कदाचार / शेखर मल्लिक

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धूप की एक तीखी चमक हाजत की सलाखों के काले, उघड़े रंग को चटखाती हुई पड़ने लगी थी... वहाँ पूरे परिसर में कभी एकाएक हलचल मच जाती या अधिकतर कोई खास चहल-पहल नहीं थी। फरवरी महीने की शाम उतरने में ज़्यादा वक्त नहीं था...

बंदीगृह संख्या सात के अंदर एक बाईस-तेईस साल का लड़का लड़कियों की बाँह कटी सूट में, पाउडर, लिपस्टिक, काजल वगैरह लगाए खड़ा था। रंग साफ, ठुड्डी पर हलकी दाढ़ी... उसका सिर झुका था, मगर जाहिराना तौर पर गुरुत्वाकर्षण की वजह से नहीं...! बल्कि कई सारी दूसरी वजहों से... उसके दोनों हाथ जुड़े थे और वह रुक-रुककर, अपने सामने पड़ने वाले हर नए आदमी से एक ही बात कह रहा था... लगातार आ रही हिचकियों के बीच के वक्फे जितने अंतराल पर...

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उसने बताना शुरू किया था। थोड़ी हिचक थी या वह सोच रहा था कि उसे क्या कहना है...

जब उसने बताना शुरू किया, उसका चालान कर जेल भेजने में कुछ ही वक्त बचा था...

'सर, हम लोग गरीब हैं, बहुत गरीब लोग हैं सर... पिताजी देशी बहुत पीता है... बहुत बुरी लत है। कमाई-धमाई कुछ नहीं है... माँ घर-घर पकाती और बर्तन बासन माँजती है सर... सर, घर में और एक गो छोटी बहन है...'

वह शांत हो जाता है, तो मैं कुछ सोचता हूँ... उसका चेहरा एक साथ कई चेहरों जैसा दिखता है! जैसे मैंने सड़क या चौक पर या बाज़ार में रोज देखा हो...

साथ वाले कमरे से आवाज आई, 'लक्ष्मन सिंह...!'

पुकार होते ही अर्दली वहाँ से भागा था... 'जै हिंद साब!'

'अरे ऊ लड़कवा के खाना-वाना दिया था के नहीं होss...?'

थाना प्रभारी पिछली रात नहीं सोए थे। सूबे के मुख्यमंत्री अगले दिन शहर में आने वाले थे और नगर भवन के अहाते में उनकी प्रेस-सभा होनी थी। उसी की तैयारी में रात भर तो क्या, विगत पखवाड़े से कोल्हू के बैल की तरह जुटे हुए हैं! ...नक्सली प्रभाव-क्षेत्र में होने के कारण पूरे कस्बे को टाईट सिक्योरिटी जोन में बदलना था। 'ऊपर' से तमाम तरह के निर्देश... ड्यूटी बजाते-बजाते प्रभारी साहब थक गए थे, फलस्वरूप उखड़ से गए थे...

'खईबो नहीं करता है सर...' अर्दली चिढ़कर बोल रहा था...

'त... घुसेड़ डंडवा ओकरे...' प्रभारी साहब ने अधखुली आँखों से अर्दली को देखा।

अर्दली एड़ी बजाकर सेल्यूट देके बाहर भागा।

लड़के को सर्दी थी... जोर से सों... करके कोने में नेटा फेंका था उसने। 'सर... बात हमारी बहन के है... कल वह गिर गई सर...'

लड़का मेरी ओर बीच-बीच में ताक लेता था... मुझे दिख रहा था उसके पीछे बायीं तरफ दीवार के नजदीक, नीचे जो दरी-सा कुछ बिछा था, उस पर एक ओर एल्मुनियम की मैली-सी दागदार थाली में कुछेक सूखी रोटियाँ और बाटी में दाल... मक्खियाँ उसके गिर्द उड़ रही थीं।

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लड़के ने दोस्त से खरीदी सैकिंड हैंड मोबाइल उपरी जेब में खोंसते हुए दरवाजे से चिल्लाकर कहा, 'अम्मी... खुशखबरी...!' औरत उस समय सीलन भरी रसोई में बथुआ साग कतर कर उठ रही थी और साथ बैठी लाली ने 'जन वितरण प्रणाली' की दुकान से लाए चावल में से कंकड बीनने का काम आधा खत्म कर लिया था... जो आज दोपहर के खाने के लिए था।

लाली को देखने वाले जब माह भर पहले आए थे, तो उन्होंने जाते-जाते ऐसा संकेत दिया था कि लड़की मन मुताबिक लगी है उनके. तत्काल निर्णय नहीं करके जब उन्होंने कहा था कि फोन करके आपको खबर कर देंगे, अपना नंबर लिखवा दीजिए, यहाँ सबके अंदर एकाएक एक शर्मिंदगी घटित हुई थी... फिर वे लोग अपना नंबर ही दे गए थे और इसके बाद, लड़के ने जिद करके यह मोबाइल खरीद लिया था।

'...कह रहे हैं कि अपनी लाली बहुतै पसंद आई है। बाकी, सिर्फ़ ई इस बार मेट्रिक पास कर ले। कहते हैं, उनको मेट्रिक पास चाहिए...'

'हाँ, तो ठीक है। ई तब मेट्रिक पास कर लेगी इस साल, अउर क्या!' औरत अब चूल्हे पर चढ़ी दलिया करछुल से हिलाने लगी थी, हिलाते हुए बोली, 'ठीक ही चाह रहे हैं... आजकल बकलोल लड़किया से त नहीं ना ब्याह शादी करता है कोय... पढ़ी-लिखी चहिए, त इसमें कौन ग़लत बात है? बाकि पढ़ाई का खर्चा, साथ में सादी का खर्चा...'

'तुम ऊ सब में माथा दो... सब देख लेंगे।' लड़के का उत्साह बना हुआ था।

बहुत दिनों के बाद कुछ अच्छा घटित हुआ था। लाली देखने में सुंदर है। सुघड़ है। खाना भी कच्ची उमर से ही सध के पकाना सीख गई है और पढ़ाई में जेहन भी अच्छा है। बस... इस दफे इसका बियाह हो जाए तो बहुत बड़ा कारज सध जाएगा। वरना, किसी की कूवत में नहीं कि तीन पेट पोस सके. अभी तक जैसा गुजरा बीता, सो बीता... मगर जवान होती लड़की के वास्ते ढेर तरीके से खर्च बढ़ते हैं, ऊ कौन निभाएगा...? लड़का गरीबी और कुछ अपनी लापरवाही की वजह से पढ़ाई छोड़ बैठा था और अभी किसी तरह के भी स्थायी कमाई वाले उपक्रम में जुड़ नहीं सका था। माँ अपनी खटाई से बहुत ज़्यादा जोड़ नहीं सकती। जितनी जुड़ाई है, वही हाथ-गोड़ घिस के. बाप जब किसी लायक नहीं है। तो जिंदा रहने भर के लिए जो जुटता है, वही नाकाफी, अब लाली किसी तरह अपने ठौर जा लगे, सो भी जितनी जल्दी, वही बहुत आस! लाली बहुत प्यारी बच्ची है, मगर उसका प्यारा होना बस एक अपवाद है। क्योंकि यहाँ असल में वह एक और 'पेट' है! 'पेट' हर बार दिल-दिमाग के मिजाज पर भारी पड़ता है...

हर बार बहुत से आड़े-टेढ़े लोग, कितनी बार दहेज के लिए सुरसा की तरह मुँह फाड़े लोग आकर मुंडी हिला गए हैं। खाना-पीना, चाय-नाश्ता, अपनी कूवत भर खूब कराया है, लेकिन नतीजा सिफर... बात जोड़ पर आते-आते दहेज की गाँठ पर टूट जाती है। बाज लोग तो बात को घुमाकर ऐसे मना करते हैं कि जैसे लड़की में ही सब नुक्स है। इस बार मगर, यह बहुत अलग हो रहा है कि फरमाईश मोटरबाइक, गोदरेज अलमारी या जेवर-जाँटी की नहीं हो रही, 'मेहमान' बोला, कम से कम मैट्रिक पास हो...'

ठीक, तो आखरी बात वही रह गई. अब लाली को मन से पढ़ाई करना है। लड़का और उसकी माँ उसकी पढ़ाई का ख्याल रखने में जुट गए हैं। लाली के लिए क्या चीज ज़रूरत है, कब कलम का रिफिल खत्म हुआ, कब कॉपी... पढ़ाई कर रही है तो घर में कोई जोर से बोलेगा तक नहीं...!

'भाई, परीक्षा का कार्यक्रम निकला है... आज का अखबार लेते आना' लाली ने सुबह पड़ोस से आकर कहा था। वह अमरूद के पेड़ से आँगन में पककर टपके अमरूद चुनकर बर्तन में रख रहा था उस समय... बहन के चेहरे पर परीक्षा का स्वाभाविक तनाव और एक उत्साह दोनों था। उसने एक अमरूद बहुत उसकी ओर उछालते हुए कहा, 'ले, खा... इस बारी अमरूद बहुत मीठे हैं... हाँ, जा रहे हैं, पेपर लाने...'

लाली ने लपका हुआ अमरूद दाँतों के बीच फँसाकर कट से एक हिस्सा काटा और चबाते हुए अंदर चली...

'पढ़ाई कैसी कर रही है लाली?' पीछे से वह पूछ रहा था।

'ठीक है भाईजान...'

'कोई चीज ज़रूरत हो तो बोल, बाज़ार से होते आएँगे...'

'नहीं, अभी कोई चीज नहीं...'

'अच्छा, तो हम स्टेशन चौक से अभी आते हैं।' लड़का निकल गया।

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'सर, सच में कहें, लाली के मेट्रिक पास कर जाने का सपना, पता नहीं लाली के लिए क्या है, मेरे और अम्मी के लिए बहुत ज्यादे बड़ी चीज है...'

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दिन धीरे-धीरे खिसक रहे हैं। फरवरी का महीना आन लगा है। राज्य की अधिविध परिषद् (कौंसिल) की विज्ञप्ति के अनुसार बाईस तारीख से परीक्षाएँ पहली पाली में शुरू। अखबार रोज लेना ज़रूरी हो गया है, अधिविध परिषद् जाने कब-क्या नोटिस अखबार में देती रहती है... परीक्षा कार्यक्रम, परीक्षा केंद्र सबंधी सूचना, प्रायोगिक परीक्षा सम्बधी, प्रवेश पत्र सम्बधी तमाम तरह की विज्ञप्तियाँ... लाली के उत्क्रमित उच्च विद्यालय के शिक्षक सरकारी महकमों की जातीय संस्कृति के अनुसार सिर्फ़ अपने काम के अलावा गैर शैक्षणिक गतिविधियों में मलंग रहते हैं... वहाँ कोई कुछ बताएगा नहीं... हरदम बस हल्ला रहता है कि आज अखबार में अमुक चीज निकला, तो अमुक चीज...

वह लाली को लेकर बाज़ार के पुराने और पाठ्यक्रम सम्बधी पुस्तक विक्रेता के पास कुछेक बार हो आया है कि गाइड मार्केट में आया कि नहीं? कौन-सा अच्छा रहेगा? प्रश्न-पत्र प्रारूप सह गाइड उपलब्ध हुआ कि नहीं...? लाली हुलस कर बताती है कि सहपाठिनें क्या-क्या खरीद रही हैं, क्या ज़रूरत है...

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उसने नाक फिर सुड़की, बाएँ हाथ की उल्टी हथेली से... फिर नथुनों के नीचे घिसकर 'नेटा' पोंछा। मुझे देखता रहा कुछ देर... फिर वही प्रलाप, 'मेरी बहन को परीक्षा देने दीजिए सर... मेरी बहन को परीक्षा देने दीजिए... उसका शादी... नहीं हो पाएगा...'

हवा में हाजत की तमाम बास असर देने लगी, मगर उसने फिर नाक सुड़का था। 'सर, हम किरमिनल नहीं है!' वह फिर एक-दो क्षण टुकुर-टुकुर मेरा मुँह देखने लगा। मेरे सिर हिलाने पर उसने मुँह खोलकर साँस ली, जिससे उसके हाँफने जैसी आवाज मेरे कानों में आई.

'सर, मेरी बहन की परीक्षा खराब हो जाएगा सर, तो हमारा बहुत नुकसान हो जाएगा... सर' , उसके हाथ जुड़े हुए थे, यह मैंने नोटबुक से सिर उठाने पर देखा, 'हमसे गलती हो गया सर, आप उन सर लोगों को समझाइए...'

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लाली ने अपनी माँ और भाई के चेहरे पर एक तेजी और एक उत्साहपूर्ण बेचैनी देखी थी। एक तरफ अहसास होता था कि लोग पढ़कर क्या से क्या बनते हैं? अफसर... साहब या मास्टर...! सब लोग पढते काहे हैं? पढ़ाई कर कुछ ढंग का आदमी बनने, कमा के अपने पैर पर खड़ा होने के लिए... मगर अपनी पढ़ाई बस इस वास्ते कि शादी हो जाय...! जोड़ का घर तो ई भी नहीं है... आगे पढ़ना चाहें हम तो भी क्या हो सकेगा...!

वह पढ़कर और कुछ नहीं तो अपनी अम्मी की बनिस्पत ज़्यादा बेहतर सक्षम स्थिति में होना चाहती है... अपने स्कूल की मैडम सब की तरह... जो खूब कमाती हैं... इसी खूब कमाने से उनका बोली-बानी बाकी महिलाओं से दूसरी तरह का है... वे बड़े अफसरों के सामने जाती हैं, सबके सामने जोर से अपनी बात कह सकती हैं, शौहर से खौफ नहीं है उनके भीतर... घर-बाहर किसी से दबती नहीं हैं... सबसे बड़ी बात, वे सब उसकी अम्मी की मानिंद लस्त-पस्त नहीं दिखतीं... हमेशा चुस्त रहती हैं...

वह भी मास्टरनी हो जाना चाहती है, ताकि उसके भीतर भी खूब ताकत आ जाय... मगर इसके वास्ते तो बहुत पढ़ाई करना होता है... लाली के पास ऐसा मौका नहीं, उसे कोई ऐसा मौका नहीं दे रहा...

लाली को याद आया कि पिछले साल जब नौवी कक्षा में पढ़ रही थी तो स्कूल में यूनीसेफ के प्रतिनिधि दल का दौरा हुआ था... पुराने समय की एक मशहूर अदाकारा, जिसने एक क्रिकेटर से शादी की थी, एंबेसडर के तौर पर गाँव के विद्यालयों का दौरा कर रही थी। जब उसने पूछा था कि तुम लोग पढ़ लिखकर क्या बनना चाहते हो... सभी सहपाठियों ने अपने-अपने हाथ उठाकर कहा कि उनके कैसे-कैसे सपने हैं... अदाकरा ने फिर कहा था कि पढ़ो-लिखो फिर शादी करना। पढ़ाई पूरी करना ज़रूरी है...

लाली से तब रहा नहीं गया। उसने बगल में मुँह झुकाकर घुटने में सिर गाड़े बैठी जमुना को देखा। एक पल को कसमसाई फिर उठकर खड़ी हो गई थी, 'मैडम, ई हमारी दोस्त है। इसका निकाह हो रहा है...'

'मैडम' चौंकी थी... एगारह-बारह की बच्ची...!

...बगल से साहस पा तब जमुना भी खड़ी हुई थी, 'ई ठीक कहती है, मैडम! हमारी सादी करा रहे हैं घर का लोग सब... पर हम अभी पढ़ना चाहते हैं मैडम, सादी नहीं करना चाहते। आप उनको समझाइए ना...'

मैडम स्तब्ध... साथ में आए तमाम अधिकारी भौंचक्के, सहियाएँ एक-दूसरी का मुँह ताकतीं, पंचायत सदस्य अवाक्, पूरी मशीनरी हतप्रभ हो गई थी उस दिन...

लाली ने समझा था, जुबान खोलकर नहीं बोलने से सामने वाला जिस तरह देह की तकलीफ नहीं समझा पाता... वैसे ही मन की पीड़ा को भी! मगर घर की हालत देखके उसे भी लग रहा है कि वह यहाँ से चली जाएगी तो अम्मी, भैया को सहूलियत हो जाएगी...! बोर्ड परीक्षा पास कर लेगी तो फिर उसकी शादी हो सकेगी... अम्मी और भाई की छाती पर से उसका 'वजन' हट जाएगा...!

...और अब लाली पूरे मन से पढ़ रही है...

लाली को सब इसलिए भी प्यार करते हैं कि उसमें अपनी जिम्मेवारी का अहसास है...!

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परीक्षा कक्ष में सन्नाटा गमकने लगा... परीक्षा केंद्र में पहली पाली की परीक्षा में उत्तर-पुस्तिकाएँ बाँटने की घंटी बजने के बाद एक घनघोर सन्नाटा पसर गया था। जिसमें कभी-कभी किसी कर्मचारी या वीक्षक के जोर से बोलने की तेज आवाज से सन्नाटे का शीशा दरकता था...

आज अंग्रेज़ी की परीक्षा थी... आज वह पहली बार, अपनी ज़िन्दगी में सिर्फ़ पहली बार महाविद्यालय के गेट से होते हुए अंदर आया था और बोलने से किसी भी तरह बचते हुए अपनी सीट ढूँढ़ने के बाद अपने स्थान पर बैठ गया था। मुख्य द्वार पर परीक्षार्थियों के बैठने की व्यवस्था को इंगित करता चार्ट चिपकाया गया था। वहाँ उसने अन्य लड़कों की मदद से अपना कक्ष का पता लगाया था, फिर कपड़े बदले थे।

प्रश्न-पत्र बांटे जा चुके थे। अधविध परिषद की ओर से नियमतः पंद्रह मिनटों का समय प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए निर्धारित था... बाकि परीक्षार्थियों की देखा-देखी वह भी प्रश्न-पत्र पर सिर झुकाकर बैठा रहा।

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'सर, लाली पहले दिन की परीक्षा देने गई थी।' लड़का ओठ पर जीभ फेराकर अपना नमक चाटता हुआ कह रहा था... 'लेकिन सर, हम लोगों का दिन ही खराब चल रहा है... ऊ बेचारी आज सुबह बाल्टी उठाकर ला ही रही कि कुएँ के चबूतरे पर फिसल के गिर गई... टखने से खूब खूने-खून बहा सर... पत्थर-सा न है ऊँहा। हम नहीं थे उस टाइम घर में... घर आए तो पता चला। ऊ पढ़ाई करते-करते सब काम करती रहती है... यही बात है सर।' सेंटर'तक जाने के लिए चौक से एक गो बस चलती है, उसी में हम पहुँचा के आते। मगर ऊ दू गो कदम भर चल नहीं पा रही थी। अम्मी कसम सर, झूठ नहीं बोल रहे हैं!' लड़के की साँस उत्तेजना से तेज हो गई, मुझे लगा शायद उसका बदन भी गर्म हो गया था...

'सर, हम को कुछ नहीं आता सर... हम क्या करें बुझो नहीं पाए... ई परीक्षा नहीं देगी तो फेल कर जाएगी बोली। फेल माने... उसकी जिंदगी... सर...!'

वह मेरी तरफ बिना पलक झपकाए एकाध मिनट देखते रहा... 'अब हम क्या करते... करना पड़ा... सोचा कोशिश करके खाली प्रिजेंट हो जाएँ तो... लाली का खून बंद हुआ, बाकि आँसू ना रुका... फिर, उसकी एक गो साथी से हम बुरका, कपड़ा सब माँग के...' लड़का हाजत के सामने से गुजर रहे एक कैदी को देखने के लिए रुका। दो सिपाही एक कैदी को धक्का देकर ले जा रहे थे। एक सिपाही ने माँ की गाली मारी थी... 'हम घर में भी ई सब बता के नहीं निकले हैं, बस लाली का परीक्षा वाला कागज सब लेके भागे हैं।'

'हमको कुछ नहीं आता सर-' लड़का, मुझे लगा, रुआँसा हो गया था, 'आप कर सकते हैं, तो खाली उसका परीक्षा कैंसिल होने से रोक लीजिएगा...'

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परीक्षा के लिए निकलने का समय जैसे नजदीक आ रहा था, लाली का डर उसकी नाभि से निकल कर हलक तक आ रहा था। औरत ने लगातार पूछा था और उसने नाश्ता खाने से मना कर दिया था।

यदि हो सकता तो किसी अन्य की ताकत या सहारे के बिना पर वह थोड़ा चलने की कोशिश करती, मगर खड़ा तक नहीं हो पा रही थी। दाईं एड़ी फट से मुड़ी थी और वह गिरी थी बाल्टी सहित...

'परीक्षा जाएँगे...' वह बिल बिलाकर माँ से बोली थी...

'कैसे जाएगी...? अब ई टूटल पैर से! लाख बार न कहे हम कि होश रखके कोई काम करो...' औरत लड़की के बराबर परेशान थी... उसकी छाती को मानों कूँथा जा रहा था...

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'होश कहाँ रहता सर... एकै परेशानी से भेजा कूट रहा न था...' लड़के ने लगातार बोलते हुए अपनी बात खत्म की थी...

'तुमको डर नहीं लगा था कि पकड़ाओगे तो क्या हालत होगी?' मैं यह पूछा, फिर महसूस हुआ कि यह जो चालू पत्रकार टाइप सवाल है, मेरे मुँह से कैसे निकल गया!

'डर तो बहुत चीज का होता है सर, मगर डर से तो...' वह चुप हो गया। मेरे पीछे फिर कोई गुजरा था...

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मजबूरी से पैदा हुआ डर, अधिक देर तक डर नहीं रहता, सिर्फ़ संत्रास रह जाता है। लड़का जब परीक्षा केंद्र का मुख्यद्वार पार करते समय की चैकिंग से गुजर रहा था, वह क्या महसूस कर रहा था, जब वह परीक्षा-कक्ष में पकड़ा गया और सारे आम उसके कपडे नोचे गए, तब उसे जो कुछ लग रहा था, वह डर था या क्या था, जब गर्दनिया देकर सिपाही उसे जीप में बिठा रहे थे, तो उसके भीतर पैदा होने वाली बेचैनी कैसी थी, इसका ठीक-ठीक अंदाजा लगाना या उसे खुद बयान कर पाना भी लगभग असंभव है।

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काफी हद तक सब ठीक था। ठीक से ही गुजरा था... एक मुस्लिम लड़की की भूषा में वह सबको चकमा देकर अपने निर्धारित कक्ष तक पहुँच गया था। प्रवेश पत्र दिखा देने से परीक्षा ड्यूटी में खड़े एक कर्मचारी ने उसे उसका कक्ष संख्या बताकर भवन के उस कमरे की ओर ईशारा भी किया था... प्रश्न पत्र बंटने की घंटी बजी नौ पैंतालीस पर। प्रदेश की अधिविध परिषद ने प्रश्न-पत्र पढ़ने के लिए अतिरिक्त पंद्रह मिनटों का समय निर्धारित किया था, ताकि परीक्षार्थियों को मानसिक तनाव न हो। यह नियम सी.बी.एस.ई. की तर्ज पर था...

अबकी बार फिर घंटी बजी थी और परीक्षा कक्ष में पसरा सन्नाटा और गहरा हो गया। केवल प्रश्न-पत्र या कॉपी पलटने की आवाज या फिर वीक्षक के कदमों की चाप...

उसे प्रश्न पत्र कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। कानों के पास कुछ गर्म हो रहा था और पेट में बुलबुले से उठ रहे थे... वह आज तक इतना डरा हुआ और तनावग्रस्त कभी नहीं हुआ था।

अंग्रेजी का पत्र था और वह पंद्रह-बीस मिनट अबूझा, हताश-सा बैठा रह गया। उपस्थिति पत्रक में हस्ताक्षर दर्ज कराने के लिए वीक्षक उसकी बैंच वाली कतार में आ चुके थे।

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'सर, हमको जादे खौफ ई टेनसन से हो रहा था कि हम एको सवाल का उत्तर लिख नहीं सकते। सवाल कोई बुझा नहीं रहा था और... हम तो ई सोचके आ गए थे कि चाहे कुछ भी लिख देंगे... और परीक्षा में बहन का नागा...'

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लड़का अब परेशान था और इसकी इंतिहा हो रही थी। लाली को फेल होने से बचाना है। इसी मकसद से वह इतना जोखिम लेकर घुसा है। अब अंग्रेज़ी के रोमन अक्षर किसी कंटीले बाड़ की तरह उसके सामने मौजूद थे, जिन्हें लाँघकर वह लाली को हाथ पकड़कर गर्त में जाने से रोक लेना चाहता है...!

उसने हिम्मत करके भरसक अपनी आवाज को लड़कियों की तरह मुलायम बनाते हुए पास से गुजर रही वीक्षिका से उठकर पूछा था, 'जरा ई का मतलब बता दीजिएगा...'

बस इसी जगह उससे सख्त गड़ब्ड़ी हो गई थी...!

वह अपनी आवाज को मर्दाना से जनाना में पूरी कुशलता से बदल नहीं पाया था...

इस केंद्र पर बाहर से पदस्थापित हुई मोटी वीक्षिका चिल्ला रही थी... 'तुम कौन है? ऐ, ये बुरका उठाओ... एडमिट कार्ड दिखाओ...'

दूसरा वीक्षक उससे लगातार नाम पूछ रहा था...

यह परीक्षा केंद्र अपनी कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण काफी बदनाम था। परीक्षा से पहले प्रशासन की पूर्व तैयारियों के दौरान जिला शिक्षा पदाधिकारी के साथ सभी केंद्राधीक्षकों की बैठक में इस केंद्र के केंद्राधीक्षक को बहुत कुछ सुनना पड़ा था, बहुत कसैली हिदायतें दी गई थीं।

'सी.एस. सर के पास लेके चलिए इसको...' वीक्षिका उसकी बाँह पकडकर दरवाजे की और धकेलते हुए चिल्ला रही थी...

'परीक्षा नियंत्रक कक्ष' में दंडाधिकारी और नियंत्रक साहब केंद्राधीक्षक के साथ बैठे थे। खैनी का बंटवारा हो रहा था। केंद्राधीक्षक महोदय की हथेली फैली थी...

'सर इसका वैरीफिकेशन करिए...'

लड़का धकियाता हुआ वहाँ लाकर खड़ा कर दिया गया था...

'क्या हुआ, क्या प्रोब्लम है?'

'सर, हमको बुझाता है, बुर्के की खाल में लड़किया नहीं, ई लरकवा है...'

'पक्का?'

'सर, तनी एकरा नाम पूछिए...!'

लड़का बुर्के के नीचे सलवार कमीज में था। मगर बिना नाप के बेढंगा... चेहरे पर फीका पाउडर... आँख में काजल... बुरका उतारे जाते हुए वह निर्विकार खड़ा था। उसने अब तक एक शब्द भी नहीं कहा था...

...नियंत्रक कक्ष में मार ठहाका उठा, सामूहिक ठहाका...

'ई का है बे हरामी?' दंडाधिकारी की मौजूदगी में केंद्राधिकारी महोदय एकै बार शेर हो गए थे!

'परीक्षा के नौटंकी बुझल बा नू ना...? रामाधर बाबू... तनी फोर्स को बुलवा लिजिए. ससुर ईहे टाइप के लौंडा सब के खातिर सेंटर बदनाम होता है।'

'कईसे गुप्प मारके खड़ा है... किसकी जगह पर आए थे मियाँ!'

' सर, फ्लाइंग दस्ता भी आईए गया है... वही निबट लेंगे ई से...

'ल... अब ई समझ बबुआ... तोरा से पुलिस बल फरिया लेगी...'

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'हमको पकड़कर यहाँ लाए. तब से हम यहाँ... हमसे पूछ रहे हैं कि... हम बहन की जगह कि माँ की जगह गए थे परीक्षा देने...!' लड़का उल्टी हथेली से नाक पोंछ कर कह रहा था, 'सर, बस लाली का परीक्षा केंसिल नहीं हो सर, उसको परीक्षा देने दीजिए... सर हम तभी से सबसे यही दरखास कर रहे हैं...'

उसकी आवाज का खम भी अब कमजोर पड़ने लगा था... लड़के की नजर झुक गई थी... वह थका हुआ लग रहा था और निराशा उसकी टाँगों को पस्त करने लगी थी... देर से खड़ी उसकी टाँगों की जुंबिश देख रहा था मैं...

मैं, एक लोकप्रिय राष्ट्रीय पाक्षिक समाचार पत्रिका का विशेष प्रतिनिधि...! जो इसी हैसियत से अपनी पत्रिका के लिए तगड़ी स्टोरी की फिराक में थाने पर आया था और इस समय खालिस अपनी पेशेगत दिलचस्पी की वजह से वहाँ, यानी-यानी बंदीगृह संख्या- 'सात' के अंदर खड़े अफरोज आलम नाम के उस लड़के के सामने मौजूद था...

मैं अपने पेशेगत और व्यक्तिगत नैतिकताओं के फलसफों और फर्क पर सोचने को था कि थाने का मुंशी मुझे चाय का प्याला पकड़ाते हुए एक लहरिया आवाज में बोलने लगा, 'अरे रंजन जी... महाराज, बहुत हो गया। सब जिरह आप इहाँ कर लेंगे का? ... ज्यादे चाहिए तो आगे एकरे ससुराल में जाके तो बतियाए लीजिएगा... ठीक बा नू...?' वह हँसा और लड़के को बहन की गाली देकर बड़े बाबू के कमरे में घुस गया था।

सूरज चंद मिनटों में डूबने वाला था। अब उसकी बची हुई रोशनी थाने की मटमैली दीवारों पर कमजोर पड़ती किसी जिद की मानिंद ही चिपकी थीं... इन्हीं दीवारों ने मुंशी की हँसी की पीली-गंदी कतरें अभी ताजी सोखी थीं...!