कविता का भविष्य / सुधेश

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आज छब्बीस जनवरी है। मैं दूरदर्शन पर कवि प़दीप का गीत ए मेरे वतन के लोगों ज़रायाद करो क़ुर्बानी सुन रहा था। बताया गया कि यह गीत सब से पहले २६ जनवरी १९६३में दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में लता मंगेशकर द्वारा गाया गया था। इसे सुनते हुए मेरीआँखें गीली हो गईं , जबकि आज ५० वर्षों बाद मैं इसे सुन रहा था। पहले भी अनेक बारंइसे सुना था। इसे सुन कर सन १९६३ में जवाहर लाल नेहरू भी रो पड़े थे। आप पूछ सकते हैं कि इस प्रसंग का कविता के भविष्य से क्या सम्बन्ध है। इस से मैंने यह बताने की कोशिश की है कि कविता भाषा का जादू है ,जो श्रोताओं को मन्त्र मुग्धकर देता है। कविता मन्त्र का प्रभाव रखती है। मन्त्र क्या है। मन्त्र वास्तव में सूक्तिहोते हैं , जिन्हें काव्योक्ति ंभी कहा गया या कहा जा सकता है। वैदिक युग में इन्हें रिचा कहा गया था या श्लोक भी कहा गया था। यह भी उल्लेखनीय है कि मन्त्र केवल संस्कृत मेंही नहीं होते बल्कि हर भाषा में हो सकते हैं। सूक्तियाँ हर भाषा में मिलेंगी। पर जो बात ऊपर कही गई सच्ची कविता के लिए कही गई है , झूठी कविता या छद्मकविता के लिए नहीं। छद्म कविता की व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं है ,क्योंकि कविताके पारखी उसे जानते हैं। हर युग में सच्ची कविता और झूठी कविता या अच्छी कविताऔर छद्म कविता लिखी जाती है ,जिसे समझने में आलोचक भी हमारी मदद करते हैं ।

मूल बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि कविता का भविष्य सच्ची कविता से जुड़ा हुआ है। छद्म कविता या झूठी कविता या कृत्रिम कविता का मैं कोई भविष्य नहीं देखता। अाजकलऐसी कविता अधिक मात्रा में लिखी जा रही है और खूब छप रही है जिसे रिआयतन कविता कहा जाता है ।

बहुत से लोग समझते और कहते हैं कि कविता का कोई भविष्य नहीं है। उन का तर्क है किआधुनिक काल गद्य का युग है। आचार्य राम चन्द़ शुक्ल ने आधुनिक काल को गद्य कालकी संज्ञा दी थी। आज का युग विज्ञान और प़ोद्योगिकी का युग है ,जिस की भाषा गद्य्ात्मकहो सकती है । गद्य के विकास और विस्तार के साथ बहुत सारे गद्यलेखक सामने आए। गद्य विधाओं काखूब विकास हुआ ।ऐसे वातावरण में कुछ लोगों को लगने लगा कि कविता का कोई भविष्यनहीं है। अनेक तो कविता लेखन शुरु कर गद्य लिंखने लगे।

कुछ वर्षों पहले भोपाल की पत्रिका पूर्वग़ह में कविता की वापसी की बात कही गई थी,मानो कविता कहीं चली गई थी जिस की वापसी पूर्वग्रह के सम्पादक अशोक वाजपेयी केमाध्यम से हुई। उस कोशिश में कविता की वापसी तो हो गई , पर उस ने कविता के भविष्यपर एक प्रश्न चिह्न लगा दिया। प्रश्न यह कि कविता का भविष्य किसी व्यक्ति अथवा कुछविशिष्ट लोगों पर निर्भर है क्या। कविता के भविष्य का निर्धारण कवियों पर ही निर्भर है,किसी सत्ता अथवा बाह्य शक्ति पर नहीं

हिन्दी कविता का हज़ारों सालों का इतिहास देखा जाए तो पता चलता है कि आदिम युगमें भी कविता थी ,चाहे उस का रूप आज की कविता के रूप जैसा नहीं था। वह लोक गीतके रूप में था ,जिस में आधुनिक कविता जैसी भाषा और संरचना की सुघड़ता नहीं थी। भाषाके स्थान पर बोली या बोलियों का व्यवहार था ,जिस का संगीत और नृत्य से घनिष्ठ सम्बन्धथा। मतलब यह कि कविता संगीत से अलग नहीं थी और लोकगीत एकान्त में नहीं समूहमें गाये जाते थे और अभिनय के साथ गाये जाते थे। तो कविता अपने आदिम रूप में संगीतात्मकऔर अभिनयात्मक थी। अभिनय और नृत्य का चोली दामन का सम्बन्ध है । कालान्तर में जब बोली या बोलियाँ भाषा बनीं तब ब्रजभाषा , अवधी ,भोजपुरी ,मैथिली ,डिंगल या पुरानी राजस्थानी ,कौरवी अर्थात खड़ीबोली आदि में कविता रची जाने लगी ।वह पहले मौंखिक रूप से रची गई ,बाद में लिखी गई। दूसरे शब्दों में वह पहले कही गईबाद में लिखी गई। लोक गीत मूल रुप में मौखिक होते हैं ।इस लिए कविता का आदिम रूप लोकगीत है ।

आधुनिक कविता की दृष्टि से विचार करें तो कविता का भविष्य सुरक्षित लगता है ,क्योंकि हिन्दी में उत्तम कविता की इतनी पूँजी है कि उसे कोई दरिद्र नहीं कह सकता। पर पूँजी मेंयदि निरन्तर कुछ जोड़ा न जाए तो हारून का ख़ज़ाना भी एक दिन ख़ाली हो जाएगा। उसदृष्टि से यह पूछा जा सकता है कि आज के कवि कविता में कुछ हीरे मोती जोड़ रहे हैं याअनगढ़ पत्थर जोड़ रहे हैं। मैं मानता हूँ कि आज भी उत्तम कविता लिखी जा रही है पर उसकी उपेक्षा कर पत्थरों को ही हीरे मोती मानने का आग़ह कुछ आलोचक कर रहे हैं ,जोआलोचक के वेष में साहित्य की राजनीति करने वाले राजनेता ही हैं। हिन्दी वालों का यहदुर्भाग्य है कि वे कविता के भविष्य को इन्हीं दादाओं के हाथों में सौंप कर निश्चिन्त होनाचाहते हैं ।

मुझे हिन्दी कविता का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है , पर उस समय निराशा भी होती है जब अनगढ़ आड़े तिरछे शब्दों को जोड़ कर उसे कविता कहने और मानने का आग्रह किया जाता है। कुछ लोग समझते हैं कि कुछ भी लिख दो और उसे कविता घोषितकर दो ,पर शर्त यह कि कोई दादा उन की पीठ के पीछे होना चाहिये। कविता का भविष्यगम्भीर रचना कर्म से सुरक्षित रहेगा ,तिकड़मों, षड़यन्त्रों और पक्षपात के हथकण्डों से नहीं। कविता को गद्यात्मकता के छद्म से बचाकर ही आज की हिन्दी कविता का भविष्य उज्ज्वल होगा। इस के लिए कविता में लय का सहारा लेना ही पड़ेगा।