कथाओं का चक्र और मौलिक गरीबी / जयप्रकाश चौकसे

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कथाओं का चक्र और मौलिक गरीबी
प्रकाशन तिथि : 20 सितम्बर 2013


राजकुमार संतोषी की फिल्म 'फटा पोस्टर निकला हीरो' का छोटे शहरों में रहने वाला युवा नायक फिल्मी सितारा बनना चाहता है, परंतु उसकी मां का सपना है कि वह पुलिस अफसर बने। नायक मुंबई में पुलिस की वर्दी में एक फिल्म में छोटी-सी भूमिका प्राप्त करता है और नायिका उसे पुलिस अफसर समझने लगती है। राजकुमार हीरानी की 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' का केन्द्रीय विचार भी यही है। अंतर यह है कि नायक शहर का नामी गुंडा है और पिता का स्वप्न उसे डॉक्टर बनाने का था। आज से कोई चार-पांच दशक पूर्व एक फिल्म बनी थी 'धोबी डॉक्टर', जिसमें एक धोबी प्रतिदिन चादरें इत्यादि लेने अस्पताल आता है। एक दिन वह एक डॉक्टर का स्टेथेस्कोप पहन लेता है और नायिका उसे डॉक्टर समझती है। बहरहाल, अपमानित होने के बाद वह अध्ययन करके डॉक्टर बन जाता है। यह भारतीय सिनेमा की विशेषता है कि केन्द्रीय विचार बार-बार लौट आते हैं और बदले हुए समय के साथ समसामयिकता का तड़का लगाकर नए कलेवर में प्रस्तुत किए जाते हैं। यहां बात पुरानी फिल्म के नए संस्करण की नहीं हो रही है, जैसे करण जौहर की 'अग्निपथ' थी या 'जंजीर' का दावा किया गया या रामगोपाल वर्मा का 'शोले' के नाम पर रचा हादसा 'आग' थी।

यह खेल कुछ विचित्र है। डेविड धवन व लेखक अनीस बज्मी ने यह काम बहुत बार किया है। वी. शांताराम ने 1939 में 'आदमी' 'देवदास' प्रवृत्ति के विरोध में बनाई थी। 'आदमी' का नायक पुलिस कांस्टेबल है और उसकी नियुक्ति तवायफों के मोहल्ले में होती है। उसे एक तवायफ से प्यार हो जाता है। वह देवदास की तरह पारो की याद में चंद्रमुखी को तजने वाला आदमी नहीं है वरन तवायफ से शादी कर लेता है। शम्मी कपूर ने इसी कथा को संजीव कुमार और जीनत अमान के साथ 'मनोरंजन' के नाम से बनाया, जिसमें आर.डी. बर्मन का संगीत था और एक मधुर धुन हमेशा कानों में गूंजती थी 'कितना प्यारा वादा है ये गोया के चुनांचे'। बहरहाल, शम्मी कपूर ने वी. शांताराम की 'आदमी' नहीं देखी थी, उन्होंने अंग्रेजी फिल्म 'इरमा ला डूस' से कहानी उठाई थी।

विगत दो दशक से शेखर कपूर कह रहे हैं कि वे 'पानी' बनाएंगे और अब आदित्य चोपड़ा ने निर्माण की जवाबदारी ली है तो यह अवश्य बन जाएगी। यह सर्वविदित है कि भविष्य में पीने के पानी की कमी होगी। विशेषज्ञों की राय है कि पानी के लिए युद्ध भी हो सकता है। सन् 1946 में शेखर कपूर के ज्येष्ठ मामा महान चेतन आनंद ने 'नीचा नगर' बनाई, जिसे अंतरराष्ट्रीय समारोह में पुरस्कृत किया गया था तथा लीक से हटकर बनी यह फिल्म पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रयास से प्रदर्शित हो सकी थी। बहरहाल, चेतन आनंद को फिल्म की प्रेरणा रशियन लेखक मैक्सिम गोर्की के उपन्यास 'लोअर डेप्थ' से मिली थी। अत: नाम 'नीचा नगर' भी सीधा अनुवाद है। कहा जाता है कि उस फिल्म में अमीर वर्ग ऊंचे स्थान पर रहता है और गरीब नीचे। अमीर वर्ग पानी रोक देता है। यह बताना संभव नहीं है कि क्या शेखर कपूर अपने मामा की 'नीचा नगर' से प्रभावित हैं या यह उनकी अपनी मौलिक कथा है? बहरहाल, आदित्य चोपड़ा और शेखर कपूर का एकजुट प्रयास अत्यंत महत्वपूर्ण फिल्म का संकेत देता है। कथाएं समय के चक्र की तरह घूमती रहती हैं और विभिन्न दृष्टिकोण से बनाई जाती हैं। राजनीति में भी चुनावी नारे दोहराए जाते हैं, वादे भी दोहराए जाते हैं और लोकप्रिय नेता विविध मुखौटों में मंच पर विराजते हैं। आम जनता के दुख हमेशा कायम रहते हैं, बस यही एक न बदलने वाला सच है। क्या हम कथाओं की तरह गरीबी को दोहराकर उसका नया ग्लैमरस संस्करण भी नहीं बना सकते? यह आर्थिक उदारवाद के बाद का 'विकास' गरीबी को ही नए पैकिंग में बेच रहा है। यह विकास कथा मौलिक है।