कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम: सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा / प्रभु जोशी

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मार्च 26, 2008

हम यदि ग़ौर से देखें तो पिछले पाँच-सौ साल के कालखण्ड में, भारतीयों के बीच शायद ही किसी शब्द को इतना अधिक गौरवान्वित किये जाने का इतिहास बरामद हो सकेगा, जितना कि इस हमारे मौजूदा समय में 'भूमण्डलीकरण' शब्द को किया जा रहा है। आज, आप जीवन के, न केवल सामाजिक आर्थिक बल्कि, यों कहें कि किसी भी क्षेत्र में जायें, वहाँ 'मूल्यों' और मान्यताओं के ध्वंस के बाद उठती चीख को चुप्पी में बदलने के लिए निर्विवाद रूप से सिर्फ एक ही शब्द, लगभग अमोघ अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है - और, वह है : 'भूमण्डलीकरण'

निस्संदेह, यह शब्द भी नहीं, अलबत्ता कहा जाए कि एक किस्म का मारक मुँहतोड़ मुहावरा है, जो आपकी तमाम वैध आपत्तियों को भी छीन लेता है। सामने वाले को तुरन्त कह दिया जाता है, 'भैया, यह तो भूमण्डलीकरण है। ऐसा तो होगा ही। लो, कर लो क्या करते हो।'

अभी, बिलकुल अभी-अभी की बात है कि हमारे यहाँ 'पिता और पुत्र' के बीच की असहमतियाँ, फिर चाहे व उम्र और अहं की ही क्यों न रही हों - 'पीढ़ियों का द्वन्द्व' कहलाती थीं। लेकिन, अब बाप के सामने बेटे द्वारा की गई बदसलूकी और बदअखलाकी भूमण्डलीकरण की शिरोधार्य विवशता है। यहाँ, ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'भूमण्डलीकृत मीडिया' ने, भारतीय समाज में एक नया बाप गढ़ना शुरू कर दिया है। शुध्द-सिन्थेटिक बाप, जिसके व्यवहार की व्याख्या पिता की सर्वस्वीकृत छवि को ही संदिग्ध बनाती है। मसलन, घर निकलते वक्त जवान बेटा, जब जेब में पेन चश्मा और मोबाइल रखता है, तो मीडिया का यह 'मेन्युफैक्चर्ड-बाप' दौड़कर, उसकी जेब में कण्डोम रख देता है और अपनी इस अचूक तत्परता पर आत्ममुग्ध होकर 'क्लोज़-शॉट' में मुसकराता है।

जी हां, यह बात मेरे दिमाग में जन्मी कोई स्वैर-कल्पना या फैण्टेसी नहीं है, बल्कि, यह दृष्य एक तल्ख हकीकत है, जिसे आप और हम छोटे पर्दे पर कण्डोम-प्रमोशन के पवित्र संकल्प से भरे विज्ञापनों में लगभग रोज ही देखते हैं। मीडिया का छोटे पर्दे पर नमूदार होता यह दैनंदिन बाप है। क्योंकि, भूमण्डलीकरण की सूक्ष्म आंख ने देख लिया है कि अब भारतीय स्त्री का कोई भरोसा नहीं रह गया है और वह कहीं भी, कभी भी मूॅड आने पर आपके बेटे का ब्रह्मचर्य बिगाड़ सकती है। इसमें बापों द्वारा बेटे में बदचलनी देखना मूर्खता है। यह आधुनिकता के विरूध्द, नई वर्जना है। नतीजतन, बापों की बिरादरी को सावधान और चिंतित किया जा रहा है कि आप अपने तमाम भुलक्कड़ बेटों के लिए कण्डोम के पुख्ता प्रबंध में मुस्तैद रहें। ज्यादा बुध्दिमानी तो इसी में होगी आप पेन, चश्मे और मोबाइल से पहले ही रख दें।

अफसोस तो यह कि इस स्तर पर फिलवक्त केवल कमबख्त भारतीय-बाप भर चिंतित हैं। माँए नहीं। वे शिथिल और इस मसले पर नितान्त असावधान हैं, क्योंकि उनमें अभी भी ढिठाई है और वे तथाकथित अपनी सांस्कृति शर्म से पिण्ड छुड़ाने में कामयाबी हासिल नहीं कर पा रही हैं। यही वह मुख्य वजह है कि वे अपनी भोली-भाली बेटियों के पर्स में 'सुरक्षा का यह चिकना हथियार' रखने से झिझकी हुई हैं। लेकिन, धीरज रखिए ऐसे चिंताग्रस्त-मातृत्व के अभाव की क्षतिपूर्ति के लिए देश भर की शिक्षण-संस्थाएं शीघ्र ही आगे आने वाली हैं। वे अपने परिसरों में, माँ द्वारा अपनी लाड़लियों के प्रति छोड़ दिए गए ज़रूरी दायित्व को, संस्थागत-जिम्मेदारी की तरह ग्रहण करते हुए, कण्डोम की आसान उपलब्धता के लिए वेण्डिंग-मशीन लगायेंगी, ताकि कुलशील कन्याएं दूकानों से कण्डोम क्रय किये जाने की स्त्रियोचित शर्म या 'एम्ब्रेसमेण्ट' से बच सकें। वे लगे हाथ सिक्का डालकर बचा लेंगी, अपनी पुरानी पीढ़ी की माँओं से मिली बासी सांस्कृतिक-झिझक। यही है असली भूमण्डलीकरण। साँप को मारा जा सके और लाठी के न टूटने का भ्रम भी पूरी तरह जीवित बचा रहे। जबकि, दोनों के ही साबुत रहने का एजेण्डा है।

कहने की ज़रूरत नहीं कि तीसरी दुनिया के देशों में भूमण्डलीकरण का सबसे पहले फूंके जाने वाला शंख यही है। वे कहते हैं, कि अब हम किसी देश को ग़ुलाम बनाने के लिए युध्दपोतों के साथ नहीं, केवल कण्डोम के साथ दाखिल होते हैं और बाद इसके तो हमारी विजय का डंका उस मुल्क के लोग, खुद अपने हाथों से बजा देते हैं। अब अस्त्रों और उसकी किस्में बदल गई है। अब तमाम निपटारे, संस्कृति के कुरूक्षेत्र में ही कर दिये जाते हैं। इसलिए, अब सत्ता का संकट हो या फिर आर्थिक-संकट, इन्हें सांस्कृतिक संकट में बदल दिया जाता है। यह संकटों का कायान्तरण है। ठीक इसी क्षण में उन्हें बताया जाता है कि सांस्कृतिक संकटों के समाधान समाजशास्त्रीय दृष्टि से नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से किये जाने चाहिए और वैज्ञानिक दृष्टि वही है, जो अब आपको भूमण्डलीकरण दे दे।

बहरहाल, वैज्ञानिक बघनखे तैयार किये जाते हैं - और, 'एड्स का भय' इस शताब्दी का सबसे पुख्ता बढ़िया और बड़ा बघनखा है, जिस पर वैज्ञानिकता की धार और चुधियाँ देने वाली चमक चढ़ा दी गई है। वह पुरानी और पूरबी संस्कृतियों के पेट की अंतड़ियाँ खंगाल दिए दे रहा है।

आप थोड़ा ध्यान देकर देखें तो अचरज से भर जायेंगे कि हम-सबको 'एड्स' एक महारोग की तरह अपनी प्रचार-पुस्तिकाओं में जितना खतरनाक जान पड़ता है, जबकि 'मनाये जाने' में वह दोगुना उत्साह और आनंद देता है। यही वजह है कि अपनी आजादी के साठ साल का जश्न मनाने वाले महादेश में, 'पन्द्रह-अगस्त' या 'छब्बीस-जनवरी' से बड़ा उत्सव (मेगा-फेस्टिवल) अब एड्स-दिवस हो गया है। इसके बाकायदा 'बीट्स' के साथ तैयार किये गये स्वागतगान कोरस में गाते हुए, आयोजक एन.जी.ओ. राष्ट्रीय-एकता का मिथ्या भ्रम प्रकट कर रहे हैं। वे नए समाजवादी समाज का प्रारूप गढ़ते हुए कह रहे है कि एड्स के सामने अमीर-गरीब सब एक हैं। कण्डोम-वितरण बनाम कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम सुनहरी पताकाओं और बैनरों पर लहराता हुआ आयोजित होता है। इस प्रसंग को एक विशेष अभिप्राय के साथ देखें कि जब बिलगेट्स भारत आते हैं तो वे 'सूचनाक्रांति' के संदेश से ज्यादा, 'कंडोम-क्रांति' के प्रतीक बन जाते हैं। उनके स्वागत में बैंगलोर में आठ-आठ फीट ऊंचे कण्डोम के द्वार बनाये जाते हैं। यही सैक्स को पारदर्शी बनाने की सार्वजनिक पहल है, जिसमें शामिल है, सांस्कृतिक संकोच का सामूहिक ध्वंस। बावज़ूद इसके चौतरफा चुप्पी। यह वैज्ञानिक रीति से तैयार किया जा रहा गूंगायन है, जिसे भारत की सहमति माना जाता है।

दरअसल, यह बाज़ारवाद की भारत में मनने वाली नई और आयातित दीवाली है, जिसमें हम सबको मिलजुल कर अपनी संस्कृति और परम्परा के पैंदे में बारूद भर कर उसकी किरच-किरच उड़ानी है। वजह यह कि, उनके लिए सबसे बड़ीा दुर्भाग्य और दिक्कत तो यही है कि सैक्स अभी भी भारत में, आचरण की सांस्कृतिक-संहिता बना हुआ है। दरअसल, भ्रष्टाचार हत्या, लूट, घूँस जैसे कामकाजों को अंजाम देने में हम शशोपंज में नहीं पड़ते-लेकिन, एक यही क्षेत्र है, जो रोड़े अटकाता है। इसकी चरित्र से वेल्डिंग कर दी गई है, जो टूट नहीं पा रही है। बस कण्डोम की करारी चोट ही इसे अलग करेगी। मालवी में कहें तो चरित्र की झालन टूटेगी तो इसी से।

बहरहाल, हमें पश्चिम की तर्ज पर भारतीय समाज में भी वैज्ञानिक चतुराई का अचूक इस्तेमाल करते हुए सैक्स को केवल फिजिकल एक्ट बनाना और बताना है, ताकि उसके प्रति दृष्टिकोण में बाज़ार के अनुकूल परिवर्तन किया जा सके। कण्डोम, ऐसे धूर्त सांस्कृतिक छद्म को वैज्ञानिक-आवरण देता है, जो सामूहिक और खामोश सहमति का आधार बनाता है। इसी के चलते साम्राज्यवादी विचार की जूठन पर पल रहे लोगों की एक पूरी रेवड़ 'सेक्समुक्ति' को दूसरी आज़ादी की तरह बता रही है, जिसमें 'कण्डोम', 'वंदेमातरम्' के समान पूरे देश में एक जनव्यापी उत्तेजना पैदा करेगा और कर भी रहा है। वे कण्डोम की छाया तले एकत्र हो रहे हैं।

बहरहाल, विचारहीन विचार के श्री चट्टे और श्री बट्टे, मुन्नाभाई की तर्ज पर लगे हुए हैं - कण्डोम-क्रांति में। क्योंकि, किसी भी देश में जितने लोग, इस बहुप्रचारित महारोग से मरते हैं, उससे चौगुनी संस्थाएं और लोग इस पर पल रहे हैं। कई संस्थानों की तो बात छोड़िये, सरकारों तक की अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा घटक ही एड्स है। भारत में ढेरों ऐसे लोगों और संस्थाओं का इसी से पेट पल रहा है। क्या करें, पापी पेट का सवाल है - इसलिए, 'विचार और तकनीक' मिलकर, भूख को बदलने में भिड़ गए हैं। विडम्बना यह कि भूख को बदलने के धतकरम में हमारी 'सत्ता का सक्रिय साहचर्य' शुरू हो गया है। वह यौनक्षुधा के लिए अब पांच रूपये के 'पैकेट में ही पिंजारवाड़ी/जी.बी. रोड, सोनागाछी या कमाठीपुरा' उपलब्ध करा रही है। वह जान चुकी है कि देश को ब्रेड बनाने के कारखाने की अब उतनी ज़रूरत नहीं रह गई है, क्योंकि भारतीय इलेक्ट्रॉनिक-मीडिया ने जनता की भूख की किस्म बदल दी है। नतीज़तन, इस महाद्वीप की गरीब जनता को रोटी से ज्यादा कण्डोम की जरूरत है। यह एक नया आनंद-बाज़ार है, जिसमें देश की आबादी नई और बदल दी गई भूख के बंदोबस्त में जुटी हुई हैं। कहना न होगा कि अब समाजशास्त्र और माल के सौंदर्यीकरण से बने सांस्कृतिक अर्थशास्त्र (कल्चरल इकोनामी) को मिलाकर एक ऐसी कुंजी तैयार की जा रही है, जिससे वे इस बूढ़े और बंद समाज के सांस्कृतिक-तलघर का ताला खोल सकें, ताकि यौनिकता (सेक्चुअल्टी) का आलम्बन बनाकर चौतरफा बढ़ने वाले बाज़ार को, उसे अधिगृहीत करने में आसानियाँ हो जायें।

उनकी मार तमाम कोशिशें जारी हैं और वे लगभग सफल भी हो रही है कि घर के शयनकक्षों में सोया वर्जनायुक्त एकांत, बाज़ार के अनेकांत में बदल जाये। इसी के चलते विपणन (मार्केटिंग) की विज्ञापन बुध्दि यौनिकता को बाज़ार से नाथ कर पूंजी का एक अबाध प्रवाह बनाती है, जिसमें युवा पीढ़ी की अधीरता का भरपूर दोहन किया जाता है। यही वजह है कि चतुराई के साथ बाज़ार और सेक्स को परस्पर घुला-मिलाकर एकमेक किया जा रहा है। ठीक ऐसे क्षण में एड्स नामक महारोग ईज़ाद हो गया या कर लिया गया। इसने 'बाज़ार' और 'सेक्स' को एक दूसरे का अविभाज्य अंग बना दिया। बहरहाल, मुक्त-व्यापार और मुक्त-सेक्स एक दूसरे के पूरक हैं। वे एक दूजे के लिए हैं। 'बाज़ार का सेक्स' और 'सेक्स का बाज़ार'A बाज़ार का डर और डर का बाज़ार - ये सिर्फ रोचक पदावलियाँ भर नहीं हैं, बल्कि गरेबान पकड़ कर देसी समझ को दुरूस्त कर देने वाली, सल्टाती सचाइयाँ हैं। आज 'बाज़ार' से सरकारें डरती हैं। साल के तीन सौ पैंसठ दिन समाज और समय की खाल खींचने वाला मीडिया डरता है। मीडिया अपनी निर्भीकता में संसद की बखिया उधेड़ सकता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के खिलाफ बोल सकता है। यहाँ तक कि वह दरिंदे दाऊद के खिलाफ भी खड़ा हो जाता है, लेकिन एड्स के खिलाफ बोलने में उसके प्राण काँपते हैं, क्योंकि एड्स के बहाने जो मुखर यौनिकता आ रही है, वह 'बाज़ार' की भी प्राणशक्ति है और स्वयं मीडिया की भी। फैशन, फिल्म, खानपान, वस्त्र-व्यवसाय और सौंदर्य-प्रसाधन सामग्री- ये सभी मिलकर जो नया बाज़ार खड़ा करते हैं, उस सबके केन्द्र में यौनिकता है। सेक्चुअल्टी इज द लिंचपिन ऑफ आल दीज ट्रेड्स। क्योंकि, यौनिकता ही वर्जनाओं को तोड़ती हैं और उसे प्रखर बनाते जाने में उनकी सारी शक्ति लगी हुई है। वे जानते हैं, ये मांगगे मोर। धीरज धरो। इन्हें भारतीय औरत की देह से साड़ी और सलवारों को दूर होने दो। पता-चलेगा, पश्चिम की स्त्री से अधिक अपील इधर है।

दरअसल, सामाजिक वर्जनाओं के रहते समाज का जो ढांचा बनता है, उसमें बाज़ार की घुसपैठ, एक सीमारेखा तक ही हो पाती है जबकि वर्जनाएं, लक्ष्मण-रेखाएं खींचती है। यौन वर्जनाओं ने ही परम्परागत भारतीय समाज का एक सुगठित प्रारूप बनाया है (इस पर मैं कभी अलग से लिखूंगा) इसलिए, लक्ष्मण-रेखाएं सीमाओं का वैध और सर्वमान्य प्रतिमान बनती रही हैं। लेकिन, अब भूमण्डलीकृत बाज़ार कहता है-रेखाओं को खींचने के लिए मिस्टर लक्ष्मण अधिकृत ही नहीं है। सीमाएं क्या हों ? कहाँ तक हों ? और कौन सी हों ? यह सब अब केवल सीता का आऊटलुक है। और आज की सीता अपनी ज़रूरतों से ऊपर उठकर, आकांक्षा के नीचे रह जाना नहीं चाहती। उसे वह सब चाहिए, जो सोने की चमचमाती राजधानियों के उच्च-मध्य वर्ग की जीवनशैली जीने के लिए ज़रूरी है। यह स्त्री-विमर्श की भूमण्डलीकृत-संहिता है, जो राजपाट से हाथ धो कर जंगल में भटकने वाले राम के वनवासीपन के बजाय, सत्ता की सुनिश्चिता को चुनने के लिए कृत-संकल्प है। बाज़ार दृष्टि उसे बार-बार बता रही है कि उसके लिए अब रावण धोखा नहीं एक सुंदर संभावना है। एक स्वर्णिम विकल्प है। इसलिए, उसे लक्ष्मण रेखाओं को एक सिरे से लांघ जाना चाहिए।

बहरहाल, यह आधुनिक नहीं, उत्तर आधुनिक तर्क है, जबकि यथार्थ में न तो यह उत्तर आधुनिक-स्थिति है और ना ही आधुनिक - बल्कि मात्र 'विपरम्पराकरण' है। पश्चिम में आधुनिकता पूंजी के अपार आधिक्य से पैदा हुई थी तो ज़रा आप ही सोचिए कि हमारे यहाँ आधुनिकता पूंजी के अपार अभाव में कैसे पैदा की जा सकेगी ? इसलिए हम आधुनिक नहीं, सिर्फ परम्पराच्युत हुए हैं। मात्र डि-ट्रेडिशनलाइज्ड। अर्थात् अपनी जड़ों से उखड़ चुके हैं। हम उखड़ते हुए बरगद हैं।

वास्तव में हमारे, विराट मध्यमवर्ग में बदलते इस समाज और समय को सम्पट ही नहीं बैठ रही है कि वह क्या करे ? वह माथे पर मालवी पगड़ी बांधकर गुड़ी-पड़वाँ मनाता हुआ कण्डोम बेचने निकल आया है। वह रक्षाबंधन के दिन हाथ में राखी बांधकर, उसी हाथ से वह कण्डोम वितरण का काम भी निबटा रहा है। वह जनेऊ चढ़ाकर 'यूरिन कल्चर' का सेम्पल दे रहा है। अत: इसी सम्पट न बैठ पाने के अभाव में समूचा भारतीय समाज एक खास किस्म के 'सांस्कृतिक अवसाद' में डूबा हुआ है। मीडिया और माफिया के रक्त संबंध ने उसे सांस्कृतिक-अनाथ बनाकर छोड़ दिया - और नया तथा धड़धड़ाता हुआ आने वाला यह बाज़ार बख़ूबी जानता है कि समाज को विखण्डित करने के लिए हमेशा से ही यही 'अवसादकाल' एक वाजिब वक्त रहा है। बिचारी एकता कपूर तो कभी की लगी हुई है कि परिवार टूटे।

इसी सर्वथा उपयुक्त समय में परम्परागत-भारतीय-समाज को तोड़कर टुकड़े-टुकड़े किया जा सकता है। यही विखण्डन की अकाटय सैध्दान्तिकी है और 'यौनिकता' विखण्डन का सबसे बड़ा और कारगर हथियार है। बहरहाल, यौनिकता की आक्रामकता के लिए मार्ग को प्रशस्तीकरण का काम करता है, - एड्स के बहाने सर्वव्यापी बनने वाला सर्व-सुलभ कण्डोम। इसलिए 'एड्स' जैसे विश्वव्यापी महामिथक के उपचार पर पूंजी खर्च करने के बजाय, कण्डोम-प्रमोशन को एकमात्र अभीष्ट बना दिया जाए। संतति निरोध के सामान्य उपकरण की तरह प्रकट हुए कण्डोम की बाज़ार दृष्टि ने इसलिए पूरे भारत की एक अरब आबादी को, अब दो स्पष्ट भागों में बाँट दिया है। पहले वे जो एड्स-ग्रसित हैं तथा दूसरे वे जो संभावित-ग्रसित हैं - अर्थात् पूरा भारत ही एड्स के घेरे में आ गया है। भारत का यह नया नक्शा है, जो अब एक अरब लोगों से भरा-पूरा जनसमाज नहीं बल्कि रिस्क ग्रुप है। अहा कितना व्यापार। महारोग ग्रस्त एक महाद्वीप।

आपने देखा होगा कि 'एड्स' के उपचार के सवाल और समस्या को तो बहुत शीघ्र हाशिए पर कर दिया गया, उसका टीका अभी तक नहीं बन पाया है और अब सबसे बड़ा टीका कण्डोम है। इसी छल के तहत कण्डोम की प्रतिष्ठा केन्द्रीय बना दी गई है। इस कर्मकाण्ड में सरकारी और गैर सरकारी संगठन दोनों ही प्राणपण से लगे हुए हैं। कारण कि नैकों से लेकर पैकाड] मैक-आर्थर, और फोर्ड फाऊण्डेशन जैसी पूंजी का अबाध प्रवाह पैदा करने वाली संस्थाएं थैलियाँ लेकर कतार में डटी हुई हैं। उनसे पूंजी-हथियाकर तमाम गैर-सरकारी संगठन, एड्स के विराट भय की व्याख्या करते हुए यौनशिक्षा (सेक्स एजुकेशन) की अनिवार्यता के लिए भूमि-समतल करने का काम करते हैं। क्योंकि, सेक्स-एजुकेशन का पाठयक्रम किशोर-किशोरियों को ज्ञानग्रस्त करने वाला है कि हस्तमैथुन, समलैंगिकता, मुख तथा गुदा-मैथुन अप्राकृतिक नहीं है। केवल भारतीय पीनलकोड ने उपर्युक्त सभी सेक्स-क्रियाओं को अप्राकृतिक बताकर पूरे भारतीय समाज और देश को सैक्स के कारोबार में पिछड़ा बना रखा है। वात्स्यायन के देश में जन्म लेकर भी हमें यौन वर्जनाओं के कारण घोर बदनामी झेलना पड़ रही है। देखिए, हमारे यहाँ तो सूर्यपुत्री यमी ने अपने भाई यम को अपना 'सेक्समेट' बनाने के लिए प्रस्ताव किया था, देखिए, ऐसी मिथकीय परम्परा वाला समाज हमारी विश्व में कैसी थू-थू करवा रहा है। हालांकि आगे के प्रसंग को इरादतन उल्लेख से बाहर रख दिया जाता है, जिसमें यम रक्त सम्बन्धी से शारीरिक संसर्ग (इनसेस्ट) को नीति विरूध्द बताता है।

इसी जग जाहिर बदनामी की बौध्दिक-चिंता करते हुए देश को बचाने के लिए कुछ प्रथमश्रेणी के बुध्दिजीवियों के रेवड़, जिसमें अमर्त्य से और विक्रम सेठ भी शामिल है, ने भारत सरकार को लगभग धिक्कार के मुहावरे में लिखित प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था कि समलैंगिको को भारत में संवैधानिक रूप से समान व सम्मानजनक दर्जा कब और कैसे मिलेगा ? उन्हें इस विकट समस्या ने संगठित होने में विलम्ब नहीं करने दिया। लेकिन, भूख] गरीबी] साम्प्रदायिकता] समान-वितरण-प्रणाली समान-शालेय शिक्षा जैसे इससे बड़े और कहीं अधिक विकराल प्रश्नों पर अभी उन्हें तक एकत्र नहीं होने दिया है। वे लैंगिक-अल्प संख्यकों (सेक्चुअल मॉइनॉर्टी) के हित में अविलम्ब कूद पड़े। यहाँ तक कि संभोग रहित सैक्स की लत विकसित करने के लिए 'सैक्स टॉय' के लिए वे उपयुक्त जगह बनाना चाहते हैं, इसमें हमारे कल्याणकारी राज्य की भूमिका साझेदारी की है। यों भी सरकार भाषा को भूगोल से भूगोल को भूख से और भूख को भूख से बदलने के खेल में काफी दक्षता हासिल किए हुए है।

दोस्तो, यह राज्य द्वारा परिवार के सुनियोजित विखण्डन की प्रायोजित मुहिम है, जबकि परिवार प्राथमिक इकाई है और वह पहले बना है, राज्य बाद में। जिसके बाद 'स्वयंसेवा' के जरिए से सेक्स की परनिर्भरता से मुक्ति तो मिलेगी ही साथ ही साथ अमेरिकन सिंगल्स की तर्ज़ पर भारतीय पुरुष और भारतीय स्त्री बिना सहवास किए इच्छित यौनरंजन हासिल कर सकेंगे। उनका वैज्ञानिक तर्क यह भी है कि इससे भारत में सेक्स-टॉय और समलैंगिकता के प्रचलन से बढ़ती आबादी पर रोक लगाने में कारगर कामयाबी मिल सकेगी। उन्हें छातीकूट अफसोस इस बात पर भी है कि भारत में माता-पिताओं के साथ लड़कियाँ भी उन्हीं की तरह मूर्ख हैं, जो शादी करके गृहस्थी बसाने का सपना देखने से बाज नहीं आ रही हैं। ऐसा चलता रहा तो उन्हें यहाँ सेक्स-टॉय के धंधे में बरकत बनाना मुश्किल होगी। जबकि, सेक्स खिलौनों का कारखाना भिलाई के इस्पात के कारखाने से ज्यादा रेवेन्यु देगा। यह लचीला स्टील है। इसमें उत्खनन के बजाए सीधा उत्पादन ही होता है।

दूसरे शब्दों में कहें कि सेक्स खिलौनों का व्यवसाय विकसित राट्रों के समाजों की मेट्रो-सेक्चुअल्टी है, जिसे देसी-आदत का रूप देना है। जी हां, मूलत: कार्पोरेटी-इथिक्स का प्रतिमानीकरण करना है, जो 'सामुदायिक-नैतिक ध्वंस' में ही अपना अस्तित्व बनाता है। सरकार का इसमें सार्थक सहयोग है।

हिन्दी में महानगरीय बुध्दिजीवियों की ऊंची नस्ल में सेक्समुक्ति को लेकर जो प्रफुल्लता बरामद हो रही है - वह स्त्री स्वातंत्र्य के आशावाद की बाजार-निर्मित अवधारणा है, जिसे ये माथे पर उठाये ठुमका लगा रहे हैं। देहमुक्ति में स्त्रीमुक्ति का मुगालता बाँटने वाले ये मुगालताप्रसाद, हकीकत में देखा जाय तो उन्हीं आकाओं की ऑफिशियल आवाज हैं, जिसको वे लम्पटई की सैध्दान्तिकी के शिल्प में प्रस्तुते हुए प्रचारित कर रहे हैं। ये उसी वैचारिक जूठन की जुगाली कर रहे हैं। ये नए ज्ञानग्रस्त रोगी है, जिनका अब कोई उपचार नहीं है। उन्हें लाइलाज (अनट्रीटेड) ही रखना पड़ेगा। खुद को आवश्यकता से अधिक प्रतिभाग्रस्त मानने के मर्ज़ के पीछे प्रायोजित प्रदूषण है। इसीलिए टेलिविजन चैनलों में स्टूडियो की नकली रौशनी में रंगे हुए होठों वाली लड़कियाँ दांत निपोरते हुए किशोर-किशोरियाँ से पूछती हैं - आप सेक्स शिक्षा के पक्ष में है कि नहीं ?... आपने विवाहपूर्व 'सेक्समेट' बनाने में आपको कोई हिचक तो नहीं ?... क्या आपने कभी हस्तमैथुन या अपने समवयस्क के साथ पारस्परिक यौनिक दुलार किया है ?.... क्या आप अभी भी सेक्स टेबू की शिकार हैं ?

कुल मिलाकर, बहुत जल्दी सर्वेक्षण आने वाला है, जो खुशी को छुपाने का अभिनय करता हुआ बतायेगा कि हमारे यहाँ किशोरवय की गर्भवती कन्याओं (टीन एज़ प्रेगनेंसी) का ग्राफ अब अमेरिकी समाज की तरह काफी ऊंचा उठ गया है। सेन्सेक्स और सेक्स दोनों की दर की ऊंचाई प्रगति का प्रतिमान बनने वाली है। क्योंकि भारत में कण्डोम-क्रांति की सफलता के लिए यह जरूरी है। इस क्रांति में मीडिया, फिल्म, मनोरंजन व्यवसाय, खानपान, वस्त्र व्यवसाय आदि शीतयुध्द के दौर में समाजवादी समाज की अवधारणा को नष्ट करने के लिए एक शब्द चलाया गया था- लाइफ स्टाइल। जी हां, वह शब्द अब अखबारों के परिशिष्ट में बदल गया है। महेश भट्टीय शैली की फिल्में धड़ल्ले से इसीलिए कारोबार कर रही है, क्योंकि अब फिल्म के दृश्य में आंखें नहीं कच्छे गीले होने चाहिए। आखिर अंग्रेजी में इसे ही तो कहते हैं, बड़ी आंत से ब्रेन का काम लेना। इसी धंधे का लालच उन्हें तर्क देता है कि हिन्दुस्तान में पोर्नोग्राफी को वैध बना दिया जाना चाहिए।

अंत में सचाई यही है कि दोस्तों हमारे नब्जों में गुलाम रक्त प्रवाहित है और इसलिए हमारा मौलिक चिन्तन कुन्द हो चुका है। अत: हम हाथ जोड़कर क्षमा चाहते हैं कि हमारा बौध्दिक-पुरुषार्थ निथर गया है - नतीज़न उसके अभाव में हम भारतीयों से कोई विचार-क्रान्ति संभव ही नहीं है, हम तो अब केवल कण्डोम-क्रान्ति को ही संभव कर सकेंगे। क्योंकि, मीडिया की मदद लेकर बढ़ रहे, नये बाजार ने हमें वर्जनाओं के कच्छे उतारने के लिए उतावला बना दिया है। हम बेसब्र और बेकाबू हैं, वह सब हासिल करने के लिए, जिसे सरकारी साझेदारी में उत्पादित किया जा रहा है। बहरहाल, धन्यवाद उनका और उनके एड्स का कि उन्होंने कामांगों पर कर्फ्यू लगाये रखने वाले चिंदे से मुक्ति के लिए वैज्ञानिकता का तिनका दे दिया, जिसकी आड़ ही हमारे लिए पर्याप्त है। उन्नीस सौ सैंतालीस की आज़ादी तो सिर्फ एक राजनैतिक झुनझुना था, जिसे गांधी ने एक सिम्पल-स्टिक को हाथ में लेकर, (जिसे हिन्दी के भदेसपन में लाठी कहते हैं) सम्भव कर दिया था। यह बिना खड़ग और बिना ढाल वाली मात्र लाठी के सहारे उपलब्ध करा दी गई आज़ादी थी, जबकि असली आज़ादी को तो हम अब एन्जॉय कर पायेंगे - गांधी की लाठी नहीं - जॉय स्टिक के सहारे। जिंदाबाद ज्वॉय स्टिक !

अंत में इसलिए भाई-बहनो, इस माल का बाज़ार बढ़ाओ और भारत में असली भूमण्डलीकरण और असली आज़ादी इसी के जरिए आयेगी। संस्कृति-संस्कृति चिल्लाने वाले आंखें मूंद, औंधे मुंह सोये पड़े हैं। इसलिए खरीदो और बेचो सेक्स टॉय।