कट टू दिल्ली / उमा शंकर चौधरी

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कम से कम इस एक बात से तो हम सब सहमत होंगे कि किसी पात्र का नाम बच्चा बाबू एक बढ़िया नाम नहीं है। लेकिन जब पात्र का नाम वास्तव में यही हो तो हम आप क्या कर सकते हैं। वैसे बच्चा बाबू का नाम स्कूल के रजिस्टर में या फिर खेत के खतियान में बच्चा सिंह नहीं है बल्कि बिन्देश्वरी सिंह है। लेकिन अब बच्चा बाबू नाम चल निकला तो बस चल निकला। इसलिए हम भी इस कहानी में उनके इसी नाम का इस्तेमाल करेंगे।

बच्चा बाबू का नाम बच्चा बाबू क्यांे पड़ा इसको किन्हीं और तर्कों से समझने से बेहतर है कि उनकी अब की कद-काठी को ही एक बार देख लिया जाए। उनको इस उम्र में भी देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे अपनी जवानी के दिनों तक में भी काफी बच्चे लगते रहे होंगे। उनकी लम्बाई काफी छोटी थी और अपने बचपन में वे एकदम से इकहरे बदन के थे। अब तो खैर उनका डीलडौल काफी भरा-पूरा हो गया था। परन्तु इस पचपन-सत्तावन की उम्र में भी उनके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ काफी घनी नहीं थी। उनके बचपने का वह कोई दिन रहा होगा जब उनके शरीर के कारण ही उनको लोगों ने बच्चा-बच्चा पुकारना शुरू कर दिया होगा और फिर बिन्देश्वरी सिंह तो बस कागज का ही नाम बन कर रह गया होगा।

उनकी लम्बाई छोटी थी और वे गोल-मटोल थे इसलिए सड़क पर चलते हुए दूर से वे एक अंडे की तरह दिखते थे। दूर से आता हुआ अंडा। दूर जाता हुआ अंडा। दातून करता हुआ अंडा। कुएँ से पानी खींचता हुआ अंडा। वे धोती कुरता पहनते थे इसलिए उन्हें अंडे की तरह दिखने में धोती का फैलाव मदद ही करता था। उनका रंग गोरा था और उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कराहट रहती थी इसलिए किसी को भी पहली ही नज़र में वे प्यारे लग जाते थे। एक प्यारा अंडा।

लेकिन इस एक आदत का जिक्र किए बगैर बच्चा बाबू के पूरे आकार-प्रकार को खींच पाना संभव नहीं है। वे जब भी बोलते थे तो पहले शब्द को बोलने से पहले एक बार वे मुंह में उसे चबाते थे और फिर थूंक घोंट लेते थे। इस मुंह चबाने में एक खास बात और थी कि उनको सबसे पहले जो बोलना था उसी शब्द को वे मुंह में चबाते थे। ऐसे जैसे जिस भी शब्द को उन्हें बोलना हो पहली बार उसे चबाकर उसके वजूद को वे खत्म कर देना चाहते हांे। जैसे अगर उनको यह बोलना हो कि 'आज गर्मी बहुत है' तो वे 'आज' शब्द को पहले मुंह में चबाते थे और फिर थूक को घोंट लेते थे। इस तरह वे 'आज' को दो बार बोलते थे एक बार उसके वजूद को खत्म करने के लिए और दूसरी बार अपनी बात कहने के लिए। जो लोग उनकी इस आदत को जानते थे और गाँव के लगभग सारे लोग अब यह जान ही गये थे तो उन्हें उस मुंह चबाने की प्रक्रिया में ही पता चल जाता था कि बच्चा बाबू अभी किस शब्द से अपनी बात की शुरुआत करेंगे। बच्चा बाबू ठेठ गाँव के आदमी थे और कंधे पर गमछा रखकर मुंह में पान चबाते थे। उनके पास पान रखने की अपनी पनबट्टी थी। कपड़े में रखे हुए पान के पत्ते वे हर मंगल और शुक्रवार को बगल के गाँव में लगने वाले हटिया से खरीदते थे। वे पान खाते थे और उनके कुर्ते पर प्रायःपान के दाग दिखते थे। उनके कुर्ते पर दाग उनकी मासूमियत को और बढ़ाते थे। उनकी पत्नी व्हील और हिपोलीन से कपड़े धोती थीं। सर्फ एक्सल उनके घर में नहीं आता था इसलिए वे पान के उन दागांे को देखकर नहीं कह पाती थीं कि 'दाग अच्छे हैं।'

परन्तु एकदम शुरुआत में ही इस सवाल से रूबरू हो जाना ज़रूरी है कि आखिर हम एक भदेस, अंडे जैसे दिखने वाले आदमी की कहानी यहाँ क्यों लिख रहे हैं। जब उन जैसे आदमी को आज कोई पूछता नहीं है तब मैं उन्हें अपनी कहानी का नायक क्यांे बना रहा हूँ। तो यहाँ पहले ही लिखा जा चुका है कि कहानी को सच के ज़्यादा नजदीक ले जाने का यह एक प्रयास है और हम सब जानते हैं कि सच अजीब तो होता ही है और अजीब अभी कहाँ हुआ है। अभी तो आगे कहानी में ऐसे-ऐसे और पात्र हैं जो इतने अजीब हैं कि आपके लिए विश्वास करना तक मुश्किल हो जायेगा।

लेकिन इसे भी एकदम शुरुआत में ही कह दिया जा रहा है कि आपको इस कहानी को पढते हुए बहुत सारी बातें आश्चर्यजनक भले ही लगंे परन्तु अंत में आप भी मानेंगे मैंने जो कहा सब सच ही था। सच के भी अजीब-अजीब रंग होते हैं।

हमको बच्चा बाबू नाम चाहे जितना भी अजीब लगे या फिर उनका बाहरी व्यक्तित्व जितना भी अटपटा लगे लेकिन बच्चा बाबू इस चिड़ैयाटार गाँव की शान थे। आज अगर दूर-दूर तक लोग इस गाँव को जानते हैं तो इसलिए नहीं कि इस गाँव की हवा बहुत स्वच्छ है या फिर इसलिए भी नहीं कि इस गाँव में एक रिक्शा चलाने वाले राजू ने अपने से बड़ी उम्र की रजिया से शादी कर ली थी। दूर-दूर तक यह गाँव सिर्फ़ इसलिए याद किया जाता है कि इस गाँव में बच्चा बाबू रहते थे। नहीं तो इस छोटे से गाँव से लोगों का परिचित होने का कोई उचित कारण समझ में नहीं आता है। इस गाँव में बाढ़ और लेखकों को मिलने वाले विषय के सिवा है ही क्या?

वास्तव में बच्चा बाबू हड्डी जोड़ने में बड़े माहिर थे। एकदम सिद्धहस्त। उनके पास कोई डाॅक्टरी डिग्री तो नहीं थी परन्तु इसे ईश्वरीय देन ही समझ लीजिए। लोग मानते थे कि उनके हृद्य के भीतर साक्षात ईश्वर का बास था। लोग दूर-दूर से बच्चा बाबू के पास हड्डी जुड़वाने आते थे और इतिहास गवाह है कि किसी भी हड्डी को जोड़ने में बच्चा बाबू का हाथ कभी कांपा नहीं और ऐसी कोई हड्डी किसी के शरीर में बनी नहीं थी जो बच्चा बाबू के हाथ से जुड़ न सकी हो। उनकी ख्याति बहुत दूर-दूर तक थी और उनके हड्डी जोड़ने के अनेक अनोखे किस्से कई जिला-जवार तक फैले हुए थे। जिस बच्चा नाम से बच्चा बाबू कभी खुश नहीं थे वही नाम यहाँ से वहाँ तक फैल गया था और सचमुच यह नाम एक गर्व का विषय बन गया था।

बच्चा बाबू के भीतर कब इस दैवीय शक्ति का प्रवेश हुआ और ठीक किस दिन से उन्होंने इसे एक रोजगार के रूप में लिया यह तो लोगों को अब ठीक-ठीक याद नहीं है परन्तु लोग इतना ज़रूर कहते हैं कि जब वे आठवीं कक्षा मंे थे तभी उन्होंने इसकी शुरुआत की थी। हुआ यूं था कि उस समय तीन-चार लड़के एक साथ ही स्कूल जाते थे। चारों दोस्त ही थे। गाँव से स्कूल सात कोस दूर था। रास्ता काफी सुनसान था। रास्ते में एक जगह बहुत दूर तक दोनों तरफ बगीचा था और बगीचे में आम के बड़े और घने पेड़ थे। उस बगीचे के बाउंड्री बनाते हुए दोनों रास्तों के बगल-बगल शीशम के लम्बे-लम्बे पेड़ थे। अब आम के यूं घने बगीचे से गुजरते हुए बच्चों का डरना लाजिमी था। वह जेठ की दुपहरिया का कोई दिन था। सूरज तप रहा था, हवा बहुत तेज थी और स्कूल में छुट्टी हो गयी थी। चारांे दोस्त स्कूल से उस दुपहरिया में घर लौट रहे थे। कहते हैं तेज हवा के झोंकों से या फिर भूत-वूत के चक्कर से रास्ते को कतार में तब्दील करने वाले उन शीशम के पेड़ों में से एक पेड़ ठीक इन लड़कों के ऊपर गिरा। तीन लड़कों ने तो उस शीशम के पेड़ को पार कर लिया लेकिन जो एक लड़का फंसा उसके दोनों हाथ उसी पेड़ के नीचे दबे रह गये। पेड़ को तो खैर तीनों दोस्तों ने मिलकर हटा लिया लेकिन दोस्त के दोनों हाथों की कुहनी की हड्डी चमड़ी के भीतर से ही पांच-पांच उंगली बाहर निकल आईं। दोनों हाथ झूल रहे थे। जिस तरह गिरगिट की पूंछ कट जाने पर भी कुछ देर तक तड़पती और कांपती रहती है उसके दोनों हाथ उसी तरह कांप रहे थे। तब उस जेठ की दुपहरिया में रास्ते के दोनों तरफ सिर्फ़ वीराना ही वीराना था। तब बच्चा सिंह ने आव देखा न ताव दोनों हाथ की कुहनी तुरंत ठीक कर दी। उन्हांेने कुहनी तब पहली बार में ही अपने हाथ में पकड़ी और उसको हल्की कर्र के साथ घुमा दिया और एक टीस के साथ बच्चा सिंह का मित्र वहीं बेहोश हो गया। लेकिन होश में आने पर दोनों हाथ सलामत।

अब जब नाम हो जाता है तो तमाम तरह की बातें फैलती ही हैं। इसलिए बच्चा बाबू के बारे में भी तमाम तरह की बातें फैली हुई हों तो कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है। अब कहने को तो लोग दबी जुबान में यह कह ही देते हैं कि बच्चा बाबू ने इस सामथ्र्य को पाने के लिए बहुत साधना कि है। बहुत जतन। अघोरी थान में अघोरियों के साथ रहकर उन्होंने हड्डियों के पोर-पोर को समझा है। चूंकि अघोरी नदी में बहते हुए लाश को खोल कर खाते थे तब बच्चा बाबू उन हड्डियों के सही जगह को उनके साथ समझते थे। बातें चाहें जैसी भी हों परन्तु इस बात से इन्कार नहीं है कि उनके पास एक हुनर था। बिल्कुल एक चमत्कार की तरह का हुनर और उनके सामने शरीर की सारी हड्डियाँ नतमस्तक थीं।

वैसे सच मानिये तो बच्चा बाबू उस गाँव की परिस्थितियों की ऊपज ही थे। सही मायने में वह गाँव एक हुट्ठ गाँव था। अगर आपने इस देश के किसी भी राज्य के किसी निरा देहात को देखा हो तो इस गाँव और इन जैसे गांवों की परिस्थितियों को समझना कोई खास मुश्किल नहीं है। उस गाँव में बिजली तो थी लेकिन कितनी थी इसका अंदाजा इस बात से ही लग सकता है कि लोग रंगीन टेलीविजन रखने से परहेज करते थे। ब्लैक एंड व्हाईट टेलीविजन कम से कम बैट्री पर चल तो जाता था न। हाँ लेकिन केबल टीवी और सीडी-डीवीडी की वहाँ भी भरमार थी।

हाँ वहाँ की सड़कें बहुत टूटी हुई थीं। अस्पताल नहीं था इसलिए लोग खुद ही बीमार पड़कर ठीक हो जाते थे। स्कूल के लिए बच्चों को कई कोस पैदल चलना पड़ता था। ऐसा नहीं था कि इस गाँव या इन जैसे गांवों के लिए कभी कोई ख्वाब संजोया नहीं गया था कभी इन सूबों के हुक्मरानों ने भी यहाँ की सड़कों को हेमा मालिनी के गाल जैसा चिकना करने का वचन दिया था। लेकिन जब तक में फाइलें घूमकर सही टेबल तक पहुँचतीं हेमा थोड़ी और बूढ़ी हो गईं और फिर ऐश्वर्या और करीना जैसी कई नायिकाओं का दौर आ गया। हुक्मरान कन्फयूज कर गये कि सड़क के लिए हेमा को कष्ट दिया जाए या फिर इन नई सिनेतारिकाओं को और फिर नायिकाओं की इस प्रतिद्वंद्विता में यहाँ की सड़कें और चैपट ही होती रहीं।

हर गाँव की तरह इस गाँव मंे भी लोग खूब मारपीट करते थे। जोरू और जमीन दोनों इस मारपीट के केन्द्र मंे रहते थे। मारपीट भी इतनी कि हड्डियाँ दरक जाएँ। हड्डियों को पोर-पोर टूटने में वक्त ही कितना लगता है। फुस्स-फुस्स बातों पर यहाँ मारपीट होती थी। पत्नी ने थाली में रोटी गर्म नहीं रखी या फिर यह कि सब्जी में थोड़ा नमक ज़्यादा पड़ गया हो फिर पति बन्द कमरे में पत्नी पर हाथ नहीं लात और डंडे चलाता। खेत की आड़ थोड़ी भी तिरछी हो गई और दूसरे की जमीन एक इंच भी इधर या फिर उधर मारी गई, फिर क्या है मारपीट तब तक होती जब तक कि कर्र से हड्डी टूटने की आवाज नहीं आ जाती।

गाँव में जब हड्डियाँ टूट रही थीं तो उन्हें जोड़ने वाला भी तो कोई न कोई चाहिए ही था। तो बच्चा बाबू ने अपनी ज़िन्दगी को पूरी तरह झोंक कर इस जिम्मेदारी को संभाल लिया। बच्चा बाबू धीरे-धीरे कैसे मशहूर होते चले गए यह लोगोें को क्रमवार याद तो नहीें लेकिन उनके इस पच्चीस-तीस वर्षों के सफ़र में से कई कहानियाँ अब किंवदन्ती अवश्य बन चुकी हैं।

यह गाँव बहुत क्रूर था और प्रेम का घनघोर दुश्मन। यह किसे याद नहीं है कि जब उस दिन अशरफी कोयरी का उन्नीस साल का बेटा अपनी अठारह साल की प्रेमिका के घर रात के घुप्प अंधेरे में पकड़ाया तब हड्डी के टूटने की आवाज एक बार नहीं आयी थी। हड्डी टूटने की आवाज का तब एक क्रम तैयार हो गया था। जब उस प्रेमिका के पिता ने चिल्लाना शुरू किया तब उस भीड़ के डर से अशरफी कोयरी का बेटा अपनी प्रेमिका कि खटिया के नीचे छुप गया था और फिर वही सब इस गाँव की रवायत के अनुसार।

जब अशरफी ने अपने बेटे को खटिया पर लाद कर बच्चा बाबू के दलान पर रख दिया था तब उसके बेहोश बेटे के शरीर का एक भी जोड़ सलामत नहीं था। लाठी से सिर्फ़ जोड़ों पर मारा गया था और कर्र-कर्र करके सारी जोडें़ अपनी जगह से हिल गई थीं। अशरफी का बेटा बच जाएगा ऐसा तब अशरफी को भी नहीं लग रहा था। आज इतने वर्षों बाद भी अशरफी को पूछो तो कहेगा बच्चा बाबू के हाथ में साक्षात ब्रह्मा हैं उन्होंने नया जीवन दिया है उसे। तब अशरफी के बेटे का कोई अंग शायद ही हो जहाँ प्लास्टर न हो। बच्चा बाबू तब घंटों अपने बंद कमरे में बैठे रहे थे अकेले। एक-एक हड्डी को तब उन्होंने सबसे पहले सही जगह दी थी। जिस कर्र की आवाज से हड्डी टूटी थी उसी कर्र की आवाज से हड्डी को उस जगह पर लाया भी गया था। बच्चा बाबू पहले बहुत देर तक उस हड्डी की सही जगह की तलाश करते रहे थे और फिर एक हल्का-सा घुमाव। फिर एक हल्का स्पर्श और फिर प्लास्टर। एक से दो महीने लगे लेकिन लड़के को सामने लाकर खड़ा कर दिया था बच्चा बाबू ने। पूरा गाँव चमत्कृत। तब इस गाँव के लोगों को यह अहसास हो गया था कि कम से कम हड्डी तोड़कर अब यहाँ किसी को मारा नहीं जा सकता है। बच्चा बाबू ने इस संदर्भ में सबको अमृत पिला दिया था।

बच्चा बाबू हाथ पैर या फिर कहीं की भी हड्डी के लिए माहिर थे। भले ही हड्डी बिल्कुल टूटकर नब्बे डिग्री पर झूल क्यों न गई हो। बस नसीहत उनकी यह होती कि जब हड्डी टूट जाए तो उसे तुरंत जस का तस कपड़े से लपेट लो। कपड़े में बंधी हुई हड्डी सुकून महसूस करती है। यह उनके डाॅक्टरी इलाज का कोई हिस्सा नहीं था बल्कि वे कहते कि टूटी हड्डी बहुत देर तक तड़पती और कांपती है और तड़पती हुई हड्डी देखकर उन्हें बहुुत दुख होता है। वे कहते उनका अन्नदाता तो यह हड्डी ही है इसलिए वे उसे तड़पता हुआ नहीं देख सकते हैं। वे बिल्कुल कुचली हुई हड्डी पर भी अपना हाथ बहुत प्यार से चलाते थे। वे कराहते बीमार से ढ़ेर सारी बातें करते, अपने भदेस शिल्प में उन्हें यहां-वहाँ की बातें सुनाते और इसी बीच धीरे से उसकी हड्डी को सही स्थान दे देते और फिर प्लास्टर के भीतर वह हड्डी आराम कर रही होती।

बच्चा बाबू की प्रतिष्ठा इस गाँव से लेकर आस पास के गांवों और कई जिला जवार तक हो गयी थी तो इसमें उनके हुनर के अलावा उनके चरित्र का भी बड़ा हाथ था। लोगों को यह पक्का विश्वास हो गया था कि बच्चा बाबू ढ़ेका के एकदम पक्के आदमी हैं। बच्चा बाबू धोती पहनते थे और पीछे ढ़ेंका खोसते थे। घर वाले जवान औरतों को भी उनके पास बेधड़क लाते। जवान औरतों की उन जगहों की भी हड्डियों को भी बैठाते हुए बच्चा बाबू का हाथ एक बार भी नहीं फिसलता जिस पर से औरतें अपने स्वस्थ समय में कपड़ा हटने तक नहीं देती थीं। लेकिन हड्डी चाहे कहीं की भी हों और बीमार चाहे कोई भी हो उनके लिए सब एक समान थे। बच्चा बाबू सिर्फ़ हड्डी देखते थे और मन के भीतर उसे महसूस करते थे।

लेकिन उस दिन पहली बार लोगों के मन में शक जैसा कुछ पैदा लिया जिस दिन रामसुजान सिंह की बहू की कमर जबरदस्त अकड़ गई और उसे खाट पर लाद कर बच्चा बाबू के दरवाजे पर रखा गया। बीएमपी, बिहार मिलिट्री पुलिस में नौकरी करने वाले रामसुजान सिंह के बेटे की जब शादी हुई तब उसकी पत्नी एकदम छबीली आई। बेटा नौकरी के सिलसिले में बाहर ही रहता और बहू का रूप घर के भीतर रहकर और निखर आया था। वह सिर्फ़ मन्दिर जाने के लिए रोज सुबह निकलती। बस उसी थोड़े समय के दीदार में रामसुजान सिंह की बहू एक रहस्य की तरह बनी हुई थी। बस उतने ही समय में बड़े-बूढे़ तक लुक-छिप कर उसका एक झलक दीदार कर लेना चाहते थे। उस दिन आंगन के चापाकल पर जब वह मंदिर जाने के लिए लोटे में जल भर रही थी कि चापाकल ने धोखा दे दिया। उसकी किल्ली निकली और सुन्दरता कि प्रतिमूर्ति वह रामसुजान सिंह की बहू वहीं पक्की पर गिरी तो कमर अकड़ गई। कमर अकड़ी ऐसी कि जिस तरह वह गिरी बस उसी तरह रह गई। ना ही उसे बैठाया जा सकता था और ना उसे खड़ा किया जा सकता था और ना ही उसे ठीक से लिटाया ही जा सकता था और दर्द ऐसा कि उसकी कमर से निकल कर रीढ़ की हड्डी होते हुए उसके मगज पर चढ़ रहा था। उसकी चिल्लाहट सुन कर यह समझना मुश्किल हो गया था कि क्या इसे रोकना वाकई संभव है। जिन लोगों को उसे ज्यों का त्यों उठा कर खाट पर लिटाने के लिए बुलाया गया उन्होंने पहली बार उसको नजदीक से देखा और देखा ही नहीं उसे स्पर्श भी किया था। बिल्कुल नरम, रुई की तरह।

जब खाट बच्चा बाबू के दरवाजे पर पहुँची तब वे सुबह का नाश्ता करके आराम फरमा रहे थे। अलसाये हुए से वे उठे और रामसुजान की बहु को देखकर चैंक गए। अब वे उसके सौंन्दर्य को देखकर चैंक गए या फिर उसकी चीत्कार सुनकर इसे समझना तो मुश्किल था लेकिन वे भांैचक ज़रूर रह गए थे। खाट को पहले घर के भीतर किया गया ताकि भीड़ को थोड़ा काबू किया जा सके। फिर खाट के करीब जाकर उन्होंने पहले इसे समझने की कोशिश की और फिर रामसुजान सिंह को कोने में ले जाकर धीरे से कहा "ठीक तो हो जायेगी लेकिन जो मैं कहूंगा उसे सौ फीसद मानना पड़ेगा।"

"सौ फीसद मतलब" रामसुजान सिंह चैंक गए थे। मन में ज़रूर सोच रहे हांेगे कि इस अनमोल चीज को अपने घर में रखना भी कम खतरनाक नहीं।

रामसुजान सिंह के आश्चर्य पर वे थोड़ा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने पहले मुंह को चबा कर एक शब्द को हजम कर लिया। रामसुजान ंिसंह ने समझ लिया। पहला शब्द 'कपड़ा' है। बच्चा बाबू ने कहा 'कपड़ा उतारना होगा'।

रामसुजान सिंह ने गहरी निगाह बच्चा बाबू के चेहरे पर डालकर उसको पढ़ने की कोशिश की। लेकिन चेहरा एकदम सपाट था उसे पढ़ना संभव नहीं था। वे अपने मन में विकल्प पर विचार करने लगे। यहाँ से इस हालत में तुरंत शहर ले जाना संभव नहीं है और शहर में भी क्या है शहर से तो लोग इलाज कराने यहाँ आते थे। इतनी जल्दी बेटे को बुलाना संभव नहीं है। नहीं तो अपना वह निर्णय लेता। इलाज में देरी ने बाहर खड़े लोगोें के भीतर उत्सुकता जगा दी कि और धीरे-धीरे ही सही लोग बच्चा बाबू की इस शर्त को जान गए और पहली बार लोगों को यह लगा कि बच्चा बाबू बस एक बहाना बना रहे हैं। सबने मान लिया कि आखिर इस संगमरमरी देह को देखकर बच्चा बाबू का ढेका ढीला हो ही गया।

रामसुजान सिंह के पास विकल्प नहीं था और बहू दर्द से बार-बार बेहोश हुए जा रही थी।

अंदर वाले कमरे में खाट को रखवाया गया। वहाँ एक चैकी रखी हुई थी। उस पर कोई बिस्तर नहीं था। बहू को उस चैकी पर डाल दिया गया। बच्चा बाबू अंदर आए। अब उस कमरे में वे उसके साथ अकेले थे। शब्द 'एक' को चबाकर उन्होंने हजम किया। लेकिन बहू यह समझ नहीं पाई कि वे किस शब्द से बोलने की शुरुआत करेंगे क्योंकि उसको बच्चा बाबू को सुनने की आदत नहीं थी। बच्चा बाबू ने कहा और वह एकदम से चैंक गई "एक-एक करके कपड़ा उतारना होगा और इस दरवाजे से तुम्हें बाहर फेंकना होगा।"

लेकिन बच्चा बाबू की अगली पंक्ति ने उसे राहत दी। 'ंचिंता' शब्द को चबाते हुए कहा "चिंता मत करो। तुम मेरी बहू समान हो कमरे में कोई और नहीं होगा। बस बाहर से जैसा हम कहेंगे वैसा करते जाना है।" उनके बोलने में फिर एक पाॅज आया और फिर 'इलाज' शब्द को हजम करते हुए "इलाज तो अपने आपे हो जायेगा।"

कमरा यह अंदर वाला था और कमरे के बाहर बच्चा बाबू और उनके दो सहयोगी। कमरे में जिधर चैकी रखी हुई थी उधर का दरवाजा बन्द था और दूसरी तरफ का आधा खुला। दरवाजा यूं था कि अंदर से सामान फेंका तो जा सकता है लेकिन बाहर से कुछ दिख नहीं सकता है। कमरे के अंदर पर्याप्त रोशनी थी। बच्चा बाबू ने बाहर से आदेश दिया कि अब एक-एक कपड़ा को खोलकर इस दरवाजे की तरफ फेंकते चलो। शरीर पर एक भी कपड़ा रहना नहीं चाहिए। साड़ी, साया, ब्लाॅज के बाद जब थोड़ी रुकावट हुई तब बच्चा बाबू ने फिर से 'सारा' शब्द को चबाकर अपने पेट के भीतर कर लिया और इस शब्द को उन्हें एक बार नहीं दो-तीन बार चबाना पड़ा। तब जाकर कुछ देर में कपड़े का बचा हुआ भाग बाहर आया।

बच्चा बाबू का फिर यह आदेश था कि अब आहिस्ते से जितना हो सके उस चैकी पर निश्चिंत लेटने की कोशिश करो। बहू निश्चिंत तो खैर क्या लेट सकती थी परन्तु जितना हो सकता था उसने उस चैकी पर अपने शरीर को गिरा दिया। जब वह उस चैकी पर लेट गई और कुछ वक्त गुजर गया तब बच्चा बाबू एक ही बार में झटके से उस दरवाजे को खोलकर भीतर हो गये। बहू एक झटके से उठी और दरवाजे की तरफ भाग जाने को लपकी। उसके दोनों हाथ औचक ही उसके दोनों वक्ष पर पहुँच गए और उसके मुंह से अचानक ही निकला "कोड़िया हम सब बूझै छियै तोहर धोती क भीतर आयग लगल छौ।" बाहर बच्चा बाबू के दोनों सहयोगियों ने एक बड़ी चादर में उसे समेट लिया। बहू बेहोश हो गई। बच्चा बाबू ने उसके घरवालों को उसे सुपुर्द कर दिया। 'घर' शब्द को हजम करते हुए कहा 'घर ले जाओ होश में आ जाए तो हल्दी डालकर एक गिलास दूध पिला देना अब इ एकदमे ठीक है।' वास्तव में कमरे में प्रवेश करते हुए बच्चा बाबू ने झटके से उठने पर कमर की चढ़ी हुई हड्डी का कर्र से उतरना सुन लिया था।

बच्चा बाबू ने उसे ठीक तो ज़रूर कर दिया, इसके कारण उनकी चर्चा भी यहाँ वहाँ बहुत हो गई। विशेषतया उनकी इस कला और उनके इस शातिरपने की। लेकिन इस गाँव के मन में यह खटका रह ही गया कि सिर्फ़ रामसुजान की बहू को ही बच्चा बाबू ने पूरा कपड़ा उतारने को क्यों कहा। उनके सामने तो हड्डियों के एक से एक उलझाव आये और बच्चा बाबू ने उसे सुलझाया लेकिन क्या यह केस वाकई इतना क्लिष्ट था। अब बच्चा बाबू के लिए इस केस के लिए वाकई यह आखिरी ब्रहमास्त्र था या फिर वह वाकई रामसुजान सिंह की बहू को निर्वस्त्र देखना चाहते थे यह एक रहस्य ही रह गया।

अगर आप शक करना चाहें तो वाकई बच्चा बाबू के जीवन में यह एक ऐसा दाग है जिस पर शक किया जा सकता है नहीं ंतो बच्चा बाबू का जीवन विवादों से परे है।

बच्चा बाबू के पिता ने कितना कमाया और कितना धन अर्जित किया यह तो अब नहीं पता है लेकिन यह ज़रूर है कि जब बच्चा बाबू ने अपना जीवन शुरू किया तो उनके पास अचल सम्पत्ति के रूप में खपरैल के एक घर और कुछ कट्ठे खेत के अलावा कुछ भी नहीं था। हाँ घर इतना तंग नहीं था कि उसमें आराम से रहा न जा सके। खेत घर से काफी दूर नहीं था। लेकिन खेती उनका शगल था।

बच्चा बाबू अपने उन खेतों के साथ पूरी तरह किसान लगते थे। उनको अगर हड्डी जोड़ने के वक्त से अलग करके देखा जाता तो वे पूरी तरह किसान थे। धोती कुरता में जाता हुआ किसान, खेत में मजदूरों के साथ पानी पटाता हुआ किसान, खेत में बीज बोता हुआ किसान और फिर कटाई कराता और दौनी कराता हुआ किसान। वैसे सच कहा जाय तो बच्चा बाबू ने अपनी किसानी और अपनी हड्डी विशेषज्ञता को लगभग मिला-सा दिया था। वे डाॅक्टर की तरह हड्डी को बैठाते थे लेकिन किसान जैसा दिखने में उन्हें कोई गुरेज नहीं था और खेती करते थे तो उसमें उनकी चिंता बराबर हड्डी को लेकर बनी रहती थी। बच्चा बाबू दाल शब्द को चबाते हुए लोगों से शिकायत करते "दाल नहीं खाते हैं लोग। अरे दाल खाओगे नहीं तो सालों इसी तरह हड्डी कमजोर होती चली जायेगी। आजकल तो हाथ पर उरहुल का फूल गिर जाये तो हड्डी खिसक जाती है। एक हमारा समय था हाथ-पैर पर से बैलगाड़ी गुजर जाती थी और मोच भी नहीं आती थी।" लोगों को दाल ज़रूर पर्याप्त मात्रा में खानी चाहिए इस कोशिश में बच्चा बाबू का यह छोटा-सा प्रयास था कि वे अपने खेत में महज दाल की ही उपज करते थे। वे 'प्रयास' शब्द को निगल कर कहते थे "प्रयास तो हर एक को करना ही चाहिए।"

बच्चा बाबू की प्रिय फसल थी अरहर। वे उसे राहर कहते थे। बारिश के मौसम में जब खेत में नमी होती थी तब वे लूंगी पहन कर अपने खेत में पहुँचते थे और अपने हाथों से उसमें बीज छींटते थे। बीज छींटने के बाद फिर से उसमें बैलों से खेत की जुताई करवाते थे। बहुत ही जतन से अपने सामने वे राहर की फसल को बड़ा होते देखते और फिर पौधे बड़े हो जाते तो उसमें वे खो जाते। बच्चा बाबू उन पौधों की टहनियों को तोड़ते और खेत की आड़ पर उन टहनियों के टुकड़ों से अठखेलियाँ करते। राहर के पौधे की टहनियाँ कट की आवाज के साथ टूट जातीं और फिर वे बड़े ही जतन से ठीक हड्डी की तरह उसे सहेजने की कोशिश करते। अरहर के पौधे के बड़े होने और उसके कटने तक में लगभग रोज की दिनचर्या जैसी उनकी यही थी। एक तरह से कहा जा सकता था कि वे अरहर की उन टहनियों पर अपनी प्रैक्टिस को अंजाम देते थे। यह खेत एक तरह से उनकी प्रयोगशाला थी।

चाहे कम ही सही परन्तु जितना भी खेत उनके पास था वह दो टुकड़ों मंे बंटा हुआ था। एक टुकड़ा एक जगह दूसरा टुकड़ा दूसरी जगह। कभी कभार अरहर की खेती से मन बदलना होता तो वे अपनी खेत में गोट पैदा करते थे। गोट के पौधों की टहनियों को भी वे उसी तरह कट की आवाज के साथ तोड़ते थे और फिर जोड़ते थे। दोनों खेतों को बच्चा बाबू समान रूप से प्यार करते थे। बच्चा बाबू समान रूप से दोनों खेतों पर जाते थे और जब वे अपने घर पर होते तो अपने दोनों हाथों से दोनों खेतों को समेट लेते थे। वे अपने बिस्तर पर उन दोनों खेतों के साथ ही सोते थे। वे अपने सपने में अक्सर देखते कि उनके दोनों खेत धुंआ बनकर ऊपर उठ एक दूसरे से मिल गए हैं। बच्चा बाबू अपने सपने में कहते "तुम दोनों मेरे बेटे हो। दो प्यारे-प्यारे बेटे।"

बच्चा बाबू के दलान पर दो गायें थीं। दोनों गायें पारा-पारी कर दूध देती थीं। एक दूध देती तो दूसरी उन दिनों गाभिन रहती थी। वे दोनों गायें बच्चा बाबू को पहचानती थीं। वे दलान पर से आवाज देती थीं तो वे उनसे मिलने आते थे। जब घर पर वे नहीं होते और लोग उन्हें ढ़ूंढ़ने आते तो वे गायें उन लोगों को जवाब देतीं थीं।

शादी के चार वर्ष के भीतर बच्चा बाबू को दो वर्षों के अंतराल में दो बेटियाँ हुईं। दो बेटियाँ यानी दो कबूतर। बच्चा बाबू अपनी बेटियों के साथ घर में फुदकते थे। बच्चा बाबू की बेटियाँ कबूतर थीं इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी से कभी शिकायत नहीं की कि उसने बेटा पैदा क्यांे नहीं किया। या फिर उन्होंने इसके लिए आगे कोई प्रयास नहीं किया कि उनका वारिस पैदा हो जाये। बच्चा बाबू कहते कि जो मेरे पास है वह मैं अपने वारिस को ठीक उसी रूप में दे भी तो नहीं सकता।

दोनों बेटियों को बच्चा बाबू ने बहुत ही जतन से पाला। दोनों बेटियाँ बड़ी होकर बहुत गुणी हुईं। दोनों अपने पिता को दादा कहती थी और अपनी माँ को दीदी। दोनों बेटियांे को अपने पिता से ज़्यादा प्यार था और लाड़ में अक्सर वे अपने पिता से खेत पर घूमने जाने की जिद करती थी। पिता उन्हें अपने साथ गोट वाले खेत पर ले जाते थे। बेटियाँ उन पौधों के बीच चहकती थीं और बच्चा बाबू उस खेत की आड़ पर अपनी टहनियों के साथ इलाज करते थे। पीले-पीले फूलों के बीच तब बच्चा बाबू की बेटियाँ कबूतर लगती थीं।

बेटियाँ कबूतर थीं इसलिए एक दिन उन्हें बच्चा बाबू की मुंडेर पर से उड़ जाना भी था।

लगभग दो साल के अंतराल में दोनों बेटियाँ विदा हुईं। लेकिन पिता बच्चा बाबू अतल गहराई में गोते खाने लगे। दुख बेटी के विदा होने का भी था और अपने खेत के छूटने का भी। जिन खेतों को अपनी बांहों में समेट कर अपना जीवन गुजार रहे थे वही खेत उनकी बांहों से निकलकर हवा में उड़ने लगे।

बच्चा बाबू की दोनों बेटियाँ बहुत गुणी थीं। एक पिता को इससे ज़्यादा क्या चाहिए कि बेटी ने कब जवानी की दहलीज पार कर ली बाप को इसका पता तक नहीं चला। बेटियों को स्कूल के बाद उन्होंने काॅलेज की दहलीज तक भी पहुँचाया। बेटियाँ खाना बनाना जानती थीं। सिलाई-कढाई और अदब के अलावा उनके पास शर्म और हया भी बाकी थी। बच्चा बाबू अपनी बेटियों को प्यार करते थे और ऐसा कभी सोचते भी नहीं थे कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि उन्हें इन कबूतर जैसी बेटियों की शादी में परेशानी झेलनी पड़ेगी।

दोनों बेटियों की शादी में बच्चा बाबू के दोनों खेत सुदभरना पर लग गए। ऐसा लगा जैसे उनके जीवन में सब कुछ पहले से ही नीयत था। उनके पिता ने इतना ही खेत छोड़ा था जो अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो। खेत लगभग बराबर दो टुकड़ों में बंटे थे तो बेटियाँ भी दो ही हुईं। उस पर तुर्रा यह कि बच्चा बाबू के पास कभी इतना पैसा नहीं हुआ कि वे यह सोच सकें कि दोनों बेटियों की शादी सिर्फ़ अपने जमा किए हुए पैसों से कर ली जाए। दोनों बेटियों के विवाह में लगभग दो वर्ष का अंतराल रहा इसलिए इसे यूं समझा जाए कि दूसरा खेत का टुकड़ा लगभग दो वर्ष ज़्यादा उनके पास रहा।

बच्चा बाबू की बांहों से उनके खेत का निकल जाना उन्हें कितना सालता था यह सिर्फ़ वही जानते थे। वे अपने मन में सोचते थे कि अब उनके पास आने वाले क्लिष्ट केस की प्रैक्टिस वे कहाँ करेंगे।

बच्चा बाबू का घर सूना हो गया। उनका जीवन सूना हो गया। परन्तु वे टूटे नहीं। उन्होंने सोचा कि खेत सुदभरना ही तो लगा है ना कोई बिक तो नहीं गया। पूरे जतन से मेहनत करके इसे छुड़ा लेंगे। अपने मन में कहते-"तुम्हें मैं अपने पास फिर लाउंगा मेरे प्यारे बच्चांे।"

बच्चा बाबू की पत्नी का नाम था कल्याणी। वह भी बच्चा बाबू की तरह ही मोटी और लम्बाई में छोटी थी। दोनों की जोड़ी बहुत ही अच्छी थी। कल्याणी हर वक्त अपने पति को ताना मारती थी कि आपसे शादी करके मुझे क्या मिला। खेत के चले जाने से कल्याणी भी कम दुखी नहीं थी। बच्चा बाबू आश्वस्त करते। धीरज शब्द को चबा कर अपनी पत्नी को समझाते "धीरज रखो बेटी ससुराल में सुखी है तुम्हारे दोनों खेत को भी जल्दिये छुड़ा देंगे।" लेकिन उनकी बातों पर पत्नी को विश्वास नहीं होता। कहती "आपका कितना भी नाम हो जाए इससे हमको क्या।" कल्याणी को सबसे बड़ी चिन्ता थी दोनों के बुढापे की। कहती "जब तक हाथ चल रहे हैं तब तक तो किसी तरह दाल-रोटी चल जायेगी। लेकिन कभी सोचा है कि जिस दिन आपके हाथ से ये हड्डियाँ अपनी सही जगह लेना छोड़ देंगी उस दिन के बाद अपना जीवन कैसे चलेगा।"

चाहे कल्याणी बच्चा बाबू को ताना मारती हो लेकिन सच यह ज़रूर था कि बच्चा बाबू के हाथ से जब से खेत गये थे उस दिन से उनकी अपनी इस प्रैक्टिस से सिर्फ़ दाल-रोटी ही चलने लगी थी।

बच्चा बाबू अपनी फीस बढ़ाने की कोशिश करते तो उन गरीब लोगों की इतनी औकात नहीं थी। लेकिन चूंकि उनको अपनी खेत को छुड़ाने की बहुत जल्दी थी इसलिए वे बेचैन थे।

थोड़ी-बहुत उन्होंने अपनी फीस बढ़ाई ज़रूर। उनकी दो गायों ने उनके इस संकट के समय में बहुत साथ दिया। गायों ने बछड़ों को जन्म दिया। दूध की तादात अच्छी रही।

बात सिर्फ़ इतनी है कि कुल मिलाकर बच्चा बाबू ने लगभग दो वर्ष के उपरान्त इतने रुपये इकट्ठा कर लिए कि वे अपना कम से कम एक खेत छुड़ा सकंे। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपने तमाम प्रयासों के बाद भी बच्चा बाबू के पास उस खेत के लिए पैसे इतनी जल्दी पूरे नहीं हुए होते। इस स्थिति में आने में बच्चा बाबू ने अपने पत्नी का भी सहारा लिया। जिन गहनों को कल्याणी ने अपनी बेटी की शादी तक में नहीं बेचा उन्हें वे गहने अपने उस बेटे जैसे खेत के लिए कुर्बान कर दिए। बच्चा बाबू ने असली शब्द को चबा कर कहा "असली गहना तो तुमरा खेत है जी।" अपने पति से बहुत सारी बातों में असहमत रहने वाली कल्याणी इस एक बात के लिए तैयार हो गई।

कहानी में तनाव की शुरुआत

यह तो सोचा ही जा सकता है कि अगर कहानी इतनी ही सपाट होती तो फिर यह कहानी बनती ही क्यों? बच्चा बाबू के खेत अपनी बेटियों की शादी में सुदभरना लग गए और बच्चा बाबू इस दुख की घड़ी को दो सालों में जैसे तैसे निपटा कर कम से कम आधी खुशी को छुड़ाने चल दिये। खेत के लिए जमा किए गए पैसे दे दिए गए और उन पैसों से खेत छुड़ा लिए गए और कहानी खतम।

लेकिन नहीं मेरे दोस्त कहानी यहाँ खत्म नहीं होती है। पिक्चर अभी बहुत बाकी है।

बच्चा बाबू ने जिसके यहाँ अपनी जमीन सुदभरना लगायी थी उसका नाम था फूल सिंह। मुझे पूरी तरह मालूम नहीं लेकिन ऐसी उम्मीद करता हूँ कि सरकारी कागजों पर उनका भी नाम सिर्फ़ फूल सिंह नहीं होकर फूलचन्द सिंह ज़रूर रहा होगा। क्योंकि फूल सिंह नाम तो बहुत अजीब लग रहा है। जमींदारी लगभग पुश्तैनी थी। लेकिन जमींदारी अब लगभग छिछोरेापन में बदलती जा रही थी। खाते कम थे और पैसा जमा ज़्यादा करते थे। उनका मानना था कि पैसों को जमा करके ही उसको सही इज्ज़त बख्शी जा सकती है। इसलिए वही नहीं उनके पूरे परिवार में लगभग सब दुबले-पतले ही थे। चूंकि फूल सिंह अपनी सेहत तक से समझौता करके पैसा जमा कर सकते थे तब यह समझ में आ जाना स्वाभाविक ही है कि बच्चा बाबू ने ग़लत हाथों में अपने बेटे जैसे खेतों को सौंप दिया था।

और हुआ भी वही। फूल सिंह ने खेत को वापस करने से साफ मना कर दिया।

"खेत तो जिसके पास हो वह उसी का होता है। पढ़े नहीं हैं का डाक्टर साहेब।" फूल सिंह ने ऐसा बोलते हुए मन में सोचा "साला कौन-सा मेरी हड्डी टूटने वाली है जो।"

लेकिन बच्चा बाबू के मन में था कि 'एक बार हड्डी टूट कर तो देखे। साले को उलटा जोड़ दूंगा। जायेगा पूरब, पहुँचेगा पश्चिम।'

बच्चा बाबू ने पत्नी के गहने तक बेचकर जितने पैसे जोडे़ थे उनसे उनके खेत तो नहीं मुक्त हो पाये लेकिन वे सारे पैसे इन वर्षों में केस लड़ने में खर्च हो गए। आप विश्वास कीजिए यह केस दर्ज करने और लड़ने की हिम्मत कल्याणी के जोश दिलाने पर ही संभव हो पायी थी।

बच्चा बाबू के जीवन का यह दुख सबसे बड़ा दुख था। दोनों पति-पत्नी इस एक दुख के साथ घुट-घुट कर जी रहे थे और कचहरी का चक्कर लगा रहे थे। लेकिन आप जानते हैं कि फूल सिंह जमींदार जैसा कुछ था तो फैसला होने वाला कहाँ था। साथ ही उसकी किस्मत भी बलवान थी कि इस बीच उसके परिवार में किसी की हड्डी टूटी तो दूर, खिसकी तक नहीं।

अब बच्चा बाबू को मन में यह साफ लगने लगा था कि अब उनके पास ये खेत कभी लौट कर नहीं आयेंगे। वे रोज शाम को एक चक्कर उन खेतों की तरफ लगाते। वे देखते खेत उदास चुकु-मुकु बैठे हैं। वे खेतों को दूर से देखते। उनके पास खेत को अपनी शक्ल दिखाने की हिम्मत नहीं थी। खेत में गन्ने के पौधे लगे थे। बच्चा बाबू उधर देखते और मुंह फेर लेते।

लेकिन वह कहते हैं न कि सब के ऊपर ईश्वर है तो बस समझिए बच्चा बाबू के जीवन में ईश्वर ने कृपा कर दी।

कट टू दिल्ली: कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश

इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के लिए वे उदाहरण के दिन थे। सारे कैमरे चैबीसों घण्टों के लिए उस बड़े से हाॅस्पीटल के सामने लगा दिए गए थे। दिल्ली का वह एक आलीशान हाॅस्पीटल था। एकदम फाइव स्टार होटल की माफिक। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के इतिहास को समझने के लिए यह एक बड़ा उदाहरण बनकर उभरेगा कि देश में कई घटनाएँ इस कदर बड़ी हो जाती हैं कि चैबीस घंटों के लिए कैमरों को वहाँ नीयत करना पड़ता है। इस बीच चाहे इस देश में कितने भी चूहे मरते रहें।

चैबीस घंटों के लिए कैमरों को उस हाॅस्पीटल में नीयत कराने वाली घटना यह थी कि प्रधानमंत्री एक मरीज के रूप में वहाँ दाखिल थे। देश के प्रधानमंत्री वहाँ एक मरीज के रूप में दाखिल थे तो इसे सबसे बड़ी खबर बनना भी चाहिए। वास्तव में प्रधानमंत्री की रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से की ठीक बगल वाली हड्डी टूट गई थी या फिर वह ऐसे अकड़ गयी थी कि कमर को मोड़ना संभव नहीं रह गया था। हड्डी टूट गई होती तो शायद जुड़ भी जाती लेकिन वह उलझ गई थी। तब प्रधानमंत्री या तो सिर्फ़ सो सकते थे या फिर खड़े रह सकते थे। बैठना संभव नहीं। अब प्रधानमंत्री बैठंे नहीं तो यह देश चलेगा कैसे।

यह हाॅस्पीटल दिल्ली की बहुत फर्राटेदार चलने वाली सड़क के ठीक किनारे था। प्रधानमंत्री वहाँ दाखिल थे और वहाँ की सड़कें जाम हुई पड़ी थीं। सारे कैमरे हाॅस्पीटल की तरफ मुंह बाये खड़ी थीं। आम नागरिक टेलीविजन सेट के सामने आंखें गड़ाये बैठे थे। हाॅस्पीटल के साथ के सारे पेड़ पौधों पर देश के सारे पक्षी आकर बैठे हुए थे, उदास।

प्रधानमंत्री दाखिल थे क्योंकि उनकी हड्डी छिटक, अकड़ या उलझ गयी थी। लेकिन यह हुआ कैसे? यह ठीक-ठीक पता करना आम नागरिक के वश में तो नहीं था लेकिन चूंकि वह हड्डी कोई सामान्य हड्डी नहीं एक प्रधानमंत्री की हड्डी थी इसलिए खबरें बाहर भी आयीं। प्रमाण कुछ नहीं है तो उलझन का बचा रहना स्वाभाविक ही है।

खबर यह थी कि प्रधानमंत्री तब एक अहम बैठक में थे। एकदम हाइप्रोफाइल। विदेश के तमाम धन्ना सेठों के साथ उनकी डील चल रही थी। मुद्दा था एक ऐसी फायदेमंद कंपनी के मालिकाना अधिकार को विदेशी धन्ना सेठों के हाथ में दे देने का जिसकी इस देश में अपनी एक अहमियत थी। मीटिंग कई घंटे तक चली थी और स्वभावतः सफलता प्रधानमंत्री के हाथ आयी। डील फाइनल हुई तो प्रधानमंत्री बहुत खुश हुए। खुश इतने कि 'आई हैव सोल्ड इट' कहकर चिल्ला उठे और उठे तो उठे लेकिन इतने झटके से उठे कि उनकी उस हड्डी में बल पड़ गया। कुर्सी नीचे लुढक गई थी। प्रधानमंत्री खड़े थे और कुर्सी लुढकी हुई थी। विदेशियों के चेहरे पर मुस्कराहट तारी थी और वे प्रधानमंत्री के अट्टहास को इंज्वाय कर रहे थे। परन्तु वास्तव में प्रधानमंत्री तब दर्द से कराह रहे थे। कहते हैं तब बहुत देर तक वहाँ बैठे लोग यही समझते रहे थे कि प्रधानमंत्री खुशी में चिल्ला रहे हैं जबकि उस समय प्रधानमंत्री दर्द मंे चिल्ला रहे थे। उनका दर्द एकदम असह्य था।

खबर यह भी थी कि प्रधानमंत्री निवास के उस बाथरूम में जिसमंे प्रधानमंत्री स्नान करते थे और तरोताजा होकर काम पर जाते थे उसमें कम से कम एक महीने से एक नल टपक रहा था। प्रधानमंत्री पिछले एक महीने से उस नल की शिकायत प्रधानमंत्री निवास के व्यवस्थापकों से करते रहे थे लेकिन उस शिकायत को सुनने वाला कोई नहीं था। कभी मिस्त्री छुट्टी पर होता, कभी नल का वाॅसर उपलब्ध नहीं होता तो कभी मिस्त्री का काम करने का मूड नहीं होता। एक बार उस नल को ठीक करने की कोशिश की भी गई तो उस नल के अतिरेक को रोकना संभव नहीं हो पाया। कहते हैं नल के लगातार टपकने से वहाँ कजली-सी बैठ गई थी और उस दिन प्रधानमंत्री जब उस महारत्न कंपनी को लगभग बेच कर खुशी-खुशी अपने निवास पर लौटे थे और प्रसन्नता में एक बार फिर नहाने बाथरूम में घुसे थे तब खुशी में वे उस बाथरूम की उस फिसलन का ध्यान नहीं रख पाये थे और फिर वही सब।

क्या आपने दिल्ली में कभी तितलियों को देखा है?

यह अस्पताल आलीशान बंगले की तरह था। कैम्पस में घुसते ही फूलों का पूरा एक बागीचा था जिसमें तरह-तरह के फूल लगे हुए थे। लाॅन में हरी घास की एक चादर बिछी हुई थी। एकदम हरी। घास की इस चादर में सारी घास बराबर कटी हुई थी। न एक बड़ी न एक छोटी। फूलों के बीच तितलियाँ थीं। दिल्ली में तितलियाँ। लाॅन के बाद मुख्य दरवाजे के ऊपर एक छत तिरछी थी जिस पर पानी आराम से लेटता हुआ नीचे की ओर आता था। तिरछी छत एक ऐसी छत थी जिस पर से पानी ही नहीं पैसों के सिक्के भी रखे जाते तो वे नीचे की ओर लुढक जाते। दरवाजे शीशे के थे। उन दरवाजों पर उस अस्पताल का नाम और उसकी पहचान खुदी हुई थी। आप उस दरवाजे के सामने जाते तो वे दरवाजे अपने आप ही खुल जाते और उसी के साथ आपके लिए उस अस्पताल के नाम और उसकी पहचान भी खुल जाती। दरवाजे के खुलते ही भीतर ठंडी हवा के झोंके मन को खुश करने की कोशिश करते। फर्श एकदम चिकनी थी। अगर उस पर एक दाग लग जाता था तो उसके लिए आदमी नियत थे, जो उसे तुरंत खत्म कर देते थे। वहाँ बैठने के बहुत सारे इंतजाम थे। एस के आकार के सोफे थे। जो बहुत गद्देदार थे। सामने रखे टेबल पर पत्थर के टुकड़े थे। पत्थर भी चिकने थे। उस पत्थर को हाथ में लेकर देर तक सहलाने का मन करता था। लेकिन उस पत्थर को सिर्फ़ चुपके से ही हाथ में लेकर सहलाया जा सकता था क्योंकि उन पत्थर के चिकने टुकड़ों को वहाँ से उठाने की इजाज़त नहीं थी।

उसी हाॅल के दूसरी ओर कैफेटेरिया जैसी कोई जगह थी जहाँ लोग 125 रुपये में एक कप चाय और 175 रुपये में आलू की भुजिया खाने में मस्त थे। वहाँ काफी भीड़-भाड़ थी और लोग काफी खुश थे। वहाँ उस दिन जब बीमार से मिलने आने वाले रिश्तेदार उस आलू की भुजिया और चाय में मग्न थे तभी अस्पताल को पुलिस ने घेर लिया था। अस्पताल एक छावनी में तब्दील हो गयी थी। पौधों से सारी तितलियाँ उड़ने लगी थीं। तिरछी छत से गिरने वाला पानी सतर्क हो गया था। तभी प्रधानमंत्री का काफिला उस अस्पताल में दाखिल हुआ था।

अस्पताल के मुख्य दरवाजे के भीतर गाड़ियों के लिए नीचे की ओर एक रास्ता था जहाँ गाड़ियाँ घुसकर गायब हो जाती थीं। गाड़ियाँ गोलाकार रास्ते पर कुछ देर घूमती हुई एक ऐसी जगह पर पहुँचती थीं जहाँ से यह सोचना भी बहुत अजीब लगता था कि अब यहाँ से बाहर निकलना क्या आसान है? लेकिन तभी वहाँ एक लिफ्ट दिखती और फिर गाड़ी से निकला हुआ आदमी ऊपर सीधे अस्पताल के अंदर दाखिल हो जाता।

परन्तु प्रधानमंत्री के काफिले के लिए ऊपर ही सुरक्षित पार्किंग थी। जहाँ गाड़ियाँ लगायी गयीं थीं वहाँ किसी को जाने की इजाजत नहीं थी। दिल्ली की तितलियाँ और देश के पक्षी भी वहाँ जा नहीं सकते थे।

प्रधानमंत्री अस्पताल में थे और पूरा देश दुखी था। पूरा देश इस खबर से अटा पड़ा था। कहीं हवन करवाया जा रहा था तो कहीं तरह-तरह की मन्नतें मांगी जा रही थीं। कुछ लोग दुुखी भी थे। अपनी प्रेमिका को अपनी गाड़ी में बैठाकर उस अंगूठी वाली सड़क पर फरार्टेदार गाड़ी दौड़ाने वाला प्रेमी इसलिए दुखी था कि वह सड़क लगभग अब जाम कर दी गयी थी। उस अस्पताल में दाखिल मरीजों के रिश्तेदार इसलिए दुखी थे कि उनके लिए अस्पताल एक जेल की तरह हो गया था। कुछ लोग न्यूज चैनलों पर एक ही खबर को सुन-सुन कर ऊबने से दुखी थे।

लेकिन गाँव में बैठे लोग वास्तव में बहुत दुखी थे। वे कहते "जब हमरा प्रधानमंत्री ही बेमार है तो देशवा का-का होगा?" दुख इतना था कि गाँव के बुजुर्गों ने अपने प्रधानमंत्री के लिए लगभग भोजन छोड़ दिया था। चूंकि गाँव के लोग पहले भी कम ही खा पाते थे इसलिए उनके लिए भोजन छोड़ देना कोई बड़ी बात नहीं थी।

प्रधानमंत्री बीमार थे और न्यूज चैनल के कैमरे चैबीसांे घंटे के लिए अस्पताल की तरफ मुंह बाये खड़े थे। चैनल पर प्रधानमंत्री की कोई ताजी तस्वीर नहीं थी। क्योंकि वह मिल नहीं सकती थी। अक्सर चैनलों पर प्रधानमंत्री की जो तस्वीर दिखाई जा रही थी उसमें प्रधानमंत्री कहीं बहुत तेजी से चलते हुए दिखाए जा रहे थे। चलना ऐसे जैसे बहुत तेज चलकर बहुत जल्द कहीं पहंुच जाना चाहते हों।

हाँ शुरुआत में हर घंटे पर फिर दो घंटे पर अस्पताल की तरफ से प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य के संदर्भ में प्रेस विज्ञप्ति जारी की जा रही थी। लोग हर घड़ी अस्पताल की तरफ से जारी की जा रही विज्ञप्ति को बहुत उम्मीद से सुनते थे।

किन्तु प्रधानमंत्री स्वस्थ नहीं हो पा रहे थे। डाॅक्टर कैमरों के सामने आते और उदास हो कर चले जाते। डाॅक्टर खुद कैमरे के सामने अंग्रेज़ी में यह कहते कि "बहुत आश्चर्य है कि एक हड्डी ऐसे कैसे टूट सकती है कि उसे जोड़ना या सही जगह पर बैठाना असंभव-सा जान पड़े और इसे टूटना भी कैसे कहा जाए, चाहें तो आप इसे उलझना कह लें।" लोगों ने हड्डी के लिए यह उलझना शब्द पहली दफा सुना था उन्हंे बहुत अजीब लगता था।

डाॅक्टर इशारों से समझाने की कोशिश करते कि कहाँ की हड्डी किस तरह टूट गई है और यह भी कि वह जिस जगह की हड्डी है उसे जोड़ना या उसे संतुलित करना क्यों कठिन से कठिनतर होता चला जा रहा है। अपने हर बयान में वे उम्मीद बंधाते कि "लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं है सीनियर डाॅक्टर्स का पैनल इस केस को स्टडी कर रहे हंै। हम जल्द ही इस अवसाद पर काबू पा लेंगे।"

रिपोर्टर पूछता "केस काॅम्पलीकेटेड हुआ कैसे?" और यह भी कि "अगर इस अस्पताल से यह केस संभल नहीं रहा है तो विदेश से डाॅक्टरों की फौज क्यों नहीं बुलायी जा रही है। आखिरकार यह एक देश के प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य का सवाल है।"

दिन बीतते रहे और अंततः यह भी करना पड़ा। अमेरिका से डाॅ। फ्रेंकफिन पिट की टीम को बुलवाना पड़ा और डाॅ। पिट प्रधानमंत्री की केस स्टडी करने लगे।

यह सब तो वे खबरें हैं जिन्हें उस अस्पताल में प्रधानमंत्री के कक्ष से बाहर निकल जाने दिया गया। प्रेस को अंदर जाने की इजाजत थी नहीं और डाॅ प्रधानमंत्री के दर्द को बाहर बतलाकर इस देश के इस संकट को और बढ़ाना नहीं चाहते थे। परन्तु सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री का दर्द इतना कठिन था कि वे अपने बिस्तर पर आराम से लेट नहीं सकते थे। प्रधानमंत्री अपने नरम और गद्देदार बिस्तर पर भी सिर्फ़ इस करवट या उस करवट ही लेट सकते थे। अगर कभी चित्त लेटने की कोशिश करते तो उनकी आत्मा से एक चीत्कार-सी निकलती थी। उनका बिस्तर से उठना और बैठना तो खैर असंभव ही था।

चूंकि डाॅक्टर प्रेस के सामने प्रधानमंत्री की हड्डी को समझाने की कोशिश करते थे इसलिए तमाम न्यूज चैनल वालों ने अपने वाल पर पूरा एक ग्राफ बना लिया था। उस ग्राफ में कल्पनाओं का प्रयोग कर हड्डी की सही जगह और वर्तमान समय में उसकी जगह को दर्शाया गया था और फिर उसे अपने यहाँ स्क्रीन पर बड़े आकार में टांग दिया जाता। विशेषज्ञ के रूप में डाॅक्टरों को स्टूडियो में बैठाया जाता। डाॅक्टर कहते "प्रधानमंत्री की हड्डी है जुड़ेगी तो ज़रा शान से।"

अखबार में कार्टून बनने लगा कि आखिर कैसे एक देश का प्रधानमंत्री सिर्फ़ लेट कर या खड़ा रहकर एक देश को चला सकता है। बगैर बैठे प्रधानमंत्री कैसे दस्तखत करेंगे इतने कागजातों पर। कौन लालकिले से फहरायेगा झंडा।

यह अजीब लग सकता है कि आखिर शरीर की कोई भी हड्डी इस तरह टूट, छिटक या उलझ कैसे सकती है कि उसका ठीक होना मुश्किल हो जाये। किन्तु हो तो कुछ भी सकता है।

आप विश्वास कीजिए कि प्रधानमंत्री बीमार थे और देश के सारे न्यूज चैनल जब उसमें लगे हुए थे तब देश के एक छोटे से गाँव में बच्चा बाबू उस खबर के कारण बहुत उदास थे। वे अखबार को बहुत बारीकी से पढते और समझने की कोशिश करते। उस अखबार के मुख्य पृष्ठ पर कभी प्रधानमंत्री की हड्डी का सही ठिकाना छपता तो कभी ढेर सारे विशेषज्ञों की राय। बच्चा बाबू उन तस्वीरों को देखते और विचार शून्य हो जाते। उनके मन के भीतर का डाॅक्टर उस हड्डी को सही जगह देने लगता।

बच्चा बाबू अपने गाँव वालों से 'शाम' शब्द को चबाकर निगलकर कहते "शाम इतनी धुंधली क्यों है? चेहरा साफ-साफ दिखता क्यूं नहीं? प्रधानमंत्री एक दिन अवश्य खड़े होंगे।" बच्चा बाबू अपने मन के भीतर जानते हैं यह कुर्सी से चिहुक कर उठने का आघात नहीं है। शरीर की कोई हड्डी इतनी नाजुक कभी नहीं होती कि वह जीवन की खुशी को बर्दाश्त नहीं कर सके। बच्चा बाबू जानते हैं कि प्रधानमंत्री के बाथरूम में काई अवश्य है।

एक छोटे से गाँव में बैठे बच्चा बाबू अपनी बातों को प्रधानमंत्री तक पहुँचा नहीं सकते हैं लेकिन अपने मन के भीतर उन्हंें एक अफसोस है, उन्हें अगर एक मौका दिया जाता तो वे सफलता हासिल कर सकते थे। परन्तु मौका तो दूर की बात है प्रधानमंत्री तक उनकी बातों को पहुँचायेगा कौन?

ल्ेकिन दिन बीतते जा रहे थे और डाॅ पिट केस स्टडी में लगे ही रहे। प्रधानमंत्री दर्द से कराहते ही रहे।

आम आदमी की ज़िन्दगी मंे स्वप्न की तरह दस्तक देते हैं प्रधानमंत्री

उस दिन विशेष के लिए बच्चा बाबू के दरवाजे पर पहले से ही हाथ से लिखा हुआ एक नोटिस चिपका दिया गया था कि "इस महीने की तेइस तारीख दिन बुधवार को बच्चा बाबू सुबह से शाम तक उपस्थित नहीं रहेंगे। इसलिए कृपया उस एक दिन को आप अपनी हड्डियों को आराम दें।" नोटिस में 'सुबह से शाम' को कलम से मोटा करने की कोशिश की गई थी और उसके नीचे एक लाइन भी खींच दी गई थी।

वह दिन बच्चा बाबू के लिए एक तनाव भरा दिन था। शहर में वे दिन भर यहाँ से वहाँ कचहरी का चक्कर लगाते रहे थे। लेकिन सफलता कुछ भी हासिल नहीं हुई थी। जमीन के केस में बच्चा बाबू कचहरी का चक्कर लगा रहे थे। बच्चा बाबू को कचहरी में यह साबित करना था कि वह जमीन जो कभी बच्चा बाबू के लिए प्रयोगशाला कि तरह थी आखिर उनकी कैसे है? और दिनों की तरह ही आज भी कचहरी में वकील आपस में उलझते रहे और बच्चा बाबू तमाशा देखते रहे।

बच्चा बाबू वकील को देखते हैं और अपने मन में सोचते हैं "यह कैसा सवाल है।" "साले जिस मुंह से तुम इतना बकर-बकर करते हो वह तुम्हारा कैसे है?" "साला यह मुंह तुम्हारा है इससे ज़्यादा और क्या प्रमाण चाहिए तुम्हंे।"

लेकिन कचहरी की इस बकवासबाजी की नौबत आने से पहले भी बच्चा बाबू को कचहरी में यहाँ से वहाँ तक खूब चक्कर कटवाया गया। फिर इस बकवासबाजी के बाद भी। आखिर अगली तारीख कौन-सी है।

और कोई काम होता तो निश्चित रूप से बच्चा बाबू थक से जाते या ऊब कर हार स्वीकार कर लेते लेकिन यह उनकी जमीन का मामला था। उस जमीन का जिसे वे बहुत प्यार करते थे। प्यार इतना कि उन्हें अपनी बांहों में भरकर सोया करते थे। जबसे यह जमीन गई है बच्चा बाबू पूरी नींद कभी सो कहाँ पाये हैं।

बच्चा बाबू जब शहर से घर की तरफ लौटे तब थककर चूर हो चुके थे और यह थकान कुछ ज़्यादा इसलिए भी लग रही थी कि उनकी जमीन की उन तक लौट कर आने की संभावना अब लगभग क्षीण ही होती जा रही थी। हर बार की तरह इस बार भी लौटे तो उनके हाथ में सिर्फ़ अगली तारीख थी। तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख मीलाॅर्ड।

बच्चा बाबू घर पहंचे तो अँधेरा घिर चुका था। उन्होंने देखा कि दरवाजे के बाहर वह सूचना अब भी गत्ते पर चिपकी हुई थी। उन्होंने घर में प्रवेश करने से पहले उस गत्ते को उखाड़कर अपने पास रख लिया। अगली तारीख की सूचना के लिए। घर में पत्नी कल्याणी उदास बैठी थी। आंगन में एक लालटेन जल रही थी। लालटेन का शीशा धुएँ से थोड़ा काला पड़ गया था इसलिए रोशनी थोड़ी कम हो गयी थी। पत्नी उदास थी लेकिन सच को जानती थी इसलिए उसने अपने पति से इस बाबत कुछ पूछा नहीं। उठकर रसोई में गई और एक लोटा उठाया और चापाकल से पानी लाकर पति को दिया। चापाकल को पहले थोड़ा चलाया गया था ताकि पानी ठंडा आ सके। बच्चा बाबू ने लोटा अपने हाथ में ले लिया परन्तु उस पानी को पीया नहीं बल्कि जूते उतारकर उससे अपने पैर धो लिये। पैर पर पानी से ठंडक महसूस हुई। पैर पर से धूल उतर गई। कल्याणी वहीं खड़ी थीं। उसने फिर से लोटा ले लिया और इस बार बगैर चापाकल को कई बार चलाये सीधे उससे पानी भर लिया।

इस बार बच्चा बाबू ने उस लोटे के पानी को अपने गले में उड़ेल लिया। शायद सोचा भी हो कि पहले वाला पानी बनिस्पत ज़्यादा ठंडा था।

पानी पीने के बाद अँधेरा शब्द को बच्चा बाबू ने चबा कर निगल लिया। पत्नी ने समझ लिया कि यह शब्द अँधेरा है। उसने अनुमान लगाया कि 'अंधेरा बहुत है ऐसा कुछ कहना चाहते हैं वे।' इसलिए वह लालटेन की बत्ती को थोड़ा बढ़ाने के लिए चल दीं। लेकिन बच्चा बाबू ने कहा "अंधेरगर्दी है चारांे तरफ। कोई सुनने वाला नहीं।"

कल्याणी जो अब तक लालटेन की ओर बढ़ रही थीं अचानक से मुड़कर रसोई की ओर चल दीं। ऐसे जैसे कुछ सुना ही नहीं हो।

बच्चा बाबू चूंकि उस दिन बहुत थके और चिढे हुए थे इसलिए वे इतना निराश थे, नहीं तो उनकी उम्मीदें अभी न्यायतंत्र से बिल्कुल खत्म नहीं हुई थी।

थके हुए बच्चा बाबू वहीं खाट पर लेट गए और फिर धीरे-धीरे नींद के आघोश में चले गए। आसमान में तारे थे। बच्चा बाबू जिस खाट पर लेटे हुए थे ठीक उस जगह पर आसमान में आठ तारे थे। बच्चा बाबू ने सोते-सोते इन्हें गिन लिया था।

नींद बहुत गहरी थी। पत्नी ने जब खाने के लिए बच्चा बाबू को जगाया तो वे अचानक घबरा से गए। उन्हें औचक लगा जैसे खाट के ठीक ऊपर वाले आठों तारे आपस में टकरा कर उनके ऊपर गिर गए हैं। वे घबरा कर उठ बैठे और उनके मुंह से अचानक निकला "सालो मैं बच्चा बाबू हूँ। मुझे क्या तुम सब मिलकर मार डालोगे।" घबरा कर अचानक उनके मुंह से निकले इस वाक्य में कोई रुकावट नहीं थी। उन्होंने इसमें कोई शब्द चबाया नहीं था। ऐसा बच्चा बाबू के साथ कभी-कभी ही होता था जब वे घबराकर अचानक मुंह से कुछ निकाल देते थे।

कल्याणी ने घबराहट में निकले वाक्य को सुना लेकिन उनको कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने थाली उनकी खाट पर रख दी और पानी लाने चल दीं। बच्चा बाबू उठकर बैठ गए और खाना शुरू कर दिया। लगभग नींद में ही दो-चार रोटी खाई। फिर खाट पर से ही हाथ को जमीन की तरफ कर लोटे से पानी डाल कर हाथ धो लिया। थाली नीचे कर लेटने को हुए फिर अचानक से उठ बैठे और आंगन के दूसरी छोर की ओर चल दिये। आंगन में दो अमरूद के पेड़ थे, दो नारियल के और सेम की बहुत बड़ी लत्ती थी। एक छोटा-सा बगीचा भी था जिसमें बैगन के पौधे लगे थे। हरा बैंगन उसमें फलता था। बच्चा बाबू को बैंगन का तरुवा बहुत अच्छा लगता था।

बच्चा बाबू खाट से उठकर बैंगन के बगीचे तक गए और वहीं बैठकर लघुशंका करने लगे। फिर खाट पर आकर सो गए। बच्चा बाबू ने सोते-सोते देखा उनकी खाट के ऊपर तारे और गझिन हो गए थे शायद दस-पंद्रह। वे गिन नहीं पाये। खाट पर लेटते-लेटते उनके मुंह से बुदबुदाहट जैसा निकला "बहुत मुश्किल है इस दुनिया में रहना।" पत्नी घर के भीतर पलंग पर सोइ थी।

बच्चा बाबू गहरी नींद में थे और रात गहरी अंधेरी थी। बच्चा बाबू गहरी नींद में थे और सपना देख रहे थे। उनके सपने में उनके दोनों बच्चे थे। दोनों बच्चे यानी खेत के वे दो टुकड़े। बच्चा बाबू ने अपने सपने में देखा कि वे फूल सिंह से केस लड़ रहे हैं और तारीख पर तारीख चल रही है और इस बीच उनके दोनों खेत फूल सिंह के खूंटे से बंधे पड़े हैं। दोनों की गरदन में दो पट्टे हैं। बच्चा बाबू दौड़ रहे हैं, पस्त हो रहे हैं और फिर एक दिन रात के गहरे अंधेरे में बच्चा बाबू के वे दोनों बेटे फूल सिंह के खूंटे से अपना पट्टा खोल कर भागे चले आए। बच्चा बाबू ने दरवाजा खोला तो उनके दोनों बेटे दरवाजे पर आंसू बहा रहे थे। बच्चा बाबू दरवाजे पर अपने दोनों बच्चों को देखकर वहीं हुलस कर उनसे गले मिले और उनके आंसू पोंछे और यह भी कहा कि "आओ मेरे बच्चो अंदर आओ अपने घर में आओ यह घर कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था।" बच्चा बाबू सपना क्या देख रहे थे यह तो वहाँ बैठे किसी भी आदमी के लिए समझना असंभव था परन्तु वहाँ अगर कोई आदमी चुपचाप बैठकर बच्चा बाबू की बातें सुनता तो वह ज़रूर समझ सकता था कि बच्चा बाबू वास्तव में अपने सपने में क्या देख रहे हैं। बच्चा बाबू जो देख रहे थे वह तो सपने में था लेकिन जो बोल रहे थे वह हकीकत में था।

सपने के दूसरे हिस्से में उनके खेत के दोनों टुकड़े आंगन में बैठे थे और बच्चा बाबू उनसे बतिया रहे थे। खेत के दोनों टुकडे़ आंगन में धमाचैकड़ी मचा रहे थे और बच्चा बाबू देख रहे थे। वे यहाँ से वहाँ आंगन में दौड़ रहे थे। खेत के दोनों टुकड़े आंगन में हवा में उड़ रहे थे और बच्चा बाबू संतुष्ट भाव से बस उन्हंे देख रहे थे।

यह रात के लगभग ढाई-तीन बजे का समय होगा कि तभी बच्चा बाबू का दरवाजा वास्तव में खटका। दरवाजा धीरे-धीरे खटकाया जा रहा था। एक रहस्यमयी अंदाज में इसलिए कल्याणी के सुनने का तो सवाल ही नहीं था। बच्चा बाबू भी चूंकि अपने खेत के दोनों टुकड़ों के साथ मस्त थे इसलिए वे भी बहुत देर बाद उस खटखटाने को सुन पाये। लेकिन जब उन्होंने सुना तब वे उठे और आंगन से सीधे गलियारे को पार कर मुख्य दरवाजे की ओर बढ़ गए। उनकी नींद खुल तो गई थी लेकिन बहुत चेतन अवस्था में नहीं थे वे। उनके हाथ में एक टार्च था और उन्हें लगा था कि सच में उनके खेत उनके दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। उन्होंने दरवाजा खोला और कहना शुरू कर दिया "आओ मेरे बच्चांे अंदर आओ अपने घर में आओ यह घर कब से तुम्हारा..." बच्चा बाबू अपनी बात पूरी कर रहे थे कि उनकी चेतना थोड़ी-सी लौटी और उन्होंने देखा के दरवाजे के ठीक सामने दो हट्टे-कट्टे आदमी खड़े थे। दोनों सफारी सूट पहने थे और दोनों के सफारी सूट में एक-एक पाॅकेट थी। बच्चा बाबू कुछ समझ पाते या डर से चिल्ला पाते उससे पहले ही एक सफारी सूट वाले ने अपने रुमाल से उनके मुंह को बन्द कर दिया और दूसरे ने पीछे से उन्हें पकड़ लिया और फिर दोनों उन्हें उसी आंगन में पकड़ लाये जहाँ से बच्चा बाबू उठकर गए थे।

बच्चा बाबू की नींद अब बिल्कुल खुल चुकी थी। इसलिए जब उन्हें जबरदस्ती ही सही अंदर लाया गया तो वे इतना तो अवश्य समझ चुके थे कि उन्हें किडनैप नहीं किया जा रहा है और यह भी स्पष्ट था कि ये फूल सिंह के गुंडे नहीं थे क्योंकि वे इस तरह सफारी सूट में क्यों आते और वे इतनी कम जबरस्ती क्यों करते। लेकिन वे समझ नहीं पा रहे थे कि तब ये हैं कौन और माजरा क्या है?

दोनों सफारी सूट वालों ने बच्चा बाबू को बाइज्जत खाट पर बैठा दिया। लेकिन बच्चा बाबू चिल्लाना न शुरू कर दें इसलिए उनके मुंह से अभी रुमाल हटाया नहीं गया था। फिर दोनों ने पूरे माजरे को समझाना चाहा। लेकिन जो बातें वे दोनों बच्चा बाबू को समझाना चाहते थेे वास्तव में वे उससे भी ज़्यादा अविश्वसनीय थीं। किसी भी आम आदमी के लिए यह कितना अधिक अविश्वसनीय हो सकता है कि कोई उससे अचानक यह कह दे कि उनके यहाँ प्रधानमंत्री आये हैं।

...परन्तु सच यही था।

रुमाल से बंद अपने मुंह से बच्चा बाबू ने घों-घों की आवाज के साथ इशारों में यह पूछना चाहा कि आखिर वे कौन हैं और उनसे क्या चाहते हैं?

"हमसे डरें नहीं हम सुरक्षाकर्मी हैं" सामने बैठे सफारी सूट वाले ने कहा।

"सुरक्षाकर्मी?" बच्चा बाबू ने अपने चेहरे के एक्सप्रेशन से ऐसा जानना चाहा।

"हम तो लोगों की जान बचाते हैं।"

"ऐसे!" बच्चा बाबू ने हिकारत की निगाह से उन्हें देखा। अपनी निगाह थोड़ी नीची कर अपनी ओर इशारा किया।

"नहीं, नहीं आप ग़लत समझ रहे हैं हम प्रधानमंत्री के सुरक्षागार्ड हैं। हमारे साथ खुद प्रधानमंत्री आए हैं।"

"..." बच्चा बाबू सुन्न से हो गये।

"आप चिल्लायें नहीं तो हम रुमाल हटा दें आपके मुंह से। फिर हम आपको सारी बातें समझा देंगें।"

बच्चा बाबू ने अपने मुंह को ऊपर-नीचे करके स्वीकृति दी। बच्चा बाबू के मंुह पर से रुमाल हटा लिया गया। उन्होंने सबसे पहले दो-चार लम्बी-लम्बी सांसें लीं।

दोनों सफारी सूट वालों ने फिर से उन्हें यह समझाना चाहा कि वे वास्तव में प्रधानमंत्री के सुरक्षा गार्ड हैं। बाहर गाड़ी मंे प्रधानमंत्री लेटे हैं। उन्होंने बच्चा बाबू को यह सख्त हिदायत दी कि वे शोर न मचायें क्योंकि लोगों को बिल्कुल भी यह पता नहीं चलना चाहिए कि यहाँ प्रधानमंत्री हैं।

बच्चा बाबू को बाहर लाया गया। बाहर सिर्फ़ एक गाड़ी थी। बच्चा बाबू को थोड़ा आश्चर्य हुआ और सबकुछ एक मजाक जैसा लगा कि क्या प्रधानमंत्री एक गाड़ी में किसी के दरवाजे पर आ सकते हैं। परन्तु वह गाड़ी बहुत अजीब तरह की थी। वैसी गाड़ी बच्चा बाबू ने अपनी ज़िन्दगी में कभी सीधे या टेलीविजन पर देखी नहीं थी। गाड़ी लम्बी थी और उसके शीशे बन्द थे। गाड़ी के पहिये चैड़े थे। गाड़ी दो हिस्सों में बंटी थी। एक जिधर ड्राइवर था उधर कुछ और लोगों के बैठने की व्यवस्था थी। बच्चा बाबू ने अंदाज लगाया कि यह जो दो सफारी सूट वाले सुरक्षाकर्मी हैं वे वहीं बैठे रहे होंगे। गाड़ी के दूसरे हिस्से की लम्बाई ज़्यादा थी। सफारी सूट वालों ने उस गाड़ी के लम्बे हिस्से की तरफ का दरवाजा खोला। बच्चा बाबू के चेहरे पर अचानक ठंडी हवा का झोंका आया। अंदर बैठने की जो जगह थी वह बहुत ही गद्देदार थी।

गाड़ी में एक बिस्तर लगा हुआ था जिसमें प्रधानमंत्री सो रहे थे। प्रधानमंत्री को पेन किलर और नींद की दवा दी गई थी ताकि उन्हें कोई कष्ट नहीं हो। दोनों सफारी सूट वालों ने टाॅर्च की रोशनी प्रधानमंत्री के चेहरे पर नहीं बल्कि गाड़ी की छत की ओर दी ताकि प्रधानमंत्री को कोई तकलीफ भी नहीं हो और चेहरा नजर भी आ जाए।

बच्चा बाबू ने देखा बिस्तर पर लेटे प्रधानमंत्री के अलावा उस गाड़ी के भीतर दो लोग और थे। एक महिला थीं जो शायद प्रधानमंत्री की पत्नी होंगी ऐसा बच्चा बाबू ने अनुमान लगाया। दोनों उस घुप्प अंधेरे में बिल्कुल चुप बैठे थे। बच्चा बाबू ने प्रधानमंत्री के चेहरे पर अपनी निगाह डाली। एकदम हूबहू वही शक्ल। इस शक्ल को टेलीविजन और अखबार में वे कई बार देख चुके हैं। लेकिन कभी सोचा नहीं था कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि वे प्रधानमंत्री को इतने करीब से देख पायेंगें। बच्चा बाबू ने सोचा यह चेहरा तो वाकई बहुत गोरा है।

टाॅर्च की रोशनी बंद कर बच्चा बाबू को वे दोनों सफारी सूट वाले फिर से साथ आंगन में ले आये।

वैसे तो प्रधानमंत्री को देखकर बच्चा बाबू ने सब समझ लिया था। लेकिन वे उन सफारी सूट वालों से सब सुनना चाह रहे थे कि आखिर वे उनसे चाहते क्या हैं। अभी वे खाट पर बैठे ही थे कि उनके सामने एक मोटा-सा आदमी अचानक से पता नहीं कहाँ से आकर खड़ा हो गया। वह थोड़ा रौबदार लग रहा था और उसका चेहरा थोड़ा सख्त था। बच्चा बाबू ने देखा कि वह आदमी वह नहीं है जो उस लम्बी गाड़ी में प्रधानमंत्री के साथ था। उन्होंने समझ लिया कि वह मोटा आदमी कोई बड़ा अधिकारी है और निस्संदेह आगे-पीछे और भी गाड़ियाँ आयी हैं। प्रधानमंत्री के साथ कितनी गाड़ियाँ आयी हैं बच्चा बाबू यह तो समझ नहीं पाये लेकिन इतना वे अवश्य समझ गए कि अन्य गाड़ियाँ और अन्य सुरक्षाकर्मी कहीं आसपास अवश्य बिखरे हुए हैं। बच्चा बाबू ने महसूस किया कि उस मोटे आदमी का रंग काला था। वैसे उनके मन में यह भी आया कि क्या पता उसके चेहरे पर रात का कालापन ही ज़्यादा हो। वह दक्षिण भारतीय था लेकिन बहुत अच्छी हिन्दी बोल पा रहा था।

टाॅर्च को जला कर खाट पर छोड़ दिया गया था जिससे आंगन में हल्की रोशनी वर्तमान थी। इतनी रोशनी जिससे बात हो सके।

"प्रधानमंत्री बीमार हैं।" उस अधिकारी ने खाट पर बैठे बच्चा बाबू को ऐसी प्राथमिक जानकारी दी जैसे उस गाँव में देश की कोई खबर आ ही नहीं पाती होगी।

"इसी देश मंे रहता हूँ मैं, मुझे सब मालूम है।" बच्चा बाबू ने 'इस' को चबा कर थोड़ी बेरुखी से जवाब दिया।

"फिर तो आप यह भी समझ गए हैं कि प्रधानमंत्री यहाँ क्यों आये हैं। सुना है कि हड्डियाँ आपके इशारों पर नाचती हैं।" फिर रुककर "अब अवसर आया है कि आप अपना जौहर दिखा सकें और इस देश के कुछ काम आ सकें।" दोनों सफारी सूट वाले बस अब खड़े थे और सारी बातें अब वह अधिकारी ही कर रहा था।

"हमें आपसे बहुत उम्मीदें हैं। हम जानते हैं कि अब सब ठीक हो जायेगा।" बच्चा बाबू बस सुन रहे थे।

"बस आपसे इतना आग्रह है कि इस बात की खबर किसी को नहीं हो कि यहाँ प्रधानमंत्री हैं। आपको इतनी बड़ी खबर को अपने पेट के भीतर गुम कर देना होगा।"

बच्चा बाबू के मन में एक जो शंका उपजी वह यह थी कि इस गाँव में रात के अंधेरे में इस गाड़ी को लाना क्या खतरनाक नहीं था। बच्चा बाबू ने अपने मन की इस शंका को एक सवाल की तरह उस दक्षिण भारतीय अधिकारी के सामने रखा। इस सवाल को सामने रखते हुए बच्चा बाबू सोच रहे थे कि कम से कम इस एक सवाल पर वह अधिकारी चैंक जायेगा अपनी गलती को समझने की कोशिश करेगा। परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ।

"गांव के बूढ़े सोते कम हैं और खांसते ज़्यादा हैं तो क्या आपकी गाड़ी का रहस्य सिर्फ़ मेरे पेट में गुम कर देने भर से गुम हो जायेगा।" इस सवाल को बोलते हुए बच्चा बाबू ने 'गांव' शब्द को चबाया और अपने चेहरे पर एक कठोरता रखी।

"आप शायद भूल रहे हैं कि यह प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य का सवाल है। यह व्यवस्था उनके लिए है। यह गाड़ी जब चलती है तब ऐसा लगता है जैसे यह सड़क पर चल नहीं रही है बल्कि पानी पर तैर रही है। आप विश्वास करें यह गाड़ी जब चलती है तब बगल में सोये हुआ कुत्ते की नींद पर भी कोई असर नहीं पड़ता है।"

"हम पूरी तैयारी में हैं।" उस अधिकारी ने एक साथ ही सारी शंकाओं का निदान कर दिया।

"प्रधानमंत्री के साथ यहाँ मात्र दो व्यक्ति रहेंगे जो उनकी देख रेख करेंगे। सुरक्षा कि जिम्मेदारी हमारी है हमारे आदमी यहाँ वहाँ हर जगह सामान्य लोगों की तरह रहेंगे।"

वह अधिकारी लगातार बोल रहा था। बच्चा बाबू को एक खीझ-सी हुई। परन्तु उन्होंने संतुलित होकर ही जवाब देना उचित समझा।

"आप निश्चिंत रहें प्रधानमंत्री बिल्कुल तंदरुस्त हो जायेंगे। वे फिर से बैठ पायेंगे और इस देश को सुचारू ढंग से चला पायेंगे।" बच्चा बाबू के चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव था।

"आपका बहुत नाम है। बस आप यूं समझ लीजिए कि इस देश को आपसे बहुत उम्मीदें हैं।" वह अधिकारीनुमा आदमी यह कहकर चलने को हुआ और फिर लौट आया।

"मैं यह फिर से कह दे रहा हूँ कि हमारी ओर से कोई चूक नहीं होगी बस आपको यह हर हाल में ध्यान रखना है कि प्रधानमंत्री यहाँ हैं यह बात इस चहारदीवारी के बाहर नहीं निकलनी चाहिए।" उस अधिकारी ने फिर थोड़ा विराम दिया और फिर कहा-

"प्रधानमंत्री की खबर को बाहर निकालना एक तरह का देशद्रोह है और हम तो जानते हैं कि आप इस देश को कितना प्रेम करते हैं।" यह शायद एक चेतावनी थी।

बच्चा बाबू के चेहरे पर एक खिंचाव आ गया।

सच का कोई अपना अस्तित्व नहीं होता। सच सिर्फ़ वह होता है जो हमें दिखाया और सुनाया जाता है।

प्रधानमंत्री बीमार थे और पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ था। मीडिया के पास तो खैर खबर महज इतनी ही आती थी कि प्रधानमंत्री की हड्डी जुड़ नहीं पा रही है और विदेश से आये डाॅक्टरों का जत्था इस केस के स्टडी में लगा हुआ है और एक दिन ऐसा आयेगा कि वे स्वस्थ हो जायेंगे। लेकिन हालात इतना सामान्य नहीं थे।

हुआ कुछ यूं था कि डाॅ। पिट की टीम ने अपनी स्टडी में बहुत बारीकी से इसे देखकर यह कह दिया था कि हड्डी है तो जुड़ ही जायेगी इसमें तो कोई समस्या है ही नहीं। समस्या सिर्फ़ इसमें है कि यह हड्डी इस कदर से टूट कर उलझ गई है कि उसको एकदम नियत जगह पर बैठाना बहुत मुश्किल है। हड्डी जुड़ जायेगी लेकिन प्रधानमंत्री उसके बाद भी ठीक उसी तरह बैठ पायेंगे इसमें संदेह है। यूं डाॅ। पिट ने इसकी संभावना जताई थी कि हो सकता है कि सब ठीक हो जाये और प्रधानमंत्री पूरी तरह स्वस्थ हो जायें। उन्होंने इसकी इजाज़त मांगी थी कि उन्हें यह आॅपरेशन करने की इजाज़त दी जाए। लेकिन वे इस बात की जिम्मेदारी लेने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे कि वे प्रधानमंत्री को स्वस्थ कर ही देंगें और जब उन्हें जिम्मेदारी लेने के लिए कहा गया था तब उन्होंने मुंह बनाकर एक ताना जैसा मार दिया था कि "आप भारतीय बचपन से ही आलसी होते हैं। शरीर को कभी कष्ट देना नहीं है और चाहते हैं कि हड्डी में घोड़ों वाली मजबूती रहे।"

फिर अधिकारी की तरफ सीधा मुखातिब होकर कहा "आपको कितने दिन हो गए पैदल सब्जी लाए हुए।" अधिकारी वाकई अपने मन में सोचने लगे। कुछ याद नहीं आया।

"आपने आज दूध पीया है। हरी सब्जी खाई है। फल को हाथ लगाया।" यह सब डाॅ। पिट अनवरत बोल रहे थे। "फिर यह उम्मीद क्योंकि हम आपकी हड्डियों को जादू की तरह नियत कर दें।"

लेकिन यह सब जो हालात चल रहे थे यह अंदरूनी थे। इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं थी कि वह बाहर छन कर भी आ सके।

एक सप्ताह गुजरने को था और प्रधानमंत्री की हड्डी जस की तस थी। परन्तु सवाल यह था कि ऐसा कब तक चल सकता है। अब और ज़्यादा दिनों तक हड्डी को जस की तस छोड़ा जा नहीं सकता था और डाॅ। पिट को एक्सपेरिमेण्ट करने की इजाज़त देने में बहुत बड़ा खतरा था। यह बहुत बड़ी दुविधा थी। इस दुविधा कि जानकारी महज चन्द लोगों को थी। सिर्फ़ उनको जो प्रधानमंत्री के कक्ष तक जा सकते थे। प्रधानमंत्री वहाँ अपने बिस्तर पर लेटे रहते और कातर निगाहों से बस देखते रहते थे।

लेकिन प्रधानमंत्री निवास का वह माली घोलट सिंह प्रधानमंत्री के लिए एक अदद अवसर लेकर आया था। घोलट सिंह वास्तव में उसी गाँव का रहने वाला था जहाँ बच्चा बाबू अपने जादू से हड्डियों के साथ खेला करते थे। घोलट सिंह को पूरा विश्वास था कि ऐसी कोई हड्डी शरीर में बनी नहीं जो अपने आप को बच्चा बाबू के कौशल के सामने नतमस्क न कर दे। वह अपने प्रधानमंत्री से बहुत प्यार करता था। इसलिए वह चाहता था कि वे जल्द से जल्द स्वस्थ हो जाएँ।

जिस दिन प्रधानमंत्री के साथ ऐसा हुआ घोलट सिंह उस दिन से इस फिराक में था कि उन्हें एक बार बच्चा बाबू को दिखा दिया जाए। उसने अपनी औकात के मुताबिक इस बात को रखा भी परन्तु प्रधानमंत्री का इलाज एक देशी झोला छाप डाॅक्टर करेगा इस सोच से भी घबराहट होती थी। घोलट ने बहुत समझाना चाहा था कि आप लोग नहीं जानते हैं उन्हें, वे एक मसीहा कि तरह हैं। अपने गाँव की कहानियाँ भी उसने उदाहरण के तौर पर प्रधानमंत्री के घर वालों और इनको-उनको सुनानी चाहीं। कई कहानियाँ कि कैसे उस गाँव में ताड़ के पेड़ पर ताड़ी निकालने चढ़े बुधन की रस्सी ऊपर ही टूट गई थी और कैसे वह वहीं से गिर कर एकदम बेहोश हो गया था। ऊपर से गिरा बुधन तो सीधे टांग के बल। यानी टांग खड़ी की खड़ी और फिर क्या था उसकी दाहिने टांग की हड्डी निकल कर बाहर आ गई थी। घोलट कहता "आपको विश्वास नहीं होगा साहब जहाँ बुधना गिरा था उससे दस कदम दूरी पर उसकी टांग की हड्डी पड़ी थी, एकदम से तड़पती हुई। साहब कोई बड़ा डागडर भी ठीक नहीं कर सकता था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि बुधना अब कभी उठ पायेगा। लेकिन साहब वे तो मसीहा हैं उन्होंने बुधना को ऐसा कर दिया कि आप उसके पीछे कुत्ते दौड़ा लो।"

सही बात तो यह है ही कि घोलट चाहे लाख बकवास कर ले लेकिन उसकी कोई सुन नहीं रहा था। लेकिन इधर कुआं उधर खाई वाली हालत जब आई यानी जब डाॅ। पिट ने यह कह दिया कि प्रधानमंत्री बैठने के लायक हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं तब प्रधानमंत्री के करीब के लोगों ने एक बार घोलट की बातों पर भी ध्यान दिया। फिर घोलट को अस्पताल के प्रधानमंत्री कक्ष में बुलाया गया और यह इतना बड़ा निर्णय लिया गया।

प्रधानमंत्री को एक बार बच्चा बाबू को दिखा दिया जाए इस निर्णय तक पंहुचने के बाद एक राय यह भी आई और आई क्या बहुत ही ठोस रूप में आई कि बच्चा बाबू को यहीं क्यों नहीं बुला लिया जाए। लेकिन घोलट इसके सख्त खिलाफ था।

"साहब वे तो तपस्वी आदमी है उन्हें वहाँ से उखाड़िये मत। यहाँ की चमक-दमक में वे अपने दिमाग को कहाँ स्थिर कर पायेंगे! उनके इलाज की मायने तो तभी हंै जब उनकी कर्मस्थली पर जाया जाए।"

"उ ठहरे एकदम ठेठ आदमी। कुर्ता धोती पहन के कंधे पर गमछा रखने वालेे। अपनी खेती करते हैं, गाय पालते हैं और पान खाकर अपने गाँव में शान से घूमने वाले बच्चा बाबू। कब निकले ही अपने गाँव से बाहर। दो गो बेटी थी उसको भी 20-25 कोस के भीतरे ब्याह दिया उन्होंने। न कभी तरीके से शहर देखा और न ही देखा रोशनी का यूं बौछार। उ त यहाँ इ सब देखके बौराइये जायेंगे।" घोलट अपनी तरफ से यह साफ करने की कोशिश कर रहा था कि बच्चा बाबू को यहाँ लाना असंभव जैसा है।

लेकिन घोलट यह भी जानता था कि प्रधानमंत्री को एक गाँव में ले जाकर गाँव के एक डाॅक्टर से इलाज करवाना साधारण काम नहीं है। इसलिए उसने बगैर रुके अपनी बात को फिर से शुरू कर दिया।

"साहेब हम भी समझते हैं कि यहाँ से देश के प्रधानमंत्री को एक गाँव में एक साधारण डाॅक्टर के पास ले जाना बहुत कठिन है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि प्रधानमंत्री की तबीयत के सामने कौनो कठिनाई क्या वाकई कोई कठिनाई है। उ तपस्वी को यहाँ लाकर एतना बड़ा रिस्क लेना भी कोई अच्छी बात थोड़े न है। सबसे अहम है साहब का ठीक होना।" घोलट सिंह ने यहाँ अंतिम बार वाला 'साहब' प्रधानमंत्री के लिए बोला था।

"और साहब इ तो हम भी जानते हैं कि चाह लें तो प्रधानमंत्री के लिए की कुछ नहीं हो सकता है।" घोलट सिंह ने इस पंक्ति को थोड़ा धीरे बोला था।

घोलट सिंह की इस बात में वजन था कि प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य को लेकर कोई रिस्क नहीं लिया जा सकता है और अगर रिस्क लेने की नौबत आ ही जाती तो फिर डाॅ0 फ्रेंकफिन पिट के रिस्क में क्या बुराई थी।

...प्रधानमंत्री पूरी तरह ठीक हो जायें इसलिए यह इतना जोखिम भरा कदम भी उठाया गया।

परन्तु निर्णय लेने वाले लोग भी इससे घबराये हुए तो अवश्य थे कि प्रधानमंत्री को गुपचुप तरीके से वहाँ ले जाना और इलाज करवाना आसान नहीं है लेकिन यह खतरा लेने का हिमायती कोई नहीं था कि बच्चा बाबू को उनकी कर्मस्थली से उखाड़कर उनके इलाज के परफेक्शन को कम किया जाए।

यह सवाल एक बड़ा सवाल तो था ही कि आखिर प्रधानमंत्री का इलाज एक झोला छाप डाॅक्टर कैसे कर सकता है। सारे प्राॅटोकाॅल को कैसे तोड़ा जा सकता है। दिक्कतें कई थीं। पहली तो यह कि अगर यह खबर बाहर कर दी जाए तो तमाम तरह के सवाल उठने शुरू हो जाएंगे। प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर भी चिंता थी और सबसे बड़ी चिंता उन बड़े अस्पताल के पूंजीपति मालिकों के दबाव की भी थी कि अगर प्रधानमंत्री एक झोला छाप डाॅक्टर से इलाज कराने चले जाते हैं और स्वस्थ हो जाते हैं तब इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों का क्या होगा। अरबों रुपये के इस कारोबार का क्या होगा? कितनी साख बची रह पायेगी इनकी?

निर्णय यह लिया गया कि प्रधानमंत्री को इलाज के लिए बच्चा बाबू के पास ले तो जाया जाये लेकिन इसे रहस्य की तरह रखा जाए। बस चंद लोगों को इस रहस्य में शामिल किया जाए।

अस्पताल के चंद ऊपरी मुलाजिमों को अपने पक्ष में लिया गया और सब कुछ नियत कर लिया गया।

सब कुछ वैसा ही रहा बस अंदर से प्रधानमंत्री को हटा लिया गया। अस्पताल में वैसी ही भीड़ रही। बाहर वैसी ही मीडिया रही। अस्पताल की ओर से जारी की जाने वाली प्रेस बुलेटिन भी वैसी ही रही। बस लोगों को मिलने से सख्त मना किया गया। बाहर यह खबर दी जाती कि प्रधानमंत्री अब स्वस्थ हो रहे हैं।

यह खबर देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर थी कि डाॅ फें्रकफिन पिट नामक कोई जादूगर अमेरिका से आया है जिसने इस देश की लाज रख ली है।

इस पूरी प्रक्रिया में यह खास ध्यान रखा गया था कि बच्चा बाबू के इलाज से लेकर पूरी प्रक्रिया में जिस तरह की बातें वहाँ होती थीं उसी तरह से यहाँ अस्पताल की प्रेस बुलेटिन में बाहर किया जाता था। मतलब यूं समझ लीजिए कि प्रधानमंत्री का शरीर बच्चा बाबू के सामने रखा था जबकि प्रधानमंत्री की पदवी और कुर्सी यहीं रखी हुई थी। इस बड़े से अस्पताल में, जिसके मुख्य दरवाजे पर शीशे के फाटक थे और जिस पर इस अस्पताल का नाम और उसकी पहचान खुदी हुई थी और जो दरवाजे खुलने के साथ खुद ही खुल जाते थे। जहाँ एक तिरछी छत थी और जहाँ से पानी नीचे की ओर आराम से लेटता हुआ गिरता था।

प्रधानमंत्री के वश में सब कुछ है वे चाहें तो उड़ती हुई तितली को भी पकड़ सकते हैं

बच्चा बाबू के लिए यह केस कोई अनजाना केस नहीं था क्योंकि वे पिछले कई दिनों से इस केस पर विचार कर रहे थे और सच पूछा जाए तो उनकी दिली ख्वाहिश भी यह थी कि वे अपने हाथ की करामात से इस हड्डी को सही जगह दे सकें।

"आप सब निश्चिंत रहें, प्रधानमंत्री एकदम सही सलामत हो जायेंगे। एकदम हाॅकी खिलाड़ी की तरह।" बच्चा बाबू ने अतिउत्साह में यहाँ तक कह दिया। यह उनका अपने हाथ पर अतिविश्वास जैसा था।

प्रधानमंत्री के करीबी ने सोचा था कि प्रधानमंत्री को तो हाॅकी खेलना आता ही नहीं।

बच्चा बाबू के दरवाजे पर हाथ से लिखा हुआ एक नोटिस चिपका दिया गया कि "अगली सूचना तक बच्चा बाबू उपस्थित नहीं हैं। वे बाहर हैं और उन्हें ढूँढने की कोशिश न की जाए। इसे अभी अनिश्चित ही समझा जाए।" उन्हें ढूँढने की कोशिश न की जाए ऐसे जैसे वे कोई मुजरिम हों।

बच्चा बाबू ने जब प्रधानमंत्री की पूरी तरह जिम्मेदारी ले ली तब उन्हंे अंदर लाया गया। फिर सारी गाड़ियाँ हटा लीं र्गइं। प्रधानमंत्री के साथ इस घर पर सिर्फ़ दो लोग रुके। एक उनकी पत्नी और एक उनका सेवक।

बच्चा बाबू प्रधानमंत्री के इलाज की स्वीकृति देने के बाद अपनी पत्नी कल्याणी को सारा माजरा समझाने गए। कल्याणी को पहले यह लगा कि बाहर बच्चा बाबू के शरीर पर एक-दो तारे टूट कर गिर गए हैं इसलिए वे बाहर से अंदर की ओर भाग आए हैं। लेकिन बच्चा बाबू बहुत ही मुश्किल से उन्हें सारी बातें समझाने में सफल हो पाये।

उस घुप्प अंधेरे वाली रात से ही इलाज शुरू कर दिया गया। प्रधानमंत्री को जब अंदर लाया गया तो उस घुप्प अंधेरे को चीरकर रोशनी की गई। अंदर वाले कमरे में प्रधानमंत्री को लिटाया गया। प्रधानमंत्री तब भी नींद में थे।

प्रधानमंत्री अंदर लेटे थे और बच्चा बाबू बाहर आकर खाट के पास खडे़ हो गए। उन्होंने खाट के ठीक सीध में देखा उन्हें तारे बहुत गड्डमड लगे। वे उन तारों को गिन नहीं पाये। उन्होंने खाट के पास देखा, लोटा वहीं नीचे रखा था। उन्हें याद आया उन्होंने सोने से पहले इसी लोटे से पानी पिया था। फिर उन्हें सब कुछ याद आया। किस तरह उन्होंने पानी पीया था और यह भी कि किस कदर आज वे दिन भर तर-बतर रहे थे। उन्हें दिन के बारे में सोच कर फिर तकलीफ होने लगी। उन्होंने आंगन में लगे नारियल के दो पेड़ों की तरफ देखा। उन्होंने याद किया जब उनके जमीन के दो टुकड़े उड़ रहे थे तब इस नारियल के पेड़ की फुनगी तक वे पहुँच गए थे।

बच्चा बाबू एकदम शांत थे। लेकिन प्रधानमंत्री के साथ का वह आदमी उस कमरे से बाहर निकलकर आया। उसने बच्चा बाबू को देखा लेकिन कुछ कहा नहीं। बच्चा बाबू की तंद्रा टूट गई। वे अंदर चले गए। अंदर प्रधानमंत्री की पत्नी थीं। बच्चा बाबू ने इशारे में उन्हें बाहर जाने को कहा। फिर कमरे में वे कुर्सी खींचकर वहाँ बैठ गए जहाँ प्रधानमंत्री लेटे थे। कुछ देर शांत बैठे रहे और फिर झटके से उठकर वे प्रधानमंत्री की उस हड्डी विशेष का निरीक्षण-परीक्षण करने लगे। उन्होंने उस छिटकी हुई हड्डी को बहुत ध्यान से देखा और फिर बैठ गए। काफी देर तक वे बैठे रहे। एकदम शांत। बिना हिले-डुले। फिर एकदम से उठकर उन्होंने प्रधानमंत्री की हड्डी को सही जगह दे दी। बच्चा बाबू ने प्रधानमंत्री की हड्डी को सही जगह दे दी और अपने मुंह से बुदबुदाया "इस बीमार देश के प्रधानमंत्री को तो कम से कम स्वस्थ होना ही पड़ेगा।"

बच्चा बाबू के सधे हाथों से हड्डी ने सही जगह पायी थी परन्तु एक बार तो तकलीफ बनती है। प्रधानमंत्री नींद में भी एक चीत्कार कर बैठे। फिर सब शांत। फिर बच्चा बाबू ने पट्टे से कमर को लपेट दिया। या यूं कहें पट्टे से उस हड्डी को सहेज दिया।

जब कमरे से बाहर निकले बच्चा बाबू तो उजाला चढ आया था। वे काम में इतना मशगूल रहे थे कि पता नहीं चला था। उन्हें कमरे से निकलते हुए ऐसी उम्मीद नहीं थी कि सुबह इतनी चढ गयी होगी। लेकिन उजाला पसर चुका था और बैंगन के पौधे में लटका हुआ बैंगन का फल साफ-साफ दिख रहा था।

जब उस दक्षिण भारतीय अधिकारी ने बच्चा बाबू को यह समझाया था कि प्रधानमंत्री का स्वस्थ होना कितना ज़रूरी है तब बच्चा बाबू के दिमाग में कुछ नहीं था। परन्तु जब कमरे के भीतर बच्चा बाबू उस हड्डी की सही जगह तलाशने की कोशिश कर रहे थे तब उनके मन में एक लोभ ज़रूर समा गया था।

बच्चा बाबू ने सोचा जब प्रधानमंत्री खुद ही यहाँ पधारे हैं तब उस अपने जमीन के टुकड़े को अपना होने में कितना वक्त लगेगा। बच्चा बाबू को फूल सिंह का दयनीय चेहरा सामने दिखने लगा और उन्हें अपनी किस्मत से रंज होने लगा। उन्होंने मन में अपनी पत्नी कल्याणी से संवाद किया "तुम जिस कला के लिए मुझे कोसती रही वही कला ने तुम्हारे दोनों बच्चों को वापस कराने जा रही है।"

प्रधानमंत्री की हड्डी को सही जगह मिल जाने से उनका दर्द अचानक से पूरी तरह गायब हो गया था। लेकिन बिस्तर पर पड़े रहने की उनकी मजबूरी कम से कम दो महीने की थी ताकि प्रधानमंत्री की हड्डी को जो जगह दी गई थी वह अपनी उस जगह पर फिर से अपना स्थान नियत कर ले। बच्चा बाबू ने यहाँ प्रधानमंत्री को एक सप्ताह रहने की मजबूरी बतलाई ताकि वे अपनी देख-रेख में हड्डी को अपनी जगह पर एक बार बैठ जाने दें।

वैसे तो यह दोहराव होगा लेकिन यहाँ एक बार फिर से यह बता देना ज़रूरी होगा कि प्रधानमंत्री यहाँ एक छोटे से गाँव के एक छोटे से घर में अपना इलाज करवा रहे थे और वहाँ अस्पताल के बाहर मीडिया के कैमरे मुंह बाये खड़े थे। विस्तार से यह भी यहाँ बताने की ज़रूरत नहीं है कि यहाँ जब बच्चा बाबू ने प्रधानमंत्री की हड्डी को सही जगह दे दी थी और अचानक से प्रधानमंत्री का पूरा दर्द जाता रहा था तब अस्पताल के बाहर अस्पताल के द्वारा जारी किए गए बुलेटिन में यह घोषित कर दिया गया था कि प्रधानमंत्री के रोग पर काबू पा लिया गया है और प्रधानमंत्री अभी स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। फिर एक-दो दिन बाद यह भी कि प्रधानमंत्री को डाॅक्टर ने यहाँ कुछ दिन आराम करने की सलाह दी है।

मीडिया में खबरें आती थीं और यहाँ बच्चा बाबू अखबारों में उन खबरों को पढ़ते थे। टेलीविजन पर दिखता था अस्पताल का पूरा दृश्य और मीडिया के सामने बुलेटिन जारी करता डाॅक्टर। बच्चा बाबू टेलीविजन की ओर देखते थे और मंद-मंद मुस्कराते थे।

एक आम आदमी के यहाँ प्रधानमंत्री रह रहे हैं, सच में तो यह अपने आप में ही एक कहानी का विषय है। कि आखिर प्रधानमंत्री खाते क्या होंगे। बिना रोशनी के रहते कैसे होंगे। नहाते कैसे होंगे और न जाने क्या-क्या कैसे करते होंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि अगर इस पर ही कैमरे को जूम कर दिया जाए तो पूरी एक कहानी है। लेकिन मेरे लिए इस कहानी में इन बातों के लिए कोई ज़रूरत नहीं है।

हम सिर्फ़ इतना मानें कि चाहे जितना भी आश्चर्यजनक और अचंभा करने वाला हो लेकिन प्रधानमंत्री और उनके साथ और दो लोग वहीं बच्चा बाबू के यहाँ पूरे सात दिन तक रुके रहे और बच्चा बाबू दम्पत्ति ने न तो इस खबर की बाहर हवा तक लगने दी बल्कि दोनों ने प्रधानमंत्री को इन सात दिनों में अपनी हैसियत के मुताबिक पलकों पर बैठा कर भी रखा।

प्रधानमंत्री के लिए बैठना संभव नहीं था तो उनको लेटे-लेटे खाना खिलाया जाता। उनके लिए अभी ज़्यादा तरल चीजें बनतीं। बच्चा बाबू की पत्नी कल्याणी के हाथों के हलवे के तो वे दीवाने हो गए थे। शाम को बच्चा बाबू के निर्देश पर उनके बिस्तर को आंगन में ला दिया जाता और फिर वहीं से प्रधानमंत्री खुले आसमान को निहारते। खुला आसमान उन्हें अच्छा लगता। उन्हें तकिये के सहारे उठाया जाता और वे फिर सेम की लत्ती में लटके हुए सेम के फल को देखते। अमरूद के पेड़ पर फले अमरूद के पकने को वे देखना चाहते और फिर उनके लिए वहीं चाय आती। अँधेरा घिरने पर बच्चा बाबू उन्हें तारों का झुंड दिखलाते। वही तारे जो दिल्ली में भी उगते थे लेकिन प्रधानमंत्री उन्हें देख नहीं पाते थे।

परन्तु इस पूरी प्रक्रिया में बच्चा बाबू के मन में जो बात थी वह उनसे कही नहीं जा रही थी। जबकि प्रधानमंत्री से ऐसे उनकी ढेरों बातें हुईं। प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा कि आखिर उन्हें यह हुनर मिला कैसे। यह ईश्वर का चमत्कार ही तो है। प्रधानमंत्री बच्चा बाबू का बहुत सम्मान कर रहे थे।

उन्होंने कहा "आप हमारे देश के लिए एक एसेट की तरह हैं। जो काम विदेश से आये डाॅक्टरों की फौज नहीं कर पाई वह आपने चुटकी बजा कर-कर दिया। हमारा पूरा देश आप पर गर्व कर सकता है।"

यह सुनकर बच्चा बाबू झेंप जाते। लेकिन कोशिश करते कि जब भी ऐसी बात हो तो कल्याणी उनके पास हों।

एक दिन शाम के समय यूं ही प्रधानमंत्री अपने बिस्तर पर लेटे आकाश में जा रहे चिड़ियों के झुंड को देख रहे थे और सभी लोग आसपास ही बैठे थे।

"डाॅक्टर साहब, आपका घर आपके इस कौशल से चल जाता है?" प्रधानमंत्री ने बच्चा बाबू की तरफ चेहरा करके पूछा।

लेकिन जवाब कल्याणी ने दिया "घर क्या चलेगा, हम तो बस ज़िन्दगी खींच रहे हैं।"

"सुना तो है कि मंहगाई बहुत बढ गई है।" यह प्रधानमंत्री कह रहे थे। बच्चा बाबू बस शून्य में ताक रहे थे।

"अखबार मंे पढ़ा था कि सरसों तेल मंहगा हो गया है। गेहूँ किस भाव में यहाँ मिलता है?" प्रधानमंत्री के चेहरे पर सही में प्रश्न के ही चिह्न थे।

अभी भी बच्चा बाबू का मुंह बंद ही था। फिर जवाब कल्याणी ने ही दिया "मंहगाई! मंहगाई के बारे में तो पूछिये ही मत। हम कैसे जिन्दा हैं हमीं जानते हैं।"

"आप तो खुद ही सरकार हैं आप चाहें तो सब अच्छा हो सकता है।" यह दो टूक जवाब कल्याणी का ही था।

"एक दिन सब अच्छा हो जायेगा।" एक लम्बी आह के साथ प्रधानमंत्री ने कहा और फिर कहीं खो गए।

बच्चा बाबू सिर्फ़ चुप नहीं थे बल्कि सोच रहे थे। अपने मन में सोच रहे थे कि यही वक्त है कि वह अपनी जमीन की बात उनसे कह दें। परन्तु जैसे उनका तालू चिपक गया था। उनकी घिग्घी बंध गई थी। उनके गले से आवाज निकल नहीं पा रही थी। उनके मन में चल रहा था कि क्या यह प्रधानमंत्री के हाथ का खेल है? कहीं प्रधानमंत्री ऐसा तो नहीं सोचेंगे कि मैं अपने कौशल के बदले में उनसे उनकी मदद मांग रहा हूँ। प्रधानमंत्री के सामने इतनी छोटी बात रखना कोई अच्छी बात है।

लेकिन उन्होंने एक बार फिर से हिम्मत की कि यही अवसर है। लेकिन तब तक में प्रधानमंत्री ने अंदर कमरे में जाने की इच्छा जाहिर कर दी।

दिन निकलते जा रहे थे और बच्चा बाबू की बेचैनी बढती जा रही थी। फिर बच्चा बाबू ने एक उपाय निकाला। उन्होंने सोचा प्रधानमंत्री के सेवक से पहले पूछ लिया जाए कि यह प्रधानमंत्री से कहने लायक बात है भी या नहीं।

प्रधानमंत्री के सेवक का नाम था अनाम सिंह। बच्चा बाबू ने अगले दिन अनाम सिंह को पकड़ कर पूरा वाकया सुनाया। बच्चा बाबू को अपने पूरे वाकया को सुनाने में सामान्य से कुछ ज़्यादा ही समय लगा। अनाम सिंह ने देखा कि अपने पहले के सारे शब्दों को चबा लेता है डाॅक्टर। बच्चा बाबू ने अंत में 'मदद' शब्द को चबाकर कहा "मदद कर दो कुछ आप।"

अनाम सिंह ने कहा "हमारे प्रधानमंत्री बहुत भोले हैं आप बिल्कुल भी चिंता नहीं करें और वे तो आपका बहुत सम्मान करते हैं। आपकी समस्या का निदान ज़रूर वे निकालेंगे।"

"और प्रधानमंत्री के लिए क्या है। प्रधानमंत्री चाहंे तो सब कुछ कर सकते हैं। वे चाहें तो उड़ती हुई तितली को पकड़ सकते हैं। वे चाहें तो अंधेरे मेें प्रकाश फैला सकते हंै।" एक छोटे से अंतराल के बाद अनाम सिंह ने कहा।

बच्चा बाबू को हिम्मत आ गई। वे अंदर कमरे में गए। प्रधानमंत्री लेटे थे और सामने टेलीविजन चल रहा था। टेलीविजन पर दिखाया जा रहा था कि प्रधानमंत्री बहुत तेजी से स्वस्थ हो रहे हैं और साथ मंे यह भी कि प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में तत्काल कौन सारे राज-काज देख रहे हैं। किन लोगों की टीम है और किन लोगों के कन्धों पर क्या बोझ है इस वक्त।

बच्चा बाबू प्रधानमंत्री की नजर के ठीक सामने एक स्टूल पर बैठ गए। प्रधानमंत्री टी.वी. छोड़कर उन्हें देखने लगे।

"हुजूर" शब्द को चबा कर निगल लिया बच्चा बाबू ने। प्रधानमंत्री को कुछ समझ मंे नहीं आया। लेकिन उन्हें आश्चर्य इसलिए नहीं हुआ क्योंकि वे इतने दिनों में वाकिफ हो गए थे उनकी इस आदत से।

"हुजूर! जमीन के दो टुकड़े थे। बुढ़ापे का एक मात्र सहारा। वे भी छीन लिए इन दुष्टों ने।" न जाने क्यांे आज अचानक ही बच्चा बाबू के मुंह से प्रधानमंत्री के लिए हुजूर निकल गया। बच्चा बाबू इतना कहने के बाद कमरे की छत की ओर अपनी निगाह डाली। उस बंद कमरे की छत पर कुछ तारे टिमटिमा रहे थे।

"जिस दिन हाथ थम गए हम बूढ़ा-बूढी खायेंगे क्या? आप ही कुछ मेहरबानी कर दो हुजूर।" फिर से उन्होंने 'जिस' शब्द को चबाकर घोंट लिया।

"मुझे हुजूर नहीं कहें प्लीज। आपका मुझ पर बहुत अहसान है। आप तो हमारे देश के एसेट हैं। मेरे मन में कला के प्रति बहुत सम्मान है।" प्रधानमंत्री ने कहा।

बच्चा बाबू जो अभी तक प्रधानमंत्री की तरफ देख रहे थे अचानक जमीन की तरफ देखने लगे।

"मेरा तो मानना है कि जिस देश की कला मरने लगे उस देश को मरने में कितना वक्त लगेगा। कला का सम्मान होना ही चाहिए राष्ट्र में।"

एक विराम के बाद "आप जानते हैं कि मेरे लिए आपके जमीन के दो टुकड़ों को वापस लाना बहुत सरल है। मैं नहीं कहूँ तो भी सच तो यही है कि प्रधानमंत्री चाहे तो क्या कुछ नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री चाहे तो उड़ती हुई तितली को पकड़ सकता है। परन्तु आप यह भी जानते हैं कि मैं यहाँ हूँ लेकिन वास्तव में यहाँ हूँ नहीं। मैं यहाँ रहकर आपकी कोई मदद नहीं कर सकता हूँ। कोई भी हरकत सारे भेद को खोल सकती है।" बच्चा बाबू ने सोचा प्रधानमंत्री का यही डाॅयलाग उनका सेवक अभी-अभी बाहर सुना रहा था।

"परन्तु आप निश्चिंत रहें आपके जमीन के दोनों टुकड़े बहुत जल्द आपके दरवाजे पर होंगे। मैं बस दिल्ली पहंुच तो जाऊँ।" प्रधानमंत्री ने फिर से इस वाक्य को थोड़ा विराम देकर कहा। ऐसे जैसे इतना लम्बा बोलते-बोलते वे थक गए हों।

बच्चा बाबू के चेहरे पर मुस्कराहट तारी हो गई और वे कमरे से बाहर हो गए।

दिल्ली में एक कुर्सी रखी है जिस पर सांप ने एक मणि छोड़ दिया है।

कुल सात दिन रहने के बाद प्रधानमंत्री बच्चा बाबू के घर से विदा हुए। जिस तरह चुपके से वे बच्चा बाबू के घर आये थे उसी चुप्पी के साथ वे फिर दिल्ली पहुँच गए। लेकिन वे दिल्ली पहुँचे तो प्रधानमंत्री निवास नहीं पहंचे बल्कि उन्हें सीधे उस बड़े से अस्पताल के भीतर चुपके से प्रवेश करा दिया गया। वहाँ प्रधानमंत्री स्वास्थ्य लाभ के लिए लगभग बीस दिन रहे।

धीरे-धीरे अस्पताल द्वारा जारी की जाने वाली बुलेटिन की संख्या कम होती चली गई। अस्पताल ने यह घोषित कर दिया था कि वे स्वस्थ हो चुके हैं और यहाँ अब स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के उस अस्पताल में प्रवेश करते ही अमेरिका से आये डाॅ। पिट की पूरी टीम को छुट्टी दे दी गई थी। जिस दिन डाॅ। पिट भारत से अपने वतन के लिए निकले उस दिन न्यूज चैनल पर उनकी तस्वीरें अटीं पड़ी थीं। अगले दिन के अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर डाॅ। पिट के एयरपोर्ट की तस्वीर थी जिसमें वे भारतीयों को हाथ हिला कर विदा कह रहे थे और उनके हिलते हाथ के इस तरफ अखबार पढते भारतीय भावुक हुए जा रहे थे। अखबार में फिर कई दिनों तक छाया रहा था यह कि डाॅ। पिट को भारत का क्या-क्या पसंद आया और जिस दिन डाॅ। पिट चांदनी चैक घूमने गए तो उस दिन उन्होंने पराठे वाली गली में कितने परांठे खाये। वे कैसे दिल्ली के गोलगप्पे के प्रशंसक हो गए और यह भी कि डाॅ। पिट ने साउथ एक्सटेंशन की 'रास' नामक दुकान से अपनी पत्नी के लिए कुछ साड़ियाँ खरीदीं। उन्होंने अपनी भाषा में कहा कि लाज और शर्म तो औरतों का गहना है और यह पूरे विश्व को भारत से सीखना चाहिए।

प्रधानमंत्री का अस्पताल से निकलना अब औपचारिकता भर था। बीस दिन के बाद प्रधानमंत्री अस्पताल से अपने निवास स्थान पर चले गए। अपने निवास स्थान पर भी उन्होंने लगभग पंद्रह दिन आराम किया। हम सबके लिए यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है कि इन बीस दिनों में देश के विभिन्न चैनल वालों ने और अखबारों ने उस अस्पताल की जन्मकुण्डली छाप दी। कई बाइट लगाई गईं। पूरा का पूरा आंकड़ा छाप दिया गया कि अब इस तरह के अस्पताल खुल जाने से और स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्धि होने से स्वास्थ्य में कितना सुधार हुआ है और यह भी कि किस तरह मृत्यु दर में अचानक गिरावट आई।

बच्चा बाबू अपने गाँव में बैठ करके न्यूज चैनलों पर देख रहे थे और अखबारों में रोज-रोज यह रोचक खबरें पढ़ रहे थे। परन्तु उन्हें बुरा नहीं लग रहा था। बच्चा बाबू सोचते थे कि देश की रक्षा के लिए यह नितांत ज़रूरी है। उन्हें लगता कि चलो मैं इस देश के कुछ काम तो आ पाया। किन्तु उन्हें सबसे ज़्यादा संतुष्टि थी कि प्रधानमंत्री स्वस्थ हो रहे थे। वे अखबार को पत्नी के सामने करते और प्रधानमंत्री के स्वस्थ होने की खुशखबरी उन्हें दिखाते। परन्तु कल्याणी का चेहरा खिंच जाता और वे चुपचाप उठकर चलीं जातीं। बच्चा बाबू की चाहत बस एक थी कि प्रधानमंत्री जल्द से जल्द स्वस्थ होकर अपने काम पर लौटें और उनसे किया गया वायदा निभायें। बच्चा बाबू के कान में हर वक्त बजते हैं यह वाक्य "परन्तु आप निश्चिंत रहें आपके जमीन के दोनों टुकड़े बहुत जल्द आपके दरवाजे पर होंगे। मैं बस दिल्ली पहंुच तो जाऊँ।" बच्चा बाबू हर सुबह उठकर हुलस कर दरवाजा खोलते कि उनके जमीन के दोनों टुकड़े दरवाजे पर आ तो नहीं गये। फिर मन को समझाते कि मैं भी कितना स्वार्थी हूँ। पहले प्रधानमंत्री स्वस्थ होकर अपने काम पर लौट तो जाएँ।

बच्चा बाबू को बुरा तब भी नहीं लगा जब प्रधानमंत्री अपने घर पर पंद्रह दिन आराम करने के बाद स्वस्थ होकर पहली बार मीडिया के सामने मुखातिब हुए। प्रधानमंत्री ने मीडिया के सामने अपने मुंह से अपने स्वास्थ्य का अपडेट दिया कि वे अब पूरी तरह स्वस्थ हैं। वे अब बैठ पा रहे हैं और बैठने के बाद फिर खड़ा भी हो पा रहे हैं। लेकिन अभी और आराम की ज़रूरत है और धीरे-धीरे ही वे रफ्तार को पकड़ पायेंगे। उन्होंने खुल कर उस बड़े से अस्पताल और अमेरिकी डाॅक्टर की तारीफ की। उन्होंने कहा "लेकिन मेरा खड़ा होना यह सब बिना अमेरिकी सहयोग के संभव नहीं हो पाता। मैं डाॅ। पिट का शुक्रगुजार हूँ।" फिर थोड़ा-सा मीडिया से नजरें चुराते हुए "अभी हमारे यहाँ चिकित्सा सेवा मंे और सुधार की गुंजाइश है। हम कोशिश करेंगे कि अमेरिका जैसे विकसित देशों से एक समझौता करें और चिकित्सा सेवा के लिए हम मिलकर काम कर सकें। हम एक मसौदा तैयार करेंगे। हमारे यहाँ बडे़-बडे़ अस्पतालों की अभी और दरकार है। हम आगे यह कोशिश करेंगे कि छोटे-छोटे शहरों में भी हम अस्पताल की हालत को सुधार सकें। हम विकसित देशों का सहारा लेकर अपने देश को तेज रफ्तार देंगे।"

थोड़ी-सी अतल गहराई में खोकर "मैं यह तो नहीं कहता कि हमारे यहाँ प्रतिभा या कला कि कमी है परन्तु उसे उभारने की ज़रूरत है। हमें उन्हें अतिआधुनिक विचार और यांत्रिक विकास से जोड़कर उसे उन्नत करना होगा। वे हमसे समृद्ध हैं और हमें उनसे उनके विचार लेने में कोई बुराई नहीं। मैं प्रतिभा और कला का बहुत सम्मान करता हूँ। परन्तु कला को एक जगह रोककर जड़ नहीं किया जा सकता है। हमें आधुनिक से आधुनिकतम तकनीकों से जुड़ना पड़ेगा।"

और अंत में "मैं आप सभी का शुक्रगुजार हूँ जिन्होंने मेरे स्वास्थ्य के लिए इतनी चिंता दिखाई।"

अंत तक आते-आते बच्चा बाबू का मन थोड़ा खट्टा होने लगा था लेकिन उन्होंने मन को समझाया। इतने बड़े देश को चलाने के लिए बहुत से समझौते करने ही पड़ते हैं।

जब किसी की प्रतीक्षा करते हैं तब वक्त बहुत धीमे कटता है।


धीरे धीरे समय बीतता चला गया। प्रधानमंत्री स्वस्थ भी हो गए और यह देश सुचारू ढंग से चलने भी लगा। (जितना चल सकता था।) बच्चा बाबू इंतजार करते-करते थक गए। प्रधानमंत्री ने उनसे किया वायदा पूरा नहीं किया। बच्चा बाबू ने दरवाजे पर जाकर अपनी जमीन को ढूँढने की कोशिश बन्द कर दी। उन्हंे विश्वास हो गया था कि उनके साथ इस लोकतंत्र में एक और राजनीतिक धोखा हुआ है। अब उनका केस भी लगभग खात्मे पर आ गया था। फूल सिंह का जीतना तय था। बस कुछ औपचारिकताएँ बचीं रह गयी थीं। सारे लोग बुरे थे और सारे बुरे लोग फूल सिंह के पक्ष में थे। बच्चा बाबू ने अपनी जमीन की ओर जाना छोड़ दिया था उनको यह लगने लगा था कि अब यह जमीन उनकी नहीं रह पायेगी।

बच्चा बाबू का मन अब बहुत उचाट-सा रहने लगा था। वे अक्सर अपने बरामदे पर और शाम में आंगन मंे शून्य की ओर एकटक ताकते मिल जाते। गाँव के सारे लोग जान गए थे बच्चा बाबू के दुख के कारण को परन्तु किसी के पास इतनी ताकत नहीं थी कि कोई फूल सिंह के सामने आवाज उठायंे। जो मरीज यहाँ से ठीक होकर जाते वे बच्चा बाबू के लिए अपने मन में ढेर सारी शुभकामनाएँ देकर जाते कि ईश्वर बच्चा बाबू ने इतना भला किया है लोगों का, उनके साथ कभी बुरा मत होने देना। लेकिन ईश्वर की नजर शायद बच्चा बाबू पर नहीं थी क्योंकि इतने लोगों की दुआओं का भी कोई असर नहीं हो पा रहा था। बच्चा बाबू गाँव में टहलते और लोग उनको आश्वासन देते "सब ठीक हो जायेगा।" बच्चा बाबू रुंधे गले से 'बुराई' शब्द को चबा कर कहते "बुराई का कोई अन्त नहीं है। नीचे से ऊपर तक सब बुरे ही बुरे हैं।"

"इस चांद की रोशनी झूठी है। हमें वोट डालना ही नहीं चाहिए। हमको तो बस सब ठग रहे हैं। हमारी बातें कोई सुनता नहीं है कोई अपना वायदा पूरा करता ही नहीं है। क्या लगता है प्रधानमंत्री जो टेलीविजन पर आकर बोलते हैं वह सब सच है। सब झूठ है। प्रधानमंत्री जो कहते हैं सच में वह कुछ और ही होता है।" इतना लम्बा लेक्चर देकर वास्तव में बच्चा बाबू अपने मन की भड़ास निकालते थे। लोग समझते थे कि बच्चा बाबू का दुख बड़ा है इसलिए आंय बांय बके जा रहे हैं।

परन्तु बच्चा बाबू के दुख की इंतहाँ तो तब हो गई जब एक दिन कड़ाके की सर्दी में बच्चा बाबू ने सुबह-सुबह अखबार पर निगाह डाली जिसके मुख्य पृष्ठ पर ही डाॅ। फ्रेंकफीन पिट की तस्वीर छपी थी। डाॅ। पिट का यह एक मुस्कराता हुआ चेहरा था। शायद उनके अपने घर के बगीचे में ली गई थी क्योंकि उस तस्वीर में डाॅ। पिट के पीछे कुछ मुस्कराते हुए फूल दिख रहे थे। फूलों के पीछे उनके घर की दीवार दिख रही थी जिसका रंग लाल था। लाल छोटी-छोटी ईंटों। वास्तव मंे अखबार में यह गणतंत्र दिवस के ठीक पहले घोषित होने वाले पद्म भूषण और पद्म विभूषण की सूची थी। जिसमें डाॅ। पिट को प्रधानमंत्री को स्वस्थ करने के लिए और उन्हें दुबारा से खड़ा करने के लिए पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।

प्रधानमंत्री कार्यालय मंे जो योजनाएँ बनती हैं उनमंे आंसुओं की कई बूंदें जब्त होती हैं।

काफी सलाह मशविरे के बाद जब प्रधानमंत्री के सामने पद्म भूषण और पद्म विभूषण फाइनल करने की सूची आई तब प्रधानमंत्री उस सूची पर थोड़ी देर को अटके थे। तब प्रधानमंत्री के सामने वह दक्षिण भारतीय सुरक्षा अधिकारी खड़ा था जिसने कभी बच्चा बाबू को धमकी जैसा कुछ दिया था। जिन्होंने प्रधानमंत्री के रहस्य को बाहर निकालने को देशद्रोह तक कहा था। उस दक्षिण भारतीय अधिकारी ने प्रधानमंत्री को एक बार बच्चा बाबू की याद दिलाने की कोशिश की थी।

"सर उस बच्चा सिंह ने एकदम से दर्द पर काबू पा लिया था।" अधिकारी ने सहमते हुए बस बातों का एक सिरा फेंका था।

प्रधानमंत्री को अपना दर्द याद आ गया था और यह भी कि किस तरह बच्चा सिंह का हाथ लगते ही वह दर्द अचानक कहीं गायब हो गया था।

"मैं सब समझता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं इंसान नहीं हूँ। मेरे अंदर फीलिंग्स नहीं है। लेकिन इस इतने बड़े लोकतंत्र को चलाने के लिए हमें कुर्बानी देनी ही पड़ती है। हमें अपनी भावुकता पर काबू करना ही पड़ता है। मैंने अपनी फीलिंग्स को खत्म कर लिया है। मैं यह नहीं कर सकता हूँ। सिर्फ़ भावुकता से किसी देश को नहीं चलाया जा सकता है।"

"इस इतने बड़े देश में सारी चीजें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अगर आप पेड़ काटेंगे तो बारिश भी कम होगी और बारिश कम होगी तो पेड़ भी कम होंगें। एक मुखिया पर कितने तरह के दबाव होते हैं उसे समझना कठिन है। मेरे हाथ-पांव दिखते भर हैं लेकिन सब कटे हुए हैं मैं तो इस कुर्सी पर बैठा एक मांस का लोथड़ा भर हूँ।"

"बड़े हित को साधने के लिए छोटी-मोटी घटनाओं को, छोटे मोटे कीड़े मकोड़े जैसे आम आदमी को भूलना ही पड़ता है।"

जब प्रधानमंत्री ऐसा बोल रहे थे तब वहाँ उस दक्षिण भारतीय अधिकारी के अतिरिक्त प्रधानमंत्री का पी.ए. भी था और सच मानिए यह दोनों के लिए आश्चर्य था कि प्रधानमंत्री उन्हें इतनी सफाई क्यों दे रहे थे। जबकि सच यह था कि प्रधानमंत्री अपने मन को समझा रहे थे।

जब से प्रधानमंत्री बच्चा बाबू के यहाँ से लौटे थे तब से लेकर एक लम्बा वक्त गुजर गया था। इस बीच बच्चा बाबू का दुख उनके अंदर भरता जा रहा था। शुरुआत में काफी दिनों तक तो उनकी उम्मीदें बंधी ही रहीं और जब उम्मीदें दरकनी शुरू भी हुईं तो उनके ऊपर बातों को न खोल पाने का दबाव बना रहा। उनके जीवन में एक पत्नी कल्याणी ही थीं जिनसे वे इस संदर्भ मंे खुल कर बात कर सकते थे। लेकिन चूंकि कल्याणी शुरू से ही बच्चा बाबू के विश्वास पर शक करती रही थी इसलिए उन्हें अपने दुख को वहाँ भी साझा करना अच्छा नहीं लगता था। यही कारण है कि बच्चा बाबू का अवसाद उनके अंदर भरता चला जा रहा था।

इसे महज संयोग कहंे या फिर कहानी को जायकेदार बनाने की कोशिश कि जिस सुबह के अखबार में डाॅ। पिट को सम्मानित करने की खबर छपी थी उससे ठीक एक दिन पहले बच्चा बाबू की ज़िन्दगी से उनकी जमीन छिन चुकी थी। आप हम सब समझ सकते हैं कि यह बच्चा बाबू की अब तक की ज़िन्दगी का सबसे बड़ा दुख रहा होगा। बच्चा बाबू उदास थे और कल्याणी से पूछें तो बता सकती हैं कि उन्होंने अपने जीवन में अपने पति को पहली बार रोते देखा। रोते क्या देखा आंसू की धार। तकिया भीग गया। हिचकियाँ बन्द नहीं हो पा रही थीं। कड़ाके की ठंड मंे भी बच्चा बाबू आंगन में खाट बिछाकर बहुत देर तक आसमान को देखते रहे थे। उधर आसमान में तारे उलझते जा रहे थे और यहाँ बच्चा बाबू की आंखों से अनवरत आंसू झड़ रहे थे।

दुख में डूबे हुए बच्चा बाबू के लिए सुबह भी दुख से भरी हुई ही थी। मोटे गोलमटोल से बच्चा बाबू जब सो कर अपने कमरे से बाहर आये और आंगन की धूप में बैठ गए तब धूप सुनहरी थी और ऐसा लग रहा था कि एक अण्डा धूप सेंक रहा है। उन्होंने अखबार के पलटा और वे बर्दाश्त नहीं कर पाये। ऐसा लगा जैसे उनके भीतर बहुत दिनों से कुछ बन्द था। उन्होंने अखबार को देखा और एकदम से चिल्ला कर अखबार के उन पन्नों को चिन्दी-चिन्दी कर देना चाहा। उसके साथ ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, बगैर किसी रुकावट के, बगैर किसी शब्द को चबाये हुए एकदम धाराप्रवाह। "चूतिया हैं हम ही जो तुम पर विश्वास करते हैं। साले अमेरिका जाकर वहीं का थूक चाटो बैठकर। मार दो हमको। हमको जिन्दा ही क्यों छोड़े हो।"

गुस्से में अखबार तो चिन्दी-चिन्दी खैर क्या हो पाता परन्तु उनकी चिल्लाहट ने अंदर रसोई में कल्याणी की रूहें कंपा दीं। कल्याणी जब बदहवास दौड़ कर उनके पास आयीं तो अखबार के टुकड़ों के बीच बच्चा बाबू बैठे थे। उनकी सांसें तेज थीं, उनकी आंखें लाल थीं, उनके चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा रहीं थीं। वे जमीन को पकड़ कर और जमीन की ओर झुक कर बैठे थे ऐसे जैसे वे जमीन को पकड कर ही यहाँ अब बैठे रह पाये हैं। कल्याणी ने देखा कि बच्चा बाबू के मुंह से लार की धार उस जमीन पर गिर रही थी।

कल्याणी को अखबार के उन टुकड़ों के बीच डाॅ। पिट का मुस्कराता हुआ चेहरा दिख गया। गोरे चेहरे की मुस्कराहट। फिर वे सारा माजरा समझ गयीं। उन्होंने बच्चा बाबू को वहाँ से उठाकर कमरे में ले जाकर बिस्तर पर लेटाया और फिर खुद भी वहीं उनके सिरहाने बैठ गईं। उनके माथे को सहलाना शुरू किया। बच्चा बाबू फूट-फूट कर रोने लगे। उन्होंने अपने आप को एक बच्चे की तरह कल्याणी की गोद में छिपा लिया। ऐसे जैसे एक बच्चा डरकर अपनी माँ की गोद में दुबक गया हो। कल्याणी जानती थीं कि यह बहुत दुख की घड़ी है। यह बहुत भावुक क्षण था।

जमीन के छिनने और डाॅ। पिट को सम्मानित करने जैसी दो बड़ी घटनाओं ने बच्चा बाबू को अंदर से तोड़ कर रख दिया था। उनके अंदर जो एक बड़ा बदलाव आया था वह यह था कि उन्हांेने सोचा कि जब सब कुछ लुट ही चुका है तब इस इतने बड़े रहस्य को दबा कर रखने का क्या फायदा। वे सारे रहस्यों को उगल देना चाहते थे। यह उनका एक तरह का प्रतिशोध था। बच्चा बाबू जानते थे कि इस प्रतिशोध से उनका कुछ भी हित सधने वाला नहीं है लेकिन प्रतिशोध तो प्रतिशोध है।

बच्चा बाबू ने पूरे गाँव को यह बतलाना चाहा कि यह प्रधानमंत्री का कितना बड़ा झूठ है। गाँव वालांे को वे याद दिलाने की कोशिश करते कि आपको अवश्य याद होगी वह आज तक की मेरी सबसे लम्बी छुट्टी। बाहर लगा वह नोटिस कि बच्चा बाबू इस तारीख से अनिश्चित तारीख तक यहाँ अनुपस्थित रहेंगे।

परन्तु बच्चा बाबू का यह प्रतिशोध लेने का पूरा विचार बिल्कुल उलटा पड़ गया। बच्चा बाबू जितना ही यह समझाने की कोशिश करते कि प्रधानमंत्री को उन्हांेने ठीक किया है और यह कि प्रधानमंत्री यहाँ आये थे और आठ दिन तक इसी घर में रहे थे। इसी घर में खाना खाया था, यहीं नहाये-धोये थे, यहीं सोये थे और सबसे बड़ा आश्चर्य कि यहाँ ही नहीं बल्कि पूरे देश को इसकी खबर नहीं थी। लोग इस इतने बड़े सच को सुनते और बच्चा बाबू पर अविश्वास करते। लोग हंसते और बच्चा बाबू और ज़्यादा विश्वसनीय तरीके से यह समझाने की कोशिश करते कि आठ दिन तक एक तरह से इस देश के प्रधानमंत्री यहाँ नजरबंद थे।

लोगों ने बच्चा बाबू को पागल करार दे दिया।

बच्चा बाबू, जो कभी सड़क पर चलते थे तो गाँव के लोग उन पर फख़्र करते थे वही बच्चा बाबू जब आज गाँव में घूमने निकलते तो लोग उनसे या तो कन्नी काट लेते या फिर उनका मजाक उड़ाते। शुरूआत में तो बच्चा बाबू अपने प्रतिशोध को सफल करने के लिए लोगों को पकड़-पकड़ कर यह बताना चाहते थे कि किस तरह प्रधानमंत्री किस तरह यहाँ छिप कर रहे। किस तरह रात के घुप्प अंधेरे में एक लम्बी अविश्वसनीय-सी गाड़ी यहाँ लग गई थी। किस तरह उनसे इस सारे वाकया को छुपा कर रखने के लिए कहा गया। किस तरह उन दिनों टेलीविजन और अखबार में आने वाली खबरें झूठी थीं और अब किस तरह उनके हक को मारकर यह इतना बड़ा सम्मान डाॅ। पिट को दिया जा रहा है। शुरू में तो लोग भी खूब चटकारे ले लेकर इस मसालेदार कहानी को सुनते थे। परन्तु जब लोगों को यह साफ लग गया कि बच्चा बाबू का दिमाग खराब हो गया है तब वे उनसे डरने लगे।

बच्चा बाबू रास्ते से जाते तो लोग उनको घेर कर पूछते "और प्रधानमंत्री ने दिल्ली नहीं बुलाया आपको। देखिये कहीं इस बार आपको स्वास्थ्य मंत्री ही न बना दें। फिर जोड़ते रहियेगा हड्डी वहीं बैठकर।"

"स्वास्थ्य को लेकर आपकी योजनाएँ क्या-क्या हैं? कहीं आप सारे तम्बाकू खाने वाले को जेल में तो नहीं डाल देंगे।"

"आपका तो हक भी बनता है भाई। जिन्होंने प्रधानमंत्री को ही ठीक कर दिया हो उनको तो कुछ भी बनाओ कम ही है।"

"तब माता जी को भी साथ में ले जायेंगे या वहाँ कोई गोरी मेम देखेंगे।" बच्चा बाबू चिढ़ते तो उन्हें और चिढ़ाया जाता।

कभी सुबह टहलते दिख गए तो लोग कहते "क्या आज कहीं अमेरिका से तो फोन नहीं आ गया। कहीं वहीं जाने की तैयारी तो नहीं हो रही है। हमें लगा कि भारत के प्रधानमंत्री को तो ठीक कर ही दिया अब कहीं अमेरिका के राष्ट्रपति ने बुलवा लिया हो।"

इसमें कोई शक नहीं है कि जब पूरे समाज ने ही उन्हें पागल मान लिया हो तो पागलपन की कुछ निशानियाँ भी ज़रूर उनके भीतर घर करने लगी होगीं। कभी तो उन्होंने ज़रूर अपने पीछे दौड़ रही भीड़ को ईंट-पत्थर लेकर दौड़ाया होगा। कभी ज़रूर उन्होंने गुस्से में लोगों को गालियाँ दीं होंगी। कभी ज़रूर उन्होंने अपने बाल नोचे होंगे, कभी ज़रूर उन्होंने रूककर आसमान को चिंतित निगाह से एकटक देखा होगा।

बच्चा बाबू की ज़िन्दगी में यहाँ अब उनकी पत्नी के अतिरिक्त कोई नहीं था जो उनकी दिमागी हालत को ठीक मानता हो।

बच्चा बाबू के सामने अब पूरी दुनिया थी जिसे उन्हें उनको पागल मानने से रोकना था। परन्तु भीड़ के सामने किसकी चलती है।

बच्चा बाबू के इस पूरे घटना क्रम में सबसे बुरा यहा हुआ कि उनका रहा सहा रोजगार भी खत्म हो गया। शुरुआत में जब तक बात बहुत फैली नहीं थी तब तक तो दूर दराज के लोग आ जाते थे परन्तु बुरी बातों को फैलने में वक्त ही कितना लगता है।

जिस तरह से दूर दराज के गांवों तक में बच्चा बाबू की महिमा छाई हुई थी उसी तरह यह बात भी आग की तरह फैल गई कि बच्चा बाबू पागल हो गए हैं और हर वक्त प्रधानमंत्री-प्रधानमंत्री करते रहते हैं। बाहर बातें तरह-तरह की फैलीं। कुछ लोगों ने कहा कि उनकी जमीन फूल सिंह ने धोखा से उनसे छीन ली। जिस दिन वे केस पूरी तरह हार गए वे अपने खेत पर रात पर आंसू बहाते हुए पड़े रहे। वहीं रात में गन्ने के पौधे पर रहने वाले उड़ने वाले सांप ने बच्चा बाबू के मगज में काट लिया। कहते हैं कि तब से ही बच्चा बाबू आंय बांय बके जा रहे हैं। उनका बचना लगभग अब मुश्किल ही है। यह उड़ने वाला सांप विषैला कम होता है बस वह धीरे-धीरे दिमाग को खत्म कर देता है। बस उसके बाद सर की नसें फट जाती हैं।

कुछ लोग कहते कि बच्चा बाबू सुबह-सुबह टहलने उठते हैं वहीं रामनरेशवा के कुत्ते ने उन्हें काट लिया। कुछ लोग कहते कि पागल तो वे बचपन से ही थे। नहीं तो कोई सामान्य आदमी थोड़े ही न इस तरह बात करने में एक शब्द चबाने लगता है। साला शब्दों से ही पेट भरता था क्या? यह उनका पागलपन ही था जो अब बढ गया है। अब तो अपने साथ लेकर ही जायेगा।

जितनी बातें उनके पागलपन को लेकर फैलीं उतनी ही यह भी कि उनके पागलपन का असली पता तो तब चला जब उन्होंने रूद्रपुर गाँव के एक छौरे की टांग की हड्डी उलटी जोड़ दी। छौरे ने जब कुछ ही दिनों में स्वस्थ होकर चलना शुरू किया तो लोगों ने देखा कि वह दौड़ने की कोशिश आगे के लिए कर रहा है और जा पीछे रहा है। किसी ने कहा कि बच्चा बाबू ने हाथ की हड्डी जुडवाने आयी हरिया कि कनिया को तब चूम लिया जब वह उनके सामने बिस्तर पर कराह रही थी।

लोगों ने कहा कि ई बच्चा सिंह को तो पागलपन का दौरा आने लगा है। वह खतरनाक भी होग गए हैं। नहीं विश्वास तो उनके सामने एक बार प्रधानमंत्री बोलकर देख लो साला ढेला लेकर दौड़ जाता है।

हम सब जानते हैं कि एक बार अगर अफवाह का दौर शुरू हो गया तो वह अनवरत चलता ही रहता है और चलता क्या रहता है वह बढता ही रहता है। अब तो हालत यह हो गई कि लोग उनसे इलाज करवाने क्या आते लोग उन पर आरोप लगाते कि देखो साला कैसा पागल हो गया कि सांस लेने में कार्बनडाइआॅक्साइड अन्दर लेता है और आॅक्सीजन बाहर छोड़ता है।

कहानी का समापन

कहानी का यह आप समापन ही समझिये। प्रधानमंत्री ने अपने हिसाब से डाॅ। पिट को सम्मानित करके और बच्चा बाबू की कुर्बानी देकर यह चैप्टर क्लोज कर दिया। यहाँ बच्चा बाबू प्रधानमंत्री से प्रतिशोध लेने में और अपने गांववालों को समझाने में नाकाम रहे और नाकाम क्या रहे गाँव वालों ने उलटा उन्हें पागल ही घोषित कर दिया। पागल भी क्या एक खूंखार पागल। जो कभी भी पत्थर और डंडे से वार कर सकता था। बच्चा बाबू का रोजगार पूरा चैपट हो गया। चूंकि बच्चा बाबू की सारी जमा पूंजी उस खेत के केस लड़ने में खत्म हो गयी थी और अब उनका रोजगार पूरी तरह ठप्प हो गया तब आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि कल्याणी इस घर को कैसे चला पाती होंगी।

दो बातें यहाँ बहुत ज़रूरी हैं। एक तो यह कि कल्याणी अब अकेली एक योद्धा कि तरह सारी समस्याओं से लड़ रही हैं। वे अपने मन में उस अंधेरी रात को कोसती हैं जब प्रधानमंत्री की गाड़ियाँ उनके दरवाजे के सामने लगी थीं और दूसरी यह कि उनके मन के भीतर यह विश्वास था कि वह दिन जल्द ही आयेगा जब लोग सारी बातों का भुला देंगे और उनका जीवन फिर से सामान्य हो जायेगा। लेकिन अभी तो हालात यह हैं कि घर के हालात और अपने अवसाद और पूरे गाँव का माहौल बच्चा बाबू के पागलपन को रोज दिन दुने रात चैगुने रूप से बढ़ा ही रहा है।


परन्तु अब कहानी वहीं कहाँ खत्म होती है जहाँ हम चाहते हैं।

यह कहानी खत्म तो यहाँ भी हो सकती है। परन्तु इस विडम्बना का जिक्र किए बगैर यह कहानी खत्म नहीं हो सकती है। अभी कुछ ही दिन हुए हैं। बस उतने ही दिन जितने दिन मुझे इस कहानी के प्लाॅट को संवारने, कहानी लिखने और कहानी को छपवाने में लगे होंगे।

मैं सीधे-सीधे यहाँ सोशल साइट विकिलिक्स का नाम तो नहीं ले सकता इसलिए यहाँ बगैर किसी विवाद में पड़े यह लिख रहा हूँ कि विकिलिक्स जैसी ही एक महत्त्वपूर्ण सोशल साइट ने एक बड़ा खुलासा किया है कि भारत के प्रधानमंत्री जब पीछे एक-दो वर्ष पहले यानी 27 सितम्बर 2009 को बीमार हुए थे और उन्हें दिल्ली स्थित उस बड़े से अस्पताल में दाखिल किया गया था तब वास्तव में वे वहाँ ठीक नहीं हुए थे। उस साइट ने यह खुलासा किया था कि 4 अक्टूबर को प्रधानमंत्री को चुपके से बिहार राज्य के बेगूसराय जिला के चिडै़याटार गाँव ले जाया गया था जहाँ एक बहुत ही प्रसिद्ध वैद्य बिन्देशरी प्रसाद सिंह उर्फ बच्चा बाबू ने उनका स्वस्थ्य ठीक किया था। प्रधानमंत्री अपने लाव लश्कर के बगैर वहाँ उस बिन्देशरी प्रसाद सिंह के घर पर एक सप्ताह तक रुके थे और फिर वहाँ से उन्हें सीधे दिल्ली के इस अस्पताल में चुपके से दाखिल कर दिया गया था। प्रधानमंत्री जितने दिनों तक चिडै़याटार गाँव मंे रहे मीडिया को यहाँ झूठी रिपोर्ट दी गई कि प्रधानमंत्री अंदर स्वस्थ हो रहे हैं।

खुलासा यह भी किया गया था कि डाॅ। फ्रेंकफिन पिट जो अमेरिका से आये थे, उनकी पूरी टीम ने प्रधानमंत्री के इलाज से अपना हाथ खींच लिया था। वे हड्डी के इस उलझाव से वास्तव में डर गए थे और उन्होंने इलाज करने या फिर गारंटी देने से साफ इंकार कर दिया था। डाॅ। पिट को दिया जाने वाला पद्म विभूषण का सम्मान भी झूठा था जिसके हकदार वास्तव मंे चिडै़याटार गाँव के बिन्देशरी प्रसाद सिंह थे।

एक बड़ा खुलासा यह भी था कि अमेरिकी चिकित्सा सेवा को बेहतर साबित कर भारत के प्रधानमंत्री ने अमेरिका के साथ एक बड़ी डील पर साइन किए थे जिसका निष्कर्ष यह निकला कि भारत के अस्पतालों में अमेरिकी मल्टीनेशनल कंम्पनियों को निवेश की इजाजत दी गई। निवेश इसलिए ताकि अस्पतालों की हालत बेहतर हो सके। ताकि देश के लोग स्वस्थ रह सकें। ताकि यह देश स्वस्थ रह सके। दवाइयों को भी अमेरिका से बहुतायत मात्रा में आयात किया गया था।

इस विडम्बना के बाद कहानी का अंत यूं है कि अखबार और टेलीविजन पर यह खबर आम हो गई। गाँव वाले खबर सुनकर सन्न रह गए। कल्याणी के चेहरे पर एक संतुष्टि आ गई। चिडै़याटार गाँव में रिपोर्टरों और कैमरों के अम्बार लग गए। लेकिन बच्चा बाबू। बच्चा बाबू इस स्थिति में कहाँ!

कल्याणी की सारी दुआएँ बेकार हो र्गइं। बच्चा बाबू अपने हुनर से हाथ धोकर अपने गाँव में अपने खिलाफ यह माहौल देखकर और अपने घर में अपनी गरीबी देखकर सचमुच में पागल हो गए। वे घर में बंद रहते थे और अब सचमुच में आंय बांय बकते रहते थे। वे कभी भी घर से भागने लगते थे, कभी भी किसी पर ढेला फेंक देते थे। कभी भी जोर-जोर से रोने लगते। हाँ और पागलों से भिन्न, हंसते बहुत कम थे। वे पागलपन की अवस्था में चिल्लाते "तुम सब कुछ जान गए। एक दिन प्रधानमंत्री आएगा और तुम सब को गोली मार देगा।"

रिपोर्टरों के अनुग्रह पर बच्चा बाबू को सामने लाया गया। कल्याणी खुद भी यह चाहती थीं कि बच्चा बाबू का चेहरा और उनकी यह हालत लोगों के सामने आए इसलिए भी उन्होंने इसकी अनुमति दी और अनुमति ही नहीं दी, व्यवस्था भी की।

परन्तु इतने कैमरे और इतने लोगों को देखकर बच्चा बाबू बेकाबू न हो जाएँ या फिर प्रधानमंत्री का नाम सुनकर वे मारने के लिए दौड़ न जाएँ। उन्हें जब कैमरे के सामने लाया गया तब वे एक कुर्सी से बंधे हुए थे। दोनों हाथ कुर्सी के दोनों हत्थों से बंधे हुए थे और दोनों टांगें कुर्सी की दोनों टांगों से। कुर्सी खम्भे से बंधी हुई थी।

बच्चा बाबू की जो तस्वीर वहाँ खीचीं गई और जो पूरे देश के अखबार और टेलीविजन सेट पर दिखाई गई उसमें बच्चा बाबू एकदम दुबले पतले से दिख रहे हैं। एकदम विकराल। कुर्सी पर बंधे हुए बच्चा बाबू एकदम निरीह से अपनी गर्दन झुकाए हुए हैं और उनके मुंह से लार की धार निकलकर उनके कपड़ांे पर टपक रही है। उनके चेहरे की चमड़ी झूल गई है और उसमें आंसू की कुछ बूंदें उलझी हुई हैं।

बच्चा बाबू की कहानी यहीं खत्म करता हूँ लेकिन बच्चा बाबू की कहानी क्या वाकई खत्म हो सकती है, यह निष्कर्ष आप पर छोड़ता हूँ।