कंगन / एक्वेरियम / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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शहर की उस दुकान पर हजारों कंगन थे। एक से बढ़कर एक रंगीन मोतियों से चमचमाते हुए सुनहरे कंगन सजे हुए थे। बहुत-सी महिलाएँ उन्हें अपनी कलाइयों में पहन-पहन के देख रही थीं।

एक कंगन पर उन महिलाओं की नजर रुक गयी। दिखने में छोटा लेकिन गजब का बारीक काम था उस पर। कंगन के ऊपर सुन्दर रंग-बिरंगे मोतिया को और हीरों को बहुत ही सुन्दर तरीके से जड़ा गया था।

लेकिन किसी भी महिला का हाथ उस कंगन में जाता ही नहीं था।

एक के बाद एक सभी चतुर स्त्रियों ने कोशिश की लेकिन कोई भी उसे पहनने में सफल नहीं हुई.

बस उसे गोल-गोल घुमा कर देखती, पहनने की कोशिश करती और मायूस होकर रख देती।

एक ग्वालन बड़ी देर से उस दुकान पर खड़ी थी और उन धनाढ्य और चतुर महिलाओं की परेशानी देख रही थी।

वह जानती थी कंगन कैसे पहना जायेगा। उसे पता था ये कंगन सीधे-सीधे कलाइयों में नहीं पहना जायेगा। वह इतनी कुशलता से गढ़ा गया था कि घंटों देखने पर भी उसका न ओर मिलता था न छोर, लेकिन रंगबिरंगे मोतियों के बीच में ही कुशल कारीगर ने एक छोटा पेच लगा दिया था।

जिसे खोलते ही कंगन दो भागो में बंट जाता था और फिर उसे आराम से कलाई पर बांधा जा सकता था।

उस ग्वालन ने उस खूबसूरत कंगन को उठाया और पेच खोलकर अपनी कलाई पर बांध लिया।

कंगन पहनते ही उसकी कलाई और भी खूबसूरत हो गयी थी और पलभर में कंगन भी उस ग्वालन की चतुराई पर मुस्काने लगा था।

तभी दुकानदार ने कहा "बीस हजार रुपये।"

"क्या? इतना कीमती है ये।" उसकी आवाज भर्राई.

"हाँ असली पक्के मोती जड़े हैं इसमें अपने आप में अनोखा है ये कंगन।"

कीमत सुनकर उसने भारी मन से कंगन वापस रख दिया।

अपने पूरे जीवनभर की कमाई देकर भी वह ये कंगन नहीं खरीद सकती थी।

मन ही मन सोचने लगी "उन चतुर महिलाओं के पास कीमत है लेकिन वे कंगन खोलने का रहस्य नहीं जानतीं। मेरे पास उसे खोलने का रहस्य है लेकिन खरीदने की कीमत नहीं।"

ग्वालन के जाने से न जाने क्यों कंगन उदास हो गया। वह मन ही मन बोला-"तुम जानती हो मेरे खुलने का रहस्य फिर क्यों मुझे छोड़ जाती हो?"

जानती हो? मैं कब से इस दुकान में पड़ा हूँ हर स्त्री मुझे देखती है। आकर्षित होती है और घंटों उलटती है पलटती है घुमाती है लेकिन मेरे छिपे हुए (खुलने के पेच) को नहीं देख पाती।

ऐसे तो मैं सदियों तक किसी कलाई को छू नहीं पाऊंगा, मुझे छोड़ कर मत जाओ.

(कंगन उदास था।)