरि का पेट प्रायः घड़े की तरह फूला ही रहा।

डाॅक्टर की हिदायत के बावजूद इब्नबतूता आॅपरेशन कराने की स्थिति में नहीं आ पाया। न ही वह अपनी इस नौकरी को छोड़ या बदल पाया और न ही दूर तक साइकिल चलाना। इब्नू के पास न ही समय था कि वह छुट्टी लेकर दूसरी नौकरी तलाश करे और न ही कोई हुनर। उसकी यह शंका निर्मूल नहीं थी कि उसे मिलने वाली कोई भी नौकरी इससे कुछ कम वेतन की ही होती। इस वेतन में से पांच सौ रुपये भी कम होते तो फिर इब्नू का परिवार कैसे जिंदा रहता, यह बहुत बड़ा सवाल था। इब्नू ने इस पर कुछ भी विचार नहीं किया और उसकी ज़िन्दगी अनवरत चलती रही।

हाँ, लेकिन इब्नू कई बार यह ज़रूर सोचता था कि यदि वह सिर्फ़ दिल के भीतर स्प्रिंग लगाने से ठीक हो सकता है तो यह उसके लिए भी कोई बड़ी बात नहीं है। उसने अपने अस्थमा के लिए मशीन बनायी थी और उसमें सारा खेल एक स्प्रिंग का ही था। उसने उस स्प्रिंग को फिट कर उस मशीन को तैयार किया था और मशीन एक चमत्कार की तरह तैयार थी। कई बार उसका मन करता कि वह अपने हाथ से ब्लेड के सहारे अपने सीने को खोल ले और फिर वह दिल के भीतर एक स्प्रिंग फिट कर फिर से सीने को सुई-धागा से सिल दे। इब्नू ऐसी कोशिश कर सकता था। लेकिन इसमें एक आशंका यह थी कि उसे हमेशा यह लगता था कि वह सीने को खोल तो सकता था लेकिन इसके बाद वह होश में रह पायेगा इसकी संभावना कम है। अगर इब्नबतूता के पास एक निजी कमरा होता तो वह कभी ऐसी कोशिश कर सकता था। इब्नबतूता को अपना आॅपरेशन करने से उसकी हिम्मत नहीं, उसका निजी कमरा का नहीं होना रोक रहा था।

लेकिन इब्नबतूता मरा नहीं गायब हो गया

और एक दिन इब्नबतूता गायब हो गया। वैसे तो इब्नबतूता को कम लोग ही जानते थे, लेकिन अपने गैरेज पर और अपने मोहल्ले में भी उसेे जितने लोग जानते थे इस बीमारी के बारे में जानकर वे मानने लगेे थे कि अब इब्नबतूता कि मृत्यु नजदीक है। इब्नबतूता का दिल सिकुड़ चुका है और वह धीरे-धीरे मृत्यु के करीब पहुँच रहा था और इसलिए सभी के भीतर उसके प्रति एक गहरी संवेदना थी। लेकिन इब्नबतूता मरा नहीं, गायब हो गया। इस बीमारी के लगभग चार महीने बाद तब जब बहुत तेज गर्मी थी, इब्नबतूता को एक बार फिर लगाा कि वह बीमार पड़ने वाला है और उसका दिल बिल्कुल ही धड़कना बन्द करने वाला है। चूंकि वह एक बार फिर अस्पताल जाना नहीं चाहता था और एक बार फिर अपना वेतन कटवाना नहीं चाहता था इसलिए सरदार भाग सिंह से छुट्टी लेकर दिन के दो बजे अपने घर की ओर भागा।

सूर्य की गर्मी बहुत तेज थी और चूंकि इब्नबतूता साइकिल पर था तो वह जमीन से लगभग एक-डेेढ़ फीट ऊपर था। इस तरह वह एक-डेढ़ फीट और सूर्य के करीब पहुँच गया था। इब्नबतूता का हाल बेहाल था उसे रास्ता नहीं सूझ रहा था।

वह अभी मात्र पहाड़गंज से कनाॅटप्लेस तक ही आया था कि उसे अस्थमा का अटैक पड़ गया। यह बाराखम्भा रोड का वह हिस्सा था जहाँ वह लगभग रोज रुककर एक बार उस ऊंची बिल्डिंग को ऊपर से नीचे तक निहारा करता था। इब्बतूता के चेहरे और उसके हाथ-पांव ने लगभग काम करना बन्द कर दिया। चूंकि इब्नबतूता को आज डर था कि वह एक बार फिर उसी तरह बेहोश हो जाने वाला है इसलिए वह काफी डरा हुआ था। वह अपनी साइकिल को सड़क के किनारे गिराकर दौड़ पड़ा अपनी मशीन को बिजली से कनैक्ट करने के लिए। बाराखम्भा रोड के किसी ऊंची बिल्डिंग के किसी ए.सी. आॅफिस में इब्नबतूता ने घुसकर बगैर इधर-उधर देखे अपने मशीन को बिजली से जोड़ लिया था। उस आॅफिस के लोग घबरा गये थे, लेकिन इब्नबतूता कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं था। वह वहीं सोफे पर लगभग गिरा हुआ था, उसके मुंह से उसके मशीन की नली थी और मशीन बिजली से जुड़ी हुई थी।

लोगों को बस इतना ही पता है, इसलिए मुझे भी इतना ही पता है। बस तब से इब्नबतूता गायब है। वह किसी को दिखा नहीं।

इब्नबतूता अस्थमा के इस अटैक को झेल नहीं पाया या फिर उसके सिकुड़े हुए दिल ने धड़कना बंद कर दिया और उसकी मृत्यु हो गई, ऐसा सोचा जा सकता है। लेकिन इब्नबतूता कि लाश नहीं मिली।

आखिर पता करते-करते जब लोग उस आॅफिस तक पंहुचे जहाँ इब्नबतूता अंतिम बार देखा गया था तब वहाँ उसकी वह मशीन अवश्य मिल गई। आॅफिस के लोग कहते हैं कि हाँ, वह हवा कि गति की तरह अंदर आया था और बगैर कुछ देखे-सुने, बगैर कुछ पूछे उसने अपनी मशीन को यहाँ बिजली से कनैक्ट कर लिया था। किसी के पूछने पर उसने कुछ नहीं बतलाया था और फिर वह अचानक इस मशीन को अपने मुंह से निकालकर उठकर बाहर निकल गया था। इब्नबतूूता कि साइकिल, जिसे वह वहीं किनारे छोड़कर उस आॅफिस के भीतर घुस गया था, वह भी मिल गई थी। एक संभावना यह हो सकती है कि अस्थमा के इस जो़रदार अटैक से इब्नू के दिमाग पर असर पड़ गया हो और फिर वह निकल कर कहीं गायब हो गया हो।

कुछ लोग कहते हैं इब्नबतूता उस आॅफिस में घुसा ज़रूर था लेकिन कभी निकला नहीं। लोग कहते हैं वह धुंए में तब्दील हो गया। बाहर लोगों ने देखा कि अचानक उस आॅफिस से धुंए का एक गुबार निकला और पहले वह आकाश में छा गया और फिर वह धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ गया। आगे की ओर मतलब दिल्ली से आगे की ओर।

कुछ लोग कहते हैं कि इब्नबतूता जिस आॅफिस में घुसा था वहाँ उसने बगैर कुछ देखे-सुने अपनी मशीन को बिजली से जोड़ लिया था। फिर अपनी नज़र उठाकर उसने उस आॅफिस को देखा था। वह आॅफिस काफी चमकदार था। उसमें कई कंप्यूटर थे, कई ए.सी.। बिजली की चकाचैंध। कई लोग मोबाइल पर बात कर रहे थे। इब्नबतूता इन चीज़ों को देखते ही बिल्कुल आपे से बाहर हो गया था। उसने चिल्लाना शुरू कर दिया था अपने बाल नोेचने लगा। वह अपने पेट को पकड़ कर वहीं ज़मीन पर लेट गया था और बेचैनी में उलटने-पलटने लगा था। उसके मुंह से मशीन की पाइप निकल गई थी और फिर वह अचानक उस आॅफिस से निकल कर भाग गया था।

इब्नबतूता का क्या हुआ कुछ पता नहीं। इब्नबतूता के बाद उसका परिवार कैसे जीवन बिताएगा इसे जानने के लिए इतनी लम्बी कहानी पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। भारत के किसी भी कोने मेें इब्नबतूता के परिवार जैसे करोड़ों परिवारों को देखा जा सकता है। इब्नबतूता के परिवार में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे हैं। हाँ इतना ज़रूर बता दूं कि सरदार भाग सिंह ने ईमानदारी दिखाई और उस महीने की जिस तारीख तक इब्नबतूता ने काम किया था वहाँ तक का पैसा उसने उसके घर पर भिजवा दिया था। बड़ी बात यह है कि सरदार भाग सिंह ने इब्नू के वेतन में से उस दिन का आधा वेतन नहीं काटा था जिस दिन इब्नू दो बजे गैरेज से निकल गया था और जिस दिन से वह गायब है।

यह कभी खत्म न होने वाली कहानी है

इब्नबतूता कि मृत्यु हो गई हो या फिर वह गायब हो गया हो, दोनों ही स्थितियों में यह कहानी खत्म हो चुकी है। लेकिन यह कहानी अब कभी खत्म नहीं हो सकती।

आश्चर्य यह है कि अभी पिछले कुछ महीनों से विभिन्न गांवों से मुझे खबर मिली है कि अभी कुछ दिनों से उनके गाँव में एक आदमी दिखने लगा है जो लगभग पागल है, उसे अस्थमा कि बीमारी है और उसने इसके लिए एक मशीन ईजाद कर रखी है। वह मशाीन बिजली से चलती है और उसके भीतर एक मोटर फिट की हुई है। गाँव के लोग भौंचक हैं। उसकी मशीन और उसे देखने के लिए लोग उसे घेरे रहते हैं। वह पैदल चलता है और दिन भर में कई-कई किलोमीटर पैदल चल लेता है। वह थकता नहीं है और वह कहता है उसे तो अभी बहुत यात्रा करनी है। वह रात में कहीं गायब हो जाता है। उसका कहीं पता नहीं चलता और सुबह फिर दिख जाता है। वह अक्सर लहलहाते खेत के समीप चला जाता है और उसे देखते रहता है। वह अक्सर खेत की मेड़ पर चिल्लाता हुआ मिलता है कि "सब मरोगे सालो! खूब करो खेती!" वह लोगों को पकड़ कर कहता है कि "दिल्ली चलोगे, मैं तुम्हें अपने कंधे पर बैठाकर दिल्ली ले चलूंगा।"

यह इब्नबतूता ही है, ऐसा भ्रम हो सकता है। मुझे भी होना चाहिए। लेकिन मेरा यह भ्रम तब दूर हो जाता है जब इस तरह के कई फोन अलग-अलग गांवों से आते हैं और लोग यह दावा करते है कि इस तरह के इब्नबतूता को उन्होंने अपने गाँव में देखा है।

मैं जानता हूँ कि इस कहानी के छपने के बाद मेरे पास कई फोन आएंगे और लोग यह बताएंगे कि उन्होंने भी अपने यहाँ इसी तरह के एक आदमी को देखा है जिसे अस्थमा कि बीमारी है, जिसने एक मशीन ईजाद का रखी है, जो हरे-लहलहाते खेतों का दुश्मन है, जो दिल्ली जाना चाहता है और जो पागल है। सभी मुझसे पूछेंगे क्या यही आपकी कहानी का इब्नबतूता लोखण्डे तो नहीं? और मैं कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं करूंगा। मैं जानता हूँ, ऐसा ही होगा!