कर्ज़ / लता अग्रवाल

Gadya Kosh से
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दोपहर को घर के काम से निवृत हो कुछ देर लेटी ही थी कि अचानक फ़ोन की घंटी घनघना उठी,

"हैलो दीदी! ... मैं राधिका।"

"हाँ! कहो राधिका।"

"दीदी! एक बुरी ख़बर है।"

"बुरी ख़बर! क्या हुआ जल्दी बोल, घबराहट हो रही है।" मैं बैचेन हो बोली।

"वो... बाबा चल बसे।"

"कब?"

"अभी 1: 45 पर।" घटना कोई अप्रत्याशित नहीं थी मगर फिर भी सुनकर दिल को आघात लगा। बाबाजी यानी दीनानाथ जी लगभग 100 की उम्र पार कर चुके थे और पिछले कुछ दिनों से उनका स्वास्थ्य भी ठीक ना था। सो यह तो होना ही था, मुझे फ़िक्र अब अंकल गिरधारी लाल जी की हो रही थी। गिरधारी लाल जी उनके मुँह बोले बेटे थे। पिता की उम्र के होने से मैं उन्हें अंकल कहकर बुलाती हूँ। मगर बाबा को लेकर उनकी जो भावनाएँ थी वह किसी अनगढ़ अबोध बालक की तरह थी। अतः शाम का सारा काम अग्रिम समेटकर मैंने अंकल के घर की राह ली। रास्ते भर सोचती रही कि आज भी दुनिया में कुछ रिश्ते ऐसे हैं जिनकी मिसाल दी जानी चाहिए; जिनके सामने खून के रिश्ते भी बोने से लगने लगते हैं, ऐसा ही रिश्ता था बाबा और अंकल के बीच जैसे ही मैं उनके घर पहुँची देखा किसी 5 वर्ष के बच्चे की भांति वे बिलख-बिलख कर रो रहे हैं उन्हें धीरज बनाना बहुत मुश्किल था। होता भी क्यों नहीं 5 वर्ष की उम्र से उन्होंने जीवन में रोटियाँ कम खाई होंगी और पीड़ाएँ अधिक पाई थी मगर हार कभी नहीं मानी, मानते भी कैसे; बाबा के मज़बूत साए की छाया जो उनके साथ थी और आज वही बाबा उन्हें अकेला छोड़ हमेशा-हमेशा के लिए चले गए उनके लिए तो मानो जग सूना हो गया।

अब किस से अपना सुख-दुख बाटेंगे सब कुछ होते हुए भी कोई भी तो नहीं है उनका अपना कहने को, दुनिया के इस मेले में नितांत अकेले हैं। यह दास्तान ही कुछ ऐसी है जिस पर यक़ीन करना थोड़ा मुश्किल होगा, मगर जीवन की इस सच्चाई को बहुत करीब से देखा है मैंने, यूँ तो अंकल किसी के सामने अपना दुख नहीं बांटते किन्तु कम ही समय में मेरे परिवार से इतना घुल मिल गए थे कि कभी मूड आने पर जीवन के फ्लैशबैक से कुछ पन्ने हमारे बीच खोल कर रख देते। सच कहूँ तो इन प्रसंगों ने मुझे इतना प्रभावित किया है शायद इसी वज़ह से ख़ुद को रोक न सकी और उन्हीं कथनों को समेटकर रिश्तों की अनूठी हक़ीक़त को शब्दों का जामा पहनाकर आपके सामने रखने का प्रयास कर रही हूँ।

कुछ धुंधली-सी यादें हैं अंकल को अपने माता-पिता की क्योंकि जिस समय उनकी मृत्यु हुई थी वह महज़ 5 वर्ष के थे गाँव में ऐसी बीमारी फैली कि दो ही दिन में उनके सिर से माता-पिता दोनों का साया उठ गया पहले बीमारी ने उनकी माँ को छीना अभी माँ की चिता की आग ठंडी भी नहीं होने पाई थी कि पिता भी चल बसे। उन्हें आज भी शमशान का वह दृश्य भुलाए नहीं भूलता जब उनके नन्हें हाथों से गाँव वालों ने पिता की चिता को अग्नि दिलवाई थी। चिता अभी जल रही थी और वे चिता के पास अनजान से खड़े थे शायद जीवन की इतनी बड़ी घटना को समझ ही नहीं पा रहे हों कि अचानक भीड़ में जमा लोगों में चर्चा होने लगी,

"केतरो बदनसीब है बछरा कैसिन फूटी क़िस्मत पाई रहिन, इत्ती-सी उमरिया में माय-बाप दुईयन ख्वोय दये। अबे कौउन सहारा भी नाहि, कौउन सहारा भी नाहि, कौउन धरोहर भी नाहिन के कौनहू पालि लेब, का हुइबे या बछरा को।" इतने में भीड़ से एक ऊँचा स्वर आया,

"याए भी डारि दो अग्गी में और कौनउ उपाय नाहिब।" कहते हैं अंकल के पिता की मौत से भी इतने नहीं रहे थे जितना उस व्यक्ति की बात सुनकर, सो मारे घबराहट के ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। दरअसल पिता के जाने का दर्द क्या होता है यह तो उन्हें पता नहीं था मगर आग में गिरने या आग में जल जाने की पीड़ा का एहसास था उन्हें, बस इसी की कल्पना से वे इतने भयभीत हो गए कि जोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दिया है। तभी भीड़ में एक देवता स्वरूप इंसान आगे आए, मेरे सामने घुटने के बल बैठ गए और मुझे घुटने पर बैठाकर मेरे आँसू पोंछते हुए बोले,

"हमहि पालिलेब या बछरा कू, चला-चलो इब इहाँ ते।" नन्हा-सा मैं असहाय उनसे लिपट गया, भगवान क्या होते हैं, कैसे होते हैं, मुझे नहीं पता मगर उस पल लगा कि मानो भगवान ही मिल गए हों और इस जीवन रक्षक की ऊंगली थामे मैं उनके साथ-साथ चल पड़ा। बस वह पहला दिन था बाबा से मेरे मिलन का। ईश्वर की कृपा पर कुछ भरोसा-सा होने लगा था मुझे। लगा कि ईश्वर ने एक सहारा छीन कर दूसरा सहारा दे दिया शायद यही विधि का विधान हो। मगर कहाँ जानता था कि अभी ज़िन्दगी में बड़े-बड़े इम्तिहान देना बाक़ी हैं। यह तो जंग के आरंभ होने का ऐलान भर था। बाबा जैसे ही मुझे लेकर घर पहुँचे उनके साथ किसी अनजान बालक को देखकर बाबा की पत्नी यानी 'माँ साहब' और उनकी तीनों बच्चे बाबा की ओर इस तरह देख रहे थे जैसे जानने को उत्सुक हों कि यह अनजान शख़्स कौन हैं ...? बाबा ने उत्तर में सारा वृत्तांत कह सुनाया। यह जानकर कि यह कुछ देर का मेहमान नहीं बल्कि उम्र भर के लिए इस परिवार का हिस्सा बनने आया है बच्चों के चेहरे मायूस हो गए। माँ साहब की तो मुखाकृति ही अचानक कठोर हो गई, उन्होंने बगैर मेरी उपस्थिति का एहसास किए ज़ोर-ज़ोर से कहना शुरू कर दिया,

"का तुमई एकले रहिएँ जो उठा लाए बछरा कू, सगला गाँव उहाँ रहिए तबे तुमए का परी रइ इ धर्म निभा ही के, कोनउ दूर को रिस्तेदार भी नाहि।" और मुझे घूर कर देखते हुए बोलीं,

"इ भी काहे नाहि मरिग्यो माय-बाप ना का संग, इब हमार माथे पड़ि हैं, मनहूस कहीं को, माय बाप ने खाए इब हमहि बर्बाद करने आए गयो...इहाँ कौनउ खजाना गढ़ियें सो पालिहैं।" और पैर पटकती हुई घर के अंदर चली गईं। बच्चे भी कुछ देर मुझे अजनबी निगाहों से घूरते रहे फिर वह भी अपनी राह चल दिए। मानो कह रहे हों तुम कहाँ से आ गए हमारा हिस्सा बांटने। तब बाबा ही थे कि तमाम विरोध के बावजूद हँसते हुए मेरे पास आए जैसे कुछ हुआ ही न हो और बड़े स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,

"आ बछुरा तने न्हवाय दूँ, फेर कछु खाय पिय लेब, भूख लगीन रही होय।" इस तरह किसी के ना चाहते हुए भी मैं इस परिवार का हिस्सा बन गया और परिवार वालों की आँखों की किरकिरी भी। फिर शुरू हुआ बाबा के साथ मेरा नया जीवन, बाबा ने मेरा नाम भोलू रखा और मुझ पर रहम खा मेरा दाखिला भी अपने बच्चों के साथ स्कूल में करा दिया। वे पूरा ध्यान रखते हैं कि स्कूल में कोई मुझे परेशान ना करे, इतना ही नहीं वहाँ जाकर मेरे अध्यापक से कहते,

"भोलू बेचारो एकला हुई हैं मास्टर जी ओके माय-बाप जोन ...वाके संगे थोड़ी नरमी बरतियो।" ख़ुद तो पढ़े लिखे थे नहीं मगर मेरी फ़िक्र वे अपने बच्चों से भी बढ़कर करते। सोचता हूँ ना जाने कौन-सा बंधन है बाबा के साथ मेरा जो शायद एक माँ के गुजर जाने पर पिता का भी अपने बेटे के साथ नहीं होता। वे ध्यान रखते,

"भोलू कैसन पढ़ीबे ...? पढ़ीबे कि नाय..." जाने कहाँ से अख़बार और किताबों से अंग्रेज़ी की कतरनें इकट्ठी करते और मुझसे कहते इसे पढ़, जिससे तू अंग्रेज़ी सीखेगा जब अंग्रेज़ी सीखेगा तभी तो बड़ा अफसर बनेगा। मुझे अफसर या नेता के रूप में देखने का बाबा का शुरू से ही बहुत मन था, इतना ही नहीं परीक्षा के दिनों में रातों को मेरे साथ जागते ताकि कहीं मैं सो न जाऊँ और सुबह जब पेपर दे रहा होता, बाबा स्कूल के बाहर बैठ भगवान से मन्नते माँग रहे होते, मेरे पास होने के लिए, ऐसे में जब कोई बच्चा पेपर देकर बाहर निकलता तो उससे पूछते,

"कायरे पेपर जोन कठिन तो नाय हतो, हमार भोलू कच्छु लिखबे की नाय ।" बच्चे बाबा की आदत से अच्छी तरह वाकिफ थे वे बाबा का मेरे प्रति लगाव समझ नहीं पाते सो उन्हें बाबा को परेशान करने में बड़ा मज़ा आता। वे बाबा को परेशान करने के लिए कहते,

"बाबा तमारे भोलू से कई भी नी बन्यो वह तो ओस्योई बैठ्यो है। इब तो बाबा तमार भोलू फेल हुइ जै हैं, वह तो नी पास होने को।" बस फिर बाबा की बेचैनी देखते बनती थी, जब मैं पेपर देकर बाहर निकलता बरस पड़ते मुझ पर,

"क्यों रे, तने कितनी बैर केऊँ पढ़ीले-पढ़ीले इब फेल हुइ गो नी।" मैं पूछता,

"तमारे कौन कियो?" वे उलझन भरे चेहरे से कहते,

"म्हारे छोरा हुन सब बताइ ग्या थारे कइ भी नी बन्यो, इब तो तू फेल हुए जै हैं।" तब मैं उल्टे बाबा पर बरस पड़ता,

"बाबा मैं तमारे कित्ती बेर कियो म्हारा स्कूल मती आया करो, ये छोकरा हुन तमारो मज़ाक बनाए, म्हारे अच्छ्यो नी लगे।" मगर बाबा का प्यार था वह कब मानने वाले थे। जब भी घर में कुछ खाने को लाते तो अलग से एक छोटी-सी पुड़िया और बनवा कर लाते और घर के बाहर कबेलू या मांच पर छुपा कर रख देते क्योंकि जानते थे कि माँसाहब मुझे बराबरी का हिस्सा नहीं देंगी। फिर मुझे अकेले में बुलाकर बड़े प्यार से वह पुड़िया थमाकर कहते,

"जल्दी से खई ले तने कम मिल्यो होयगो नी।" ऐसे में मैं अपने को धन्य मानता, सच है इतने निश्चल प्रेम के सामने माता-पिता का प्यार कहाँ याद आता। समय बीतते-बीतते मैं 14 बरस का हो गया, बाबा के बच्चे भी अब बड़े हो गए थे। मेरे प्रति बाबा का स्नेह जाहिर है; उन्हें अपने प्यार पर डाका लगता सो घर में अब मुझे लेकर आए दिन कलह होने लगी, हम उम्र बच्चे कहीं कुछ ऊँच-नीच कर बैठे अतः बाबा ने सोचा किसी पैसे वाले घर मेरा रिश्ता हो जाए, कोई मुझे घर जमाई रख ले ताकि मेरा भविष्य संवर जाए किंतु जहाँ भी चर्चा होती लोग पहले परिवार के बारे में पूछते हैं और यह मालूम होने पर कि मैं अनाथ हूँ लोग अपनी बेटी देने से इंकार कर देते। (यह वह दौर था जब लोग अपनी बेटी भरे-पूरे घर में देना चाहते थे) बाबा का प्रयास जोर-शोर से जारी था तब किसी से बाबा को मालूम हुआ कि पास के गाँव में एक संपन्न किसान हैं जिसकी एक बेटी है और वह किसान सूरदास है साथ ही उसकी पत्नी भी स्वर्गवासी हो चुकी है। बस फिर क्या था बाबा को मानो मन की मुराद मिल गई हो उन्होंने देर न करते हुए यह रिश्ता तय कर दिया और मेरा ब्याह हो गया, मैं ससुराल आ गया।

जीवन में कुछ ठहराव के आसार दिखाई दिए मगर भाग्य की विडंबना देखिए मेरे अंधे ससुर जी का दिल बुढ़ापे में उछाले मारने लगा; उन्हें विवाह का जोश चढ़ा पैसों की कोई कमी न थी तो जल्द ही कुंवारी कमसिन कन्या भी मिल गई उस 45 साल के प्रौढ़ को, उनका पुनर्विवाह हो गया, देखते ही देखते सासु माँ की गोद हरिया गई। घर में एक साले का आगमन हो गया, जाहिर है अब उस घर में मैं जिस कमी को पूरा कर रहा था उस कमी को पूरा करने उसी घर का स्थायी सदस्य आ गया सो हम दोनों पति-पत्नी सौतेली सास की आँखों की किरकिरी बन गए तक़दीर ने एक बार फिर धोखा दे दिया परिस्थितियाँ साफ़ संकेत देने लगी कि इस घर से अपना दाना पानी उठ गया है तो फिर एक दिन अपनी पत्नी को लेकर बाबा की शरण में पहुँचा मगर इस बार बाबा के परिवार ने मुझे किसी हाल में स्वीकारने से इंकार कर दिया। वहाँ स्थितियाँ बदल चुकी थी नहीं बदला तो बाबा का प्यार, उन्होंने घर की चोरी से मेरे अलग रहने का इंतज़ाम कर दिया। वे जितना संभव हो सके मेरी मदद करते, बाबा को मेरे साथ हुए हादसे का बहुत दुख था, घर के लोग जो मुझे पहले ही अपशगुनि मानते थे इस घटना ने उन्हें और भी कहने का मौका दे दिया मगर बाबा हर वक़्त मुझे दिलासा देते,

"सब ठीक हुइ जै हैं रे भोलू ...फिकर को नी।" परिस्थितियों से समझौता कर उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए प्रेरित किया मेरे लिए बाबा की इच्छा देवी इच्छा थी सो मन लगाकर पढ़ाई की बाबा के अफसर बनने का सपना जो पूरा करना था, मेरी मेहनत और बाबा की दुआ रंग लाई, मुझे बैंक में नौकरी मिल गई जीवन में फिर कुछ ठहराव आया बाबा अब खुश रहते हैं कि उनका भोलू अब किसी के आश्रय नहीं रहा, मैं पढ़ाई का महत्त्व जान गया था तो मैंने अपनी पत्नी को पढ़ाना आरंभ किया उसे उच्च शिक्षा दिलाई संयोग से उसे भी बैंक में अच्छी नौकरी मिल गई परिवार में दो बेटों का आगमन हुआ। बाबा से मेरे सम्बंध आज भी वैसे ही थे, मैं उनके लिए वही भोलू था मेरी मेहनत को देखते हुए मुझे जल्दी ही बैंक में पदोन्नति मिल गई, मैं मैनेजर हो गया सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि एक दिन ख़बर आई माँ साहब चल बसी।

अब मैं बाबा के प्रति और संजीदा हो गया उनका अकेलापन बांटने अक्सर उनके पास जाने लगा एक दिन मैंने महसूस किया कि बाबा तकलीफ में है सिर्फ़ मुझे एहसास ना हो इसलिए मेरे सामने मुस्कुराते रहते हैं, एक तो उम्र का दौर दूसरे अस्वस्थता, उस पर बच्चों की उपेक्षा ने उन्हें तोड़ कर रख दिया, बाबा अंदर ही अंदर बहुत दुखी रहने लगे थे शायद बच्चे बाबा से मेरे इस स्नेह का बदला ले रहे हैं मुझसे कैसे सहा जाता...? नहीं ...नहीं मैं अपने बाबा को ऐसे नहीं छोड़ सकता मैंने निर्णय ले लिया मैं बाबा को अपने पास रख लूँगा। जब मैं बाबा को लेकर घर पहुँचा तो मेरे घर नियति ने वही किस्सा दोहराया जो बरसों पहले बाबा के घर मेरे जाने पर हुआ था। तब मुझे एहसास हुआ कि यदि 'दुनिया में औरत ना होती तो महाभारत ना होती' पत्नी ने बाबा को घर लाने पर साफ़ नाराजगी जाहिर की मगर मैं कैसे भुला सकता था बाबा का वह प्यार जो उन्होंने अपने बच्चों के हिस्से से निकाल कर मुझे दिया माता-पिता के ना होते हुए भी मुझ अनाथ को इतना दुलार..., वह उनका स्कूल के बाहर घंटों मेरे इंतज़ार में चहलकदमी करते बिताना, खुरदुरी ज़मीन में 3-3 दिन घंटे बैठे रहना; लगता था जैसे वह हर पल बस मेरे बारे में ही सोचते थे एक अनजान बच्चे की खातिर अपने परिवार से विद्रोह... इतना ही नहीं हर मुश्किल लाम्हातों में मेरे सर पर मानो विशाल बरगद की भांति घनी छाया किए खड़े रहे, मुझे धूप का एहसास ना होने दिया। उनका यह सूक्त वाक्य मुझे हमेशा दिलासा देता,

"बछुरा कोनउ चिंता ना ए, सबै ठीक हुई जै हैं।" उन्हीं की बदौलत मैंने ज़िन्दगी के सारे इम्तिहान हंसते-हंसते पास कर लिए, यह उनके वह कर्ज़ हैं मुझ पर जिससे मैं किसी भी क़ीमत पर उऋण नहीं हो सकता... सीधे शब्दों में कहूँ तो मैं बाबा को नहीं छोड़ सकता था। मगर घर के हालात थे कि समझ से बाहर हो रहे थे अतः मैंने अपना तबादला शाजापुर करा लिया और बाबा को साथ ले आया इस बीच परिवार की जिम्मेदारियाँ बराबर निभाता रहा उनसे मिलने घर भी जाता मगर पति और बच्चे कभी मुझसे मिलने हमारे घर नहीं आए उनकी एक ही शर्त थी बाबा को छोड़ दो; जो मुझे किसी भी क़ीमत पर मंजूर नहीं थी। यह सिलसिला बरसों चला उन्होंने मुझे एहसास करा दिया कि उन्हें मेरी नहीं मेरे पैसों की ज़रूरत है मैं बराबर पैसे भेजता रहा इस बीच में रिटायर भी हो गया कॉपरेटिव बैंक में होने से पेंशन का कोई प्रावधान नहीं था। पत्नी तब तक बैंक में मैनेजर हो गई थी दोनों बेटे नौकरी पर लग गए उनकी शादी ब्याह भी हो गए जिसमें मेरी उपस्थिति मात्र शास्त्र सम्मत ही रही।

सब कुछ ठीक था मगर घर भर को बस एक ही चिंता थी कि कहीं मैं अपना पैसा बाबा पर न लुटा दूँ, बाबा को लेकर ऐसे भाव मुझे दुखी करते; दरअसल वे अब तक बाबा और मेरे रिश्ते की पाकीज़गी को समझ ही नहीं पाए थे। बाज़ार की इस दुनिया में उन्हें हमारा रिश्ता भी बाजारू लग रहा था। तो ऐसे बौने आरोप-प्रत्यारोपों से बचने के लिए मैंने अपना सारा बैंक बैलेंस घरवालों के हवाले कर दिया और शायद इसीलिए अंकल ने एक प्राइवेट नौकरी कर ली जिससे उनका और बाबा का ख़र्च बमुश्किल ही चल पाता था इस बात की गवाह मैं भी हूँ कि बाबा को रोज़ दूध मिल सके इसलिए कई बार अंकल को अपने एक समय के खाने में कटौती करनी पड़ती, स्वाभिमानी इतने कि बाबा के अलावा और किसी का एहसान गवारा नहीं मगर वे दोनों एक दूसरे का सुख-दुख बांट कर खुश थे। बाबा अब भी मेरा उतना ही ध्यान रखते जितना बचपन में रखते थे,

"अरे भोलू रोटी खाई कि नी, के बेर है गई, भूख लगी होय रे, केतरो काम करे बीमार पडिग्यो त।" कभी मुझे सुस्त या उदास देखते तो फौरन अपना हाथ कभी मेरी गर्दन को छू कर तो कभी मेरी हथेली को हाथ में लेकर कहते,

"भोलू थारी तबीयत तो भली है नी, तू उदास-उदास क्यूँ रे दिखाय? ले तने दूध में रोटी चूर दूँ खाय कई ...?" मेरे मन का एक-एक भाव बाबा मानो माँ की तरह पढ़ लेते थे, आज वही जीवन का एकमात्र सहारा बाबा मुझे अकेला छोड़ कर चले गए, अब कौन है भला जो मुझे पुकार कर हक़ से कहेगा कि,

"रे भोलू रोटी खाई कि नी, तू कसो परेशान दिखाएँ ...?" अब जब मैं जीवन की उलझन में हिम्मत हार रहा हूँगा तब कौन मेरे कंधे पर हाथ रख कहेगा,

"भोलू चिंता की कोनउ बात नइ ... सबै ठीक हो जै हैं, ..." कौन मुझे हौसला देगा, ऐसा नहीं कि अंकल जीवन-मरण के तथ्य से अनजान हैं फिर बाबा 102 से 104 साल के बीच की अवस्था में थे तो उनका जाना तो तय था ही मगर यह आत्मीयता थी जो भुलाए नहीं भूलती थी बार-बार घुमड़ कर उठती। किसे सुनाऊंगा मैं अपनी ख़ुशी और ग़म ...? कौन है अब जो मेरे टूटे हुए आत्मबल को अपने स्नेह की छाया देगा ...? अब तो बस यह कमरा है, मैं हूँ और हैं बाबा की यादें। जो मुझे रह-रहकर यह स्मरण दिलाती है कि मैं भोलू कब का आग के हवाले कर दिया गया होता अगर बाबा ना होते मेरा यह जीवन बाबा का ही कर्ज़ है कभी ना चुका सकने वाला कर्ज़।