कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता / हेमन्त जोशी

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बबली और बंटी रामेश्वर करकेटिया के नटखट बच्चे हैं। बबसी छोटी है और घर-भर की लाड़ली है। बंटी बड़ा है। शैतानी से उसका मन अभी पूरी तरह से भरा नहीं है। बंटी अपनी बहन को बहुत प्यार करता है, पर उसे लगता है कि बबली के आने के बाद से उसकी शान में कुछ कमी आ गई है। वह अपनी माँ से कई बार पूछ चुका है कि जब भी उन दोनों के बारे में कोई बात होती है तो बबली और बंटी ही क्यों कहा जाता है, बंटी और बबली क्यों नहीं?

जैसे ही मार्च का महीना ख़त्म होने को आया और गर्मियों कि छुट्टियाँ पास आने लगीं, बबली और बंटी की सैर-सपाटे की योजनाएँ भी ज़ोर पकड़ने लगीं। उनकी फरमाइश थी कि इस बार छुट्टियों में किसी पहाड़ पर चला जाए।

“पापा इस बार शिमला चलेंगे” बंटी ने कहा।

“नहीं पापा, नैनीताल चलो ना” बबली ने बंटी की बात काटी।

बच्चों की बातें सुन-सुन कर रामेश्वर करकेटिया मन ही मन मुस्काते थे, क्योंकि वह जानते थे कि बच्चे बस सैर करना चाहते हैं। कहाँ जाएँगे, यह तय करना तो है, पर उससे कोई ज्य़ादा फ़र्क नहीं पड़ता। बच्चों का मकसद तो किसी भी हिल स्टेशन पर जा कर मौज करना है। वह यह भी जानते थे कि बबली जो कहेगी, उससे ठीक उल्टा बंटी को कहना है, क्योंकि यह उन दोनों का पुराना खेल है जिसमें दोनों को मज़ा आता है।

यह बात केवल रामेश्वर जानते थे कि कहाँ जाना है। क्योंकि यह बच्चों और स्वयं उनकी इच्छा पर नहीं है बल्कि इस बात से तय होगा कि कहाँ के टिकट मिल पाएँगे और कहाँ रहने की जगह मिल पाएगी।

फिर एक दिन आया जब रात साढ़े दस बजे बंटी-बबली रानीखेत एक्सप्रेस पर सवार हो पहाड़ों की सैर पर निकल पड़े। करकेटिया साहब जब कुली को सामान ढुलाई के पैसे दे कर लौटे तो देखा कि भाई-बहन में खिड़की की सीट के लिए झगड़ा हो रहा था।

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“तुम मम्मी के पास जाओ। यहाँ मैं बैठूँगा।“ बंटी ने बबली को घुड़क कर कहा।

“मम्........मी, देखो बंटी मुझे यहाँ बैठने नहीं दे रहा है।” बबली ने अपना दाँव खेला।

पापा ने दोनों को समझाया कि रात में बाहर कुछ भी नहीं दिखेगा, लेकिन वह कहाँ मानने वाले थे। माँ ने दोनों का ध्यान वहाँ से हटाने के लिए उन्हें खाने के लिए पूरियाँ और आलू की सब्ज़ी दे दी। खाना खाने के बाद दोनों को नींद आने लगी और वे कहीं भी सोने को तैयार हो गए। गाड़ी ने भी पूरी रफ्तार पकड़ ली थी।

बंटी और बबली की नींद अभी पूरी भी नहीं हुई होगी कि काठगोदाम आ गया। स्टेशन से बाहर निकले तो हलका-हलका उजाला हो रहा था। नैनीताल की बस में बैठते ही खिड़की के लिए फिर से झगड़ा होना तय था। सो हुआ भी। लेकिन इस बार झगड़ा ज्य़ादा देर तक इसलिए नहीं चल पाया कि बस लगभग खाली थी। बंटी पीछे खिड़की के पास जा बैठा।

नैनीताल में बबली और बंटी ने दस दिन खूब मौज की। आस-पास के तालाब और कस्बे देखे, नाव पर बैठे, आइसक्रीम खाई, बंदूक से निशाना लगाया और भी जो कुछ मौज वह कर सकते वह सब की।

फिर वह भीमताल के पास ही नौकुचिया ताल की सैर करने गए। उस दिन दोनों बहुत शांत थे और एक बार कहने पर ही पापा या माँ का कहना मान रहे थे। पापा के आश्चर्य को कम करते हुए माँ ने बताया कि यह सब इसलिए हो रहा है कि पापा खुश होकर उन्हें पैडल बोट पर सैर करने दें। इसमें रामेश्वर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी।

नौकुचिया ताल में एक नाव घंटे भर के लिए किराए पर ली गई और बच्चों ने ताल का कोना-कोना छान मारा। धूप तेज़ थी मगर बादल भी छाए हुए थे। बीच-बीच में बादलों की छाया में तालाब की सैर करने में बहुत मज़ा आ रहा था। आखिरकार थक कर दोनों ने कहा कि अब किनारे चला जाए। वजह शायद केवल थकान ही नहीं थी। तालाब की सैर करते-करते उन्होंने वह दुकान देख ली थी जहाँ पेप्सी, फैंटा या लिमका पिया जा सकता था। किनारे पर पहुँचते ही कहा गया कि प्यास लग रही है। मतलब साफ था। पर माँ ने अनजान बनते हुए पानी की बोतल आगे बढ़ा दी। इस पर छोटी यानी बबली ने बेहद उदास होकर पापा की ओर देखा। फिर क्या था, सब चाय की दुकान पर थे।

जब तक कोल्ड ड्रिंक्स आते, बंटी चुप कैसे बैठता। उसने कुछ कंकड़ उठाए और तालाब के किनारे जा कर उन्हें तालाब में फैंकने लगा। इस पर पापा ने उसे डाँटा और अपने पास बुलाया।

पास आने पर उन्होंने समझाने की कोशिश की “बंटी बेटे, यह काम अच्छा नहीं है।“

लेकिन कारण जाने बिना बंटी मानने को तैयार नहीं था। इस पर पापा ने उसे बताया कि ऐसा करने से तालाब भर जाएगा और फिर वह उसमें सैर नहीं कर पाएगा।

आश्चर्य से बंटी ने कहा “पापा मैं तो तालाब के पानी को ऊपर ला रहा हूँ।”

पापा ने कहा, “माना कि तुम्हारे कंकड़ फैकने से पानी ऊपर आएगा, पर यह भी तो देखो कि ऐसा करने से तालाब की गहराई कम हो जाएगी।”

बंटी के पास आजकल हर सवाल का जवाब रहता है। उसने पलट कर दलील दी “पापा मेरे कुछ कंकड़ फेकने से तालाब क्यों भरेगा वह तो कितना गहरा है।”

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पापा ने समझाया “देखो बेटा, यहाँ हर साल तुम्हारे जैसे लाखों बंटी आते हैं और मान लो कि हरेक बच्चा चार-चार कंकड़ भी तालाब में फैके तो हर साल तालाब में लाखों कंकड़ भर जाएँगे। फिर क्या कुछ सालों में ही यह तालाब पूरा नहीं भर जाएगा?”

अब तो बात बंटी की समझ में आ गई थी। उसने पापा से कहा “पापा, पापा, अब मैं तालाब में कभी कंकड़ या कचरा नहीं फैकुँगा। और हाँ पापा! मैं अपने दोस्तों को भी समझाऊँगा कि तालाब में क्यों कंकड़-पत्थर या कचरा नहीं फैकना चाहिए।”

“शाबाश” पापा कुछ कहते इससे पहले ही बबली बोली।

बंटी उसकी तरफ़ बढ़ा ही था कि पापा ने उसे रोकते हुए कहा “लो एक कहावत और बना लो अपने दोस्तों के लिए।”

बंटी ने फिर पूछा “कौन सी कहावत?”

इस पर पापा ने पूछा “तुमने वह कहावत सुनी है?”

बंटी ने पूछा “कौन सी पापा?”

“बूँद-बूँद सागर भर जाता” पापा ने कहा।

“हाँ पापा, पर इससे उस कहावत का क्या?”

“अरे बुद्धू इसका नहीं” पापा ने प्यार से समझाया, “कहावत तो अब यह बन गई कि कंकड़-कंकड़ ताल भर जाता।

रामेश्वर ने बबली की ओर देखा “कहो बबली, कैसी लगी यह कहावत?”

“बहुत अच्छी पापा बबली चहकी इस कहावत की मदद से मैं भी अपनी सहेलियों को तालाब में कूड़ा-करकट औऱ पत्थर फैकने से रोक सकती हूँ।”