कबीर की काबुल एक्सप्रेस वाघा पहुंची / जयप्रकाश चौकसे

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कबीर की काबुल एक्सप्रेस वाघा पहुंची
प्रकाशन तिथि :18 जुलाई 2015


सलमान और कबीर खान की फिल्म 'बजरंगी भाईजान' का प्रदर्शन पूर्व शो देखकर श्रीमती कृष्णा कपूर ने कहा कि पूरी फिल्म में रोमांचित होते हुए, हंसते हुए, अंतिम रोल में उन्हें बरबस रोना आ गया। ज्ञातव्य है कि विगत कुछ समय से उनके टीयर डक्ट सूख गए हैं और इलाज भी हुआ। मानवीय भावनाएं विज्ञान की हर सरहद के पार जाती हैं और सच तो यह है कि भावना का संसार पृथ्वी से बड़ा है। आंसू बहाना और मुस्कराना जीवन के धूप-छांह और रात-दिन की तरह हैं। यही सिनेमा और साहित्य का भी सार है। दरअसल, आजकल साहस कुछ ऐसे परिभाषित किया जा रहा है मानो आंसू बहाना कमजोरी है, परंतु मनुष्य का आंसू बहाना और रोना उसकी मनुष्यता का प्रमाण है। बहरहाल, यह फिल्म हिंदुस्तानी सिनेमा के इतिहास में महान फिल्मों की शृंखला में शुमार होगी। फिल्म के आखरी दृश्य में एक खामोश बच्ची का 'मामा' कहना किसी को भी हिला सकता है। बकौल दुष्यंत कुमार 'वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए।'

मनुष्य की आंख की एक सीमा होती है बल्कि अगर वह संकरी खिड़की में खड़ा हो तो वह फ्रेम ही उसकी सीमा हो जाती है। जब मनुष्य की आंख कैमरे की आंख से देखती है तब वह सीमाहीन होकर बहुत कुछ देखती है और जब मनुष्य तथा कैमरे की मशीनी आंख में सामंजस्य हो तो वह हमारे अवचेतन को भी उजागर कर सकती है। निर्देशक कबीर खान ने दक्षिण के लेखक विजयेंद्र प्रसाद की कथा को अपनी पूरी संवेदना के साथ रचा है और सभी कलाकारों ने दिल लगाकर काम किया है तथा केंद्रीय पात्र बालिका हर्षाली का चेहरा ही इतना मासूम है कि बरबस आप उसके साथ हो जाते हैं। उसने ऐसा अभिनय किया है कि आप दुष्यंत कुमार की आवाज के असर को उसकी खामोशी में खोज सकते हैं। इतने मनोरंजक चरित्रों की भरमार है कि आप मंत्र-मुग्ध हो जाते हैं। प्रीतम का संगीत फिल्म के भावना पक्ष की जमकर सहायता करता है और दृश्यों के साथ समाहित होकर ऑडियो वीडियो माध्यम का जादू बन जाता है।

सलमान खान ने इस फिल्म के पात्र में अपने को इस कदर ढाला है कि अब लंबे समय तक उन्हें बजरंगी भाईजान ही कहा जाएगा। पहलवान से पुष्ट शरीर में मासूम से दिल की धड़कन को उन्होंने जीवंत कर दिया है। प्रीतम ने इस धड़कन को ही संगीत में ढाला है। नवाजुद्‌दीन हमेशा ही अच्छा अभिनय करते हैं परंतु यह फिल्म उन्हें सितारा हैसियत देगी। हर चरित्र-चित्रण बहुत ही मेहनत से किया गया है और दस मिनट की भूमिका में ओम पुरी को भी भूल नहीं पाएंगे। हर सहायक चरित्र के लिए सही कलाकार खोजा गया है, मुन्नी उर्फ शाहिदा की मां का चेहरा ही उसके मातृत्व का परिचय है। भोपाल के शरद सक्सेना 1977 से ही फिल्मों में हैं और उन्होंने सभी तरह की भूमिकाएं की हैं। सक्सेना लचीले हैं।

कबीर खान के पिता दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे और कबीर ने बचपन से ही अपनी मां के साथ दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय फिल्में देखीं परंतु जामिया में अध्ययन करते समय उन्हें अहसास हुआ कि फिल्म ही उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। सईद मिर्जा के साथ उन्होंने डाक्यूमेंट्री फिल्में बनाने के लिए अनेक देशों की यात्रा की और इन यात्राओं से उन्होंने सबसे अधिक सीखा। उनकी पहली फिल्म 'काबुल एक्सप्रेस' में एक तालिबानी अपने वतन बेटी को जाकर देखना चाहता है और उसकी तड़प आपको रवींद्रनाथ टैगोर की लिखी 'काबुुलीवाला' की याद दिलाती है, जिस पर बंगाली और हिंदी में फिल्में बनीं हैं। उनकी दूसरी फिल्म 'न्यू यॉर्क' में भी तालिबान होने के शक में यातना भोगा व्यक्ति बाद में आतंकवादी हो जाता है गोयाकि दमन चक्र में पिसने पर आप वही बन जाते हैं, जिसके संदेह में पकड़े गए थे। हर फसाद अनगिनत फसादों को जन्म देता हैं।

कबीर खान की तीसरी फिल्म 'एक था टाइगर' में भी आप इसी समस्या के दूसरे पहलू को देखते हैं और चौथी फिल्म 'बजरंगी भाईजान' में पिछली तीनों फिल्मों के बनाने के पीछे की भावनाओं का विरेचन होता है गोयाकि आप मंथन में विष और अमृत दोनों पाते हैं परंतु विष से अमृत तक की यात्रा लंबी होती है और यह कबीर की संवेदना की ही तीव्रता है कि चौथी फिल्म में उन्हें मंजिल मिल गई। कबीर के लिए रास्ता ही मंजिल रहा है, अत: अगला पड़ाव उन्हें ाफ दिख सकता है।