कफन के बाद / शम्भु पी सिंह

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीसवीँ शताब्दी के चौथे दशक में इलाज के अभाव में प्रसव पीड़ा के दौरान बुधिया मर गयी। कफन के लिये जमींदार एवं पड़ोसियों से जुटाये गये पैसे से घीसू और माधो ने जमकर शराब पी और कचौड़ी, जलेबी से अपने पेट और आत्मा को तृप्त किया। बुधिया को कफन मिला या नहीं, नहीं पता।

समय बदला, साल बदले, जमींदार नेता बन गया, धीसू "चौधरी" बन गया, माधो का चरित्र तो नहीं बदला, लेकिन नाम और काम करने का अंदाज बदल गया। माधो ने अब नेताओं को जिताने की ठीकेदारी ले ली। काम तो कुछ नहीं करना पड़ता, सिर्फ नेताओं से पैसे लेकर भोली-भाली जनता के पेट में बिना कोई काम कराये दो रोटियाँ डाल देता। नेता को वोट मिल जाता, जनता को रोटी। माधो अब माधव बाबू बन चुका था। सरकारी सुविधायें बढ़ी, प्रसव पीड़ा से मरनेवाली औरतों की संख्या कम हो गयी। पेट में पल रहे बच्चे जन्म लेने लगे, आनेवाली पीढ़ी को प्रसव पीड़ा से कम जूझना पड़े, इसलिये कन्या भ्रूण हत्या के माध्यम से औरतों की संख्या को नियंत्रण में रखा जाने लगा। सरकारी सुविधायें उपलब्ध थी, बुधिया ने एक नहीं, दो बच्चों को जन्म दिया, बुधिया बनकर नहीं, माधव की बीबी रामप्यारी बनकर। नेताओं की संगति ने रंग दिखाना शुरू कर दिया। जिस किसी नेता से काम हो माधव बाबू को पकड़ो, सारा काम हो जायगा। नेताओं को जिताते-जिताते कई बार माधव को लगा पार्टी का टिकट मिल जाय तो विधायक बनते देर नहीं लगेगी। लेकिन बच्चों के पालन-पोषण और नेताओं की चाकरी ने कभी इधर ज्यादा सोचने का मौका ही नहीं दिया। चौधरी साहब गुजर गये, धूमधाम से श्राद्ध की। मंत्री से लेकर संतरी तक भोज में शामिल हुए। माधव बाबू का नाम दूर-दूर तक जाना जाने लगा। बच्चे बड़े हो गये। बड़े बेटे चून्नू ने नेतागिरी शुरू कर दी। छोटे बेटे मुन्नू ठीकेदारी करने लगा। दोनों भाई पिता के नाम को रौशन कर रहे थे। माधव की गृहस्थी बड़े मजे से चल रही थी। आलीशान बंगले का मालिक बन चुका था। सब कुछ बदल गया। नहीं बदली तो रामप्यारी। आज भी पति और बच्चों के खान-पान से लेकर मेहमान की खातिरदारी का सारा जिम्मा उसी के कंधे पर था।

माधव ने चाहे जितनी ऊंचाई हासिल की हो, अपनी जमीन नहीं छोड़ी। शहर में बसेरा बना लिया। लेकिन गाँव को कभी नहीं भूला। माधव जनता और बच्चों के बीच कड़ी का काम करने लगा। जमीन से जुड़ा आदमी था, जिस भी तरह से हो मदद करने से बाज नहीं आता। बच्चों की पहुँच देखकर क्षेत्र के सारे सरकारी मुलाजिम सप्ताह में एक दिन माधव के दरबार में जरूर हाजरी बजा जाते। सुबह शाम महफिल जमती तो क्षेत्र से लेकर राज्य सरकारों के क्रिया कलाप की समीक्षा हो जाती। माधव की महफिल में पढ़े लिखों की संख्या भी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। स्वाभाविक रूप से राजनीतिक गणना राज्यों से उठकर देश और विदेशी सरकारों के बनने-बिगड़ने तक जा पहुँची। हलांकि अधिक पढ़े लिखे नहीं होने के कारण माधव शायद ही अपनी प्रतिक्रिया दे पाता।

चुन्नू की नेतागिरी चल पड़ी। सरकारी स्तर का काम चाहे जिस तरह का हो चुन्नू की मेहरबानी हो जाय, तो काम होने में कोई संदेह नहीं था। साम-दाम-दंड भेद के रास्ते चुन्नू ने शहर में अपनी धाक जमा ली थी। बात चाहे राशन कार्ड बनवाने की हो या नेता के यहाँ नृत्यांगना के व्यवस्था करने की, चुन्नू के लिये कुछ भी मुकिल नहीं था। बस यदि पूरे परिवार में इन बातों से कोई बेखबर थी तो वह थी माधव की पत्नी रामप्यारी। सबों का ध्यान रखते-रखते अपने पर ध्यान देना भूल जाती। सर्दी-जुकाम से बात आगे बढ़ी तो फेफड़े के इंफेकन पर डाक्टरों की नजर टिकी। कब सर्दी-जुकाम निमोनिया में परिवर्तित हो गया, किसी को पता नहीं चला। जब तक यह बात डाक्टरों की समझ में आयी, तब तक काफी देर हो चुकी थी। अस्पताल में भर्ती कराया गया। माधव की तो समझ में ही नहीं आया कि हल्के सर्दी-जुकाम में भला अस्पताल में भर्ती होने की क्या आवयकता थी। लेकिन डाक्टरों की सलाह पर रामप्यारी को भर्ती करा दिया गया। सरकारी अस्पताल में सारी सुविधायें उपलब्ध थी। चुन्नू की राजनीति में पैठ भी थी, इसलिये डाक्टरों ने इलाज में कोई कोताही नहीं बरती, लेकिन होनी को भला कौन टाल सकता है, चौदहवें दिन रामप्यारी ने दम तोड़ दिया। उस दिन दोनों बच्चों में से कोई शहर में नहीं था। चुन्नू पार्टी की एक मीटिंग में दिल्ली गया था, तो मुन्नू ठीकेदारी के एक सिलसिले में कानपुर। माधव के कहने पर दोनों को सूचना भिजवा दी गयी। उन दोनों के आने का इंतजार होने लगा। माधव ने अपने सगे सम्बंधियों, मित्रो को सूचित कर दिया। घर के कारिंदों ने मोर्चा संभाल लिया। भोगला, चारू, बतीसवा, बहेली। सब माधव के निर्देश पर बांस, रस्सी के इंतजाम में लग गये। शाम होते-होते दोनों बेटे चून्नू और मुन्नू भी आ गये। अब तक की क्या तैयारी हूई। किस-किस को खबर की गयी है। घाट तक कितने लोगों के पहुँचने की उम्मीद है। खाने-पीने की क्या व्यवस्था की जानी है। कभी माधव से तो कभी अपने घर के नौकरों से जानकारी प्राप्त करने लगा। छोटे मुन्नू के आते ही व्यवस्था में तेजी आ गयी।

"भैया कफन आदि के लिये शायद अभी तक कोई बाज़ार नहीं गया। मैं किसी को भेजता हूँ।" छोटे ने बड़े को इत्तला देना जरूरी समझा।

"छोटे! अरे! भेज भोगला को सेठ के यहाँ।" कुछ ही देर में भोगला चुन्नू के सामने उपस्थित था।

"मालिक"

"तुम अभी तक बाज़ार गये नहीं। अँधेरा होने से पहले सारा सामान ले आओ। बूंदा-बांदी भी होने लगी है।"

"मालिक पैसा।"

"काहे का पैसा? तुम गंवार! कभी नहीं सुधरोगे। साला सेठ! तुमसे पैसा मांगेगा। पंडित से सामान का लिस्ट ले लो, जो भी सामान चाहिए सेठ देगा। साला! एक हजार काम करता हूँ मैं उसका। आज मेरी माँ मरी है, तो वह हमसे पैसा मांगेगा। इतनी हिम्मत नहीं है उसकी।"-चून्नू की आवाज सुन कई लोग जमा हो गये। सबने उसकी हाँ में हाँ मिलाया। कई महिलायें आपस में फुसफुसाने लगी।

"बड़ी करमवती थी बेचारी। आज बेटे का ऐसा रूतवा है कि बाज़ार में कोई सामान का पैसा नहीं लेता" एक बोलती तो सब हाँ में अपना सिर हिलाती।

"भैया सामान के लिये तो भोगला चला गया। मौसम ठीक नहीं है, भादो का महीना है। गाड़ी की भी व्यवस्था करनी पड़ेगी। खाने पीने का भी इंतजाम करना पड़ेगा।"

"छोटे। माँ की अर्थी सजाने से लेकर श्मशान घाट तक पहुँचने वाले लोगों की आव-भगत में कोई कमी नहीं होनी चाहिये। चंदन की लकड़ी लेना। हो सकता है कुछ मंत्री और उनके लोग आयेंगें। इन लोगों की पूरी खातिरदारी करनी है। 'कुछ खास' की पूरी व्यवस्था रखना। समझ गये न। एक आदमी को अभी फौरन घाट भेज दो। मौसम ठीक नहीं है। पास कोई हॉल, मकान आज के लिये ले लो और खाने पीने की सारी व्यवस्था वही करा दो। श्राद्ध में कोई गाँव जाये या न जाये। आज घाट पर जो भी जाये उनकी पूरी खातिर करने की व्यवस्था कराओ। मेरी माँ रोज-रोज थोड़े ही मरेगी?"

"हाँ भैया, सारी व्यवस्था करता हूँ मैं।" छोटे ने भाई की हाँ में हाँ मिलाया और शुरू हो गया मुन्नू का सम्पर्क अभियान। किस सेठ को कितना कार्टून घाट पर उपलब्ध करानी है। खाने की व्यवस्था कौन देखेगा, सामान किसकी दूकान से आयेगी। घाट पर लोगों के खाने पीने का इंतजाम क्या होगा। लकड़ी कहाँ से आयेगी। लोगों के घाट तक ले जाने और वापस लाने की व्यवस्था क्या होगी। छोटे ने मोबाइल पर सबको आदेश देना प्रारंभ कर दिया। माधव बेचारा किसी काम की जानकारी छोटे से प्राप्त कर लेता, तो कभी बड़े को किसी मंत्री को बुलाने की याद दिला देता। कभी आंगन में पड़ी पत्नी के लाश के पास बुझे अगरबत्ती को जलाने की हिदायत दे आता। गमगीन तो सभी थे लेकिन माधव के चेहरे पर पत्नी की जुदाई की झलक साफ दिख रही थी।

सारी व्यवस्था करते-करते रात के नौ बज गये। समय बीतने के साथ-साथ बूंदा-बांदी बढ़ती जा रही थी। अर्थी के साथ पचास के करीब लोग थे। घर से निकल कर एक चौराहे पर अर्थी रखी गयी। लोगों के एकजुट होने पर सभी छोटी-छोटी गाडि़यों पर सवार हो गये। रास्ते में भी कुछ गाडि़याँ जुटती गयी। किसी पर दस कार्टून बोतलें रखी गयी, किसी पर चंदन की लकड़ी, किसी पर अन्य छोटे-छोटे सामान। गंगा घाट पहुँचने में एक घंटे का वक्त लग गया। घाट किनारे अर्थी को रखा गया। दस पन्द्रह लोग किनारे घाट तक आये। लकड़ी सजायी जाने लगी। पंडित के निर्देशानुसार सारे कार्य किये जा रहे थे। दोनों लड़के अभी भी देर से आने वाले मेहमानों को घाट का रास्ता मोबाइल पर बताने में व्यस्त थे। बीच-बीच में मेहमानबाजी का जायजा भी ले रहे थे। रात के ग्यारह बजे तक लाश जलाने से सम्बंधित व्यवस्था पूरी हो गयी। बड़े बेटे चुन्नू द्वारा मुखाग्नि दी गयी। खराब मौसम को ध्यान में रखकर एक टिन घी रख लिया गया था कि शायद बरसात के मौसम में लकड़ी ठीक से न जले तो घी उसे प्रज्वलित करने में मदद करेगा। मुखाग्नि के बाद घी डालते ही लकड़ी ने लौ पकड़ ली। धीरे-धीरे सभी खिसकने लगे। अपने कारिंदो पर लाश को जलाने की जिम्मेदारी छोड़ मंजिल में शामिल मेहमानों को साथ लेकर दोनों भाई एक किलोमीटर दूर स्थित मकान की ओर बढ़ गये, जहाँ खातिरदारी की व्यवस्था की गयी थी, लेकिन जाते-जाते चुन्नू ने अपने छोटे भाई से कहा-

"छोटे मौसम ठीक नहीं है। ये चार-पांच यहाँ रहेंगें। लाश के जलने तक यहाँ भी कुछ व्यवस्था करा दो। बेचारे ठंढ़ से ठिठुर जायेंगें।" छोटे को समझते देर नहीं लगी। भोगला को इशारा किया, वह सौ मीटर की दूरी पर खड़ी गाड़ी से एक कार्टून बोतल उठा लाया। रात के बारह बजते-बजते कुल पांच जन रह गये थे। चार कारिंदे और माधव। तभी एक परिचित ने आकर सूचना दी, "मंत्री महोदय जा रहे हैं।" मंत्री महोदय को विदा करने माधव साथ हो लिया। पंडित पाठक की भी वहाँ अब कोई जरूरत नहीं थी, वह भी माधव के साथ चल दिया। घाट से कोई एक किलोमीटर की दूरी पर एक मकान में शराब का दौर चल रहा था। क्या मंत्री और क्या संतरी सभी मदमस्त थे। चुन्नू और मुन्नू सभी मेहमानों का ध्यान रख रहे थे। मुर्गे की टांग और शराब के खनकते प्यालों ने रात को रंगीन बना दिया था। माधव के आते ही मंत्री जी पास आये

"आइये माधव बाबू। आपने क्या व्यवस्था की है? भाई। आपकी पत्नी स्वर्ग जायगी। इतना होनहार दो बेटा उसने आपको दिया। आप तो बड़े भाग्याली है। अरे भाई! एक गिलास माधव बाबू के लिये भी लाओ।" इशारे भर की देरी थी। ग्लास हाजिर हो गया। माधव ने मना कर दी।

"क्या माधव बाबू। आपको किस बात का गम है। भरा पूरा परिवार है। दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे हैं। अरे। भाई इसे लीजिये। सारा गम हल्का हो जायगा। भाई पंडित जी! आप ही कुछ कहिये न। बिना आपके कहे ये नहीं छुऐंगे।" पंडित जी को बगल में खड़ा देख मंत्री महोदय अनुरोध कर रहे थे।

"जी। जी।" पंडित जी हकलाने लगे।

"क्या जी। जी। का रट लगाये हैं। अरे! इन्हें ये बताइये कि गम को भुलाने का यह सबसे सरल और उत्तम माध्यम है और शास्त्रसम्मत भी।" मंत्री जी ने थोड़ी रौब दिखायी।

"जी लिया जा सकता है।" पंडित जी की तो घिग्घी बंध गयी थी।

"अबे ओ, पंडित! आप हमारे गम में शरीक होने आये हैं। मेरे पर आज दुःख का पहाड़ टूटा है। हम सभी गमगीन हैं, लेकिन अपने दुःख को भुलाने का इससे बढि़या तरीका दूसरा नहीं है। अरे! छोटू एक गिलास पंडित के लिये भी लाओ। तभी बाबूजी लेंगें।" चुन्नू पूरे मूड में था।

"जी। पंडित जी ये लीजिये।" मुन्नू ने ग्लास पकड़ा दी।

"अब पंडित जी आप इसे स्वीकार करें। तो माधव बाबू के हलक से नीचे जायगी।" मंत्री जी पंडित से मुखातिब थे।

"जी! जी! मैं ।"

"अबे। ओ। पंडित। अब बहुत हो गया। मैं ।" चुन्नू की आवाज में भारीपन था।

"जी। लाइये।" पंडित जी ने मुन्नू के हाथ से ग्लास ले ली और एक सांस में ग्लास खाली। पूरा हॉल मद मस्त था। मंत्री जी के हाथों माधव शराब के बहाने गम भुलाने लगा या गम के बहाने शराब पी रहा था, यह तो किसी को नहीं पता, लेकिन रामप्यारी की मौत ने मिलने-मिलाने और पीने पिलाने का बहाना तो दे ही दिया था।

दोनों भाई मंत्री जी के साथ बाहर तक आये। पंडित जी भी साथ थे। मंत्री जी की गाड़ी जा चुकी थी। शेष मातम पुरसी को आये लोगों का ख्याल करके दोनों भाई वापस उसी हॉल की ओर बढ़ गये। पंडित जी को माहौल रास नहीं आया, वे वापस चितास्थल की ओर बढ़ गये। शायद चितास्थल छोड़ने से पहले चून्नू ने मुखाग्नि के बाद जिम्मेदारी पंडित जी पर ही डाली थी।

बूंदा-बांदी अब वर्षा में तब्दील हो चुकी थी। किसी तरह पंडित जी चितास्थल के पास एक बनी झोपड़ी तक पहुँच पाये। वहाँ का नजारा भी पिछले नजारे से कुछ अलग नहीं था। भोगला के साथ चुन्नू के सभी कारिंदे मद मस्त हो चुके थे। तेज हवा के झोंके और बारिश के कारण कभी-कभी एकाध चिनगारी लाश से उठती दिखायी दे रही थी। हर ओर सन्नाटा। वर्षा ने रफ्तार पकड़ ली, आंधी तूफान जोरों पर था, तेज वर्षा और आंधी तूफान से पंडित जी कांपने लगे। जिन पर लाश जलाने की जिम्मेदारी थी, सभी मद मस्त थे। भोगला अभी भी होश में था।

"पंडित जी! आज तो ऐसा मौसम है कि बस दारू ही पी जा सकती है। सुने हैं! वहाँ मुर्ग मोसल्लम भी चल रहा है। आप तो खाकर आये होंगे?" फिर बोतल मुंह से लगा ली।

"छिः छिः क्या बकते हो। मैं और मुर्ग ।" पंडित जी का ओठ भी लड़खड़ाने लगा।

"कोई बात नहीं। दारू तो आपने भी पी रखी है। तो थोड़ा और लीजिये। ये देखिये आपकी बगल में ये घाट का राजा बेसुध पड़ा है। इसने हम लोगों के लिये भी सारी व्यवस्था करा दी है। दारू तो मालिक ने ही भिजवा दी। पानी और चखने की व्यवस्था इसने करा दी।" भोगला ने फिर दारू की बोतल मुंह से लगा लिया।

"लेकिन भोगला। एक बार अपनी मालकिन की लाश तो देख आ। जली भी है या नहीं। नहीं तो थोड़ा घी डाल दे।"

"पंडित जी! दो घंटे हो चुके हैं आग लगाये। अब जाकर बारिश शुरू हुई है, अरे! जल गयी होगी। जो शेष होगा बारिश छूटने के बाद जला देंगें। साली लाश! जलेगी कैसे नहीं। घी से नहीं जलेगी। तो दारू से जलाऊँगा।" ठहाका मारकर हंसने लगा।

"अरे भोगला। ठंढ़क लगने लगी रे। बोतल इधर बढ़ा।" पंडित जी ने हाथ बढ़ाया। दोनों ने जमकर शराब पी और वहीं ढेर हो गये।

मूसलाधार बारिश और हवा के तेज झोंके में घी बेअसर साबित हुआ और कुछ देर बाद ही लकडि़यों से चिनगारी तक निकलनी बंद हो गयी। कोई देखने वाला नहीं था। हवा की सांय-सांय और बेरहम वर्षा ने नदी में भी गति ला दी थी। चारों ओर सन्नाटा पसरा था। बीच-बीच में हवा के झोंके की आवाज सन्नाटे को तोड़ रहा था। बारिश कब रूकी, किसी को पता भी नहीं चला। सुबह के लगभग चार बजे कुत्तों के भौंकने की आवाज ने पंडित के निंद्रा में खलल डाली। नशा का असर समाप्त हो चुका था। भोर का एहसास होते ही पंडित को रामप्यारी के चिता की याद आयी। पलट कर बाहर देखा तो सात-आठ कुत्ते चिता के पास घमा-चौकड़ी मचा रहे थे। माजरा समझते देर न लगी। पंडित का तो हो उड़ गया। धीरे से भोगला को जगाया। दोनों चिता तक पहुँचे। लाश को कुत्तों ने नोच डाला था। कफन के सिवा कुछ भी न जला। हवा के तेज झोंकों और शायद कुत्तों की उछल कूद ने शरीर पर रखे गये चंदन की लकड़ी को भी नीचे गिरा दिया था। चिता पर लाश बिल्कुल नंगी पड़ी थी। सुबह की लालिमा बस निकलने को थी। पंडित और भोगला को अपना भविष्य नजर आने लगा। दोनों ने आव देखा न ताव, लाश के दोनों पैर को दोनों ने पकड़कर घसीटना शुरू किया और नदी की तेज धार तक छोड़ आया। किनारे खड़े होकर लाश के दूर जाने का नजारा देखने लगा। जैसे ही लाश आंखों से ओझल हुई दोनों ने साबूत पड़ी लकडि़यों को भी नदी की धार में फेंकना शुरू कर दिया। सारी लकड़ियाँ फेंकी जा चुकी थी। दोनों ने राहत की सांस ली।

"चलो भोगला। अब गंगा में दो डुबकी लगा लें। सारा पाप धुल जायगा।"

"हाँ पंडित जी। आपने तो बड़ी मुसीबत से हमें बचा लिया।"

दोनों ने गंगा में दो डुबकी लगायी। पंडित जी ने हाथ में थोड़ा जल लेकर सूर्य मुख मंत्रोच्चार करते हुए जल को खुद पर और भोगला पर छींटा। शुद्धीकरण के पश्चात बाहर आकर पंडित ने भींगे गमछे में कुछ बची-खुची राख को इकठ्ठा किया। धीरे-धीरे आसमान लाल होने लगा था।

बाद में पता चला दोनों बेटों ने धूमधाम से माँ का श्राद्ध किया। पंडित द्वारा सौपी गयी अस्थि की राख को हरिद्वार के गंगा में भी प्रवाहित किया गया।