कर्म फल / गोपाल चौधरी

Gadya Kosh से
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बहुत साल बीत गए। कोपाल अब बूढ़ा हो चला। नहीं, वह नहीं! उसका तन हुआ है। मन नहीं: वह नहीं! पर कोई तो हुआ है!

वह अब पहाड़ों पर वानप्रस्थ-सा जीवन बीता रहा होता! अपनी पत्नी के साथ। दोनों बच्चे विदेश में बस गए थे।

मथुरा से उस रात भाग कर वह गुमनाम जिंदगी जीने लगा। उसे डर था: कहीं उसे खत्म न कर दिया जाय। परिवार सहित। किसी अज्ञात जगह चला गया अपने परिवार के साथ। पहले खुद गया। फिर परिवार को बुलाया। चपके चुपके रातो रात!

हर जगह खतरा हो गया था। उंची जाति के लोग, सरकार और पूरा तंत्र पहले से उसके खिलाफ था। अब तथाकथित अपने भी!

पर अज्ञातवाश मे-जो नेपाल की तराई में कहीं पर था—अपने नए प्रोजेक्ट, ' एक दुनिया एक सरकार" , पर काम करता रहा।

सब कुछ हो जाने के बावजूद! कोपाल को विश्वास था नितेश पर। वह जरूर जाति तोड़ आंदोलन को सफल बनयेगा। इसमे उसे अपना राजनीतिक भविष्य नज़र आ गया था। तभी तो कोपाल को रास्ते से हटा कर अपने नाम सब कुछ करना चाहता था!

पर कम से कम जाति तोड़ आंदोलन को तो जरूर सफल बनाएगा!

एक दिन कि बात है! कोपाल बाज़ार से गुजर रहा होता। उस दिन पता नहीं क्यों! उसे कारतीय समाचार पत्र देखने की इच्छा हुई। सामुदायिक हाल के पास के किताबों के दुकान से दो तीन पेपर खरीद लिए।

पर जब हेडलाइन पर नज़र पड़ी तो कारत के प्रधान मंत्री का फोटो छपा दिखा और वह फोटो नितेश का ही था।

और उसका वक्तव्य छपा था: ये जाति व्यवस्था, यह वर्ण व्यवस्था हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर है! इसने हजारो साल से हमारी रक्षा की है! इसके कारण ही आज हम बचे हुए हैं! नहीं तो... अतः जाति व्यवस्था के खिलाफ कुछ भी बोलना या करना राष्ट्रद्रोह होगा।

आगे कोपाल कुछ नहीं पढ़ पाया। एक शून्य-सा छा गया। उसके पैरों के नीचे से जमीन खसकती-सी लगी। उसका जीवन ताश के पत्तों की तरह गिरता हुआ नज़र आया।

क्या उसे फिर से जन्म लेकर आना पड़ेगा? या शायद कोई इस काम को पूरा करे? पर कब? कौन और कैसे?

क्या हमारा देश, समाज, संस्कृति और सभ्यता इसी तरह धीरे-धीरे सिमटती, सिकुड़ती जाएगी... और एक दिन..., या कोई आधुनिक संस्कृत इसे आत्मसात कर लेगी ।

और हम पानी पर खिची लकीर की तरह कही नहीं होंगे या हर जगह होंगे!

जब आधुनिक युग की दो तथाकथित आधुनिक संस्कृतियाँ सबको आत्मसात करना चाहती होती। अपना आपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती। शायद उसी तरह जैसे कारत की दो ऊंची जातियो ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कारत को क्षत विक्षत कर दिया!

पर कोई बात नहीं... पानी पर खिची लकीर की तरह सभी है... हर जगह हैं पर कही नहीं... जो हर जगह होता वह कही नहीं होता!

पर जो कार्य शुरू हो चुका है: वह अब कर्ता, कारक और कारण से परे हो गया है! अनंत कार्य और कारण शृंखला का हिस्सा बन चुका है!

'उधो! कर्मण की गति न्यारि...'