कटघरे / संजय अविनाश

Gadya Kosh से
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चैत-वैशाख की कड़ी धूप हो या सावन-भादो की मूसलाधार बारिश, माथे पर जिम्मेदारियों की लकीर गहराती ही जाती है। उम्र के साथ बोझ में भी परिपक्वता आना तय है। सुबह के चार बजे ही साइकिल के पिछले हिस्से पर चदरा का बक्सा बांध और आगे हैंडल में चार-पांच झोले को लटकाकर घर से आठ-दस किलोमीटर दूर निकल जाता था अमर। उधर से आइसक्रीम लिए और बीच में अवगिल, हुसैना, पहाड़पुर, खावा गांवों को लांघते समय आधा बक्सा माल बेचकर घर मेदनी चौकी पहुंच जाता, तब तक सूर्य भी किशोरावस्था में उमंग पर होता। उसके छोटे-छोटे दोनों बच्चे बगल के प्राथमिक विद्यालय चांद टोला पढ़ने चले जाते। अमर कभी-कभी मायूस भी हो जाता। बस, यही सोचकर कि एकाध आइसक्रीम वे दोनों भी खा लेते। उस समय तो और भी परेशानी महसूस होती, जब छोटे-छोटे बच्चे झुंड बनाकर चारों तरफ से घेर लिया करते और तोतली आवाज में पहले मुझे तो पहले मुझे की रट लगाया करते।

दरअसल, यह कहानी एक मेहनतकश इंसान की है, जो जीवन पर्यंत अपने परिवार को ही अहमियत दिया, ताकि उसके बच्चे कड़ी धूप में पिता की तरह खून न जलाए. माँ और पत्नी घर से बाहर कदम न रखे। ईश्वर ने ही पुरूष होने का दायित्व समझा दिया था—मेहनत करना, इज्जत आबरू को सँजो कर रखना।

अमर के पिता की मृत्यु जन्म से तीन-चार वर्ष पश्चात ही हो चुकी थी। माँ ने ही पिता के दायित्व को निभाया और लालन-पालन किया। होश संभालने क बाद ही बेटे की शादी सविता से तय हुई और मात्र पंद्रह-सोलह वर्ष की अवस्था में दो की देखरेख करने की जिम्मेदारी आ पड़ी। 20-22 वर्ष की उम्र में तीन-तीन बच्चे भी। बड़ी बेटी तो अनायास ईश्वर की प्यारी हो गई. दोनों बेटे को माँ और पत्नी सविता संभाली हुई थी। पिता के द्वारा अर्जित दो धूर जमीन भी नहीं, सारा दारोमदार स्वस्थ शरीर पर ही था।

एक दिन संध्या पहर बड़ा बेटा अनल दादी से बोल रहा, "दादी, जब कभी डुगडुगी की आवाज आती है, साथ बैठे बच्चे चिल्लाने लगते हैं, सबसे अधिक सोहन और मोहन। वह चुट्टी काटते हुए बोलता है, डुग-डुग... फिर कहता है, देखो, अनल का बाप इसक्रीम बेचता है।" इतना बोल अनल मायूस हो गया।

दादी पुचकारती हुई बोली, "यह तो अच्छी बात है, बुरा नहीं मानते।"

"नहीं दादी! वह मजाक उड़ाता है।"

दादी-पोते की बात अमर ने भी सुन लिया था। तब से और गंभीर हो गया। उस विद्यालय के सामने जाना मुनासिब नहीं समझता, न ही उस रास्ते से गुजरना। ताकि इस अबोध मन में हीनता का भाव न उपज पाए.

जब सभी माल (आइसक्रीम) बिक जाते तो अमर संध्या पहर घर की ओर रूख करता। घर पहुंचते ही साइकिल की खरखराहट सुन अमन और अनल दौड़ पड़ते। अमन, अनल से तीन वर्ष छोटा था। दिनभर की थकान अमर में साफ झलकती थी। दोनों बेटों की निगाहें बक्से पर टिकी रहती। शायद ही किसी दिन पैसों वाला आइसक्रीम मिलता। प्रायः गला-झड़ा आइसक्रीम ही हाथ लगते, तो कभी उसके बचाव में लगाए गये बर्फ से ही संतोष करना पड़ता। सफेद बर्फ के टुकड़े को ही समेट लेता, उसे पानी में डूबो, घुलने देता और खुशी-खुशी गटक जाता। पत्नी सविता सभी टंगे झोले को एक-एक कर घर ले आती। इस कार्य में जिस झोले में कम अनाज होते, उसे दोनों बच्चे के हाथों थमा देती। न-न कहते हुए भी अनल और अमन एक हाथ में आइसक्रीम तो दूसरे हाथों में झोला लिए घर के आंगन में ही पटक देता। उस दिन की तलाश में दोनों रहते, जिस दिन आंधी, तूफान और बारिश हो। कारण उस दिन वही आइसक्रीम खाने को मिलता, जो विद्यालय में साथी बच्चे खाते थे। एक की मेहनत से पूरे परिवार खुशी-खुशी जीवन व्यतीत कर रहे थे। इस तरह समय के साथ अनल चौथी कक्षा में प्रवेश कर गया और अमन दूसरी में। उम्र भी एक का दस वर्ष तो दूसरे का सात वर्ष। इस बीच घर में एक लक्ष्मी भी आ चुकी। सविता के साथ माँ की भी इच्छा थी कि एक लक्ष्मी आ जाए. माँ हमेशा कहती थी, "बेटी के बिना घर में लक्ष्मी वास नहीं करती।"

ऐसा मान्यता भी है। दरअसल, सर्वप्रथम घर में बेटी ही आई थी। लेकिन ईश्वर की कृपा कही जाए, दो-ढ़ाई वर्ष बाद ही बड़की माता (चेचक) के साथ चली गई. तब से चेचक व ईश्वर नाम से माँ और सविता झल्लाती थी, तो डरती भी कम नहीं थी। खासकर माँ इतना तो ज़रूर समझती थी कि ईश्वर सर्वोपरि है, उनके बिना कुछ भी संभव नहीं। अंततः ईश्वर से प्रार्थना करती रही और एक लक्ष्मी का आगवन हुआ। अमन और अनल की खुशी में चार चांद लग आया। उसकी लाड़-प्यार में मस्त रहने लगा। छोटी सबकी प्यारी लगने लगी।

एक मजदूर के लिए छोटा परिवार नहीं कहा जाए और बड़ा भी नहीं, अमर मानता था-"अब इससे छोटा परिवार कैसे कहला सकता है। हाँ, कागजी दायित्व से अधिक एक बेटी आई थी, जो लक्ष्मी थी, सृष्टि थी। बाकी परिवार में तो खुद मैं, पत्नी सविता, माँ और दो बेटे व एक बेटी."

माँ हमेशा बताती, "बेटा, दुनिया में कुछ भी नहीं है, परिवार ही सर्वोपरि है, उसकी देखभाल व इज्जत प्रतिष्ठा के साथ बच्चों को अच्छे संस्कार देने के सिवाय और क्या... धन-संपदा तो आयी-गयी है।" इन बातों के बीच 'पूत कपूत तो क्यों धन, पूत सपूत तो क्यों धन' , कहना नहीं भूलती।

जब मेरी शादी हुई थी, तो माँ समझायी थी, "नारी घर की लक्ष्मी होती है। जब तक पिता और पति जीवित रहे, घर की बहू व बेटी को चौखट से बाहर कदम नहीं रखनी चाहिए."

माँ के द्वारा कही गई बातों को गांठ बना लिया मैंने। जी-जान से खटने लगा। कभी थकान भी महसूस करता तो दवा की दूकान से दो टेबलेट नोभालजीन खरीद कर शरीर को आराम करने को कहता। बच्चों के परवरिश की चिंता हमेशा बनी रहती। जब कभी घर परिवार के साथ बैठना होता तो अतीत के साथ वर्तमान की बातें भी निकल आती। मेरे लिए तो माँ ही सबकुछ थी, पिता, गुरु व मित्र भी।


एक दिन मौसम खराब व बिजली नहीं रहने के कारण आइसक्रीम की पूर्ति नहीं हो पाई थी। अमर सबेरे ही घर आ गया। बच्चे तो विद्यालय चले गये। सविता भी किसी काम में मग्न थी। न जाने क्या हुआ, माँ वर्षो पीछे पंहुच गई और वही बात दुहराने लगी, जो कई बार बता चुकी थी। बोले जा रही, "अमर जब तुम लगभग चार वर्ष का था, उसी समय मैं अकेली हो गई. आसमान कहे जाने वाले वे आसमानी हो गये। ठीक तुम्हारी तरह वे भी मेहनती थे। चार-चार बहनों की शादी कर, घर बसाये। तुमसे पहले तीन बहनें जमीन पर आई. सबके सब आठ-दस वर्ष होने के बाद काल-कवलित हो गई... उन्होंने अपनी बेटियों के लिए क्या नहीं किया। ... यहाँ से लेकर पटना तक खाक छानते रह गए... कोई टीबी के साथ होके रह गई तो कोई चेचक के संग चली गई. ठीक तुमसे बड़ी बहन अहल्या थी, दस वर्ष की रही होगी, ईश्वर ने उसे भी अपने पास बुलाना चाहा... बस, इतना समझो कि बरामदा पर पैखाना करती थी, तो आंगन होते हुए गड्ढे तक पहुंच जाता... छोटे-मोटे डॉक्टर से दिखाये... आखिरकार उसकी स्थिति बिगड़ती चली गई... आनन-फानन में उसे लेकर फिर डॉक्टर के पास ले जाने लगे, ईश्वर की लीला देखो... सड़क दुर्घटना में अहल्या समेत वे भी चल बसे। इस बात को दुहराते समय माँ की आवाजें भर्रा जाती थी। फिर हिम्मत करती और बताने लगी," उस समय सुना करती थी, बुरबक थे तुम्हारे पिता... बेटी के लिए इतना परेशान क्यों। ... अपनी जान की भी परवाह नहीं किया... तब से क्या-क्या नहीं भोगना पड़ा... आज तुम मेरे सामने खड़े हो, भगवान ने तुम्हें दो-दो लाल के साथ एक लक्ष्मी भी दी है... इससे ही गांव बस जाएगा। ... सँजो कर रखना तुम्हारा उद्देश्य हो... मर्जी तो ईश्वर की। "

इतना बोलती हुई माँ रुआँसी हो गई. फिर अमर के पास से दूर हट गयी। ताकि बेटे को देख अतीत के साथ उलझ न जाए. अपनी कहानी सुनाती हुई माँ असहनीय पीड़ाओं के साथ तालमेल बैठाने लगती।

उस विपरीत समय में माँ किसी दूसरे घर में चौका-बासन करके पालन-पोषण की थी। अब अमर भी नहीं चाहता कि माँ को फिर से कष्ट झेलना पड़े। पारिवारिक व सामाजिक संस्कार के कारण पत्नी तो बाहर जाती नहीं थी, चौखट से बाहर कदम रखने मात्र से घोर पाप समान मान्यता थी। इस प्रकार घर गृहस्थी मजे में चल रहा था। सविता सीधी-सादी के साथ माँ की दुलारी भी बन चुकी। मानो, 'माँ नहीं तो वह नहीं, वह नहीं तो माँ नहीं।' लगभग दस-बारह घंटे बाहर बिताने के बाद जो समय मिलता, अमर का घर में ही रहना होता, इस बीच कभी याद नहीं कि तू-तू, मैं-मैं भी हुआ हो। यहाँ तक की बच्चे भी माँ से कहीं ज़्यादा दादी से जुड़े हुए थे। अमर जब माँ कहके पुकारता तो छोटे बच्चे भी, दादी न कहके, माँ कहना ही सीख गया और दोनों बेटे माँ ही बोलने लगे। सोने से लेकर जगने तक, यहाँ तक कि सड़क पार कर स्कूल छोड़ने तक माँ अर्थात उसकी दादी के ही जिम्मे था। सविता के हिस्से अगर कुछ था, तो कभी-कभार माँ शब्द सुनाई देना, पत्नी बने रहना और एक बूढ़ी की बहू... बाकी जिम्मे घर का मुखिया माँ के हिस्से।

प्रतिकूल समय ने माँ को उम्र से पहले बूढ़ी मानने को कहा... शारीरिक श्रम व प्राकृतिक उपहार ने हड्डियों में मजबूती तो प्रदान की लेकिन मांसल व मानसिक रूप से कमजोर बना दिया। चेहरे पर झुर्रियाँ व सफेद बालों से पचास की उम्र में अस्सी पार जैसी प्रतीत हो रही थी।

अचानक एक दिन माँ की तबीयत खराब हो गई. शायद काफी बेचैन हो गई थी। अमर तो दिनभर काम में रहता था, संध्याकाल घर आया था, आते ही पता चला माँ को लेकर कुछ लोग डॉक्टर के पास गये हैं। सुनते ही उल्टे पैर बाज़ार की ओर रूख कर दिया। पहुंचते ही देखा, सविता को बगल में बैठाकर माँ कुछ बोल रही है, आराम भी बता रही थी, लेकिन हाथों में सूई के साथ सलाइन भी लगा है। इस हालात में भी सविता को समझा रही, "बहू, आप चिंता नहीं करोगी, मैं अब ठीक हो गई हूँ। अमर के आने से पहले घर पहुंच जाऊंगी। वरना, वह हताश हो जाएगा, उसके माथे ढेरों बोझ है। कहीं वह चिंतित न हो जाए? अरी! मेरा क्या... बहुत देख ली है दुनिया।"

माँ की बात सुन अमर पीछे हट गया, लेकिन जब माँ की तबीयत खराब हो, भला कितना मान रखता? उनकी बातें खत्म भी नहीं हुई कि अमर करीब पहुंचते हुए बोला, "माँ, मैं आ गया हूँ।"

"अरे! किसने कहा तुम्हें, मैं तो अभी जाने ही वाली थी। डॉक्टर साहब को बताई, मैं जाती हूँ, लेकिन उन्होंने माना ही नहीं और लगा दिया बोतल।"

फिर पास बुलाकर अमर के कानों में फुसफुसाई, "तुम समझते नहीं हो अमर, डॉक्टर का ये सब धंधा है, पानी चढ़ायेगा तब तो रूपैया बनेगा, फिर बेटा-बेटी को बढ़िया घर में बियाह करेगा, सरकारी बाबू बनाएगा।"

उसकी बातें सुन इशारों में अमर ने कुछ समझाया और डॉक्टर के पास जाकर बात किया। उन्होंने जो बताया, अमर को हतोत्साहित कर गया। फिर माँ को साथ लेकर घर आ पहुंचा। पेट का दर्द कभी कम तो कुछ ही देर में तीव्र हो जाता। यह सब होते देख, सविता की मायूसी समझ में नहीं आती।

थोड़ा आराम मिलते ही माँ सविता को समझाने लगती, तो क्षण भर में अमर को। फिर अमन, अनल को पास बैठा पुचकारती हुई बोली, "मेरी लक्ष्मी बिटिया किधर है, उसे भी बुलाओ." मानो, इन सबों से दूर जा रही है।

बेटे के हटते ही सविता को समझाने लगी, बहू, अब मेरा काम भी तुम्हारे जिम्मे, मैं दो दिन का मेहमान हूँ। ... अमर ने बहुत मान रखा... घर गृहस्थी को सुचारू रूप से चलाते आया... अभी भी बाहर का काम उसी के हिस्से है, जब तक कि ईश्वर, दोनों लाल को उसके बराबर न कर दे, घर तो आपही संभालोगी... दोनों बेटे व प्यारी लक्ष्मी पर ध्यान दोगी? " फिर पेट को सहलाने लगी। दर्द को दबाती रही। वह समझ चुकी थी, यह सब देख सविता हताश हो जाएगी। यही सोच सविता को घर का काम करने के लिए जाने को बोली और सविता भी अपने काम में लग गई.

दिनोंदिन माँ की परेशानी बढ़ने लगी, उन्होंने अपनी वेदना छुपाए रखा। एक दिन अचानक आधी रात आंगन में आग की लौ धुधियाने लगी। आनन फानन में अमर बाहर निकला, आग की लौ देखते ही अवाक रह गया। सोचा पहले लक्ष्मी को बाहर निकाल लूँ, फिर माँ के साथ सोये अनल और अमन को भी। कारण खरपतवार का घर था, कहीं अनहोनी न हो जाए... लेकिन इसके पहले तो संदेह के घेरे में आ गया कि आखिर इस आग के साथ झगड़ कौन रहा है?

बिना सोचे घर के अंदर प्रवेश कर गया ताकि लक्ष्मी को बाहर कर लूँ। माँ तो बरामदे पर सोई हुई थी। ठंड का मौसम था, अंदर जाने के बाद कंबल पर नजर पड़ी और लक्ष्मी को छोड़ कंबल उठा बाहर निकल आया। लहलहाती आग पर फेंक दिया। ... उस समय आग भी यौवनावस्था में चूर थी। कुछ ही देर में आग की लपटें धीमी पड़ गई और सविता मरणासन्न की स्थिति में जमीन पर गिरी हुई. जलन तीव्र होगी। सविता इतना ही बोल पा रही थी, "मैं जा रही हूँ! माँ के बिना मेरा जीना क्या।"

अब तक माँ भी जग चुकी। अँधेरे में आग की टिमटिमाहट देखते ही उसकी आवाजें गुम हो गई. आसपास के लोग भी खुद-ब-खुद जग गये। रात भी जवानी पर थी। तत्क्षण पड़ोसियों की मदद से खाट पर लिया और उसी डॉक्टर के पास पहुंच गया, जहाँ माँ इलाजरत थी। डॉक्टर भी सविता को देख दंग रह गये। लगभग अस्सी प्रतिशत पर आग ने कब्जा जमा रखा था। लगभग छः-सात घंटे पानी चढ़ता रहा। बीच-बीच में कभी जलन कम होने की सूई तो कभी नींद बुलाने की—-लेकिन सविता की बेचैनी कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अहले सुबह अनल को साथ लिए माँ भी आ पहुंची। आस पड़ोस में यह बातें आग की तरह फैल गई कि अमर की पत्नी जल चुकी है, बचना मुश्किल है। यह किसी को मालूम नहीं, कहाँ है, स्थानीय बाज़ार या मुंगेर?

अनल को देखते ही अमर का रोम-रोम खड़ा हो गया। उसकी माँ मरणशैय्या पर पड़ी और आँखों के सामने छोटे-छोटे बच्चे। अमर की इच्छा नहीं थी, माँ ही बोली, "अनल को माँ से भेंट करवा दो।"

शायद माँ कुछ अनहोनी का होना समझने लगी। बेटे की चुप्पी देख माँ समझ चुकी कि हताशा की वेला साथ आने वाली है। उसने स्वयं अनल को लेकर सविता तक पहुंची। माँ को देखते ही अनल डर गया और चिल्लाते हुए भागा, "नहीं! यह मेरी माँ नहीं है। मेरी माँ घर में है।"

किसी तरह अनल को घर छोड़ आया। माँ ऐसी परिस्थितियों से सामना कर चुकी थी। उसकी भी हताशा काबू में नहीं। अमर को ढांढ़स बंधाती रही। एक किनारे बुलाकर, माँ कहने लगी, "अमर, विपत्ति बोलकर नहीं आती, अनायास आती है और काफी मशक्कत के बाद जाती है। इस समय वह धैर्य मांगती है। धैर्य ही आभूषण है। ईश्वर की लीला है और मनुष्य बने रहने का कर्तव्य भी।"

अमर की चुप्पी देख, समझ गई. ऊबड़-खाबड़ रास्तों को लांघ चुकी थी। असहज होती हुई भी अमर से बोली, "दूसरा कोई साधन नहीं, धैर्य के सिवाय, साहसिक बने रहना।"

इतने में ही सामने पुलिस की गाड़ी खड़ी हो गई. थाना भी मुश्किल से हाफ किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित। स्थानीय लोगों की कानाफूसी ने पुलिसकर्मी तक खबर पहुंचा दी होगी। एक वर्दीधारी ने अमर का हाथ पकड़ गाड़ी में बैठा लिया और एक ने माँ को किनारे कर खड़ा रहा। यह संयोग था कि अनल नहीं था। न जाने, होता तो उसपर क्या गुजरता... माँ दुनिया को अलविदा कहने के लिए तैयार और दादी, पिता पुलिस गिरफ्त में।

तीन-चार और थे, जिसमें एक दारोगा मालूम पड़ रहा था। वे लोग सविता के पास जाकर, एक पन्ने पर कुछ लिखने लगे। सविता बोलने की स्थिति में नहीं थी। पूरे बदन फफोले उग आए थे। मानो, बदन के अंदर उबला हुआ पानी भर दिया हो। फिर भी कुछ बातें इशारों में, तो कुछ बुदबुदा कर बोल रही थी। उसकी बातें अमर के कानों तक नहीं पहुंच पा रही थी। उसकी इशारों को कुछ-कुछ समझ रहा था।

दारोगा अमर के पास आया और डांटते हुए बोला, "सुनने में आया कि तुम्हारा किसी के साथ अवैध सम्बंध चल रहा है? पत्नी सीधी-सादी है, उसका फायदा उठाते हो? मर्दानी गुल खिलाते हो? उसने विरोध न किया कि रास्ते से हटाने का स्वांग रच डाला? यह तो पड़ोसियों का काम रहा, जो ऐन वक्त पर जग गये और तुम्हारी करतूत सामने आ गई, वरना तुम तो सफल हो जाते?"

एक साथ उन्होंने कई बातें बोल दी। उनकी बातें सुन बेचैनी बढ़ गयी। अमर ने सिर्फ़ इतना कहा, "हुजूर! माँ से पूछ लें, पड़ोसियों से जानकारी ले लें, सविता से बात हो ही चुकी है।"

उसने डांटते हुए कहा, "किसी की माँ चाहेगी कि मेरा बेटा फंस जाए?"

उनकी बातें हवा में तैरती रहीं। अमर का ध्यान सविता की ओर गहराता गया। इशारों में जो बता रही थी, वह स्वयं की ओर इशारा था।

समय को देख दारोगा साहब ने फैसला लिया और अमर को हिदायत देते हुए कहा, "इसे सदर अस्पताल ले जाओ, मृत्यु नहीं होनी चाहिए और जब कभी बुलाऊँ तो थाना आ जाओगे।" इतना बोलते हुए दलबल के साथ निकल गये। हाँ, जाने से पहले उस कागज पर भी दस्तखत ले लिया, जो उन्होंने सविता से पूछताछ के समय दर्ज कर रखा था।

कुछ ही देर में कपड़ा-लत्ता मंगवाया और घर में पड़े रूपये भी, जिसमें लगभग पांच-छः सौ रूपये की रेजकी भी थे। जिसे लेकर सुबह में जाना होता था, ताकि आइसक्रीम खरीदकर बेच सकें। पैसे निकालते समय अनल देख लिया था। वह भी आश्वस्त हो चुका कि माँ बीमार पड़ गई. उसने भी गुल्लक फोड़, रेजकी देते हुए बोला, "माँ को अच्छे-अच्छे खाना देंगे और दवाई भी।" उसका मातृप्रेम ने काठ बना दिया। उसकी बातों ने रोम-रोम में सिहरण पैदा कर दिया। तत्क्षण अपनी दोनों आँखें भींच लिया, ताकि आँसू वहीं ठहर जाए.

इस प्रकार दो सौ रूपये अमर के हिस्से का और लगभग चार सौ रूपये बेटे का माँ के लिए.

डॉक्टर साहब भी नेकदिल इंसान ठहरे, उन्होंने भी कुछ रूपये दिया और उसी समय मुंगेर सदर अस्पताल के लिए निकल चला। गाड़ी पर सविता को लिटाते समय आंखें भी बह चली। माँ देखकर मायूस हो गई, फिर भी चुप्पी साधी हुई, गठरी से सौ, पचास, दस और पांच के नोट की गड्डी देती हुई बोली, "अमर, इसी दिन के लिए रूपये काम आता है, लेते जा। सोची थी, इस बार सविता के लिए एक पायल खरीद देती। यह भी ठीक ही हुआ। पायल तो साथ नहीं जाती न, यह हमेशा साथ रहेगा।"

सदर अस्पताल पहुंचने के बाद भी इलाज से पहले सैकड़ों बातें, बालू घर, थानेदार तो नाक भौहें सिकोड़ने वाले; स्वास्थ्य कर्मी के भी नखरे हजार।

अमर ने स्वास्थ्य कर्मी से काफी मिन्नतें किया। हाथ-पैर जोड़ा। घंटों बाद एक कर्मी ने कहा, "रूको, देखता हूँ।"

तब से अमर की निगाहें उस कर्मी की ओर टकटकी लगा रखी थी। ठीक उस पिल्ले की तरह, जब अनल आंगन में घूम-घूम कर हाथ में रोटी लिए खाता था और पिल्ला पिछलग्गू बने घूमता था।

आखिरकार मिन्नतें काम आई. अनमने ढ़ंग से ही सही, किंतु सविता का इलाज शुरू हुआ। प्रत्येक दिन जख्म को रगड़-रगड़कर साफ करना ही उचित इलाज जैसा था।

साफ करते समय अमर कराह उठता। सविता की कराह से पहले अमर की आवाज निकल आती, "आह! इतनी जोर से नहीं।" आह! के बाद भी हाथों में नरमी न देख,

स्वास्थ्य कर्मी का हाथ पकड़ गिरगिराते हुए कहता, "अभी छोड दें, कुछ देर बाद करेंगे, आराम हो जाने दें।"

जख्म पर रगड़ से खून निकल आता। उस खून और सविता की कराह ने अमर को असहज कर दिया। आंखें बंद कर, आह! आह! की आवाजें निकलती रहती। तत्क्षण डॉक्टर आया और अमर से कहा, "निकलो, बाहर जाओ यहाँ से।"

फिर उन्होंने स्टाफ नर्स से कहा, "पूरी तन्मयता के साथ सफाई करो। सेवा करना ही काम है, कोई कोताही नहीं।"

डॉक्टर के निकलने तक अमर वहीं दरवाजे के बाहर छुपा रहा। बस, इसी आस में कि कब वे बाहर निकले। डॉक्टर के बाहर निकलते ही वह अंदर प्रवेश कर आया। सविता की कराह मन-मस्तिष्क को क्षत-विक्षत कर दिया।

अमर से रहा नहीं गया और स्टाफ नर्स के हाथ पकड़कर कहा, "दीदी! धीरे-धीरे!"

वह बिगड़ गई. हाथ को झिड़ककर, आंखें लाल करती हुई बोली, "गेट आऊट! डोन्ट डिस्टर्ब मी!"

मानो, उसकी निजी ज़िन्दगी में दखल दे डाला। तब से चुपचाप बगल में खड़ा रहा, सविता की वेदना को पीता रहा। थोड़ा लाल रंग की दवाई और बाल्टी भर पानी से जख्म को कुरेदती रही और किसी के इशारे पा निकल चली। फिर बगल वाले रोगी के पास घंटों कोई लाल लोशन से हँस-हँसकर सफाई में लगी रही। जैसे कि किसी पथिक के लिए अस्पताल में छायादार वृक्ष मिल गया हो और चाहता हो कि मन भर आराम कर लूँ। सविता की ओर उसकी निगाहें तनिक भी नहीं ठहरती, मानो, सूखी डाली हो। बगल वाले मरीज जहाँ सप्ताह भर में सुधार हो, घर की बात करने लगते, वहीं पखवाड़े बाद भी सोच रहा था, सविता की जान लौट आए तो तीनों बच्चे सलामत रह जाएंगे।

आसपास के सैकड़ों गांवों का शहर मुंगेर ही था। कोर्ट-कचहरी हो, डॉक्टर-वैद्य हो या खरीददारी, लोगों का आना यहीं होता था। सरकारी अस्पताल भी बस स्टैंड से कुछ ही दूरी पर। गांव वालों से आते-जाते भेंट हो जाती थी। ठीक सुबह-सुबह एक आदमी से मुलाकात हुई और उसने खबर दिया कि लक्ष्मी रात में सोई तो सुबह तक जगी ही नहीं। अनल ने देखा, उसके मुँह पर चींटी लटकी हुई थी और मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। फिर उसे उठाने का प्रयास किया, लेकिन वह सोई रही।

अमर को बिना बताए बगल की नदी में प्रवाहित भी हो चुकी थी। वह समझ चुका कि यह पहाड़ दिल हौसला माँ की ही होगी। वह नहीं चाहती कि मेरी उलझनें बढ़ती जाए. इस खबर से और टूट चुका था अमर। ससुराल वाले तो मानो आग बबूला हो गये हों। सविता की खबर सुनकर भी किसी ने देखने तक नहीं आए. जुबान से तोपें की आवाज ज़रूर आ रही थी। सुनने में आया कि वे लोग बोल रहे हैं, मर तो जाए, फिर बताऊँगा।

इस विकट परिस्थिति में एक माँ ही हौसला बनाई रखी थी और बेटी की मृत्यु को भी छुपाई रखी।

बीते दस दिनों में कानोकान सगे-सम्बंधियों तक सविता के साथ हुई घटनाएँ फैल चुकी। अमर के चचेरे भाई किशनगंज में रहते थे। अपना खून समझ उनका आना हुआ। उन्हें मालूम चल गया कि सविता को लेकर सदर अस्पताल मुंगेर में है। वे सीधे अस्पताल ही पहुंच गए. अब सविता भी बात करने की स्थिति में हो चुकी थी। उन्होंने सविता से काफी देर तक बात किया। सविता जब बोली, "मैं खुद मरना चाही। मैं माँ के बिना जी नहीं पाऊंगी। उनसे पहले मैं मृत्यु संग हो जाना चाहती थी। लेकिन ईश्वर को यह कबूल नहीं।"

इतना सुनते ही ताव में आ गए और क्रोधित हो अमर से कहा, "अमर, मरने दो इसे। बगल में गंगा है, चलो फेंक आते हैं। तुम्हारी शादी मैं करवा दूँगा। ऐसी औरतें न ही गृहिणी कहलाती है और न ही माँ।"

उनकी बातों में आक्रोश साफ झलक रही थी। अमर उन्हें बाहर ले गया। फिर भी आक्रोश सीमा लांघने पर उतारू। उन्होंने फिर कहा, "ऐसी औरत को पत्नी कहोगे? अरे! यह खुद जाएगी, घर परिवार को भी नाश कर देगी?"

अमर की आखिरी बात निकली, "भैया, छोटे-छोटे बच्चे हैं। उसकी देखभाल कौन करेगी... माँ, माँ होती है।"

वे तुनक पड़े और तत्क्षण वार्ड से बाहर घर के लिए निकल गये। बिना बोले माँ को मेरी स्थिति समझा-बुझा, अपने साथ लिए किशनगंज चले गये।

सविता के जख्म में लाली छाने लगी। हाँ, सफाई में दो-चार घंटे भी विलंब होता तो बदबू आने लगती। मानो, कई दिनों से सड़ा-गला मांस का लोथड़ा रखा हो। वार्ड में मौजूद मरीज भी बुदबुदाना शुरू कर देते। अंदर कोई भी प्रवेश करते तो मुँह पर मास्क या कपड़ा लपेटे आते थे। अस्पताल से छुट्टी की भी बातें चलने लगी। छुट्टी से पहले डॉक्टर और नर्स ने समझाया, "अब से इसकी देखभाल तुम्हारे जिम्मे। साफ-सफाई व खानपान पर ध्यान दोगे। वरना, जला हुआ मरीज महीनों दिन बाद भी भगवान के प्यारे हो जाते हैं।" उसकी बातें सुन फिर सिहरण ने दस्तक दिया। सविता की ओर एक नजर दिया। वह भी अस्पताल से उकता गई थी। आखिर में छुट्टी मिली और उस लिए एक ठेला गाड़ी से घर पहुंचा। घर पहुंचते ही आसपास के लोग इकट्ठे हो गए. दुआएँ भी मिल रही थी तो कोई मन-ही-मन कोस भी रहे थे। हाँ, कानों तक आवाज आ रही थी, "बेचारी की बेटी तो चली ही गयी, अब दोनों लाल सही सलामत रहे तो वंश बढेगा, ओसारे पर भी बैठी रहेगी तो बेटा बिन माँ के नहीं कहलाएगा।"

बीते पंद्रह दिनों में रूपये पैसे भी साथ छोड़ गये। इससे भी बड़ी परेशानी सेवा-टहल करने वालों की। अब तक तो अनल और अमन का पड़ोसियों के द्वारा पेट भर रहे थे, सूखी रोटी ही सही, मिल जाती थी, अब कैसे? सविता की सेवा के लिए कोई अपनों की ही ज़रूरत थी। दूसरे लोग पेशाब-पैखाना करवाने से लेकर घाव की साफ-सफाई में आनाकानी करते। कोई अपना ही चाहिए. इसके घर वाले तो अनाप-शनाप ही बके जा रहे थे। जबकि अमर को लगा, वे लोग बहाना बना रहें हों, ताकि विकट परिस्थिति में रूपयों की मांग न कर दूँ। इसी ख्याल से आने से कतराते रहे और उल्टी-पुल्टी बातें भी किए जा रहे थे।

अचानक अमर के दिमाग में आया, मीना। जो सविता की मौसेरी बहन थी। उसकी समझदारी से पहले भी वाकिफ था। पति शराबी के साथ क्रूर भी थे। परदेस में काम करते थे और वहीं अपने में मस्त भी। दो-दो बच्चों को संभाल रखी थी। ऊंची शिक्षा तो नहीं दिलवा पाई लेकिन काम चलाऊ बना दी थी। अब दोनों बेटे काम करने लगे थे और घर गृहस्थ ठीकठाक चल रहा था। इस समय वैसे लोगों की ही ज़रूरत थी, उसे लाने का मन बनाया और चल दिया। वह घर पर ही थी। उसे अपनी परेशानी बताई, वह आने को तैयार हो गई. इस बात को वह न तो अपने मायके और न ही अमर के ससुराल वालों को बताई.

अमर अब घर में अकेला नहीं रहा। मीना दिलोजान से सविता व दोनों बच्चों की सेवा में लग गई. मानो, अपनी संतान हो। उसके आने के दो-तीन दिन तो हुआ ही था कि डाकिया ने एक जली हुई चिट्ठी दे गया, वह तार था। जो किसी की मृत्यु के उपरांत ही भेजी जाती है। उसे पढ़ते ही सन्न रह गया। पैरों के नीचे जमीन ठहरी हुई नहीं मालूम पड़ रही थी। आँसू भी बाहर आने को बेताब दिखी, तब तक अमर आंगन से बाहर निकल आया और आँसू को खुद में समा लिया।

सारी दुनिया का बोझ उसी के माथे उछल-फान करने लगा। इस अनहोनी घटना को सिर्फ़ मीना को बताया।

ठीक तीसरे दिन लक्ष्मी की विदाई के उपरांत नौवा-ब्राह्मण करना था। अब वह भी उसके हिस्से में नहीं, ठहर-सा गया उसके भोजन।

अहले सुबह अनल को साथ लेकर घर से किशनगंज के लिए निकल गए. मुंगेर होते हुए गंगा पार कर खगड़िया पहुंचना था। गंगा के बीच मझधार में मन ने कहा, तुझे भी प्रवाहित होना है इसी धारा के साथ, यही तो ठौर है, जहाँ भागदौड़ नहीं, चिर शांति है। फिर किसी अज्ञात शक्ति की आवाज आई, "नहीं! अभी नहीं। ... पूरे संसार खाली है, ठिकानों के लिए."

गंगा के पार सविता का घर भी था। संयोग से स्टीमर पर चचेरे साले को भी देखा। संभवतः पहले उन्होंने ही देखा होगा, जिसे अमर ने मुड़ते हुए देखा, फिर उनसे आंखें नहीं मिल पाई. स्टीमर से उतरते ही खगड़िया के लिए गाड़ी खड़ी मिली, खगड़िया से कटिहार और कटिहार से किशनगंज रात्रि लगभग दस बजे पहुंच गए. माँ की मृत्यु की जानकारी अमर को थी और लक्ष्मी की विदाई के बारें में अनल को। उन दोनों को मालूम था कि यह बातें अपने-अपने हिस्से की है। इसलिए कि दादी अनल को समझा दी थी, किसी को नहीं बताने के लिए.

भैया के घर पहुंचते ही अमर उत्सव जैसा माहौल देखा। जैसे कोई बोझ माथे पर से उतर गया हो या फिर किसी अमूल्य संपदा की प्राप्ति हुई हो। भैया कि पत्नी चिहार-चिहार कर चुहलबाजी करने में लगी थी। उसकी हँसी से साफ बनावटीपन झलक रही थी। दरअसल, वर्षों पहले रामेसर गांव छोड़ किशनगंज में ठिकाना बना लिया था। वह अंतर्जातीय विवाह कर समाज से दूर हो गया था। उस समय अंतर्जातीय विवाह समाज में मान्य नहीं था और उसकी पत्नी दबंग जाति से थी। गांव में रहने का मतलब था, कभी भी अनहोनी का हो जाना। तब से किशनगंज के हो गया।

भाभी ने अमर से कहा, "अरे! अच्छा हुआ यहाँ आ गई, तीन-तीन दिनों तक जलती रही। तीन सेलिया बत्ती से अस्थी ढूंढ़ते रह गये, फिर भी मिलना मुश्किल हो गया। सबकी इच्छा थी कि कुछ मिल जाए तो गंगा लाभ करा देते... और वहाँ तो लकड़ी मिलना भी मुश्किल था। भले गंगा लाभ हो जाए लेकिन पूरे धर को बहा दिया जाता, माछ-मछली नोच-नोच।"

इस वाक्य को पूरा नहीं कर पाई, शायद पति रामेसर से आंखें टकरा गई होगी। फिर बात बदल शुरू हो गई, "ऐसे भी बेचारी निपुण आत्मा की थी। कोई कष्ट भी नहीं हुआ। ... खाई-पीयी और सोते समय अचानक पेट में दर्द... मालूम भी नहीं चल पाया ... हाँ, सभी बाल-बच्चों से पानी भी पी ली और चल बसी. एक बात समझ में नहीं आई, मरते समय भी बेचारी किसी को नहीं ढूंढ़ी, न जाने कैसी तकलीफ थी। इतना ज़रूर बोल रही थी कि अमर को नहीं बताने के लिए."

फिर अमर की ओर मुस्कान बिखेरती हुई बोली, "अमर, इस संसार में मात-पिता से बढ़कर और कोई नहीं। आपका कोई दोष नहीं। ई तो घोर कलजुग है। सबकी यही कहानी। बेचारी अपनी जान पुतोहू में दे, खुद स्वर्ग की ओर चली गई."

अनल थक चुका था। बड़ी माँ की बातें सु, अचंभित हुआ। समझ गया, दादी नहीं रही। इस बीच बेटी लक्ष्मी और सविता के लिए दो शब्दभी नहीं... रामेसर व उसकी पत्नी रामवती के द्वारा। अमर के भैया भी खुद को भाग्यवान समझ रहे थे। वे भी बोलने लगे, "असली बेटा तो मैं हूँ। धरम का बेटा हूँ। भला आग ग्रहण करना थोड़ी बात है?"

अमर की चुप्पी के साथ मायूसी भी दबी रही। पत्नी की खातिर माँ के अंतिम दर्शन से चूक गया था। आबोहवा को गले के अंदर उतार सुबह होने की बाट जोहता रहा और वह भी बड़ी कठिनाई से दस्तक दी। अविस्मरणीय पल का साक्षी बना। जब एक साथ बेटी और माँ के श्राद्ध कर्म को देख रहा था। एक तरफ भैया तो दूसरी तरफ अनल सफेद कपड़े को धारण कर बैठे थे। एक के सामने दुनिया वीरान तो दूसरे के लिए भाग्यशाली होने की खुशी प्रौढ़ता की ओर थी।

श्राद्ध कर्म के पश्चात घर के लिए चलना था। वे लोग भी समझ चुके, घर में कितनी परेशानी आ घिरी। भैया-भाभी अमर से कहने लगे, "यहीं छोड़ दो बच्चे को, घर में देखने वाला कौन है?"

अनल को छोड़ने की हिम्मत नहीं अमर में। एक को बचाने में दो जानें चली गईं। अंतिम दर्शन से भी वंचित रह गया था। घर से निकल रहा था तो पीछे से भाभी की आवाज सुनाई पड़ी। वह अपने पति से बोल रही थी, "बच्चा को भी बरबाद कर देगा, यहाँ रहता तो पढ-लिख भी लेता। वहाँ क्या करेगा? माँ रही नहीं। अपने दिनभर इसक्रीम बेचेगा, बच्चे से भी बेचवाएगा और क्या?"

अमर अपनी आंसू को आँखों में छुपाए रखा। घर से निकलते समय भी और यहाँ से जाते समय भी। अब आंसू को बसाए रखना ही उसके हिस्से की बात बन गई. अनल को लिए घर के लिए चल दिया। गाड़ी विलंब होने के कारण व छोटी लाइन ने एक दिन देर कर दिया। खगड़िया पहुंचते-पहुंचते संध्या सात बज गए. इस समय मुंगेर घाट आना और स्टीमर मिलना मुश्किल बात हो गई. अंतिम स्टीमर शाम पांच बजे खुल जाती थी। रात्रि पहर से निजात पाने के लिए रेलवे स्टेशन से ही नाता जोड़ा और अनल को बगल में सुला लिया। खुद के लिए भी आंखें कहती रहीं, कुछ देर के लिए बंद हो जा। वह भी मन के साथ थी और बीच-बीच में खुल जाती थी। अनल निश्चिंत हो सोया हुआ था। रात्रि को भी शीतलता अच्छी लग रही थी, मानो, सुबह को रोकी हुई हो। सोचा, किसी से समय पता कर लूँ, ताकि सबेरे-सबेरे घर पहुंच जाऊँ। ज्योंही उठा कि अनल चिल्ला उठा, "माँ-माँ... मुझे छोड़कर मत जाओ... दादी भी चली गई. ... तुम नहीं जाओ."

उसकी बातें सुन अमर अवाक रह गया। उसके पीठ को सहलाते हुए कहा, "अनल, मैं यहीं हूँ! कहीं नहीं जा रहा हूँ!"

फिर अनल की आवाज नहीं निकली। वह जकड़ कर मुझे पकड़ लिया। मैं समझ चुका कि वह सपने में था। माँ से बतिया रहा था।

स्टेशन के बाहर से आवाज आने लगी, मुंगेर घाट-मुंगेर घाट। संभवतः सुबह हो चुकी। अनल को उठाया और बाहर निकल गाड़ी तक पहुंच आए, फिर आधे घंटे में मुंगेर घाट... खगड़िया से मुंगेर घाट मात्र 12-13 किलोमीटर की दूरी पर। स्टीमर लगी हुई थी, कुछ ही देर में इस पार आने को था। गंगा की धार भी मंद पड़ी हुई. मानो, अभी भी वह नींद में हो और मनुष्य जाति स्वार्थ हेतु, उसे तंग करने पर आमादा हो। स्टीमर से उतरने के पश्चात ही घर के लिए गाड़ी मिल गई, जैसे घर राहों पर आ गया हो, घर बुला रहा था, जल्दी आओ! जल्दी आओ!

घर पहुंचने से पहले ही कई निगाहें मेर ओर घूरे जा रही थी। उसकी समझ सांसारिक न होकर कहीं रम गया था। मन ही मन गुनगुनाने लगा, "रमता जोगी, बहता पानी।"

दरवाजे पर कदम पड़ते ही लोगों की बातें खासकर महिलाओं की आवाजें आने लगी, "रोने वाला तो कोई है नहीं।"

कुछ औरतें बोल रही, "अरे! उसका क्या? मरद है, फिर बियाह कर लेगा, अब तो भुगतना होगा दोनों बच्चे को न, सतेली माँ सतेली ही होती है।"

आंगन में कदम रखते ही सन्न रह गया। सविता अपनी जगह पर लेटी हुई, कोई छटपटाहट नहीं। जैसे वह रात भर जगी हो और चैन की नींद ले रही हो।

मीना की ओर निगाहें दौड़ाया, वह किसी कोने पकड़ी हुई थी। नजर नहीं आ रही थी। आखिर इतने मुंह को जवाब कौन दे पाए, अमन भी कहीं सिसक रहा होगा। मेरी निगाहें उन सभी को ढूंढ़ने में असमर्थ रही।

मुझे देख महिलाएँ तो चुप हो गई, लेकिन उसकी आवाजें अंदर ही अंदर कुलबुला रही थी। बगल से एक महिला फुसफुसा रही, "ढूंढ़ना थोड़े है, मरने से पहले जुगाड़ जो कर लिया, देखो न, आँख में पानी भी नहीं, एक माँ की कोख से आई भी नहीं?"

अब मैं कहीं खो गया। उसकी पारी समाप्त हो चुकी थी। कुछ लोग ढांढ़स बांध रहे थे तो कुछ दाह-संस्कार की बातें। ।

फुसफुसाहट में कोई कमी नहीं आई. जा चुकी सविता के पास जाकर धीमी आवाजों में कहा, "साबो, माँ बोला करती थी, बेटा, धैर्य नहीं खोओगे, लाख कुछ कर लो, कटघरे में पुरूष को ही आना है।"

अब जीवन की आखिरी वक्त सविता के लिए और नयी शुरुआत नन्हें के लिए. ... एक कंधे के सहारे सविता सुकून महसूस कर रही होगी, तीन कंधे सहारा मात्र थे... सुहागन की अर्थी जा रही थी।

लगी भीड़ से महिलाओं की आवाज आई, "हम तो उसी दिन पुलिस को बता दिए थे, जानबूझकर मारने की कोशिश की।"

साथ वाली महिला बोली, "ऊ जनम का पापी होगा। ऐसे भी घुन्ना था, तब तो बेटी मर गई, माँ मर गई और अब पत्नी भी। साबो बेचारी, देवी थी, सुहागन ही रह गई."