कंजूसी, किफायत एवं फिजूल खर्ची का आईना / जयप्रकाश चौकसे

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कंजूसी, किफायत एवं फिजूल खर्ची का आईना
प्रकाशन तिथि : 09 दिसम्बर 2014


जिंदगी पर प्रसारित 'आइना दुल्हन का' कंजूसी, किफायत आैर फिजूल खर्ची के अंतर को रेखांकित करते हुए मध्यम वर्ग के जीवन के आइने के रूप में हमारे सामने प्रस्तुति। अब यह सीरियल अपने अंत की आेर अग्रसर है। दरअसल हमारे लिए इसका महत्व यह है कि हम सदियों की आजमाइश से उभरे व्यवहारिक जीवन के लिए निर्वाह का यह एक मंत्र बन चुका है। आज चहुंओर फिजूल खर्ची को बढ़ावा दिया जा रहा है आैर इसे आधुनिकता कहने की गलती भी की जा रही है।

भारत के अर्थशास्त्र का आधार हमेशा बचत रहा है जो भविष्य की सुरक्षा भी है आैर राष्ट्र की संपदा के प्रति सम्मान भी है। एक जमाने में लाख रुपया अनेक लोगों के जीवन का लक्ष्य होता था आैर आज करोड़ों की बातें इस तरह की जाती है मानो वह मात्र सौ रुपया है। इस विचार को तमाम अखबारों में फिल्म सितारे आैर फिल्मों की आय के बढ़ा चढ़ाकर दिए गए झूठे सच्चे फिगर द्वारा बढ़ाया जाता है। कहीं कोई नेट आय की बात नहीं कर रहा है वरन् ग्रॉस को अपनी आय बता रहा है। मसलन विदेश में दस डॉलर की टिकिट बिक्री में से छह डॉलर सिनेमा घर का किराया आैर लोकल प्रचार का खर्चा है तथा शेष चार डॉलर में वितरक का कमीशन काटकर बमुश्किल तीन डॉलर निर्माता की आय है।

आज सामान्य जीवन में कंजूसी को अपशब्द की तरह बना दिया है। घातक तो यह है कि किफायत अर्थात सोच समझकर वाजिब मूल्य में आवश्यक वस्तु खरीदना है परंतु इसे पुराना विचार कहकर आधुनिकता के बरखिलाफ खड़ा किया जाता है। हमने अपने बच्चों के प्यार के नाम पर उन्हें बेहिसाब रुपए जेब खर्च के लिए देना शुरू किया है आैर उनसे हिसाब मांगने को तो गुनाह का दर्जा दे दिया गया है। पहले परम्परा थी कि जेब खर्च का हिसाब मांगा जाता था जो एक स्वस्थ बात होने के साथ धन का मूल्य समझाने की कोशिश थी। एक तरह से पैसा बचाना, पैसा कमाने की तरह है जैसे क्रिकेट में चुस्त फील्डर रन बचाता है जो उसके रन बनाने के खाते में जोड़कर उस खिलाड़ी का मूल्यांकन होना चाहिए। एक जमाने में एकनाथ सोलकर शॉर्ट मिड ऑन पर खड़े रहकर जमीन पर गिरने के एक इंच पूर्व ही कैच कर लेते थे। जाने प्रसन्ना, चंद्रशेखर आैर वेंकटरमण को मिले विकेट में एकनाथ सोलकर का सहयोग कितना महत्वपूर्ण था। इसी तरह जीवन में रुपया बचाने का महत्व है। फिजूल खर्ची को तड़क-भड़क आैर दिखावे की जीवन शैली का हिस्सा बना दिया गया है। रेस्त्रां में आवश्यकता से अधिक भोजन के ऑर्डर देने को फैशन का हिस्सा बनाकर राष्ट्रीय संपत्ति का अपव्यय बना दिया गया है।

'आइना दुल्हन का' सीरियल में एक मध्यम वर्ग परिवार की एक कन्या को दादी ने अतिरिक्त लाड़-प्यार से पालकर फैशनपरस्त आैर फिजूल खर्ची को शान समझने वाली लड़की बना दिया है। वह अपने विवाह पर अपने मध्यम वर्गीय माता-पिता पर दबाव बनाकर इतना खर्च कराती है कि उन्हें अपनी जमीन बेचना पड़ती है। उसके द्वारा दहेज में जबरन ली गई कार की यह प्रतिक्रिया है कि उसकी ननद का विवाह दहेज में कार नहीं लाने के कारण टूट जाता है। उसकी छोटी बहन जिसे माता-पिता ने किफायत के मूल्यों में ढाला है, वह अपने विवाह सादगी से करती है तो उसका निठल्ला पति उसे ताने देता रहता है गोयाकि दहेज की एक कार किस तरह तीन घरों को तोड़ देती है तथा एक दादी-पोती टीम अपने अव्यवहारिक मूल्यों के कारण तीन परिवारों को दिवालियेपन की कगार पर पहुंचा देता है। फिजूल खर्ची झूठी शान शौकत की एक घटना के प्रतिक्रिया स्वरूप जिन परिवार के तमाम रिश्तों में दरारें डाल देता है।

आज के दौर में विचार प्रतिक्रिया में सच्चे मूल्यों के साथ छेड़खानी के कारण जिस तरह का घरेलू वातावरण समाज में बना है उसका दुष्परिणाम यह है कि सास बहू के कलह के पारम्परिक सीरियलों के लतियाड़ लोगों के पास किफायत के इस महिमा गान के महत्व को ही नहीं समझा जा रहा है। खोखले प्रेम की कथाआें में लोगों की गहरी रुचि है, अंधविश्वास आैर तर्क के अपमान के ध्येय से बनाए सीरियलों का सम्मान है परंतु किफायत को अपशब्द की तरह बनाए जाने के कारण इसके मूल्य "जिंदगी" पर प्रसारित अन्य सीरियलों से भी कम है। हमने कैसे धीरे-धीरे समाज में साधारण एवं सामान्य को कितना गैर महत्वपूर्ण बना दिया है कि सारे समय हम लार्जर दैन लाइफ पात्रों से सजे सीरियलों को महत्व देने लगे हैं। यह हमारे द्वारा विकसित वीआईपी अपसंस्कृति के ही साइड इफेक्ट हैं। लोभ, लाभ से संचालित समाज में जीवन मूल्यों का अवमूल्यन एक सोची समझी साजिश है।