कविता की रचना प्रक्रिया और सर्जनात्मकता / अनीता कपूर

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साहित्य की किसी भी विधा की रचना प्रक्रिया और सर्जन, अपने मन के अनुसार करना मानव स्वभाव का अंग है। रचना के रूप अलग हो सकते है, पर सृष्टि, देश, समाज, परिवार, प्रकृति, अनुभूति और अभिव्यक्ति का कलात्मक आकलन ही साहित्य की सर्जनात्मकता है।

आत्माभिव्यक्ति रचना की पहली प्रक्रिया है। इस अभिव्यक्ति के माध्यम कई हो सकते हैं। शब्द, रंग, रेखाएँ किसी भी माध्यम से, जिसमे रचनाकार को सहजता और सुविधा महसूस हो, रचना की जा सकती है। कविता के लिये प्रतिभा की आवश्यक्ता होती है। कविता सांकेतिक होती है। बिम्ब और कल्पनाशक्ति उसमें महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। कहानी रचनात्मक लेखन का सर्जन करने के लिए कोई फार्मूला नहीं होता, उसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ और वातावरण, निरंतर अभ्यास और लेखन की अनुभूति हो, तो कोई भी व्यक्ति अच्छा लेखक बनने की कोशिश कर सकता है।कविता की रचना प्रक्रिया में कोई फार्मूला न होने के बावजूद फार्मूलाबद्ध लेखन का प्रयास होता ही रहा है।

कविता क्या है और इसका सर्जन कैसे होता है? कविता जीवन है या जीवन कविता है, कविता कहीं से भी चुपके से आती है और बहुत -सी अनकही बातें विचार बन शब्दों में ढाल कविता बन जाते हैं। नींद में साँस भी लयात्मक कविता हो सकती है, दो पंक्तियों के बीच का मौन भी कविता है, कविता जीवन में बहती है, कविता साथ साथ चलती है. कविता सबके जीवन में है, कविता लिखने के लिए पहले से ही साहित्यकार होने की जरूरत नहीं होती।

जीवन यात्रा में विचार , आदर्श, प्रेरणाएँ, और इससे उपजा अनुभव ही कविता की रचना प्रक्रिया और सर्जनात्मकता की सामग्री है। जीवन से प्रेम, जीवन से मिला दु:ख और निराशा सबके साँचे कविता में हैं। फिर वो सामाजिक कविता हो, सामयिक हो, देशप्रेम की कविता हो या प्रेम और सौन्दर्य की। रेलगाड़ी की आवाज़ से कविता बनती है, युवती की पायल की आवाज़ में कविता है। कविता भावनाओं का त्वरित अधिप्रवाह है अभिव्यक्ति की व्याकुलता का एक रास्ता कविता का सर्जन होना भी है। विचारों की लिखित अभिव्यक्ति ही रचना बनती है।

सर्जन की अदम्य लालसा और आत्मा की अभिव्यक्ति और विस्तार रचनाकार की विशिष्टता होती है. बदलते वक्त के साथ कविता सिर्फ “स्वांत: सुखाय: नहीं रह गयी है, व्यवसाय भी बन गयी है, फिर वह लेखन मीडिया के लिए हो, कवि-सम्मेलन या विशेष अवसरों के लिए हो। यहाँ भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविता, “जी हाँ हजूर मैं गीत बेचता हूँ” का जिक्र करना तर्कसंगत होगा। बदलते परिवेश में रचनाओं और लेखन प्रक्रिया के प्रति दृष्टिकोण भी बदला है। सर्जनात्मक लेखन के लिए अभ्यास की अनिवार्यता है। अभ्यास के द्वारा प्रतिभा में निखार ही रचना प्रक्रिया में परिपूर्णता ला सकता है। इस संदर्भ में श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला” जी के विचार रचनात्मकता को विकसित किए जाने का पक्ष प्रस्तुत करते है, “जो लोग यह समझते हैं की कवि पैदा होता है, बनाया नहीं जाता, वे इसका वैज्ञानिक तात्पर्य नहीं जानते. काव्य-पाठ, सूक्ष्म-अध्ययन, भाषा-ज्ञान से कवि-संस्कार पैदा होते हैं”। भाषा-ज्ञान की बात पर कवि कबीर के बारे में कहा जाता है कि वे लिखना नहीं जानते थे, पर बोलचाल (मातृ-भाषा) की भाषा का ज्ञान होने से उन्होने उसी में कविता की। शब्द साहित्य का ज्ञान जब आत्मा में परिध्वनित होकर कागज़ पर शब्द का रूप लेता है तो वह सर्जन काव्य कहलाता है।

मन में विचारों के बादल जब घुमड़ते है तो सहज ही लेखक के लिए लिखना अनिवार्य हो जाता है, किन्तु निरंतर अभ्यास से अभिव्यक्ति में सुघड़ता और परिपक्वता आती है, और इसके लिए पढ़ना और कोई अच्छा विचार जब भी सूझे तो तुरंत उसे लिख ले, नए संवाद सुने और लिखे, प्रकृति और अपने परिवेश को निहारते हुए जो विचार आयें उसे शीघ्र लिख डालें, तथा आपके आस पास के जीवन से कुछ प्रेरणा ले कर सामयिक रचना का सृजन करना जैसी विशेषता ही सर्जनात्मकता है।

कविता संभवतया सबसे प्राचीन विधा है, जिसका पारंपरिक दर्शनीय लक्षण छंदोबद्धता के रूप में आता है। हिन्दी में तुक भी कविता की पहचान बनी रही है, परंतु छंद की उपस्थिति ही स्थायी रही है। भवानी प्रसाद मिश्र जी का एक कविता संग्रह, जिसका नाम था “परिवर्तन जिये”, में उनकी कविताओं में उस समय की छाप बख़ूबी देखने को मिलती है, जिस वक्त वो लिखी गयी होंगी। एक बार उन्होने बातों-बातों में कहा था कि, इस संग्रह का नाम “इंकलाब जिंदाबाद” का भाषांतर होना चाहिए । भवानी जी की लिखी पंक्तियाँ, “उन्हे अपने शब्दों और दूसरों के शब्दों के माध्यम से आने दो...

वे जो तूफान गा रहे हैं उन्हे गाने दो”,

किसी भी कविता की सर्जनात्मक प्रक्रिया में ऐसे क्षण भी आते हैं जब कवि को लगता है कि, यह सब जो बाहर का उद्वेग है – महत्त्व उसका नहीं है – महत्त्व उसका है, जिसका हमारे अंदर साक्षात्कार होता है, और यह प्रक्रिया हमें सीप की तरह खोल देती है और और रचना के मोती बाहर आते हैं. यहाँ धर्मवीर भारती जी का एकालाप काव्य “कनुप्रिया”, उनकी लिखी कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आती है,--

शब्द,शब्द,शब्द
मेरे लिए सब अर्थहीन हैं
यदि वे मेरे पास बैठकर
मेरे रूखे कुंतलों में उँगलियाँ उलझाएँ हुए
तुम्हारे कांपते अधरों से नहीं निकलते
शब्द, शब्द, शब्द

कविता जीवंतता और विविधता का अदभुत दस्तावेज़ है, कविता के सर्जन में नवीनता का अनुसंधान करने के लिए साहित्य की बैचनी को नए संदर्भ और विधा में प्रस्तुत करना सर्जनात्मकता है। कविता दूसरे साहित्यों-रूपों से अपनी भाषा-सरंचना में भी भिन्न है। विशेषता यह है, कि कई बार तो यह भिन्नता सामान्य भाषा के प्रयोग करने के फलस्वरूप बिना प्रयास के स्वत ही दिखाई देने ही लगती है। कविता की रचना में अर्थ-विस्तार के लिए रचनाकार प्रतीकात्मक भाषा और बिम्ब का इस्तेमाल करता है, और यहीं से कविता में नवीनता का समावेश दिखता है। आज तक हम पत्र-पत्रिकाओं में या नए संग्रहों में कविताओं को गद्य के रूप में ढेखते आ रहे हैं...जिसमे लय दिखती है। बदलते परिवेश में छोटी कविता का भी चलन हुआ है....जो भाषिक और सांकेतिक दोनों का समन्वय है...जिसमे दो आयाम है- शब्द और अर्थ। छोटी कविता का अर्थ उसकी अंतर्वस्तु का निर्माता है और शब्द उसके रूप और संकेतों का। गीतों को कविता से अलग नहीं किया जा सकता, यदि उन्ही शब्दों की, लय मे बिठा कर क्रम और मात्रा के आधार पर ध्वन्यात्मक सरंचना की जाये तो गीत बन जाते हैं जो गुनगुनाए और गाये जाते हैं। और इस प्रयास को करने के लिए नये रचनाकारों को विविधता और अभ्यास के लिए छायावादी कवियों को अवश्य पढ़ना चाहिए। छायावाद के बाद नये प्रयोग के प्रगतिशील गीत नवगीत कहलाने लगे है, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने कहा है कि, “जब किसी परिनिष्ठित साहित्य का विकास अवरूद्ध हो जाता है, तो जड़ता कि स्थिति में कवि आर रचनाकार लोक साहित्य से प्रेरणा लेता है,” सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जी, रामदरश मिश्र जी और केदारनाथ सिंह जी आदि कवि इस बात का उदाहरण हैं।

कविता कि रचना में तुकांत कविता का भी प्रयोग हुआ जिसमे पंक्ति के अंत में तुक का प्रयोग हुआ....जैसे प्रसाद जी के गीत में लिखी कुछ पंक्तियाँ ...

प्राण पपीहा के स्वर वाली / बरस रही थी जब हरियाली

कविता के सृजन में प्रवाहपूर्ण लय और गति कैसे समाहित है इसके लिए यहाँ नागार्जुन जी एक कविता कि पंक्तियाँ देखिये....

कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास / कई दिनों तक कानी कुतिया सोयी उनके पास

गीत हों या मुक्तक, छोटी कविता हो या लंबी कविता, कविता में एक सहज आवेग-प्रधान होता है, इसीलिए इसकी रचना-प्रक्रिया भी अलग अलग मानसिकता की अपेक्षा रखती है।पुराने साँचे में कथन को नये रूप में भरने का आग्रह होता है, और इसके विपरीत कथन को शब्दों के छोटे स्वरूप में ढाल कर सारी बात कह देना हाइकु कहलाता है।

हिंदी साहित्य की अनेकानेक विधाओं में 'हाइकु' नव्यतम विधा है। हाइकु मूलत: जापानी साहित्य की प्रमुख विधा है। हाइकु को काव्य-विधा के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की जापान के मात्सुओ बाशो ने। आज हिंदी साहित्य में हाइकु की भरपूर चर्चा हो रही है। हिंदी में हाइकु खूब लिखे जा रहे हैं, और अनेक पत्र-पत्रिकाएँ इनका प्रकाशन कर रहे हैं। निरंतर हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। यदि यह कहा जाए कि वर्तमान की सबसे चर्चित विधा के रूप में हाइकु स्थान लेता जा रहा है तो अत्युक्ति न होगी। हाइकु अनुभूति के चरम क्षण की कविता है। जैसे बड़े पेड़ का छोटा स्वरूप बोंज़ाई है, वैसे ही मेरे हिसाब से हाइकु कविता का बोंज़ाई है। आज हाइकु जापानी साहित्य की सीमाओं को लाँघकर विश्व-साहित्य की निधि बन चुका है। बाशो के अनुसार "जिस कवि ने जीवन में तीन से पाँच हाइकु रच डाले, वह हाइकु कवि है। जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली, वह महाकवि है। "हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय कविवर रवींद्र नाथ ठाकुर को जाता है।हाइकु विद्या में एक नियम का पालन करना होता है कवि को. हाइकु कविता में ५-७-५ अक्षर का अनुशासन रखना जरूरी है। वरना हाइकु अपनी पहचान खो कर एक कविता बन जाता है। हाइकु में एक भी शब्द व्यर्थ नहीं होना चाहिए अन्यथा भाव बोध नष्ट हो जाएगा। यहाँ कुछ उल्लेखनीय हाइकुकारों के नाम देना चाहूंगी। उनमें प्रमुख हैं - डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ उर्मिला, डॉ भगवत शरण अग्रवाल, कमल किशोर गोयनका जी, डॉ भावना कुँअर, डॉ कुँअर बेचैन , रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ डॉ सतीशराज पुष्करणा , डॉ मिथिलेश दीक्षित आदि. उदाहरण के तौर पर कुछ हाइकु देखिये...

डॉ सुधा गुप्ता - माघ बेचारा / कोहरे की गठरी / उठाए फिरे

कमाल किशोर गोयनका - पिंघल बही /घाटी मे कल -कल /पर्वत-कथा !

डॉ अनीता कपूर- बीजो फूल को /रुह की बगिया में/महके रिश्ते।

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु- प्राण तरसें /मोतियों के बादल/तभी बरसें

डॉ भावना कुँअर-नन्हें हाथों से /मुझको जब छुआ/जादू -सा हुआ ।

हिंदी में हाइकु कविता पर बहुत कार्य हो रहा है। अनेक हाइकु संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। हाइकु कविता की रचना प्रक्रिया में लय, भाषा और तुक के लिए भाषा का भरपूर ज्ञान और शब्दावली पर अच्छी पकड़ और समझ न हो तो, आप कविता के पेड़ को हाइकु के बोंज़ाई का रूप नहीं दे सकते.

कविता , यानी तीन अक्षर, कविता पिरामिड भी है और ताजमहल भी। कविता बनाई नहीं जाती ,वो तो बन जाती है, जहां विषय नहीं संवेदनशील दिल की जरूरत होती है। कविता का अपना एक आकाश होता है और शब्द उस आकाश के सितारे, संवेदना चाँद और पाठक सूरज होता है। सच तो यह है की चाहे कोई युद्ध हो या प्यार, महिला दिवस हो या महिला उत्पीड़न की बात, गरीबी हो या भ्रष्टाचार, कविता तो वह है जो सीधे दिल से निकलती है और दिल तक पहुँचती है। कविता लिखने में सोचना नहीं पडता... कवि प्रवाह के साथ बहता है , जब प्रवाह टूट जाएँ तो मानों प्रकृति थम जाती हैं . कविता और सृष्टि के सर्जन में कोई बुनियादी फर्क भी नहीं है। इस संदर्भ में नोबल पुरस्काकार विजेता यहूदी साहित्यकार इसाक बेशिविस ने कहा था, ”प्राचीन साहित्य मे कवि और सृष्टि-नियंता के बीच मूलभूत अंतर नहीं होता था, कई बार हमारा प्राचीन साहित्य काव्य एक विधान बन जीवन का पाठ-प्रदर्शक का कार्य करता है”। कवि तो एक ‘फेनोमेना (विचित्र सृष्टि) है, और कविता की रचना और सर्जन, शब्दों का एक जमावड़ा नहीं, बल्कि जीवन में बिखरे मूर्त और अमूर्त को परिभाषित करता है।