कबीर की वापसी- अमेरिका में (भाग-2) / प्रतिभा सक्सेना

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आ पहुँचे अमेरिका में कबीर, तो शरीर के धर्म तो निबाहने ही पड़ेंगे। मन भी बड़ी अजीब चीज़ है। शुरू-शुरू में जो भाता नहीं जिससे मन बिचकता है, धीरे-धीरे आदत पड़ते ही उसकी कमी खलने लगती है। अपने यहाँ देखा करते थे पत्तियां पीली पड़ कर झरने लगती है। पेड़ झंखाड़ सा खड़ा रहता है। मन में वैराग्य की लहरें उठने लगती थीं। वैसे भी कबीर जनम के वैरागी, अनुराग के लिये न अवकाश न मनस्थिति। नीरू-नीमा ने दिन-रात कपड़े बुन-बुन कर जीविका चलाई -रूखी-सूखी खाते बड़े हुये। जात-पांत का ठिकाना नहीं।

यहाँ सब-कुछ निराला। पतझर क्या आया वनराजि नये-नये रंगों में सजने लगी। जैसे वनों के अंचल में इन्द्रधनुषी फव्वारे फूट पड़े हों। पत्ते झरने का उत्सव तना रंगीन, विषाद की छाया से परे जैसे जाने का कोई ग़म नहीं। जीवन को पूरी शिद्दत से जीकर जो आत्मतोष मिला उसी उत्साह से यह बिदा बेला उद्दाम आवेग के साथ मनाने को उद्यत हैं। प्रकृति में मृत्यु से पूर्व जैसे एक महोत्सव का प्रारंभ हो जाता है। । चींटयों- पतंगों के पंख निकल आते हैं, दीपक की लौ पूरे तेज से उद्दीप्त हो उठती है, गिरने के पहले पत्ते चटकीले रंगों में रँग जाते हैं। बिदा लेने से पूर्व जिजीवषा अपने चरम पर होती है। पूरे तेज और ऊर्जा के साथ उद्दीप्त। और उसके बाद अंत -अवश्यंभावी समापन 1

कबीर बोले, 'यह कैसा उत्सव? कैसा मरण का आनन्द! दिवस चार का पेखना अंत रहेगी छार! '

स्वर्ग से भेजे गए थे। जिज्ञासा उठी मन में तो समाधान भी होना था।

भीतर से कोई बोल उठा -

'संत जी, छार रहेगी वह तो ठीक पर उससे पहले चार दिन का यह आनन्द क्या परम चेतना की आनन्दानुभूति का नृत्य नहीं? मृत्यु का सोच-सोच कर आगत की चिन्ता कर जीवन दूभर क्यों करो? वर्तमान को विषाद का पर्याय बना डालना कहाँ तक संगत है? मुक्तमना उत्सव के प्रहरो में स्वयं को डुबा दो। आनन्द क्या कुछ नहीं! परमात्मा तो स्वयं सत्चित्आनन्द है। आने और जाने के बीच की हलचल कोलाहल, जीवन का कल्लोल -विलोल बिल्कुल बेकार है? वास्तव में वही जीवन है। आगे पीछे उसी की भूमिका और उसी का उपसंहार। अस्तित्व पता नहीं कहाँ चला जाता है, जब पता ही नहीं क्या होगा तो यह बीच का रागरंग क्यों अस्वीकार कर दिया जाय? बहते चलो जीवन प्रवाह में। '

कबीर चुप रहे।

'क्यों दार्शनिक, आनन्द क्या सर्वथा त्याज्य है? महाप्रकृति की लीलामयी क्रीड़ा इसी धारा के प्रवाह में व्यक्त होती है फिर हम कुंठायें क्यों पालें? ये फूलों के रंग रमणीय प्रकृति का सौंदर्य तुम्हें सर्वथा त्याज्य लगता है? जीवन भर सूखे पत्ते बने रहें क्योंकि मृत्यु अवश्यंभावी है?'

मैने कभी इस दृष्टि से सोचा नहीं। मेरा तो जीवन वंचनाओं में बीता। विधवा ब्राह्मणी ने जाया और छोड़ दिया लहरतारा के किनारे। रंगरेज दंपति ने उठाया। संतान का पूरा दायित्व निभाया। अभावों मे सारा जीवन बीता। निम्नवर्ग की कुंठायें ओढे-ओढे बड़ा हुआ। ताना-बाना तानते, चदरिया बुनते उमर निकल गई। पढने-लिखने का न अवकाश था न सुविधा। ऊपर से कितनी कटुतायें कतने अवरोध सामने खड़े। सिर झुका कर रहना स्वभाव में नहीं था दुनिया के रंग-ढंग से जी उचटने लगा। कितने आडंबर, झूठ। स्वार्थ की पूर्ति के लिये आत्मा को गिरवी रख देना। थोड़ा सा महत्व पाने के लिये लोगों को धोखे में रखना। वासनातृप्ति के लिये संसार को गुमराह करना। यह सब मिथ्याचार और आडंबर मुझसे सहम नहीं होते थे। मैने नहीं जाना सुख-चैन क्या है, आनन्द क्या है। आसक्तियों से दूर रहने की चेष्टा की। नारी से दूर भागता रहा। '

'कोई हँसा -क्यों दूर भागते रहे -सर्वथा हेय है नारी?

'दुनिया के झंझटों में नहीं फँसना चाहता था। । । । '

अचानक एक विधवा ब्राह्मणी का ध्यान आ गया, । यौवन में विधवा, लुंचित केश,व्रत और श्रम करते दुर्बल शरीर, अपने आप को सबकी निगाहौं से बचाती, अस्तित्वहीना सी, अमंगल की आशंका से, मोटी सफ़ेद धोती तन पर लपेटे, लहरतारा के किनारे आई है आंचल में छिपाई एक बंडल किनारे पर धर पल भर खड़ी रही फिर, आँसू पोंछ, मुड कर चल दी। '

'इसी झंझट से बचना चाहता होगा वह आदमी, जो इस पर डाल गया?

शुरू से देखा था, नारी का तिरस्कार, जैसे पैर की जूती!

ओह, वह नारी? कैसे जी होगी कैसे रहती होगी। अपराधिनी वही थी क्या!

नारी के मन, आत्मा नहीं होती?

बार-बार उस बेबस असहाय नारी का ध्यान आता है।

कबीर सोच रहे हैं-

जीवन लड़ते ही बीता हिन्दू-मुसलान, ऊँच -नीच, धनी- -निर्धन लगातार द्वंद्व। ऊपर से अज्ञानी लोगों ने अपने जाल पसार रखे थे। साधारण मनुष्य विभ्रमित हुआ जा रहा था। मैं क्योंकि उनमें नहीं था अलग खड़ा रह गया था इसलिये सब देख पा रहा था। देखने और सोचनेवाला दुखी होता है। दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवे। मैं अपने दुख पर नहीं संसार की मूढता पर रोया था। अगर सोच लें जीवन चार दिन का है तो सुख पाने के लिये अकार्य न करें वासनाओं से दूर रहे।

न कभी अवकाश मिला, न धरती के सोच से ऊपर उठने का वातावरण। जीवन में कला सोंदर्य का महत्व कैसे पता चलता जब रोज़-रोज़ से झंझटों से ही छुटकारा न मिले?

'अब धरती के दुखों-अभावों की छाया से मुक्त क्यों नहीं होते? जीवन का यह दूसरा पक्ष जीने का मौका भी देगा करतार, जरूर देगा। पूरे पाठ पढे बिना छुटकारा नहीं पाओगे। अभी चाहे जितनी चीख-पुकार मचा लो! कितना पढ़ना-गुनना है तुम्हें, कबीर! मुक्त होना चाहते थे न! मन को तो मुक्त करो पहले। काहे को लाद लाए हो सिर पर वहाँ की गठरिया। अभी तो मँजना पड़ेगा, रगडे-खा-खा कर।

वहाँ से ठेले जाते रहोगे, जब तक स्वच्छता से दमक नहीं उठते। '

पढ़ना-गुनना - हाँ, अभी हुआ कहाँ? बहुत-कुछ बाकी रह गया है अभी!

सिर झुकाए बैठे हैं सोच-मग्न कबीर!