कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम! / इष्‍ट देव सांकृत्‍यायन

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तारीख 9 दिसम्बर 2007

दिन रविवार होने और अरसे बाद रविवार को रविवारी फुर्सत मिलने के कारण में पूरी तफरीह के मूड में था. करीब शाम को आए विनय और देर तक लुक्कड़ई होती रही. बाद में हम उनके ही घर चले गए और वहीं टीवी आन किया. रात साढ़े नौ बजे. मैंने टीवी खोला तो था डीडी भारती का कार्यक्रम 'सृजन' देखने के लिए, पर पहले सामने कोई न्यूज चैनल आ गया. इसके पहले की चैनल सरकाता, नीचे चल रहे एक प्रोमो पर ध्यान गया- "हिन्दी के वरिष्ठ कवि त्रिलोचन का निधन"। सहसा विश्वास नहीं हुआ. इसके बावजूद कि त्रिलोचन इधर काफी समय से बीमार पड़े थे मन ने कहा कि यह शायद किसी और त्रिलोचन की बात है. हालांकि वह किसी और त्रिलोचन की बात नहीं थी. यह तय हो गया ख़बरों के हर चैनल पर यही खबरपट्टी चलते देख कर.

यह अलग बात है कि शास्त्री जी के बारे में इससे ज्यादा खबर किसी चैनल पर नहीं थी, पर उस दिन में लगातार इसी सर्च के फेर में फिर 'सृजन' नहीं देख सका। इस प्रलय के बाद फिर सृजन भला क्या देखते! हिन्दी में आचार्य कोटि के वह अन्तिम कवि थे। एक ऐसे कवि जिसमें आचय्त्व कूट-कूट कर भरा था, पर उसका बोध उन्हें छू तक नहीं सका था. बडे रचनाकारों से क्षमा चाहता हूँ, पर अपने समय में में उन्हें हिन्दी का सबसे बडा रचनाकार मानता हूँ. सिर्फ इसलिए नहीं कि उनकी रचनाएं बहुत उम्दा हैं, बल्कि इसलिए कि अपने निजी स्वभाव में भी वह बहुत बडे 'मनुष्य' थे. गालिब ने जो कहा है, 'हर आदमी को मयस्सर नहीं इन्सां होना', संयोग से यह त्रिलोचन को मयस्सर था. त्रिलोचन वह वटवृक्ष नहीं थे जिसके नीचे दूब भी नहीं बढ़ पाती. वह ऐसे पीपल थे जिसके नीचे दूब और भडभाड़ से लेकर हाथी तक को छाया मिलती है और सबका सहज विकास भी होता है. त्रिलोचन की सहजता उतनी ही सच्ची थी जितना कि उनका होना. वह साहित्य के दंतहीन शावकों से भी बडे प्यार और सम्मान से मिलते थे और उनके इस मिलने में गिरोह्बंदी की शिकारवृत्ति नहीं होती थी.

पहली बार उनसे मेरी मुलाकात सन 1991 में हुई थी। तब में पहली ही बार दिल्ली आया था। उसी बीच श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार समारोह का आयोजन था. पुरस्कार उस साल उदय प्रकाश को दिया जाना था 'तिरिछ' कहानी संग्रह के लिए. उसी समारोह में शिरकत के लिए त्रिलोचन जी को ले आना था. डा. अरविंद त्रिपाठी पुरस्कार समिति के सचिव थे. उनके साथ ही में भी गया था. डा. अरविंद ने ही त्रिलोचन जी से मेरा परिचय कराया. यह जान कर कि में भी सानेट लिखता हूँ उन्होने कहा कि तब तो आप पहले अपने सानेट सुनाइए. खैर गीत-सानेट सुनते-सुनाते चाय-पानी पीकर हम लोग उनके घर से चले. करीब डेढ़ घंटे के उस सफर में वह दूसरे बडे रचनाकारों की तरह गंभीरता की चादर ओढे अलगथलग होकर चुप नहीं बैठ गए -. पूरे रास्ते बातचीत होती रही. वह सबकी सुनते और अपनी कहते रहे. सबसे अच्छी बात यह रही कि पूरे रास्ते साहित्य जगत की राजनीति की कोई बात नहीं हुई. बातें शब्दों पर हीन, हिन्दी और विश्व साहित्य पर हुईं, कविता की प्रवृत्ति और प्रयोगों पर हुईं ... और जाने किन-किन मुद्दों पर हुईं.

इसी बातचीत में मुहे पहली बार मालूम हुआ कि 'विकृति' शब्द का अर्थ 'खराबी' या 'गंदगी' जैसा कुछ नहीं होता। यह अर्थ उसमें शब्द के लाक्षणिक प्रयोग के नाते जुड़ गया है और रूढ़ हो जाने के कारण बहुधा मान्य हो गया है. इस शब्द का मूल अर्थ तो 'विशिष्ट कृति' है. लाक्षणिक प्रयोगों के ही चलते ऐसे ही जाने और कितने शब्दों के अर्थ रूढ़ होकर नष्ट हो गए हैं. ऐसे ही और बीसियों शब्दों के अर्थ उन्होने हमें बताए. इसी बातचीत में उपसर्ग-प्रत्यय से तोड़ कर शब्दों के मूल रूप और अर्थ ढूँढने की कला मैंने सीख ली, जो अब तक मेरे काम आ रही है. अब तक में शास्त्री जी को केवल एक कवि के रूप में जानता था। लेकिन इसी बातचीत में मैंने जाना की वही त्रिलोचन जो कहते हैं -

चाय की प्यालियाँ कभी मत दो

हर्ष की तालियाँ कभी मत दो

चाह की राह से आए अगर

दर्द को गालियाँ कभी मत दो

बडे भाषाविद भी हैं. उन्होने कई कोशों का सम्पादन भी किया है. शब्दों की छिर्फाद करने की उनकी कला मुझे ही नहीं बडे-बडों को भी वाकई हैरत में डाल देती थी. बहरहाल हम आयोजन स्थल पहुंचे और उस गहमागहमी में वह अविस्मरनीय सफर इतिहास का हिस्सा बन गया। शास्त्री जी मंचस्थ हो गए और में श्रोताओं की भीड़ में गुम. लेकिन आयोजन के बाद उन्होने मुझे खुद बुलाया और फिर टैक्सी आने तक करीब दस मिनट हमारी बातें हुईं. उन्होने फिर मिलने के लिए भी कहा और चलते-चलते यह भी कहा, 'आपकी कविताओं में जो ताप है वह आज के रचनाकारों में दुर्लभ है. इसे बनाए रखिए. एक बात और... रस, छंद, अलंकार कविता के लिए जरूरी हैं, लेकिन अगर इन्हें जिद बनाइएगा तो ये विकास में बाधक बनेंगे.'

यह मेरे लिए एक और सूत्र था। भाषा और भाव के प्रति इस खुलेपन का साफ असर त्रिलोचन की कविताओं पर ही नहीं, उनके व्यक्तित्व पर भी भरपूर था. एक तरफ तो वह कहते हैं - तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी और दूसरी तरफ यह भी कहते हैं

चार दिन के लिए ही आया था

कंठ खुलते ही गान गाया था

लोग नाम कीट्स का लेते हैं

कैसे बन कर सुगंध छाया था

मात्र 26 वर्ष की उम्र में काल कवलित हो गए अंग्रेजी के विद्रोही कवि जान कीट्स की रचनाधर्मिता के वह कायल थे। यह बात मैंने उनसे बाद की मुलाकातों में जानी। दिल्ली के उस एक माह के प्रवास के दौरान शास्त्री जी से मेरी कई मुलाकातें हुईं। उन मुलाकातों में मैंने केवल उनके व्यक्तित्व के बड़प्पन को ही महसूस नहीं किया; हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत कई भाषाओं के हजारों शब्दों के नए-नए अर्थ भी जाने और यह भी जाना कि सुबरन को यह कवी किस बेताबी और शिद्दत के साथ ढूँढता फिरता रहा है.

बाद में में वापस गोरखपुर आ गया. फिर उनसे सम्पर्क बनाए नहीं रख सका. लम्बे अरसे बाद एक और मौका आया. वह विश्वविद्यालय के एक आयोजन में गोरखपुर आए हुए थे. मालूम हुआ तो में इंटरव्यू करने पहुंचा. मुझे उम्मीद नहीं थी कि अब उनको मेरा नाम याद होगा, पर मिलने के बाद यह मेरा भ्रम साबित हुआ. विश्वविद्यालय गेस्ट हाउस पहुंच कर मैंने सन्देश भेजा और उनसे मिलने की अनुमति चाही तो उन्होने तुरंत बुलाया. मिलते ही बोले, 'अरे तुम्हारे शरीर पर अब तक मांस नहीं चढ़ा!' उनके साथ ही बैठे केदार नाथ सिंह, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी और उदय भान मिश्र हंस पड़े और में अवाक था. साहित्य संसार पर इंटरव्यू तो हुआ, लेकिन इस बीच मैंने एक बात यह भी गौर की कि उनका मन कुछ बुझा-बुझा सा है.

.....चलना तो देखो इसका -

उठा हुआ सिर, चौडी छाती, लम्बी बाँहें,

सधे कदम, तेजी, वे टेढी-मेढ़ी राहें

मानो डर से सिकुड़ रही हैं ....

न ये वही त्रिलोचन नहीं थे. कारण पूछने पर शास्त्री जी तो नहीं बोले, पर केदार जी ने संकेत दिया, 'असल में गाँव में इनके हिस्से की जो थोड़ी-बहुत जमीन थी, उसकी बंदर्बांत हो चुकी है.' में समझ सकता था कि अपने हक़ से निराला की तरह 'बाहर कर दिया गया' यह रचनाधर्मी सांसारिक विफलता से नहीं, बल्कि इसके मूल में व्याप्त छल और व्यवस्था के भ्रष्टाचार से ज्यादा आहत है. शायद ऎसी ही वजहों से उन्होने कहा होगा -

अमर जब हम नहीं हैं तो हमारा प्यार क्या होगा?

लेकिन इसकी अगली ही पंक्ति

सुमन का सुगंच से बढ़कर भला उपहार क्या होगा

यह स्पष्ट कर देती है कि नश्वरता के इस बोध के बावजूद प्यार के प्रति उनके भीतर एक अलग ही तरह की आश्वस्ति है. आखिर हिन्दी के शीर्षस्थ रचनाकारों में प्रतिष्ठित होने के बाद भी अपनी मातृभाषा अवधी में 'अमोला' जैसा प्रबंधकाव्य उन्होने ऐसे ही थोडे दिया होगा. शायद यही वजह है जो नश्वरता का उनका बोध बाद में और गहरा होता गया-

आदमी जी रहा है मरने को

सबसे ऊपर यही सच्चाई है

नश्वरता के इस बोध के बावजूद उन्हें यह बोध भी है कि अभी अपनी पारी वह पूरी खेल नहीं पाए हैं. अभी ऐसे बहुत सारे काम बचे हैं जो उन्हें ही करने हैं. तभी तो वह कहते हैं -

कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम

धुन कहाँ वह संभल के आई है

और इसीलिए मुझे अब भी यह विश्वास नहीं हो रहा है कि शास्त्री जी नहीं रहे. आखिर सिर्फ उनसे ही हो सकने वाले बहुत सारे काम जो अभी बाक़ी पड़े हैं, उन्हें कौन पूरा करेगा?