कमीने का दोस्त / शोभना 'श्याम'

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसका मनपसंद खाना बना है फिर भी अच्छा क्यों नहीं लग रहा उसे?

बेटे ने खिलौना तोड़ दिया, ये कोई पहली बार तो हुआ नहीं था फिर उसने उस दो साल के जिगर के टुकड़े को थप्पड़ जड़ दिया, क्यों?

पत्नी ने बस ये ही तो पूछा था कि काफी पियोगे क्या? वह उस पर भी झल्ला उठा।

क्या हो रहा है उसे? यह तो वह खुद भी नहीं समझ पा रहा।

'कहीं इस उखड़े से मूड का ताल्लुक दिनेश से तो नहीं?'

'अरे नहीं! बिलकुल नहीं! और क्यों होने लगा?'

दिनेश उसका जिगरी दोस्त है। थोड़ा कमीना या बेईमान टाइप कह सकते हैं मगर उसके साथ तो कभी कुछ ग़लत नहीं किया न। लोगों को चूना लगाना दिनेश की आदत में शुमार है। कई बार तो संजय के सामने ही इतनी सफाई से लोगों के साथ धोखाधड़ी की है उसने कि संजय बस हैरान-सा उसे देखता रह जाता है। कभी-कभी वह कुछ बोलने को उद्यत होता है, इतने में दिनेश आँख मारकर उसे इशारा कर देता है। ऐसे में वह उस समय तो चुप हो जाता है लेकिन बाद में ये कहने से नहीं चूकता–"साले! कमीने! क्या कमाल का ट्रिकबाज़ है! बड़ा खतरनाक है बे तू! तुझसे तो।"

" अबे! एक ही तो दोस्त है मेरा। तूने सोच भी कैसे लिया कि मैं तेरे साथ कुछ ग़लत करूँगा। और सच तो ये है कि दिनेश के इस हुनर से संजय का भी कई बार फायदा हो चुका है। उसके एम्पोरियम के लिए सामान खरीदने में अक्सर दिनेश ने अच्छी डील्स कराई है। फिर भी आज तक खुद कोई खास मकाम हासिल नहीं कर पाया, क्योंकि एक बहुत बड़ी कमी है उसमें कि वह मेहनत नहीं कर सकता और बिना मेहनत सिर्फ़ चालाकियों से पैसा ज़्यादा और ज़्यादा दिन तक नहीं कमाया जा सकता। इसीलिए आज तक वह मामूली सेल्समैन की नौकरी कर रहा है।

"अपना भी दिन आएगा, पैसों में खेलेगा तेरा यार!" ये डायलॉग दिनेश बहुत बार बोल चुका है। वह दिन कब और पैसा कैसे आएगा? इसका तो पता नहीं, लेकिन कनाडा, अमेरिका या इंग्लैण्ड में ही कहीं गड़ा है उसकी किस्मत का पैसा, इसका इल्म उसकी बातों से हो चुका है, संजय को। आखिर दूध से धुली पत्नी और ढेर सारे पैसे का कॉम्बिनेशन, वह भी बिना विरासत में पाए और बिना पसीना बहाये, भारत जैसे गर्म देश में तो सम्भव नहीं।

और आज शाम दिनेश ने जो दिखाया, उससे एक बार तो संजय अवाक रह गया लेकिन साथ ही उसे यह भी समझ आ गया कि उसके दोस्त को ये बेईमानी (या कमीनगी कह लो) की प्रवृति अपने पिता से विरासत में मिली है। दिनेश ने अभी दो दिन पहले ही उसे बताया था कि उसका रिश्ता हो गया है।

जिसे सुनते ही संजय बोल पड़ा था, "अबे! तेरी हिम्मत कैसे हुई? मेरे बिना लड़की भी देख ली और रिश्ता भी कर लिया।"

"यार तू शहर में नहीं था और अचानक ही ये डील मिल गयी।"

"डील? अबे! शादी के रिश्ते को डील कह रहा है?"

दिनेश ने उस समय तो बस इतना ही कहा, "मिलने पर इत्मीनान से समझाऊँगा।"

आज शाम उसने अपनी मंगेतर से मिलवाया। उसकी मंगेतर शिप्रा साधारण से कुछ बेहतर नैन नक्श वाली मगर सांवली लड़की, जो प्रथम दृष्टया संजय को सीधीसादी और संकोची-सी लगी। ये भी मुमकिन है कि यह संकोच गोरे चिट्टे, लम्बे, गठीले शरीर वाले दिनेश की पर्सनेलिटी और उसके खुद के साधारण से चेहरे और गहरे रंग की तुलना से उपजी हीन भावना से उत्पन्न हुआ हो। इस हीन भावना का असर इतना ज़्यादा था कि उसमें उसके दिनेश से कहीं अधिक समृद्ध होने का अहसास भी बिला गया था।

जो भी हो, संजय ने जितना दिनेश को जाना था, यह उस के दोस्त की पसंद नहीं हो सकती थी। उसका एक ही ख्वाब था अंग्रेजो जैसी बेहद गोरी, दूध की धुली-सी अति आधुनिक पत्नी। फिर?

"फिर क्या! तुझे तो पता है मम्मी बीमार रहती है। घर संभालने के लिए कोई घरेलू लड़की चाहिए। नौकरानी और नर्स दोनों का खर्चा हम अफोर्ड नहीं कर सकते। ऊपर से दहेज में इतना पैसा मिल रहा है कि घर का कर्ज़ा भी उतर जायेगा। एक बार ये काम निकल जाये फिर ।"

"फिर?"

"फिर देखेंगे, क्या करना है उसका ..."

"दिनेश यार! वह इंसान है जीती-जागती, कोई चीज नहीं कि काम निकलने के बाद देखोगे क्या करना है?"

"चिल संजय चिल, इतना सेंटी मत हो। इतनी साधारण शक्ल सूरत वाली को इस हैंडसम बंदे का साथ मिल रहा है जितने दिन मिल जाए, उसके लिए तो वहीं ।"

"लेकिन बाद में आखिर क्या करने वाले हो। कहीं कोई मुसीबत न बन जाये। तलाक भी देगा तो एलिमनी देनी पड़ेगी। बात घूम-घाम के फिर पैसे पर ही तो आएगी।"

"अरे ऐसा कुछ नहीं होगा, पापा ने कहा है तू चुपचाप विदेश निकल लेना। मैं देख लूंगा, कैसे क्या करना है। पापा कि ज़रूरत है, वह भुगतेंगे। वैसे भी मुझे पापा के दिमाग पर पूरा भरोसा है। आखिर बाप किसके हैं?" दिनेश ने अपने परिचित अंदाज में एक आँख दबाई और ढीठता से मुस्कुरा दिया जिसमें संजय भी शामिल हो गया।

" एक बार मुझे विदेश में सैटल होने दे फिर देख! यहाँ तेरे क्राफ्ट-एम्पोरियम में भला कितने विदेशी पहुँच पाते होंगे? तेरा सामान अगर सीधे वहीं बिके तो ...?

"यानि एक्सपोर्ट?"

"यस एक्सपोर्ट! बेटे फिर तो तू बस नोटों की गड्डियाँ गिनियो।"

एक्सपोर्ट और नोटों की गड्डियों की बात ने जैसे संजय के अंदर फड़क रही इंसानियत का मुँह बाँध दिया।

'सही कह रहा है दिनेश, मैं क्यों इतना सोचूँ? मेरी क्या लगती है वह लड़की? मेरा वास्ता तो दिनेश से है और उसकी पाँचों उँगलियाँ घी में हैं। अब दोस्त के घर लड्डू फूटेगा तो कुछ चूरा तो उसके हिस्से भी आएगा।'

संजय दिनेश के उठे हाथ पर ताली दे कर घर आ गया। चाय पीते हुए पत्नी को बताया कि दिनेश काली मगर अमीर बाप की बेटी से शादी कर रहा है। पत्नी ने ये सुनकर अपने गोरे रंग पर अभिमान किया या अमीर शब्द से जलन महसूस की, उसने ध्यान नहीं दिया। "

"काली लड़की से? वह भी दिनेश?" प्रकट में उसने इतना ही पूछा जिसके उत्तर में सिर्फ़ मुँह बिचका कर कंधे उचका दिए संजय ने, जैसे उसे कुछ मालूम ना हो। इसके पीछे छिपे राज को पत्नी को बताने का सवाल ही नहीं उठता था।

पत्नी के गले से यह बात उतर नहीं रही थी। इसका आभास हो रहा था संजय को, मगर उसे रात का खाना बनाने की जल्दी थी सो वह उठकर चली गयी। संजय को भी राहत मिली कि फ़िलहाल बात टल गयी।

मगर थोड़ी देर बाद उसे स्वयं बेचैनी-सी होने लगी। और इसी बेचैनी में उसने अपने दो वर्ष के बेटे को थप्पड़ मार दिया, पत्नी पर झल्ला उठा लेकिन तुरंत ही सम्भल भी गया। दिनेश का डायलॉग याद आ गया शायद, "चिल यार चिल!"

"चिल संजय चिल!" खुद से यह कह कर वह सोने चला गया। मगर थका होने के बावजूद नींद उसके पास भी नहीं फटकी। दिनेश की छोटी-मोटी बेईमानी की आदत हो चली थी उसे और इसे वह प्रेक्टिकैलेटी का तकाज़ा मानता है। आजकल थोड़ी बहुत बेईमानी, चालाकी के बगैर इस दुनिया में सर्वाइव करना लगभग असम्भव है, यह तो वह भी समझता है। मगर इस बार उसका दोस्त अपनी चिलम जलाने के लिए किसी की झोपडी जला रहा है यह बात उसे हज़म नहीं हो रही।

दूसरी तरफ यह इत्मीनान था कि दोस्त की माली हालत अच्छी होने से उसे वक्त बेवक्त उधार देने से छुट्टी तो मिल ही जाएगी साथ ही दोस्त का हाथ खुलेगा तो जो अभी दोनों के शराब और कबाब के बिल ज्यादातर उसे चुकाने पड़ते है, उससे भी निज़ात मिलेगी। और विदेश जाकर सैटल हुआ तो उसके खुद

के लिए भी विदेश यात्रा आसान हो जाएगी।

इस ख्याल के साथ उसे नींद आ गयी या जागते हुए ही सपने में उसने देखा कि उसका क्राफ्ट एम्पोरियम का काम विदेश में बसे दिनेश की मदद से एक्सपोर्ट में बदल गया है। एक्सपोर्ट यानी ढेर पैसा। सुबह उठा तो शाम वाला अपराध-बोध हवा हो चुका था। रात के सपने का असर उसके तैयार होने के तरीके में झलक रहा था। मस्ती में टाई बाँधते हुए उसके होठ जहाँ सीटी बजा रहे थे, पैर उस सीटी के साथ ताल दे रहे थे।

एम्पोरियम में आज उसका सारा ध्यान भारतीय लोक कला और विभिन्न राज्यों के शिल्प के उन नमूनों पर था जिनकी विदेशों में ज़्यादा मांग है।

बेख्याली में ही उसके हाथ से एक लिस्ट बनने लगी। लिस्ट में टॉप पर थे, राजस्थान के मीनाकारी के गहने और प्लेटें और हाँ डब्बे भी, इसके बाद मैसूर की चंदन की वस्तुएँ, तंजौर पेंटिंग्स, बिहार की मधुबनी पेंटिंग... और राजस्थानी कठपुतलियों और आंध्र की कलमकारी को कैसे भूल सकता है। डोकरा, वर्ली और ब्लू पॉटरी की भी खासी डिमांड है बाहर। काम चल निकले तो फिर केरल की हाथी दांत की नक्काशी के बारे में भी सोचा जा सकता है। अचानक उसे अपने ऊपर ही हँसी आ गयी, गाँव बसा नहीं और लुटेरे पहले आ गए।

अभी शादी तो हो जाये! वह तो खैर हो ही रही है। दिनेश का विदेश जाना भी तय ही है क्योंकि बिना तलाक पत्नी से छुटकारा पाने का सबसे कारगर तरीका भारतीयों विशेषकर पंजाब वालों के पास यही तो है। विदेश भाग जाओ, नाम बदलो, किसी विदेशी कन्या से शादी करो और बस... यहाँ पत्नी और उसके मायके वाले ढूँढते रहे, काटते रहे चक्कर एम्बैसियों के।

'चलो देखते है, क्या होता है, कैसे होता है? कुल मिलकर सौदा घाटे का नहीं है। दिनेश ने जो डील शब्द का इस्तेमाल किया एक तरह से सही ही है। पिता के साथ हुई डील। वह अपने पिता का लिया कर्ज़ा चुकाने और उनकी पत्नी यानी अपनी माँ और घर की देखभाल के लिए शादी के मंडप में बैठेगा, झूठे फेरे और वचन लेगा, बदले में पिता उसके विदेश जाने का खर्चा देंगे और शादी से आसान छुटकारे की तरक़ीब भिड़ाएंगे।'

संजय की पत्नी ने एक बार बातों-बातों में उससे पूछा, "दिनेश तो हमेशा, छुओ तो मैली हो जाये, ऐसी बीबी लाऊँगा-कहता था फिर ये...? आपको तो वजह बताई होगी, बस पैसे के लिए? निबाह लेगा वो?" इसके जवाब में उसने बड़ी संजीदगी से कहा, "अरे अब वजह क्या होगी। सोचता तो इंसान बहुत कुछ है, सब कुछ होता कहाँ है? वैसे नैन नक्श तो अच्छे हैं, अच्छी लगती है।"

आखिर सगाई का दिन आ गया। दिनेश के पिता ने मिस्टर बंसल यानी शिप्रा के पिता से एक बड़ी-सी रकम पहले ही एक बंद कमरे में ले ली थी। पता नहीं दिनेश को सही रकम का अंदाज़ा भी था या नहीं। ढेर सारे मिठाइयों और फलों के थाल, दिनेश के सूट, चैन, घड़ी और अन्य उपहारों के साथ लड़की वाले आ चुके थे। मिस्टर बंसल अपनी सेठ वाली इमेज के विपरीत पूरे फंक्शन में चेहरे पर विनम्र मुस्कान चेपे हाथ जोड़े ही नजर आये। एक दूसरे को अंगूठी पहनाते शिप्रा ने एक-दो क्षण को दिनेश को देखा और नजरें फिर नीची कर लीं। दिनेश के चेहरे पर वही मोहक मुस्कान थी जिसके साथ वह आसानी से सामने वाले का विश्वास जीत कर फिर उसे टोपी पहनाता था। हल्के गाजरी रंग के फ्रिल वाले गाउन और मैचिंग ज्वैलरी में शिप्रा सुंदर नहीं तो आकर्षक ज़रूर लग रही थी। शिप्रा के चेहरे की मासूमियत ने संजय के दिल में फिर से एक खलबली-सी मचा दी थी। इस लड़की को और इसके हाथ जोड़े खड़े बुजुर्ग माता-पिता को जरा-सा भी अंदाजा नहीं कि उनके साथ कौन-सा खेल खेला जाने वाला है।

संजय ने शिप्रा के साथ बैठे दिनेश से ज़रा ऊंची आवाज में कहा, "साले भाभी को 'आई लव यू' भी बोला या नहीं। दिनेश ने जवाब दिया," अरे बोल रहा हूँ, तू क्यों मरा जा रहा है। "फिर शिप्रा कि ओर मुखातिब हो उसका हाथ हल्के से अपने हाथ में ले बोला-" आई लव यू। "

अब संजय शिप्रा के पीछे पड़ गया–"भाभी जवाब तो दो।"

शिप्रा ने शर्माते हुए "मी टू" बोला तो दिनेश ने दिल पर हाथ रखकर सर पीछे फेंकते हुए इस तरह 'हाय' बोला कि संजय को उसका एक डायलॉग याद आ गया-"जानी! हम तो सामने वाले की अंतड़ियाँ भी निकाल ले तो उसे पता न चले।"

दिनेश की ओर से गोद भराई में मात्र चार साड़ियाँ, पतला-सा सोने का एक सैट और बस एक डब्बा मिठाई का था। न फल, न मेवा, न ऐसे अवसर पर दिया जाने वाला अन्य सामान, न शिप्रा के भाई बहनों के लिए कोई उपहार। जिसे देखकर न केवल शिप्रा समेत वधु पक्ष के सभी लोगों के मुँह लटक गए बल्कि वर पक्ष वाले भी हैरान थे। वधु पक्ष की ओर बस थोड़ी-सी कानाफूसी हुई और फिर सब सामान्य-सा हो गया।

संजय हैरान था कि मात्र साँवले रंग का इतना बड़ा खामियाजा?

खैर सगाई का फंक्शन खत्म हो गया था। लड़की वालों ने वर पक्ष की ओर से आये प्रत्येक बड़े-बूढ़े से लेकर बच्चों तक को उसी विनम्रता के साथ झुकते हुए यथायोग्य शगुन दिए। उसे फ़िल्मों में देखे गरीब किसान से सूद के पैसे वसूलते जमींदार के दृश्य याद आ रहे थे। लेने और देने वालों के मुख के भाव बस उन्हीं से सूट कर रहे थे

संजय और उसकी पत्नी दोनों को लिफाफे मिले थे, जो उन्होंने बैड की साइड-टेबल की दराज़ में रख दिए। शादी के तीन दिन बचे थे। दिनेश की तरफ से कोई तैयारी दिखाई नहीं दे रही थी आखिर नकली शादी के लिए कोई खर्चा क्यों किया जाये। तो क्या दिनेश की माँ और बहन भी इस प्लानिंग में शामिल है? संजय को लगा था यह सिर्फ़ बाप-बेटे के बीच की प्लानिंग है, जो उस पर जिगरी दोस्त होने के नाते ज़ाहिर कर दी गयी है। लेकिन अब लग रहा था, पूरा परिवार ही जैसे इस षड्यंत्र में शामिल है।

वो दिन संजय के लिए बड़ी बेचैनी भरा रहा। पूरा दिन और रात शिप्रा का मासूम-सा चेहरा, शर्मीली मुस्कान और उसके माता पिता के जुड़े हुए हाथ उसकी आँखों के आगे घूमते रहे। सुबह जैसे ही संजय ने एम्पोरियम के लिए निकलने से पहले अपना चश्मा लेने के लिए बैड की साइड-टेबल खोली उन लिफाफों में उसे वही जुड़े हाथ नज़र आने लगे। अचानक उन लिफ़ाओं पर एक जोड़ी ऑंखें उभर आयी जिनमे आँसू भरे थे। संजय को लगा वह आँखे उससे कुछ याचना-सी कर रही है।

" उंहूँ, मेरी क्या लगती है शिप्रा? जो उसकी किस्मत में लिखा है, शायद वही हो रहा है उसके साथ। नियति के न्याय पर आपत्ति जताने वाला वह कौन होता है। उसने सर को एक हल्का-सा झटका दिया। शिप्रा और उसके परिवार के प्रति संवेदनाओं को झाड़ कर और चश्मा लेकर संजय अपने एम्पोरियम के लिए निकल गया।

एम्पोरियम पहुँच कर उसने आदतन अपनी टेबल पर रखे पेपरवेट को घुमाया ही था कि उसके नीचे दबे कागजों के टुकड़े इधर-उधर उड़ गए। उन्हें उठाते-समेटते वह एक्सपोर्ट की ख्याली लिस्ट उसके हाथ आ गयी। लाल पेन से लिखे कुछ अक्षरों पर शायद पानी की कुछ बूँदे गिर गयी थीं सो वहाँ स्याही फ़ैल गयी थी।

संजय को ऐसा महसूस हुआ कि ये एक्सपोर्ट की जाने वाली वस्तुओं के नाम नहीं शिप्रा कि आँखों से निकले खून के आँसू है। संजय से अब और सहना मुश्किल हो चला। उसने उस लिस्ट के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। उसके हाथों की नमी से कुछ और अक्षरों की स्याही फ़ैल गयी।

संजय ने फोन डायरेक्टरी निकाली, उसमें से बंसल वाले पृष्ठ से एक नंबर ढूँढा और पास की टेलीफ़ोन बूथ की ओर चल दिया।