कमसिन कवितामय अलसभोर के प्रश्न / जयप्रकाश चौकसे

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कमसिन कवितामय अलसभोर के प्रश्न
प्रकाशन तिथि : 09 जनवरी 2013


रवि जाधव की मराठी फिल्म 'बालक-पालक' सफलता से दिखाई जा रही है। साहसी और नया विषय होते हुए भी पारंपरिक शालीनता का निर्वाह इस कदर हुआ है कि एक भी अभद्र संकेत फिल्म में नहीं है। इसके प्रस्तुतीकरण में वही ऊर्जा और शैली है, जो हमने 'विकी डोनर' में देखी है। हास्य के आवरण में गंभीर समस्या को प्रस्तुत किया गया है। सेंसर का प्रमाण-पत्र भी यह कहता है कि माता-पिता के साथ बच्चे इसे देख सकते हैं। इसमें पिता अपने स्कूल जाने वाले पुत्र को एक वयस्क फिल्म की डीवीडी देखते हुए देखकर उसे पीटना शुरू करता है और पत्नी उसे शांतचित्त से समस्या सुलझाने की सलाह देती है और उसे याद दिलाती है कि कमसिन उम्र में वह भी इसी तरह के अनुभव से गुजरा है।

फ्लैशबैक में दिखाया गया है कि चार बालक इस बात से परेशान हैं कि उन्हीं की चाल में रहने वाली उनसे थोड़ी-सी बड़ी लड़की से कोई चूक हुई है और सारी चाल न केवल उससे खफा है, वरन थोड़ा शर्मिंदा भी है। लड़की जैसे अपने ही जिस्म में सिमटकर शून्य हो जाना चाहती है। चारों बच्चों को सवाल पूछने पर लताड़ा जाता है और मार-पीट की धमकी भी दी जाती है। उनसे कुछ वर्ष बड़ा बालक उन्हें बताता है कि उस लड़की के साथ क्या हुआ है, यह जानने के लिए एक फिल्म देखो। वह उन्हें डीवीडी पर एक अश्लील फिल्म दिखाता है, जिसके बाद उन चार में से दो बालक ताक-झांक करने लगते हैं और लड़कियों को अजीब निगाहों से देखने लगते हैं। दो साथी लड़कियां उनसे दूरी बना लेती हैं। एक समझदार आदमी इन चार दोस्तों के बीच आ गई दीवार को ध्वस्त करना चाहता है। वह सब कुछ जानने के बाद चारों के माता-पिता के साथ बच्चों को सेक्स का सच बताता है।

इस याद के कौंधने के बाद पिता अपने स्कूल जाने वाले बालक को शिक्षित करता है और उसके विकसित होते दिमाग में नाजुक विषय की समाई धुंध को साफ करता है। पाठ्यक्रम में जीवन के एक महत्वपूर्ण हिस्से की वैज्ञानिक शिक्षा का कितना महत्व है- इस बात को कैसे अनदेखा किया जा सकता है। इस नाजुक विषय पर विदेशों में बहुत-सी फिल्में बनी हैं, परंतु भारत में 'बालक-पालक' पहली फिल्म है। टेक्नोलॉजी के इस दौर में इतनी आंकी-बांकी गलियां बच्चों को उपलब्ध हैं कि बिगडऩा है मुमकिन, बहकने का डर है।

सीधी-सरल साफगोई बहुत-सी परेशानियों को दूर करती है। बच्चों को बच्चा बनकर नहीं पाला जाता। उनके साथ साफगोई और सच्चाई बरतने से ही उसका पथ प्रशस्त होता है। उनके सवालों को टालने से उनके स्वयं के प्रश्न बन जाने का अंदेशा होता है और इस नाजुक विषय को संस्कृति के नाम पर अज्ञान की झाड़ू से तथाकथित भद्रता के महंगे कालीन के नीचे नहीं एकत्रित किया जा सकता। टेक्नोलॉजी से लड़ा नहीं जाता, उसको सोच में शामिल करके जीना होता है।

बचपन बिना आवाज किए कमसिन उम्र में प्रवेश कर जाता है और युवावस्था भी दहलीज पर पलक झपकते ही आ खड़ी होती है। कमसिन उम्र के इस नाजुक मसले पर 'समर ऑफ ४२' सर्वकालिक महान फिल्म है, 'ग्रेजुएट' की भी चर्चा हुई है। एक विदेशी फिल्म और है, जिसमें एक युवती का पति जंग से नहीं लौटा है और पूरे कस्बे की उसे देखकर लार टपकती है। बालक के स्नेह की डोर से वह संतुलन बनाए रखती है और बालक मुगालते में जाए, ठीक उसी समय उसका सैनिक पति लौट आता है। राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' का पहला भाग, जिसमें कमसिन ऋषि कपूर अपने से दस वर्ष बड़ी अपनी शिक्षिका से एकतरफा इश्क करने लगता है, जो अपने प्रेमी के साथ विवाह करती है। कमसिन नायक ने शिक्षिका को कपड़े बदलते देख लिया है और वे छवियां उसके दिमाग में बार-बार कौंधने लगती हैं। वह कन्फेशन रूम में जाता है और वापसी में शिक्षिका उससे कहती है कि बच्चे कभी पाप नहीं करते, उन्हें कन्फेशन रूम में जाने की आवश्यकता नहीं। कमसिन नायक जवाब देता है कि अब वह बच्चा नहीं रहा। शिक्षिका का प्रेमी पहली नजर में ही कमसिन युवा के मन को पढ़ लेता है। वह इस नाजुक मसले पर युवा को अपना दोस्त बनाकर समझाता है कि प्रेम और कमसिन आयु का आकर्षण, शरीर के रहस्य क्या होते हैं। इस सार्थक मुलाकात के बाद वह कमसिन कुंठाओं से मुक्त हो जाता है। लगभग सौ मिनट का यह पूरा हिस्सा एक कविता की तरह प्रस्तुत हुआ है। जब यह फिलम निर्माणाधीन थी, तब सत्यजीत राय ने राज कपूर को सलाह दी थी कि इस भाग को एक संपूर्ण फिल्म की तरह प्रदर्शित कर दें- यह अजर-अमर कृति हो जाएगी।

दरअसल बचपन और कमसिन उम्र में मन में जिज्ञासा होती है, बच्चे अपने शरीर में हो रहे परिवर्तनों के साथ मानस पटल के बदलाव को समझने में असमर्थ होते हैं। जीवन के इसी मोड़ पर कुंठाओं का जन्म होता है, जो पूरे जीवन को ही धुंध में धकेल देता है। हिंसा के बीज कब पड़ जाते हैं, पता ही नहीं चलता। प्राय: सेक्स से संबंधित बातों का अज्ञान ही हिंसा को जन्म देता है। हिंसा के जन्म के और भी कारण हैं, परंतु सेक्स एवं धर्मांधता मूल कारण हैं। उम्र का यह दौर अलसभोर है, जहां जाते हुए बचपन का चंपई अंधेरा और आने वाले यौवन का सुरमई उजाला मिलकर कविता-सा वातावरण बनाते हैं। इस दौर में वयस्कों की साफगोई और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पूरे जीवन को रोशन कर सकता है। शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों को इस क्षेत्र में पहल करनी चाहिए।