कंकाल / द्वितीय खंड / भाग 7 / जयशंकर प्रसाद

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उत्सव का समारोह था। गोस्वामी जी व्यासपीठ पर बैठे हुए थे। व्याख्यान प्रारम्भ होने वाला ही था; उसी साहबी ठाट से घण्टी को साथ लिये सभा में आया आज यमुना दुःखी होकर और मंगल ज्वर में, अपने-अपने कक्ष में पड़े थे। विजय सन्नद्ध था-गोस्वामी जी का विरोध करने की प्रतिज्ञा, अवहेलना और परिहास उसकी आकृति से प्रकट थे।

गोस्वामी जी सरल भाव से कहने लगे-'उस समय आर्यावर्त्त में एकान्त शासन का प्रचण्ड ताण्डव चल रहा था। सुदूर सौराष्ट में श्रीकृष्ण के साथ यादव अपने लोकतंत्र की रक्षा में लगे थे। यद्यपि सम्पन्न यादवों की विलासिता और षड्यत्रों से गोपाल को भी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं, फिर भी उन्होंने सुधर्मा के सम्मान की रक्षा की। पांचाल में कृष्ण का स्वयम्बर था। कृष्ण के बल पर पाडण्व उसमें अपना बल-विक्रम लेकर प्रकट हुए। पराभूत होकर कौरवों ने भी उन्हें इन्द्रप्रस्थ दिया। कृष्ण ने धर्म राज्य स्थापना का दृढ़ संकल्प किया था, अतः आततायियों के दमन की आवश्यकता थी। मागध जरासन्ध मारा गया। सम्पूर्ण भारत में पाण्डवों की, कृष्ण की संरक्षता में धाक जम गयी। नृशंस यज्ञों की समाप्ति हुई। बन्दी राजवर्ग तथा बलिपशु मुक्त होते ही कृष्ण की शरण में हुए। महान हर्ष के साथ राजसूय यज्ञ हुआ। राजे-महाराजे काँप उठे। अत्याचारी शासकों को शीत-ज्वर हुआ। उस समय धर्मराज की प्रतिष्ठा में साधारण कर्मकारों के समान नतमस्तक होकर काम करते रहे। और भी एक बात हुई। आर्यावर्त्त ने उसी निर्वासित गोपाल को आश्चर्य से देखा, समवेत महाजनों में अग्रपूजा और अर्घ्य का अधिकारी! इतना बड़ा परिवर्तन! सब दाँतों तले उँगली दाबे हुए देखते रहे। उसी दिन भारत ने स्वीकार किया-गोपाल पुरुषोत्तम है। प्रसाद से युधिष्ठिर से धर्म-साम्राज्य को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझ ली, इससे कुचक्रियों का मनोरथ सफल हुआ धर्मराज विशृंखल हुआ; परन्तु पुरुषोत्तम ने उसका जैसे उद्धार किया, वह तुम लोगों ने सुना होगा-महाभारत की युद्धकथा से। भयानक जनक्षय करके भी सात्त्विक विचारों की रक्षा हुई और भी सुदृढ़ महाभारत की स्थापना हुई, जिनमें नृशंस राजन्यवर्ग नष्ट किये गये। पुरुषोत्तम ने वेदों की अतिवाद और उनके नाम पर होने वाले अत्याचारों का उच्छेद किया। बुद्धिवाद का प्रचार हुआ। गीता द्वारा धर्म की, विश्वास की, विराट की, आत्मवाद की विमल व्याख्या हुई। स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि कहकर जो धर्माचरण का अधिकार मिला। साम्य की महिमा उद्घोषित हुई। धर्म में, राजनीति में, समाज-नीति में सर्वत्र विकास हुआ। वह मानवजाति के इतिहास में महापर्व था। पशु और मनुष्य के भी साम्य की घोषणा हुई। वह पूर्ण संस्कृति थी। उसके पहले भी वैसा नही हुआ और उसके बाद भी पूर्णता ग्रहण करने के लिए मानव शिक्षित न हो सके, क्योंकि सत्य को इतना समष्टि से ग्रहण करने के लिए दूसरा पुरुषोत्तम नहीं हुआ। मानवता का सामंजस्य बने रहने की जो व्यवस्था उन्होंने की, वह आगामी अनन्त दिवसों तक अक्षुण्ण रहेगी।

तस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य;


जो लोक से न घबराये और जिससे लोक न उद्विग्न हो, वही पुरुषोत्तम का प्रिय मानव है, जो सृष्टि को सफल बनाता है।

विजय ने प्रश्न करने की चेष्टा की; परन्तु उसका साहस न हुआ।

गोस्वामी ने व्यासपीठ से हटते हुए चारों ओर दृष्टि घुमाई, यमुना और मंगल नहीं दिखाई पड़े। वे उन्हें खोजते हुए चल पड़े। श्रोतागण भी चले गये थे। कृष्णशरण ने यमुना को पुकारा। वह उठकर आयी। उसकी आँखें तरुण, मुख विवर्ण, रसना अवाक् और हृदय धड़कनों से पूर्ण था। गोस्वामी जी ने उससे पूछा। उसे साथ आने का संकेत करके वे मंगल की कोठरी की ओर बढ़े। मंगल अपने बिछावन पर पड़ा था। गोस्वामी जी को देखते ही उठ खड़ा हुआ। वह अभी भी ज्वर मे आक्रांत था। गोस्वामी जी ने पूछा, 'मंगल! तुमने इस अबला का अपमान किया था?'

मंगल चुप रहा।

'बोलो, क्या तुम्हारा हृदय पाप से भर गया था?'

मंगल अब भी चुप रहा। अब गोस्वामी जी से रहा न गया।

'तो तुम मौन रहकर अपना अपराध स्वीकार करते हो?'

वह बोला, नहीं।

'तुम्हे चित्त-शुद्धि की आवश्यकता है। जाओ सेवा में लगो, समाज-सेवा करके अपना हृदय शुद्ध बनाओ। जहाँ स्त्रियाँ सताई जाएँ, मनुष्य अपमानित हो, वहाँ तुमको अपना दम्भ छोड़कर कर्त्तव्य करना होगा। इसे दण्ड न समझो। यही तुम्हारा क्रियामाण कर्म है। पुरुषोत्तम ने लोक-संग्रह किया था, वे मानवता के हित में लगे रहे, अन्यथा अत्याचार के विरुद्ध सदैव युद्ध करते रहे। अपने किए हुए अन्याय के विरुद्ध तुम्हें अपने से लड़ना होगा। उस असुर को परास्त करना होगा। गुरुकुल यहाँ भेज दो; तुम अबलाओं की सेवा में लगो। भगवान् की भूमि भारत में जंगलों में अभी पशु-जीवन बिता रहे हैं। स्त्रियाँ विपथ पर जाने के लिए बाध्य की जाती हैं, तुमको उनका पक्ष लेना पड़ेगा।

उठो!

मंगल ने गोस्वामी जी के चरण छुए। वह सिर झुकाये चला गया। गोस्वामी ने घूमकर यमुना की ओर देखा। वह सिर नीचा किये रो रही थी। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कृष्णशरण ने कहा, 'भूल जाओ यमुना, उसके अपराध को भूल जाओ।'

परन्तु यमुना मंगल को और उसके अपराध को कैसे भूल जाती?'

(8)

घण्टी और विजय बाथम के बँगले पर लौटकर गोस्वामी जी के सम्बन्ध में काफी देर तक बातचीत करते रहे। विजय ने अंत में कहा, 'मुझे तो गोस्वामी की बातें कुछ जँचती नहीं। कल फिर चलूँगा। तुम्हारी क्या सम्मति है, घण्टी?'

'मैं भी चलूँगी।'

वे दोनों उठकर सरला की कोठरी की ओर चले गये। अब दोनों वहीं रहते हैं। लतिका ने कुछ दिनों से बाथम से बोलना छोड़ दिया है। बाथम भी पादरी के साथ दिन बिताता है आजकल उसकी धार्मिक भावना प्रबल हो गयी है।

मूर्तिमती चिंता-सी लतिका यंत्र चलित पाद-विपक्ष करती हुई दालान में आकर बैठ गयी। पलकों के परदे गिरे हैं। भावनाएँ अस्फुट होकर विलीन हो जाती हैं-मैं हिन्दू थी...हाँ फिर...सहसा आर्थिक कारणों से पिता...माता ईसाई....यमुना के पुल पर से रेलगाड़ी आती थी...झक...झक...झक आलोक माला का हार पहने सन्ध्या में...हाँ यमुनी की आरती भी होती थी...अरे वे कछुए...मैं उन्हें चने खिलाती थी...पर मुझे रेलगाड़ी का संगीत उन घण्टों से अच्छा लगता...फिर एक दिन हम लोग गिरजाघर जा पहुँचे। इसके बाद...गिरजाघर का घण्टा सुनने लगी...ओह। मैं लता-सी आगे बढ़ने लगी...बाथम एक सुन्दर हृदय की आंकाक्षा-सा सुरुचिपूर्ण यौवन का उन्माद...प्रेरणा का पवन...मैं लिपट गयी...क्रूर...निर्दय...मनुष्य के रूप में पिशाच....मेरे धन का पुजारी...व्यापारी...चापलूसी बेचने वाला। और यह कौन ज्वाला घण्टी...बाथम अहसनीय...ओह!

लतिका रोने लगी। रूमाल से उसने मुँह ढक लिया। वह रोती रही। जब सरला ने आकर उसके सिर पर हाथ फेरा, तब वह चैतन्य हुई-सपने से चौंककर उठ बैठी। लैंप का मंद प्रकाश सामने था। उसने कहा-

'सरला, मैं दुःस्वप्न देख रही थी।'

'मेरी सम्मति है कि इन दोनों अतिथियों को बिदा कर दिया जाये। प्यारी मारगरेट, तुमको बड़ा दुःख है।' सरला ने कहा।

'नहीं, नहीं, बाथम को दुःख होगा!' घबराकर लतिका ने कहा।

उसी समय बाथम ने आकर दोनों को चकित कर दिया। उसने कहा, 'लतिका! मुझे तुमसे कुछ पूछना है।'

'मैं कल सुनूँगी फिर कभी...मेरा सिर दुख रहा है।' बाथम चला गया। लतिका सोचने लगी-कैसी भयानक बात-उसी को स्वीकार करके क्षमा माँगना। बाथम! कितनी निर्लज्जता है। मैं फिर क्षमा क्यों न करूँगी। परन्तु कह नहीं सकती। आह, बिच्छू के डंक-सी वे बातें! वह विवाद! मैंने ऐसा नहीं किया, तुम्हारा भ्रम था, तुम भूलती हो-यानी न कहना है कितनी झूठी बात! वह झूठ कहने में संकोच नहीं कर सकता-कितना पतित! 'लतिका, चलो सो रहो।' सरला ने कहा।

लतिका ने आँख खोलकर देखा-अँधेरा चाँदनी को पिये जाता है! अस्त-व्यस्त नक्षत्र, शवरी रजनी की टूटी हुई काँचमाला के टुकड़े हैं, उनमें लतिका अपने हृदय का प्रतिबिम्ब देखने की चेष्टा करने लगी। सब नक्षत्रों में विकृत प्रतिबिम्ब वह डर गयी! काँपती हुई उसने सरला का हाथ पकड़ लिया।

सरला ने उसे धीरे-धीरे पलंग तक पहुँचाया। वह जाकर पड़ रही, आँखें बन्द किये थी, वह डर से खोलती न थी। उसने मेष-शावक और शिशु उसको प्यार कर रहा है; परन्तु यह क्या-यह क्या-वह त्रिशूल-सी कौन विभीषिका उसके पीछे खड़ी है! ओह, उसकी छाया मेष-शावक और शिशु दोनों पर पड़ रही है।

लतिका ने अपने पलकों पर बल दिया, उन्हें दबाया, वह सो जाने की चेष्टा करने लगी। पलकों पर अत्यंत बल देने से मुँदी आँखों के सामने एक आलोक-चक्र घूमने लगा। आँखें फटने लगीं। ओह चक्र! क्रमशः यह प्रखर उज्ज्वल आलोक नील हो चला, मेघों के जल में यह शीतल नील हो चला, देखने योग्य-सुदर्शन आँखें ठंडी हुईं, नींद आ गयी।

समारोह का तीसरा दिन था। आज गोस्वामी जी अधिक गम्भीर थे। आज श्रोता लोग भी अच्छी संख्या में उपस्थित थे। विजय भी घण्टी के साथ ही आया था। हाँ, एक आश्चर्यजनक बात थी-उसके साथ आज सरला और लतिका भी थीं। बुड्ढा पादरी भी आया था।

गोस्वामी जी का व्याख्यान आरम्भ हुआ-

'पिछले दिनों में मैंने पुरुषोत्तम की प्रारम्भिक जीवनी सुनाई थी, आज सुनाऊँगा उनका संदेश। उनका संदेश था-आत्मा की स्वतन्त्रता का, साम्य का, कर्मयोग का और बुद्धिवाद का। आज हम धर्म के जिस ढाँचे को-शव को-घेरकर रो रहे हैं, वह उनका धर्म नहीं था। धर्म को वे बड़ी दूर की पवित्र या डरने की वस्तु नहीं बतलाते थे। उन्होंने स्वर्ग का लालच छोड़कर रूढ़ियों के धर्म को पाप कहकर घोषणा की। उन्होंने जीवनमुक्त होने का प्रचार किया। निःस्वार्थ भाव से कर्म की महत्ता बतायी और उदाहरणों से भी उसे सिद्ध किया। राजा नहीं थे; पर अनायास ही वे महाभारत के सम्राट हो सकते थे, पर हुए नहीं। सौन्दर्य, बल, विद्या, वैभव, महत्ता, त्याग कोई भी ऐसे पदार्थ नहीं थे, जो अप्राप्य रहे हों। वे पूर्ण काम होने पर भी समाज के एक तटस्थ उपकारी रहे। जंगल के कोने में बैठकर उन्होंने धर्म का उपदेश काषाय ओढ़कर नहीं दिया; वे जीवन-युद्ध के सारथी थे। उसकी उपासना-प्रणाली थी-किसी भी प्रकार चिंता का अभाव होकर अन्तःकरण का निर्मल हो जाना, विकल्प और संकल्प में शुद्ध-बुद्धि की शरण जानकर कर्तव्य निश्चय करना। कर्म-कुशलता उसका योग है। निष्काम कर्म करना शान्ति है। जीवन-मरण में निर्भय रहना, लोक-सेवा करते कहना, उनका संदेश है। वे आर्य संस्कृति के शुद्ध भारतीय संस्करण है। गोपालों के संग वे पले, दीनता की गोद में दुलारे गये। अत्याचारी राजाओं के सिंहासन उलटे-करोड़ों बलोन्मत्त नृशंसों के मरण-यज्ञ में वे हँसने वाले अध्वर्यु थे। इस आर्यावर्त्त को महाभारत बनाने वाले थे। वे धर्मराज के संस्थापक थे। सबकी आत्मा स्वतंत्र हो, इसलिए समाज की व्यावहारिक बातों को वे शरीर-कर्म कहकर व्याख्या करते थे-क्या यह पथ सरल नहीं, क्या हमारे वर्तमान दुःखों में यह अवलम्बन न होगा सब प्राणियों से निर्वेर रखने वाला शान्तिपूर्ण शक्ति-संवलित मानवता का ऋतु पथ, क्या हम लोगों के चलने योग्य नहीं है?'

समवेत जनमण्डली ने कहा, 'है, अवश्य है!'

'हाँ, और उसमें कोई आडम्बर नहीं। उपासना के लिए एकांत निश्चिंत अवस्था, और स्वाध्याय के लिए चुने हुए श्रुतियों के सार-भाग का संग्रह, गुणकर्मों से विशेषता और पूर्ण आत्मनिष्ठा, सबकी साधारण समता-इतनी ही तो चाहिए। कार्यालय मत बनाइये, मित्रों के सदृश एक-दूसरे को समझाइये, किसी गुरुडम की आवश्यकता नहीं। आर्य-संस्कृति अपना तामस त्याग, झूठा विराग छोड़कर जागेगी। भूपृष्ठ के भौतिक देहात्मवादी चौंक उठेंगे, यान्त्रित सभ्यता के पतनकाल में वही मानवजाति का अवलम्बन होगी।'

'पुरुषोत्तम की जय!' की ध्वनि से वह स्थान गूँज उठा। बहुत से लोग चले गये।

विजय ने हाथ जोड़कर कहा, 'महाराज! मैं कुछ पूछना चाहता हूँ। मैं इस समाज से उपेक्षिता, अज्ञातकुलशीला घण्टी से ब्याह करना चाहता हूँ। इसमें आपकी क्या अनुमति है?'

'मेरा तो एक ही आदर्श है। तुम्हें जानना चाहिए कि परस्पर प्रेम का विश्वास कर लेने पर यादवों के विरुद्ध रहते भी सुभद्रा और अर्जुन के परिणय को पुरुषोत्तम ने सहायता दी, यदि तुम दोनों में परस्पर प्रेम है, तो भगवान् को साक्षी देकर तुम परिणय के पवित्र बन्धन में बँध सकते हो।' कृष्णशरण ने कहा।

विजय बड़े उत्साह से घण्टी का हाथ पकड़े देव-विग्रह के सामने आया और वह कुछ बोलना ही चाहता था कि यमुना आकर खड़ी हो गयी। वह कहने लगी, 'विजय बाबू, यह ब्याह आप केवल अहंकार से करने जा रहे हैं, आपका प्रेम घण्टी पर नहीं है।'

बुड्ढ़ा पादरी हँसने लगा। उसने कहा, 'लौट जाओ बेटी! विजय, चलो! सब लोग चलें।'

विजय ने हतबुद्धि के समान एक बार यमुना को देखा। घण्टी गड़ी जा रही थी। विजय का गला पकड़कर जैसे किसी ने धक्का दिया। वह सरला के पास लौट आया। लतिका घबराकर सबसे पहले ही चली। सब ताँगों पर आ बैठे। गोस्वामी जी के मुख पर स्मित-रेखा झलक उठी।

जयशंकर प्रसाद कृत उपन्यास "कंकाल" का दूसरा खंड समाप्त। तीसरे खंड के लिए आगे बढें।