कलकत्ते की याद और प्रियदर्शी प्रकाश / अशोक अग्रवाल

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‘भूत लेखकों’ की विचित्र दुनिया से पचास साल पूर्व मेरा पहला परिचय कराया प्रियदर्शी प्रकाश ने। वस्तु जगत में जिसे आपकी आँखें देख नहीं सकतीं, कान उसका स्वर नहीं सुन सकते और अंगुलियाँ जिसका स्पर्श नहीं कर सकतीं, उसे ही ‘भूत’ की संज्ञा प्रदान की गई होगी और वह भूत बिना रुके-थके आपको रोमांस-रोमांच के लम्बे-लम्बे आख्यान सुनाता चला जाए तो उसे ‘भूत लेखक’ ही कहा जाएगा।

जब उसने बताया कि वह भी ऐसा एक ‘भूत लेखक’ है, जिसके एक नहीं अनेक नाम और चेहरे हैं, तो मेरे विस्मय की सीमा न रही। कलकत्ता से प्रकाशित ‘गल्प भारती’, ‘ज्ञानोदय’ और कई अन्य लघु पत्रिकाओं में मैं उसकी कहानियाँ पढ़ चुका था, इसी तरह वह भी मेरी कहानियाँ। पहली दफा आमना-सामना होने के बावजूद हम एक-दूसरे के नाम से भली-भाँति परिचित थे।

आसफ़ अली रोड स्थित ‘हिन्दी बुक सेण्टर’ के काउण्टर से कुछ देर का अवकाश ले वह मुझे एक सँकरी गली में स्थित रेस्तराँ में ले आया। इसी दिन हमारी अन्तरंग मित्रता के असमाप्त अध्याय का प्रारम्भ हुआ।

वर्ष 1970. उन दिनों मैं अल्पकाल के लिए (6 माह) अंसारी रोड, दरियागँज से निकलने वाले महत्वहीन साप्ताहिक ‘स्वराज सन्देश’ के सम्पादकीय मण्डल के एक सदस्य के रूप में कार्यरत था। लंच के समय मौक़ा पाते ही ‘हिन्दी बुक सेण्टर’ पहुँच जाता और पैसों के अभाव में प्रायः विण्डो शॉपिंग करता। किताबों के प्रति मेरे लालच और ललक को उसने भली-भाँति पढ़ लिया था।

‘‘यहाँ आते हुए अपना झोला साथ लाया करो’’, उसने एक दिन फुसफुसाते हुए कहा। उस दिन के बाद मेरे झोले में अनेक भारतीय और विदेशी लेखक समय-समय पर समाते गए। राही मासूम रज़ा के ‘आधा गाँव’, मोहन राकेश द्वारा अनूदित, हेनरी जेम्स का उपन्यास ‘एक औरत का चेहरा’ और फणीश्वरनाथ रेणु के ‘परती परिकथा’ की याद आज भी है। मेरे संकोच को दरकिनार करते, काँच के केबिन की ओर इशारा करते उसने तलखी से कहा, ‘‘मैं सिर्फ अपना मेहनताना वसूल रहा हूँ।’’ ऐसे ही एक दिन रेस्तराँ ले जाते समय वह बन्द केबिन की ओर देखते हँसा, ‘‘आज मेरा भूत लेखक इस संस्था के मालिक के रूप में बम्बई से आए एक फ़िल्म निर्माता से साइनिंग एमाउण्ट की भारी रकम का चेक हासिल कर रहा है।’’

सिर्फ छह माह बाद मैं उस साप्ताहिक की परम्परा के अनुरूप सेवामुक्त हो वापिस अपने शहर लौट आया और हमारी नियमित मुलाकातों का सिलसिला भंग हुआ।

हापुड़ शटल के छूटने का समय था — पौने सात बजे। छह बज रहे थे, मुझे चलने की हड़बड़ी में देख प्रियदर्शी बोला, ‘‘कभी-कभी घर लौटने की छुट्टी कर दिया करो, आज तुम मेरे साथ चल रहे हो।’’

जंगपुरा एक्सटेंशन के लिए हमने दिल्ली गेट से बस पकड़ी। कण्डक्टर की ओर इशारा करते प्रियदर्शी ने मुझसे टिकिट लेने के लिए कहा, तो मैं समझ गया उसकी जेब ख़ाली है। बस से उतर जंगपुरा मार्केट की एक दूकान से उसने एक दर्जन अण्डे, बड़ी ब्रेड, मक्खन और दूध का पैकेट लिया। मेरा हाथ जेब की ओर बढ़ा ही था उसने मेरा हाथ पीछे करते हुए कहा, ‘‘यहाँ मेरा उधार खाता खुला है … कोई ज़रूरत नहीं।’’

मकान की तीसरी मंज़िल पर टीन की छत वाली बरसाती। रसोईघर का काम खुली छत पर या बरसाती के भीतर होता। पेशाब के लिए छत की नाली, जिसके पास पानी से भरी बाल्टी और एक मग्गा रखा था। शौच निवृत्ति के लिए सुलभ सार्वजनिक शौचालय। एक माह का किराया एक सौ बीस रुपये। पत्नी और दो छोटे बच्चे।

प्रियदर्शी की पत्नी नेपाली मूल की थी। दिल्ली आने के बाद हिन्दी बोलने-समझने लगी थी। खुले आकाश के नीचे दरी पर मदिरापान करते कब उसके अतीत के पन्ने एक-एक कर खुलने लगे, पता ही नहीं लगा। उन दिनों वह कलकत्ता में था, जब उन भूमिगत वामपन्थियों के सम्पर्क में आया, जो नेपाल की राणाशाही के विरुद्ध जूझ रहे थे। वह भी नेपाल जा पहुँचा और एक भूमिगत बड़े कमाण्डर का घर उसका ठिकाना बना। उसकी पत्नी उसी कमाण्डर की भतीजी थी, जो वहीं रह रही थी।

‘‘समस्या तब पैदा हुई, जब उसे गर्भ ठहर गया। मैं उसे लेकर कतई गम्भीर नहीं था, सिर्फ़ मौज-मस्ती के लिए उससे सम्पर्क बनाया। मेरे ऊपर खतरा मण्डरा रहा था। उसका चाचा पता चलते ही मेरे टुकड़े-टुकड़े कर खाई-खन्दक में फिंकवा देगा और मैं, चील-कौओं का भोज्य बन रहा होऊँगा। मैंने चुपचाप वहाँ से खिसक लेने की योजना बनाई और एक रात, जब सभी गहरी नींद में डूबे थे, मैं भाग निकला। मुश्किल से एक फलाँग गया होऊँगा कि हाँफती-दौड़ती उसने मेरा हाथ पकड़ लिया. …उल्लू की पट्टी को पता नहीं कैसे भनक लग गई। वापिस लौटने का तो अब कोई सवाल ही नहीं था। उसे साथ लिए पहले पटना पहुँचा फिर कलकत्ता…।”

‘‘कलकत्ता पहुँचने तक मैं सिर्फ़ उससे छुटकारा पाने के बारे में ही सोच रहा था। प्यार-व्यार कुछ नहीं यार… न ही इन फ़ालतू क़िस्म के झमेलों के लिए मेरे मन में कोई जगह थी। सोचा यही कि जैसे ही मौक़ा पाऊँगा, भाग खड़ा होऊँगा या सोनागाछी के किसी दल्ले के हाथ उसे सौंप दूँगा। कलकत्ता पहुँचते ही रेलवे प्लेटफार्म की बेंच पर उसे बिठा और बहाना बना स्टेशन के बाहर निकल गया।”

‘‘होटल में खाने का आर्डर दिया, जैसे ही पहला ग्रास मुँह में गया मन धिक्कारने लगा। कुछ भी गले के नीचे नहीं उतरा। खाने को पैक करा शंकाओं-आशंकाओं से घिरा स्टेशन वापिस लौटा। दो घण्टे बीत गए थे। मन में संशय बना था कि कहीं मुझे तलाशने इधर-उधर न निकल गई हो। जब बेंच पर गर्दन झुकाए उसे बैठे देखा तो तसल्ली मिली।”

‘‘पता नहीं यार… कैसे लेखक दूसरी-तीसरी औरत से सहज सम्बन्ध बना लेते हैं, मुझे देखो, यह औरत अभी तक मुझसे बंधी हुई है और मेरे दो बच्चों की माँ भी है।’’

प्रियदर्शी ने ठहाका लगाया। सुनते हुए मुझे लगा कि कहीं वह मानिक वंद्योपाध्याय के ‘पुतुल नाचेर इतिकथा’ का आख्यान तो नहीं सुना रहा है। रचना का सत्य और जीवन का यथार्थ एक दूसरे का पर्याय ही तो हैं।

नींद से बोझिल होती मेरी आँखों को देख प्रियदर्शी मुझे बरसाती के भीतर लाया। दोनों बच्चे फ़र्श पर गद्दे के ऊपर कम्बल की गरमाई में सोए थे। गद्दे के सिरहाने बैठी भाभी संभवतः ऊबी हुए हमारे भीतर आने की प्रतीक्षा कर रही थी।

पलंग पर रखी रजाई खोलते प्रियदर्शी मुस्कराया, ‘‘अपना अभिजात्य छोड़ो। दिसम्बर की सर्दी है और एक ही रजाई है। हम तीनों को इसी एक रजाई से काम चलाना है।’’

सुबह मेरी सबसे बड़ी चिन्ता शौच-निवृत्ति की थी। सार्वजनिक शौचालय की कतार में लगना मेरे लिये कठिनाई भरा था। प्रियदर्शी मुझे साथ लिए जंगपुरा की एक तिमंज़िला कोठी में आया। वह भीतर प्रवेश कर गया और मैं सकुचाया, बरामदे में खड़ा उसकी प्रतीक्षा करने लगा।

गैलरी का दरवाज़ा खोल उसने मुझे भीतर आने का इशारा किया और बाथरूम की ओर उँगली उठाते कहा, ‘‘तुम बिना संकोच के इत्मीनान से निवृत्त होओ, मैं कुछ देर माँ और बहनों से बतियाता हूँ।’’

यह घर उसके पिता का था। वह ‘ज्योग्राफिकल सर्वे ऑफ इण्डिया’ के डायरेक्टर पद से सेवानिवृत्ति के बाद दिल्ली आकर बस गए थे। प्रियदर्शी उनकी सबसे बड़ी सन्तान था।

छोटा भाई व्यवसाय में और दो छोटी बहनें कॉलिज में पढ़ने के साथ-साथ रंग-कर्म से जुड़ी थीं। कलकत्ता प्रवास के दिनों में ही प्रियदर्शी के अराजक व्यवहार को देखते परिवार ने उससे दूरी बना ली थी, फिर उसके देहाती अनपढ़ नेपाली लड़की से विवाह करने के बाद खिन्न परिवार ने स्थायी रूप से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। उसके इस परिवार के बारे में और सिन्धी भाषा में उसे बतियाते मुझे पहली बार पता चला कि प्रियदर्शी मूलतः सिन्धी भाषी है। उसका वास्तविक नाम प्रियदर्शी प्रकाश नहीं प्रकाश गुगलानी है।

प्रियदर्शी के साथ कलकत्ता (अब कोलकाता) की दो यात्राएँ हुईं — वर्ष 1975-76 में। दोनों यात्राओं की स्मृतियाँ परस्पर इस तरह गुथी हुई हैं कि उन्हें जोड़कर एक यात्रा के रूप में स्मरण कर रहा हूँ।

‘हिन्दी बुक सेण्टर’, जहाँ प्रियदर्शी नौकरी करता था, अहिन्दी भाषी क्षेत्रों से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों की पच्चीस-पच्चीस प्रतियों की आपूर्ति हेतु ‘अमेरिकन लायब्रेरी ऑफ काँग्रेस’ का अधिकृत वेन्डर था। कलकत्ता से प्रकाशित हो रही कुछ ऐसी पुस्तकों के क्रय के लिए, जिन्हें लेखक प्रायः स्व-प्रयासों से छापते थे और जिसकी जानकारी उन्हें नहीं मिल पाती थी, प्रियदर्शी को यह दायित्व सौंपा था। प्रियदर्शी ने ‘कालका मेल’ से अपने साथ मेरा भी आरक्षण करा लिया। यात्रा से एक दिन पहले मैंने अपनी यात्रा स्थगित करने का निर्णय लिया। उन दिनों मोबाइल जैसी कोई सुविधा नहीं थी। उसे सूचित करने का सिर्फ़ एक उपाय मेरे पास था। हापुड़ से प्रातः 5.25 पर छूटने वाली ‘मसूरी एक्सप्रेस’ से 7.15 पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचा।

‘कालका मेल’ के छूटने का समय 8.10 था। वह व्यग्रता से मेरी प्रतीक्षा कर रहा था. मेरे साथ न चलने की बात सुनते ही उसका चेहरा लटक गया, ‘‘ख़ाली बर्थ देखते हुए मैं कलकत्ता की यात्रा कैसे कर पाऊँगा?’’

मेरा मन डाँवांडोल होने लगा, विवशता ज़ाहिर करते हुए बोला, ‘‘मेरे पास न तो कपड़े हैं और न ही पैसे। घर में भी किसी को बताकर नहीं चला हूँ। चाची (माँ) और पिता चिन्तित होंगे।’’ मात्रा बीस रुपये मेरी जेब में थे जो घर वापसी के लिए पर्याप्त थे।

‘‘पैसों की कोई चिन्ता नहीं, ‘हिन्दी बुक सेण्टर’ ने काफ़ी पैसे पकड़ाए हैं। घर के लिए स्टेशन के तारघर से तार दिए देते हैं.’’ प्रियदर्शी ने मेरा हाथ पकड़ा और प्लेटफार्म की सीढ़ियाँ भागते हुए पार कीं। तारघर से तार भेजने के बाद उसी तरह हॉफते-भागते अपने कम्पार्टमेण्ट तक उस समय पहुँचे, जब ‘कालका मेल’ ने रवानगी की सीटी दे दी थी।

बिना पैसे और सामान के मेरी इतनी दूरी की यह पहली यात्रा थी।

लगभग सात-आठ घंटे के विलम्ब से कालका मेल हावड़ा पहुँची। सन्ध्या हो चली थी। स्टेशन के आसपास कुछ होटलों और धर्मशालाओं की ख़ाक छानने के बाद भी कोई कमरा न मिल सका। प्रियदर्शी ने कोई निर्णय लिया और एक रिक्शेवाले को ‘साहा लेन’ चलने को कहा।

मुख्य सड़क पर रिक्शा छोड़ हम कई तंग गलियों से होते हुए छेदीलाल गुप्त के घर पहुँचे। एक तिमंज़िला बड़ी सी हवेली, नीचे के फ़्लोर पर चार दिशाओं में चार कमरों में बसी चार गृहस्थियाँ, इसी तरह दूसरी और तीसरी मंज़िल पर। एक घर में अनेक घर, अनेक परिवार. पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक की गलियों में बसी हवेलियों का स्मरण कराता।

छेदीलाल गुप्त का नाम मेरे लिए अपरिचित नहीं था। बांग्ला से अनुदित होकर हिन्दी में प्रकाशित होने वाली हर दूसरी पुस्तक पर अनुवादक के नाम के आगे छेदीलाल गुप्त छपा होता था। ऐसी पुस्तकों की संख्या पचास-साठ से ऊपर रही होगी। यही कार्य उनकी जीविका का साधन था। उनका कमरा देख बरबस मुझे प्रियदर्शी प्रकाश की जंगपुरा की उस बरसाती का स्मरण हो आया जिसमें एक रात गुज़ारी थी। एक कोने में रसोई और एक दीवार पर ट्रेन की मानिन्द तीन बर्थ, पत्नी के अलावा दो बड़ी होती लड़कियाँ और दो लड़के।

प्रियदर्शी और छेदीलाल गुप्त कमरे के बाहर आँगन में खड़े कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे थे। प्रियदर्शी ने जेब से कुछ रुपये निकाल उनके हाथ में थमाए। छेदीलाल घर से बाहर चले गए और प्रियदर्शी मेरे पास आकर बैठ गया। मेरे चेहरे पर उसने कोई भाव पढ़ा होगा कि मेरा हाथ पकड़ फुसफुसाया, ‘‘हमारे बीच कुछ छिपा हुआ नहीं है।’’

छेदीलाल गुप्त राशन और सब्ज़ियों के साथ वापिस लौटे। खाने-पीने से निवृत्त होने के उपरान्त देखा कि दोनों लड़कियाँ बग़ल में तकिया और चादर सम्हाले कमरे के बाहर जा रही हैं।

मेरे संकोच और उलझन को लापरवाही भरी मुस्कराहट से दरकिनार करता प्रियदर्शी बोला, ‘‘यहाँ ऐसे ही चलता है। किसी घर में कोई मेहमान आता है तो परिवार के कुछ सदस्य सोने के लिए छत पर चले जाते हैं।’’

बिना नहाए और कपड़े बदले दो दिन से अधिक का वक़्त हो गया था। स्वयं अपने शरीर से बदबू का अहसास होने लगा था। ‘‘इस समस्या का समाधान निकलेगा मानिक भाई के यहाँ।’’ — प्रियदर्शी ने कहा। मानिक भाई यानी मानिक बच्छावत। मानिक बच्छावत कविताएँ लिखने के साथ लघु पत्रिका ‘अक्षर’ भी निकालते थे। साहित्यिक अभिरुचि से सम्पन्न वह समृद्ध मारवाड़ी व्यवसायी थे।

मानिक बच्छावत बेहद आत्मीयता से मिले। मेरे नाम से वह परिचित थे। चाय-नाश्ता करने के दौरान प्रियदर्शी गम्भीरता से बोला, ‘‘मानिक भाई, आते हुए ट्रेन में अशोक के साथ हादसा हो गया। कोई उच्चका इनका बैग उठाकर चलता बना। अब देखो, न नहाए हैं और न कपड़े बदले हैं।’’ मानिक बच्छावत ने बिना विलम्ब किए मेरे लिए नए खादी के वस्त्रों की व्यवस्था की और स्नान की सुविधा प्रदान करने के साथ अनेक मारवाड़ी व्यंजनों से सुसज्जित स्वादिष्ट भोजन भी कराया।

इस यात्रा का उपयोग मैं ‘संभावना’ के लिए उत्पल दत्त के बांग्ला नाटकों और विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय के उपन्यासों के हिन्दी अनुवाद के अधिकार प्राप्त करने के लिए करना चाहता था।

रवि याज्ञिक रंग-निर्देशक थे और उन्होंने उत्पल दत्त के नाटकों ‘छायानट’ और ‘टीनेर तलवार’ की, अपनी नाट्य संस्था ‘लिटिल थियेटर ग्रुप’ की ओर से रंगमंच पर अनेक प्रस्तुतियाँ की थीं। अपने घर के छोटे से ड्राइंगरूम में वह उदास और उद्विग्न बैठे थे। उन्होंने रंगमंच के शौकीन इंजीनियर, डॉक्टर आदि विभिन्न पेशों से जुड़े कलाकारों की एक मण्डली बना रखी थी। यह मण्डली संध्या काल में या अवकाश के दिन प्रस्तुत किए जा रहे नाटक के रिहर्सल के लिए, एक ख़ाली प्लाट में, जिसे उन्होंने किराये पर ले लिया था, एकत्रित होती। वहाँ उन्होंने एक अस्थायी मंच का निर्माण करा लिया था। दो दिन पहले प्लॉट के मालिक ने बिना कोई नोटिस या सूचना दिए वहाँ आग लगवा दी थी। उनका वह मंच अन्य उपकरणों के साथ स्वाहा हो गया था। दुखी रवि याज्ञिक हमें साथ ले उस प्लॉट पर गए, जहाँ जला हुआ लकड़ी का भग्न और खण्डित मंच अपनी दुर्दशा का बयान कर रहा था। हमेशा की तरह आज भी रवि याज्ञिक मंच पर पैर रखने से पहले धरती का स्पर्श करने और उसकी मिट्टी को माथे पर लगाते नमन करना न भूले।

उसी शाम रवि याज्ञिक के साथ उत्पल दत्त के घर जाने का कार्यक्रम बना। रविवार होने के अलावा कई बांग्ला फ़िल्मों की शूटिंग में व्यस्त होने से उनके बम्बई से घर आने की संभावना भी प्रबल थी। उत्पल दत्त के आने का कार्यक्रम स्थगित हो गया था। हमें निराशा हुई। दक्षिणी कलकत्ता के मध्यमवर्गीय साधारण घर की बैठक में उनकी पत्नी बड़ी किनारे वाली सादी सूती धोती पहने, धोबी को कपड़े गिनवाती हुई, डायरी में नोट करती, बांग्ला में उसे कुछ निर्देश दे रही थीं। चाय-बिस्किट-मूड़ी का नाश्ता कर हम वापिस लौटे। एक बार अपने बहुत अच्छे मित्र और सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार जितेन्द्र भाटिया से उत्पल दत्त पर चर्चा के दौरान मुझे यह जानकर सुखद विस्मय हुआ कि जितेन्द्र की हाईस्कूल की पढ़ाई के दौरान उत्पल उनके अँग्रेज़ी के अध्यापक हुआ करते थे और प्रायः कक्षा में बेतकल्लुफ़ सिगार सुलगा लिया करते थे। उन्होंने उत्पल दत्त से सम्बन्धित कई दिलचस्प किस्से भी सुनाए।

विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय का पैतृक गाँव ‘घोष पाड़ा’ अच्छा-खासा क़स्बा बन गया था। लोकल ट्रेन से उनके यहाँ तक पहुँचने में तकरीबन डेढ़-दो घण्टे लगे। मुझे सन्देह था कि बिना किसी अते-पते के उनके घर कैसे पहुँच पाएँगे। प्रियदर्शी पूर्णतया निश्चिन्त था, ‘‘तुम्हें बांग्ला समाज और संस्कृति का पता नहीं. विभूति बाबू जन-जन में व्याप्त हैं।’’

ऐसा ही हुआ। जिस पहले रिक्शे वाले से हमने विभूति बाबू के घर चलने को कहा, उसने बिना किसी पूछताछ के हमें रिक्शा में बैठाया और अपना रिक्शा सीधे विभूति बाबू के घर के गेट के सामने रोका।

प्रांगण में विभूति बाबू की मूर्ति लगी थी। बांग्ला के इस कालजयी रचनाकार को हमने विनम्र प्रणाम किया। विभूति बाबू के पुत्र तारादास बंद्योपाध्याय से भेट हुई। वह भी बाल कहानियाँ लिखते थे, जो ख़ासी लोकप्रिय हो रही थीं। उनका सहज, आडम्बरहीन और विनम्र व्यक्तित्व विभूति बाबू की झलक दे रहा था। अपने लेटर पेड पर उन्होंने तत्काल हमें विभूति बाबू के कई प्रसिद्ध उपन्यासों — ‘इच्छामति’, ‘आदर्श हिन्दू होटल’, ‘अशनि संकेत’ आदि के अनुवाद और प्रकाशन के अधिकार सौंप दिए।

प्रियदर्शी प्रकाश अपने सभी मित्रों — अवधनारायण सिंह, सकलदीप सिंह, शलभ श्रीराम सिंह, शम्भुनाथ, अक्षय उपाध्याय, अलख नारायण, कपिल आर्य से एक-एक कर मुलाकात करा रहे थे। सभी का आत्मीय और सहज व्यवहार मुझे अभिभूत कर गया। प्रियदर्शी ने स्वयं के लिए एक सामान्य-सी धर्मशाला में कमरे की व्यवस्था कर ली थी और मेरी सुविधा का ख़याल करते हुए, मुझे अपने मित्रों के हवाले कर दिया था। अक्षय उपाध्याय और शम्भुनाथ में मुझे अपने साथ टिकाने के पहले नौंक-झौंक हुई, फिर परस्पर हाथापाई की नौबत तक आ गई। कुछ रातें अक्षय उपाध्याय के बड़ा बाज़ार स्थित सुविधाप्रद बड़े घर में, एक रात शलभ श्रीराम सिंह के साथ शहर से दूर एक गाँव के उस घर में, जहाँ आसपास के ग़रीब घरों की लड़कियाँ अपने विवाह का दहेज इकट्ठा करने की ज़रूरत के चलते, देह व्यापार के लिए आया करती थीं।

बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से कलकत्ता हिन्दी पढ़ाने के लिए आने वाले अध्यापकों की अच्छी-खासी तादाद थी। प्रायः वे बचत करने के उद्देश्य से दो-दो तीन-तीन के समूह में सोनागाछी (एशिया के सबसे बड़े रेड लाईट एरिया के रूप में विख्यात) के भीतर से गुज़रने वाले उन क्षेत्रों में किराये के कमरे या घर लेकर रहते थे, जिनका किराया अन्य क्षेत्रों की तुलना में काफ़ी सस्ता हुआ करता था। कपिल आए बेहद आग्रह के साथ रात्रि निवास के लिए अपने घर लिवा लाए। उनका कमरा ‘दुर्गाचरण मित्र स्ट्रीट’ पर था जिसका रास्ता सोनागाछी से होकर जाता था। ‘दुर्गाचरण मित्र स्ट्रीट’ को रिक्शेवाले एवं अन्य स्थानीय व्यक्ति ‘मधुबाला गली’ के नाम से भी पुकारा करते।

हुस्न के उस बाज़ार की तंग गलियों से गुज़रते हुए, जिसके दोनों तरफ़ के घरों के चबूतरों पर चटख़ और शोख़ पोशाक पहने, और गहरे पाउडर-लिपस्टिक फाउण्डेशन से सजी लड़कियाँ मौन-क्रियाओं के इशारे करती, ग्राहकों को लुभा रही थीं, उनके बीच भद्र घरों की लड़कियाँ और महिलाएँ हाथ रिक्शाओं में सिर झुकाए निःशब्द गुज़र रही थीं। उनके लिए अपने घर आने-जाने की अनिवार्यता इसी मार्ग से जुड़ी थी। कपिल आर्य के साथ पैदल चलते हुए हम दुर्गाचरण मित्र स्ट्रीट के उस घर तक आए, जो इस गली का आख़िरी मकान था। गली आगे बन्द थी। सही अर्थ में इसे ‘बन्द गली का आख़िरी मकान’ (धर्मवीर भारती की एक सुप्रसिद्ध कहानी) कहा जा सकता था।

कपिल आर्य का कमरा ऊपरी मंज़िल पर था। जीना जीर्ण-शीर्ण और दीवार पर हाथ लगते ही चूना और प्लास्टर भर-भर करता गिरने लगता। माचिस की रोशनी में रास्ता दिखाते कपिल ने कमरे का ताला खोला। कपिल रात्रि का भोजन सुबह बनाकर रख जाते थे। उन्होंने स्टोव जलाकर भोजन गरम किया। कपिल के अत्यधिक आग्रह के चलते मैंने तो भरपेट खाया लेकिन उस रात कपिल निश्चित अधपेट रह गए होंगे। कमरे में सिर्फ़ एक चारपाई थी, जिस पर रात्रि-शयन के लिए मैंने कब्ज़ा जमाया और कपिल ज़मीन पर चादर बिछा इत्मीनान से गहरी नींद में डूब गए। पूरी रात मेरी नींद में दूर से थप-थप और तबले के स्वर गूँजते रहे।

पहली बार मिलने के बावजूद शलभ श्रीराम सिंह जिस गर्मजोशी से आलिंगनबद्ध होकर मिले, लगा कि हम बरसों पुराने मित्र हैं, जो एक अन्तराल बाद मिल रहे हैं। शलभ श्रीराम सिंह वामपन्थी सरोकारों से जुड़े थे और देशभर के वामपन्थी आन्दोलनों में उनके ‘प्रयाण गीतों’ को तरजीह दी जाती थी।

‘‘आज रात का डिनर मेरी ओर से तुम्हारे कलकत्ता आने की ख़ुशी में’’, कहने के साथ शलभ श्रीराम सिंह मेरा हाथ पकड़ प्रियदर्शी के साथ पार्क स्ट्रीट के एक महँगे बार में ले आए। हम दो-दो पेग ले चुके थे। कई व्यंजनों का आदेश दे शलभ बाथरूम की ओर चले गए।

प्रियदर्शी देर से व्यग्र और अनमना सा प्रतीत हो रहा था। शलभ के उठते ही वह फुसफुसाया, ‘‘जितना खा-पी सकते हो खा-पी लो। बिल आने के बाद बार के वेटर हमारी धुनाई करते सड़क पर फेंक रहे होंगे।’’ मैंने अचरज से उसकी ओर देखा। निश्चय ही वह शलभ श्रीराम सिंह के व्यक्तित्व से भली-भाँति परीचित था, इसी से आशंकित भी। प्रियदर्शी की चेतावनी के बाद शलभ श्रीराम सिंह के बार-बार आग्रह के बावजूद कितना भोजन गले के नीचे उतरता?

वेटर को बिल बनाने का आदेश दे शलभ बार के मेन्यू को अपने झोले के हवाले करता हँसा, ‘‘इसे शौक कहो या बुरी लत. मैं जब भी ऐसे महँगे बार में जाता हूँ, उसका मेन्यू अपने साथ ले आता हूँ।’’ शलभ उठकर काउण्टर तक गए और वहाँ से कोई फ़ोन किया और इत्मीनान से आकर अपनी कुर्सी पर बैठ गए।

अधिक से अधिक पाँच-सात मिनट बीते होंगे कि एक लम्बी, गौरवर्णा युवती आँखों पर फेशनेबल फ्रेम का बड़ा चश्मा पहने नमूदार हुई। एक नज़र शलभ की ओर देखकर अपना पर्स खोल बिल का भुगतान कर वह उसी तरह फुर्ती से सीढ़ियाँ उतर गई।

‘खलासी टोला’ को सातवें-आठवें दशक की हिन्दी का कॉफ़ी हाऊस (पहले ‘रीगल’ सिनेमा के पास, बाद में मोहन सिंह प्लेस की छत पर) समझा जा सकता था। फ़र्क सिर्फ़ इतना था कि दिल्ली के कॉफ़ी हाउस में कॉफ़ी पीते हुए लेखकों का जमवाड़ा होता, वहीं ‘खलासी टोला’ में देसी शराब यानी ठर्रा कुल्हड़ों में मिलता। बाँस की खपच्चियों से घिरा एक विशाल खुला मैदान। मूँगफली, प्याज और हरी मिर्च से महमहाते उबले चने, मूड़ी आदि बेचते किशोर बच्चों की टोलियाँ। इतना विशाल और खुला देसी शराब घर देश में कहीं और न होगा।

शाम होते-होते लेखकों का जमावड़ा पहले सेण्ट्रल एवेन्यू स्थित कॉफ़ी हाउस में होता, फिर एक-दो घण्टे बाद लेखकों का एक बड़ा हिस्सा ‘खलासी टोला’ का रुख़ अख़्तियार करता। रंगमंच और फ़िल्मी दुनिया से जुड़ी बड़ी शख़्सियतें भी प्रायः यहाँ दिखाई दे जातीं। बांग्ला और हिन्दी भाषी सभी यहाँ पाए जाते। एक प्रकार से कलकत्ता की सांस्कृतिक हलचलों के रूप में भी इसे देखा जा सकता था।

यहीं मेरी सबसे पहली भेंट बांग्ला के उस समय के सबसे तेजस्वी रचनाकार समझे जाने वाले शक्ति चट्टोपाध्याय, सुनील गंगोपाध्याय और सुविमल बसाक से हुई। अक्षय उपाध्याय ने जैसे ही मेरा शक्ति चट्टोपाध्याय से परिचय कराया, शक्ति चट्टोपाध्याय ने ‘‘यू हिन्दी राइटर… हिन्दी राइटर…’’ बड़बड़ाते गुस्से से मेरी कमीज़ का कालर पकड़ लिया और मुझे धकियाने पर उतारू हो गए। शक्ति नशे में बुरी तरह धुत थे। बमुश्किल मित्रों के बीच-बचाव करते मेरी उनके हाथों से मुक्ति हुई। यहीं पहली बार दूर खड़े ऋत्विक घटक को देखा — लगातार बीड़ी फूँकते हुए, कृशकाय, गहरा साँवला रंग, धोती और कुर्ता पहने, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, पैरों में रबड़ की चप्पलें, भीड़ से घिरे हुए। दूसरी बार उन्हें निकट से देखा नेत्रसिंह रावत के साथ रीगल सिनेमा के समीप ‘इण्डियन कॉफ़ी हाऊस’ के बाहर रेलिंग से टिके अक्टूबर 1977 में, पहले की तरह बतियाते हुए, निरन्तर बीड़ी धौंकते हुए. ठीक वैसी ही वेशभूषा और पैरों में रबड़ की चप्पलें। नेत्रसिंह रावत से उनका यहीं मिलना तय हुआ था और नेत्रसिंह रावत ने मुझे भी अपने साथ ले लिया था।

‘‘दादा, आपसे एक बात पूछने की इच्छा बरसों से बनी है. ‘मेघे ढाका तारा’ के एक दृश्य के बारे में। ऊपरी मंज़िल की रेलिंग से टिकी बड़ी बहन जब यह पाती है कि जिसे वह मन ही मन अत्यधिक चाहती है, वह उसकी छोटी बहन के साथ प्रेमालाप में निमग्न है — जब वह धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरती है तो पार्श्व संगीत से शरीर का रोम-रोम सिहर उठता है। दादा, वहाँ आपने किस वाद्य का इस्तेमाल किया है?’’ —नेत्रसिंह रावत ने पूछा।

‘‘चाबुक के हवा में फटकारने से उत्पन्न हुए स्वर का…’’ ऋत्विक घटक का यह उत्तर मुझे आज भी स्मरण है।

नेत्रसिंह रावत वार्तालाप करते शचिन देव बर्मन पर चले आए। उन्होंने फ़िल्म ‘बन्दिनी’ में शचिन देव बर्मन के स्वयं के संगीत के साथ गाए यादगार गीत ‘ओ रे माँझी … अबकी बार ले चल पार… ले चल पार’ की प्रशंसा की, तो ऋत्विक घटक तनिक रोष से बोले, ‘‘हिन्दी फ़िल्मों ने शचिन की प्रतिभा का सत्यानाश कर दिया… बाज़ारू बना दिया। असली शचिन देखना हो, तो उसके बांग्ला में गाए गीतों और संगीत को देखो.’’ …फिर यकायक उन्होने उसी गीत को जो उन्होंने बांग्ला में गाया था, की पंक्तियाँ गुनगुनाते, आसपास के ट्रैफ़िक के शोर से बेख़बर, गहरा आलाप भरा।

प्रियदर्शी प्रकाश को इतना प्रफुल्लित, स्वछन्द और बातूनी पहली बार देखा। कलकत्ता उसकी धड़कनों में बसता था। यहाँ उसकी एक पहचान थी और उसकी तमाम बेहूदगियों, झूठों और मक्कारियों को दरकिनार करती मित्रों की आत्मीय दुनिया भी, जहाँ उसके सारे गुनाह माफ़ थे. …लेकिन यहाँ भूख थी, बेरोज़गारी थी, पारिवारिक आर्थिक संकट और तनाव थे, विशेषकर उस व्यक्ति के लिए, जिसने लिखने-पढ़ने के अलावा आजीविका के लिये कोई अन्य मार्ग तलाशा ही न था। इतने बरस दिल्ली में रहने के बावजूद न बेदिल दिल्ली ने उसे अपनाया था और न दिल्ली को उसने। इस समय वह दिल्ली को भूल कलकत्ता में रमा था। हर शाम मुझे साथ लिए ‘खलासी टोला’ चला आता, जहाँ तमाम दोस्त बेसब्री से उसका इन्तज़ार कर रहे होंगे। देर रात मुझे किसी मित्र के हवाले कर स्वयं अपनी उस सस्ती धर्मशाला में पनाह लेने चला जाता। देखते-देखते एक सप्ताह कब गुज़र गया, पता ही नहीं चला। वापसी का दिन नज़दीक आ रहा था और अभी तक ‘हिन्दी बुक सेण्टर’ द्वारा दिए दायित्व की ओर वह कुछ नहीं कर पाया था। पास के पैसे फुर्र होते जा रहे थे तो वह कुछ चिन्तित नज़र आया।

‘‘अब कुछ करना होगा, वरना ‘हिन्दी बुक सेण्टर’ मेरा जीना हराम कर देगा। तनख़्वाह वैसे ही पूरी नहीं पड़ती, अब उसमें कटौती अलग शुरू हो जाएगी’’, वह मुझे पहली बार फ़िक्रमन्द नजर आया।

सवेरे-सवेरे प्रियदर्शी मुझे साथ लिए शलभ श्रीराम सिंह के घर पहुँचा। दस बरस बाद उसका दूसरा कविता संग्रह ‘अतिरिक्त पुरुष’ आया था, (जिसे उसने स्वयं प्रकाशित किया था) उसकी कोई प्रति घर में उपलब्ध नहीं थी। बाइण्डर के यहाँ से अभी उसने किताब उठाई नहीं थी।

‘‘मैं उसी ओर जा रहा हूँ, तुम एक पर्ची लिख दो। मैं रास्ते में बाइण्डर से ले लूँगा…’’ प्रियदर्शी ने कहा।

शलभ श्रीराम सिंह ने बाइण्डर को दो प्रतियाँ देने के निर्देश की पर्ची प्रियदर्शी को पकड़ा दी।

बाइण्डर की दूकान में प्रवेश करने से पूर्व उसने दो की संख्या के आगे पाँच लिखा और बाइण्डर से पच्चीस प्रतियों का बण्डल बँधवा लिया।

‘‘शलभ को पता चलेगा तो वह नाराज़ होगा,’’ मैंने प्रियदर्शी से चिन्तित स्वर में कहा, ‘‘अरे… बिल्कुल नहीं। उल्टे वह हँस देगा और दोस्तों को रस ले-लेकर बताएगा कि कैसे प्रियदर्शी उसे चकमा दे गया।’’— प्रियदर्शी पूरी तरह सहज और निर्विकार था। कन्हैयालाल सेठिया सम्पन्न मारवाड़ी व्यवसायी थे, जो राजस्थान से आकर कलकत्ता में बसे थे। राजस्थानी और हिन्दी में कविताएँ लिखा करते। राजस्थानी में प्रकाशित उनकी कविताएँ केन्द्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त कर चुकी थीं। अपने कविता संग्रह स्वयं प्रकाशित करते और मिलने-जुलने वालों को उदारतापूर्वक वितरित भी करते। दोपहर के समय जब हम उनके बंगले पर पहुँचे, वह बरामदे की छत में जुड़ी ज़ंजीरों के सहारे सोफ़ेनुमा झूले पर धीरे-धीरे झूलते हुए विश्राम कर रहे थे। उनका सेवक सबसे पहले स्वादिष्ट शर्बत लाया, फिर नाश्ते का सामान, फिर उनकी सद्य प्रकाशित किताब की दो प्रतियाँ। सेठियाजी ने हस्ताक्षर कर किताबें हमें भेंट स्वरूप प्रदान की।

‘‘भाईजी, आपकी पहचान और कविताएँ कलकत्ता में ही सिमट कर रह जाती हैं, राजधानी के साहित्यिक-संसार को भी तो इसकी जानकारी होनी चाहिए। मैं दिल्ली के प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में इनकी समीक्षा की व्यवस्था करवाता हूँ। आप कविता-संग्रह की 25-30 प्रतियाँ मुझे सौंपने का कष्ट करें।’’

प्रियदर्शी ने विनम्रता और गम्भीरता से सेठिया जी से निवेदन किया।

सेठिया जी का सेवक उनकी किताब की पच्चीस-तीस प्रतियों का पैकेट प्रियदर्शी के पास रख गया।

देखते-देखते सप्ताह कब बीत गया, पता भी नहीं चला। रवानगी की तारीख़ आ गई। ‘‘तुम प्लेटफार्म पर कम्पार्टमेण्ट के बाहर मेरी प्रतीक्षा करना, मैं कुछ ज़रूरी काम निपटाकर अभी कुछ देर में स्टेशन पहुँचता हूँ,’’ कहते हुए प्रियदर्शी ने आरक्षित टिकट, सामान और कुछ रुपये मुझे पकड़ाकर, रिक्शे में बैठा स्टेशन के लिये रवाना कर दिया।

ट्रेन छूटने में कुछ ही मिनट शेष रहें होंगे। मैं कम्पार्टमेण्ट के बाहर खड़ा व्यग्रता से उसकी प्रतीक्षा करने लगा। दूर-दूर तक उसका कोई चिह्न मुझे दिखाई नहीं दे रहा था। ट्रेन की रवानगी की सीटी बज चुकी थी। ट्रेन ने खिसकना शुरू किया। उस समय वह हाँफता-भागता आया और अपने बैग को कम्पार्टमेण्ट में धकेल सीधा वाश बेसिन की ओर भागा। मैं खिन्न और गुस्से में भरा उसकी ओर देखता रहा। वह अपनी सीट पर आकर बैठ गया। आसनसोल आने तक हमारे बीच कोई संवाद नहीं हुआ। वह सिर झुकाए एकदम चुप बैठा रहा। आसनसोल के आगे ट्रेन चली ही थी कि उसका मौन टूटा, ‘‘चप्पल उठाओ… जब तक मन करे मेरी पिटाई करते रहो। मैं इसी लायक हूँ… कलकत्ता मुझसे हमेशा के लिए छूट गया है,’’ कहते-कहते उसका रुद्ध गला आँसुओं में डूब गया।

उस यात्रा के दो विचलित करने वाले दृश्य आज भी स्मृति में बने हैं। ‘बिरला तारामण्डल’ के बाहर एक सात-आठ साल की आइसक्रीम खाती लड़की और उसी उम्र की दूसरी लड़की आइस्क्रीम की ज़मीन पर टपकती बून्दों को चाटती हुई। ‘चौरंगी’ के बाहर कूड़े के ढेर में गिरे अधखाए भोजन के डिब्बे के लिए छोटे बच्चों का समूह और कुत्तों के बीच भिड़त। कभी बच्चे कुत्तों को खदड़ते तो कभी कुत्ते बच्चों को। सम्पन्नता और विपन्नता के दो विपरीत ध्रुवों के बीच झूलता कलकत्ता मुझे आज तक देखे शहरों में इकलौता ऐसा महानगर लगा, जिसमें एक ‘मेग्नेट’ है, जो बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता है। एक ऐसा महानगर है, जहाँ अकेले होते हुए भी आप भीड़ का अंग होते हैं। इसके विपरीत दिल्ली, जहाँ भीड़ में होते हुए भी आप अपने को अकेला महसूस करते हैं।

कलकत्ता से वापिस लौटकर मैं उन मित्रों के प्रति, जिन्होंने अपने आत्मीय और स्नेहपूर्ण आतिथ्य से मुझे सिंचित किया, आभार का एक शब्द भी न लिख सका। यह आलेख लिखते हुए मन में एक हूक सी उठ रही है।

सकलदीप सिंह, छेदीलाल गुप्त, कन्हैयालाल सेठिया, शलभ श्रीराम सिंह आज इस दुनिया में नहीं हैं। अक्षय उपाध्याय अपने एकमात्र प्रकाशित कविता संग्रह ‘चाक पर रखी धरती’ के प्रकाशन के कुछ साल बाद ही अपने अच्छे खासे खादी के व्यवसाय से खिन्न फ़िल्म जगत के कलाकारों की संगत में डूब गए। स्मिता पाटिल और ओम पुरी शूटिंग के दौरान कलकत्ता प्रवास के दिनों में उनके अंतरंग मित्र बने। अक्षय उपाध्याय 4 नवम्बर 1994 को कलकत्ता के बाग बाज़ार में बस से उतरते हुए फिसल कर मृत्यु का शिकार बन गए।

कपिल आर्य के बड़े भाई अलख नारायण, जिनके प्रखर, वामपंथी चिन्तनपरक समीक्षात्मक लेखों ने सातवें-आठवें दशक में लघु पत्रिकाओं में अपनी पृथक पहचान बनाई थी, ‘खलासी टोला’ के अत्यन्त घटिया स्तर के चावल और केले से बनाए गए ठर्रे की लत का शिकार हो, अल्पायु (28 जून, 1991) में चल बसे। ‘राजेन्द्र छात्र निवास’, जहाँ एक छोटे कमरे में, जिसमें एक तख्त पड़ा होता, उसी निवास स्थली में कलकत्ता प्रवास के दिनों में प्रायः बाबा नागार्जुन का डेरा जमता। अलख नारायण के दिनों में प्रायः बाबा नागार्जुन ने ही अपने पास से पाँच सौ रुपये की व्यवस्था कर उनकी किताब ‘प्रेमचन्द और लु-शुन’ के प्रकाशन का बन्दोबस्त किया।

मानिक बच्छावत अपनी वृद्धावस्था और मुँह से कुछ भी बोल पाने में असमर्थ अपने घर की चारदीवारी में सिमट कर रह गये हैं। अवध नारायण सिंह, जिनकी कहानियों ने कभी अपनी चमक बिखेरी थी, आज वाराणसी के समीप अपने पैतृक गाँव में आँखों से लाचार निष्क्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

उस समय के मित्रों में डॉ. शम्भुनाथ ‘वागर्थ’ का सम्पादन करने में व्यस्त हैं और एकमात्र कपिल आर्य बचे हैं, जिनका गाहे-बगाहे फ़ोन आता रहता है और उल्लास भरे स्वरों में वह उन दिनों का स्मरण करते हुए, अतीत की सुप्त परछाइयों को पुनर्जीवित करते रहते हैं।

‘हिन्दी बुक सेण्टर’ छोड़ प्रियदर्शी प्रकाश ने कुछ समय के लिये ‘लिपि प्रकाशन’ में नौकरी की। उसी दौरान उसका पहला (शायद अन्तिम भी) कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ — ‘अपरिचित का परिचय’। कलकत्ता की पृष्ठभूमि में रचित ‘गल्प भारती’ और अन्य लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित दस-बारह कहानियों का संग्रह। कोई भी कहानी आठ-दस पृष्ठों से अधिक बड़ी नहीं थी। हिन्दी कहानी के परम्परागत लालित्य और सौन्दर्य शास्त्र के विरुद्ध एक अकेले आदमी के अपरिचय के संत्रास को नए बिम्ब विधानों और भाषा में रचती हुई, कुछ -कुछ ‘एंटी स्टोरी’ की ओर झुकी हुई।

वह रात्रि में हापुड़ आया और विस्मित करते हुए अपनी किताब मुझे पकड़ाई। अपना यह संग्रह उसने मुझे ही समर्पित किया था। ‘‘साहित्य जगत में सिर्फ़ तुम्हारे साथ ही मेरा सम्पर्क रह गया है,’’ उसने कहा। वह रात हमारे लिए उत्सव की रात थी।

‘लिपि प्रकाशन’ से ‘सरस्वती प्रकाशन’, ‘फ़िल्मी कलियाँ’ से ‘फ़िल्मी दुनिया’ तक का अनियतकालीन उसका सफ़र ज़ारी रहा। एक जगह लम्बे समय तक टिक पाना उसके अराजक स्वभाव में न था। ये प्रकाशन संस्थान और फ़िल्मी पत्रिकाएँ अंसारी रोड, दरियागंज, भगीरथ प्लेस, चाँदनी चौक में स्थित थीं। जब तक वह इन स्थलों पर कार्यरत रहा, दिल्ली जाने पर अनिवार्यतः कुछ घण्टे उसके साथ व्यतीत होते। फिर वह करोल बाग के किसी संस्थान में चला गया, जहाँ मुलाक़ात की कौन कहे, फ़ोन तक पर भी प्रतिबन्ध था। उससे सम्पर्क धीरे-धीरे खण्डित होता चला गया।

वर्ष 1980 की किसी रात वह हापुड़ आया। उदास और अनमना। विभूति भूषण वंद्योपाध्याय के उपन्यास ‘अशनि संकेत’ का उसके द्वारा किया गया अनुवाद प्रकाशित हो गया था। सुबह चलते वक़्त बमुश्किल इतना बोल सका कि क्या मैं उसके लिए एक हज़ार रुपये की व्यवस्था कर सकता हूँ। बरसाती का किराया कुछ माह से बकाया चल रहा था और मकान मालिक ने उसे सख़्ती से बरसाती ख़ाली करने को कहा था।

दिल्ली जाने वाली बस में अपनी सीट पर बैठा वह अचानक नीचे उतरा और बोला, ‘‘जब तक ‘अशनि संकेत’ प्रकाशित नहीं हुआ था, तुम्हारी जेब पर अपना अधिकार मानता था, और अब… शायद मैं हापुड़ आख़िरी बार आ रहा हूँ।’’

…और वह सचमुच हापुड़ दोबारा नहीं आया।

आठ-दस साल पहले ‘विश्व पुस्तक मेले’ में अनायास डॉ. शम्भुनाथ से भेंट हुई। उन दिनों शम्भूनाथ ‘केन्द्रीय हिन्दी संस्थान’ आगरा में निदेशक पद पर कार्यरत थे और ‘विश्व पुस्तक मेले’ में आगरा से आए थे। बातचीत के मध्य अनायास उन्होंने पूछा, ‘‘क्या मुझे प्रियदर्शी प्रकाश के बारे में जानकारी है?’’

मैंने जिज्ञासा से उनकी ओर देखा, ‘‘प्रियदर्शी प्रकाश नहीं रहे,’’ शम्भूनाथ बोले।

‘‘कब… कैसे… अचानक,’’ मैं विस्मित हुआ। ‘‘विशेष जानकारी मुझे नहीं. कुछ माह पहले मुझे किसी से सूचना मिली थी।