कब्र का मुनाफ़ा (पृष्ठ-1) / तेजेन्द्र शर्मा

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"यार कुछ न कुछ तो नया करना ही पड़ेगा। सारी ज़िन्दगी नौकरी में गंवा चुके हैं। अब और नहीं की जायेगी ये चाकरी", ख़लील ज़ैदी का चेहरा सिगरेट के धुंए के पीछे धुंधला सा दिखाई दे रहा है। नजम जमाल व्हिस्की का हलका सा घूंट भरते हुए किसी गहरी सोच में डूबा बैठा है। सवाल दोनों के दिमाग़ में एक ही है – अब आगे क्या करना है। कौन करे अब यह कुत्ता घसीटी।

ख़लील और नजम ने जीवन के तैंतीस साल अपनी कम्पनी की सेवा में होम कर दिये हैं। दोनों की यारी के किस्से बहुत पुराने हैं। ख़लील शराब नहीं पीता और नजम सिगरेट से परेशान हो जाता है। किन्तु दोनों की आदतें दोनों की दोस्ती के कभी आड़े नहीं आती हैं। ख़लील ज़ैदी एक युवा अफ़सर बन कर आया था इस कम्पनी में, किन्तु आज उसने अपनी मेहनत और अक्ल से इस कम्पनी को युरोप की अग्रणी फ़ाइनेन्शियल कम्पनियों की कतार में ला खड़ा किया है। लंदन के फ़ाइनेन्शियल सेक्टर में ख़लील की खासी इज्ज़त है।

"वैसे ख़लील भाई क्या ज़रूरी है कि कुछ किया ही जाये। इतना कमा लिया अब आराम क्यों न करें।.. बेटे, बहुएं और पोते पोतियों के साथ बाकी दिन बिता दिये जायें तो क्या बुरा है?"

"मियां, दूसरे के लिये पूरी ज़िन्दगी लगा दी, कम्पनी को कहां से कहां पहुंचा दिया। लेकिन...कल को मर जाएंगे तो कोई याद भी नहीं करेगा। अगर इतनी मेहनत अपने लिये की होती तो पूरे फ़ाइनेंशियल सेक्टर में हमारे नाम की माला जपी जा रही होती।"

"ख़लील भाई, मरने पर याद आया, आपने कार्पेण्डर्स पार्क के कब्रिस्तान में अपनी और भाभी जान की कब्र बुक कर ली है या नहीं? देखिये उस कब्रिस्तान की लोकेशन, उसका लुक, और माहौल एकदम यूनीक है। ...अब ज़िन्दगी भर तो काम, काम और काम से फुर्सत नहीं मिली, कम से कम मर कर तो चैन की ज़िन्दगी जियेंगे।"

"क्या बात कही है मियां, कम से कम मर कर तो चैन की ज़िन्दगी जियेंगे। भाई वाह, वो किसी शायर ने भी क्या बात कही है कि, मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे।... यार मुझे तो कोई दिक्कत नहीं। तुम्हारी भाभी जान बहुत सोशलिस्ट किस्म की औरत हैं। पता लगते ही बिफर जाएगी। वैसे, तुमने आबिदा से बात कर ली है क्या? ये हव्वा की औलादों ने भी हम जैसे लोगों का जीना मुश्किल कर रखा है। अब देखो ना.... "

नजम ने बीच में ही टोक दिया, " ख़लील भाई इनके बिना गुज़ारा भी तो नहीं। नेसेसरी ईविल हैं हमारे लिये; और फिर इस देश में तो स्टेट्स के लिये भी इनकी ज़रूरत पड़ती है। इस मामले में जापान बढ़िया है। हर आदमी अपनी बीवी और बच्चे तो शहर के बाहर रखता है, सबर्ब में - और शहर वाले फ़्लैट में अपनी वर्किंग पार्टनर । सोच कर कितना अच्छा लगता है।" साफ़ पता चल रहा था कि व्हिस्की अपना रंग दिखा रही है।

"यार ये साला कब्रिस्तान शिया लोगों के लिये एक्सक्लूसिव नहीं हो सकता क्या? .. वर्ना मरने के बाद पता नहीं चलेगा कि पड़ोस में शिया है सुन्नी या फिर वो गुजराती टोपी वाला। यार सोच कर ही झुरझुरी महसूस होती है। मेरा तो बस चले तो एक कब्रिस्तान बना कर उस पर बोर्ड लगा दूं – शिया मुसलमानों के लिये रिज़र्व्ड।"

"बात तो आपने पते की कही है ख़लील भाई। लेकिन ये अपना पाकिस्तान तो है नहीं। यहां तो शुक्र मनाइये कि गोरी सरकार ने हमारे लिये अलग से कब्रिस्तान बना रखा है। वर्ना हमें भी ईसाइयों के कब्रिस्तान में ही दफ़न होना पड़ता। आपने कार्पेण्डर्स पार्क वालों की नई स्कीम के बारे में सुना क्या? वो खाली दस पाउण्ड महीने की प्रीमियम पर आपको शान से दफ़नाने की पूरी ज़िम्मेदारी अपने पर ले रहे हैं। उनका जो नया पैम्फ़लैट निकला है उसमें पूरी डिटेल्स दे रखी हैं। लाश को नहलाना, नये कपड़े पहनाना, कफ़न का इन्तज़ाम, रॉल्स रॉयस में लाश की सवारी और कब्र पर संगमरमर का प्लाक – ये सब इस बीमे में शामिल है।"

"यार ये अच्छा है, कम से कम हमारे बच्चे हमें दफ़नाते वक्त अपनी जेबों की तरफ़ नहीं देखेंगे। मैं तो जब इरफ़ान की तरफ़ देखता हूं तो बहुत मायूस हो जाता हूं। देखो पैंतीस का हो गया है मगर मजाल है ज़रा भी ज़िम्मेदारी का अहसास हो।... कल कह रहा था, डैड कराची में बिज़नस करना चाहता हूं, बस एक लाख पाउण्ड का इंतज़ाम करवा दीजिये। अबे पाउण्ड क्या साले पेड़ों पर उगते हैं। नादिरा ने बिगाड़ रखा है। अपने आपको अपने सोशलिस्ट कामों में लगा रखा है । जब बच्चों को मां की परवरिश की ज़रूरत थी, ये मेमसाब कार्ल मार्क्स की समाधि पर फूल चढ़ा रही थीं। साला कार्ल मार्क्स मरा तो अंग्रेज़ों के घर में और कैपिटेलिज़्म के ख़िलाफ किताबें यहां लिखता रहा। इसीलिये दुनियां जहान के मार्क्सवादी दोगले होते हैं। सालों ने हमारा तो घर तबाह कर दिया। मेरा तो बच्चों के साथ कोई कम्यूनिकेशन ही नहीं बन पाया।" ख़लील ज़ैदी ने ठण्डी सांस भरी।

थोड़ी देर के लिये सन्नाटा छा गया है। मौत का सा सन्नाटा। हलका सा सिगरेट का कश, छत की तरफ़ उठता धुआं, शराब का एक हलका सा घूंट गले में उतरता, थोड़ी काजू के दांतों से काटने की आवाज़। नजम से रहा नहीं गया, "ख़लील भाई, उनकी एक बात बहुत पसन्द आई है। उनका कहना है कि अगर आप किसी एक्सीडेन्ट या हादसे का शिकार हो जाएं, जैसे आग से जल मरें तो वो लाश का ऐसा मेकअप करेंगे कि लाश एकदम जवान और ख़ूबसूरत दिखाई दे। अब लोग तो लाश की आख़री शक्ल ही याद रखेंगे न। नादिरा भाभी और आबिदा को यही आइडिया बेचते हैं, कि जब वो मरेंगी तो दुल्हन की तरह सजाई जायेंगी।"

"यार नजम, एक काम करते हैं, बुक करवा देते हैं दो दो कब्रें। हमें नादिरा या आबिदा को अभी बताने की ज़रूरत क्या है। जब ज़रूरत पड़ेगी तो बता देंगे।"

"क्या बात कही है भाई जान, मज़ा आ गया! लेकिन, अगर उनको ज़रूरत पड़ गई तो बताएंगे कैसे? बताने के लिये उनको दोबारा ज़िन्दा करवाना पड़ेगा।.. हा. हा..हाहा.. "

"सुनो, उनकी कोई स्कीम नहीं है जैसे बाई वन गैट वन फ़्री या बाई टू गैट वन फ़्री ? अगर ऐसा हो तो हम अपने अपने बेटों को भी स्कीम में शामिल कर सकते हैं। अल्लाह ने हम दोनों को एक एक ही तो बेटा दिया है।"

"भाई जान अगर नादिरा भाभी ने सुन लिया तो खट से कहेंगी, "क्यों जी हमारी बेटियों ने क्या कुसूर किया है? "

"यार तुम डरावनी बातें करने से बाज़ नहीं आओगे। मालूम है, वो तो समीरा की शादी सुन्नियों में करने को तैयार हो गई थी। कमाल की बात ये है कि उसे शिया, सुन्नी, आग़ाख़ानी, बोरी सभी एक समान लगते हैं। कहती हैं, सभी मुसलमान हैं और अल्लाह के बंदे हैं। उसकी इंडिया की पढ़ाई अभी तक उसके दिमाग़ से निकली नहीं है।"

"भाई जान अब इंडिया की पढ़ाई इतनी खराब भी नहीं होती। पढ़े तो मैं और आबिदा भी वहीं से हैं। दरअसल मैं तो गोआ में कुछ काम करने के बारे में भी सोच रहा हूं। वहां अगर कोई टूरिस्ट रिज़ॉर्ट खोल लूं तो मज़ा आ जायेगा...! भाई, सच कहूं, मुझे अब भी अपना घर मेरठ ही लगता है। चालीस साल हो गये हिन्दुस्तान छोड़े, लेकिन लाहौर अभी तक अपना नहीं लगता। ..यह जो मुहाजिर का ठप्पा चेहरे पर लगा है, उससे लगता है कि हम लाहौर में ठीक वैसे ही हैं, जैसे हिन्दुस्तान में चूढ़े चमार।"

"मियां चढ़ गई है तुम्हें। पागलों की सी बातें करने लगे हो। याद रखो, हमारा वतन पाकिस्तान है। बस। यह हिन्दु धर्म एक डीजेनेरेट, वल्गर और कर्रप्ट कल्चर है। हिन्दुओं या हिन्दुस्तान की बढ़ाई पूरी तरहे से एन्टी-इस्लामिक है। फ़िल्में देखी हैं इनकी, वल्गैरिटी परसॉनीफ़ाईड । मेरा तो बस चले तो सारे हिन्दुओं को एक कतार में खड़ा करके गोली से उड़ा दूं।"

नजम के खर्राटे बता रहे थे कि उसे ख़लील ज़ैदी की बातों में कोई रूचि नहीं है। वो शायद सपनों के उड़नखटोले पर बैठ कर मेरठ पहुंच गया था। मेरठ से दिल्ली तक की बस का सफ़र, रेलगाड़ी की यात्रा और आबिदा से पहली मुलाक़ात, पहली मुहब्बत, फिर शादी। पूरी ज़िन्दगी जैसे किसी रेल की पटरी पर चलती हुई महसूस हो रही थी।

महसूस आबिदा भी कर रही थी और नादिरा भी। दोनों महसूस करती थीं कि उनके पतियों के पास उनके लिये कोई समय नहीं है। उनके पति बस पैसा देते हैं घर का ख़र्चा चलाने के लिये, लेकिन उसका भी हिसाब किताब ऐसे रखा जाता है जैसे कंपनी के किसी क्लर्क से खर्चे का हिसाब पूछा जा रहा हो। दोनों को कभी यह महसूस नहीं हुआ कि वे अपने अपने घर की मालकिनें हैं। उन्हें समय समय पर यह याद दिला दिया जाता था कि घर के मालिक के हुक्म के बिना वे एक कदम भी नहीं चल सकतीं। आबिदा तो अपनी नादिरा आपा के सामने अपना रोना रो लेती थी लेकिन नादिरा हर बात केवल अपने सीने में दबाये रखतीं।

नादिरा ने बहुत मेहनत से अपने व्यक्तित्व में परिवर्तन पैदा किया था। उसने एक स्थाई हंसी का भाव अपने चेहरे पर चढ़ा लिया था। पति की डांट फटकार, गाली गलौच यहां तक कि कभी कभार की मार पीट का भी उस पर कोई असर दिखाई नहीं देता था। कभी कभी तो ख़लील ज़ैदी उसकी मुस्कुराहट से परेशान हो जाते, "आख़िर आप हर वक्त मुस्कुराती क्यों रहती हैं? यह हर वक्त का दांत निकालना सीखा कहां से है आपने। हमारी बात का कोई असर ही नहीं होता आप पर।"

नादिरा सोचती रह जाती है कि अगर वो ग़मगीन चेहरा बनाये रखे तो भी उसके पति को परेशानी हो जाती है। अगर वो मुस्कुराए तो उन्हें लगता है कि ज़रूर कहीं कोई गड़बड़ है अन्यथा जो व्यवहार वे उसे दे रहे हैं, उसके बाद तो मुस्कुराहट जीवन से ग़ायब ही हो जानी चाहिये।

नादिरा ने एक बार नौकरी करने की पेशकश भी की थी। लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. पास है वह। लेकिन ख़लील ज़ैदी को नादिरा की नौकरी का विचार इतना घटिया लगा कि बात, बहस में बदली और नादिरा के चेहरे पर उंगलियों के निशान बनाने के बाद ही रुकी। इसका नतीजा यह हुआ कि नादिरा ने पाकिस्तान से आई उन लड़कियों के लिये लड़ने का बीड़ा उठा लिया है जो अपने पतियों एवं सास ससुर के व्यवहार से पीड़ित हैं।

ख़लील को इसमें भी शिकायत रहती है, "आपका तो हर खेल ही निराला है! मैडम कभी कोई ऐसा काम भी किया कीजिये जिससे घर में कुछ आये। आपको भला क्या लेना कमाई धमाई से। आपको तो बस एक मज़दूर मिला हुआ है, वो करेगा मेहनत, कमाए और आप उड़ाइये मज़े।" अब नादिरा प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती। जैसे ही ख़लील शुरू होता है, वो कमरा छोड़ कर बाहर निकल जाती है। वह समझ गई है कि ख़लील को बीमारी है – कंट्रोल करने की बीमारी। वह हर चीज़, हर स्थिति, हर व्यक्ति को कंट्रोल कर लेना चाहता है – कंट्रोल फ़्रीक । यही दफ़्तर में भी करता है और यही घर में।