कर्ज़ / अंजू खरबंदा

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“सर! बारह हजार रुपये एडवांस चाहिए ।” चपरासी रामचंद्र ने चाय का प्याला एकाउंटेंट की टेबल पर रखते हुए कहा ।

“अभी पिछ्ले हफ्ते ही तो तीन हजार एडवांस लिये, इस हफ्ते दुबारा…. पूरी तन्ख्वाह तो ऐसे ही उड़ जाएगी तुम्हारी!” एकाउंटेंट साहब त्योरियां चढ़ाते हुए बोले ।

“सर पिछ्ले हफ्ते तो बिटिया के एडमिशन का फॉर्म भरना था, इस हफ्ते फीस भरनी है!” रामचंद्र की आंखों में सुनहरी चमक देख एकाउंटेंट साहब ने उँची आवाज़ में डांटा-

“तो अगला महीना फाँकों में काटोगे क्या! बेटी के लिये अपनी तन्ख्वाह कौन ऐसे उड़ाता है भला!”

“न न सर बेटी हो या बेटा ! हैं तो मेरे ही बच्चे न! अगले महीने की चिंता रब करेगा ।” रामचंद्र के स्वर में निश्चिंतता थी ।

“बेवकूफ कहीं का !” चाय का प्याला होंठो से लगाते हुए एकाउंटेंट साहब मन ही मन बुदबुदाये ।

“महेश! रामचंद्र को मेरे केबिन में भेज दो।” अपने केबिन के शीशे से ये नज़ारा देख बड़े साहब ने अकाउंटेंट साहब को टेलीफोन पर कहा ।

“जाओ बड़े साहब अंदर बुलाते हैं । अब वही सीधा करेंगे तुम्हें!” अकाउंटेंट साहब की धूर्त्तता उनकी आँखों में उतर आई ।

“नमस्ते साहब!” बड़े साहब के केबिन में दाखिल होते हुए रामचंद्र ने घबराहट से कहा ।

“नमस्ते ! एडवांस चाहिए तुम्हें !” बड़े साहब की रौबीली आवाज केबिन में गूँजी ।

“जी ! बेटी की पढ़ाई के लिए साहब ! पढ़ने में उसकी बहुत रुचि है । बड़ी अफसर बनना चाहती है!” रामचंद्र की आवाज़ लरजा गई ।

“हम्म !” बड़े साहब विचारमग्न हो गए । कमरे में घोर सन्नाटा पसर गया।

“साहब ! एडवांस मिल जाता तो….!” हिम्मत कर रामचंद्र ने मानो जबरदस्ती शब्द मुँह से बाहर निकाले ।

“ये लो !” दराज खोल बड़े साहब ने एक लिफाफा निकाला, उसमें रुपये रखे और लिफाफा रामचंद्र की ओर बढ़ा दिया ।

“ये क्या है साहब!” बेसाख़्ता मुँह से शब्द निकले ।

“तुम्हारी बेटी की पढ़ाई का खर्चा! अब तुम्हें किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं!”

“पर …..!”

गहरी चिंता की लकीरें मस्तक पर आ विराजमान हो गई । मन में सौ सौ प्रश्न कुलबुलाने लगे ।

“क्या सोच रहे हो कि कैसे चुकाओगे ये कर्ज!”

“…..” अब रामचंद्र के मुँह से एक शब्द न फूटा! जुबान तालू से चिपक गई हो जैसे ।

“चिंता मत करो ! तुम्हें नहीं चुकाना ये कर्ज !”

बड़े साहब ने रहस्य भरे अंदाज में कहा तो रामचंद्र की रही सही हिम्मत भी जवाब दे गई । जी में आया बोल दे- “साहब हम गरीब ज़रूर हैं ,पर बेग़ैरत नही ।”

पर प्रत्यक्ष में कुछ न बोल पाया । अचानक बड़े साहब की रौबीली आवाज से उसकी तंद्रा टूटी ।

“….बस अपनी बिटिया को मेरी तरफ से इतना कहना, जब पढ़ लिखकर काबिल बन जाए, तो ऐसे ही किसी जरूरतमंद की मदद कर दे! तब हो जाएगा तुम्हारा कर्ज चुकता!”

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