कविता में दरवेश / दरवेश भारती / सत्यम भारती

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प्रेम खुद-सा करे न जो सबसे,
फिर वह दरवेश-सा नहीं होता।

जो अपने सामान दूजों से प्रेम करे, सद्भाव रखे तथा सभी के लिए आदर का भाव रखें वास्तव में समाज का असली दरवेश वही है। दरवेश का अर्थ होता है-फकीर; एक फकीर अपने लिए कुछ चाह कहाँ रखता है, उसे तो जितना मिलता है उतने में ही खुश रहता है-"साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय" लेकिन दर पर आने वाले हर ज़रूरतमंदों की सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहता है; कुछ ऐसा ही व्यक्तित्व दरवेश भारती जी का है। हिन्दी ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर तथा "ग़ज़ल के बहाने" पत्रिका का संपादन कर ग़ज़ल विधा को जन-जन तक पहुँचाने वाले दरवेश जी वर्तमान समय में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। समाज-सेवा, आचार्यत्व, सद्भावपूर्ण व्यवहार, मितभाषी तथा हमेशा सहयोग के लिए तत्पर रहने वाला व्यक्तित्व ही उन्हें महान बनाता है। कहते हैं कवि का व्यक्तित्व कैसा है उसके द्वारा रचित साहित्यिक-शब्दों से पता चल जाता है-

मेरी औकात से बढ़कर मुझे देना न कुछ मालिक,
ज़रूरत से ज़ियादा रौशनी बेनूर करती है।

समाज में हाशिए पर गुजर-बसर करने वाले लोगों के कष्टों का वर्णन, मानवीय मन के अंतर्विरोध को पकड़ना, सत्ताधीशों से सवाल करना, अपनी परंपरा एवं देश पर गर्व करना, वर्तमान के साथ भविष्य की चिंता करना तथा प्रेम का संदेश देना ही 'कविता में दरवेश' होना है। पुस्तक "कविता में दरवेश" दरवेश जी की पुस्तकों से चुनिंदे गजलों, नज्म, दोहे, तज्मीन, कत्आ, रूबाईयाँ, संजीवनी तथा सानेटों का संग्रह है। इस पुस्तक के संपादक राहुल शिवाय और डॉक्टर भावना हैं, उन्होंने वर्तमान समय की समस्याओं, आधुनिक मानवीय मन की चिंता, सामाजिक सरोकार, प्रेम, विरह आदि से सम्बंधित गजलों, दोहों आदि को संग्रहित किया है तो वहीं अपने महापुरुषों को याद करते हुए उन पर लिखी गयी नज्म को भी स्थान दिया है। यह पुस्तक दो भागों में विभक्त है-पहले भाग में ग़ज़ल और अशआर हैं तो वहीं दूसरे भाग में दोहा, नज्म, रुबाई ताज्मीन आदि। यह पुस्तक भावों एवं छंदों की बुनावट में विविधता तथा विस्तृत विषयों को समाहित कर विविध छंदों तथा उसके गूढ़ अर्थों को शुरू से अंत तक खोलती नजर आती है। एक साथ कई छंदों को पढ़ने का मजा इस पुस्तक में मिल जाता है चूंकि विषयों का विस्तार तथा छंदों की विस्तृता इतनी है कि उसे समीक्षा में समेट पाना काफी मुश्किल है लेकिन मैं कुछ मुख्य मुद्दे की बात ज़रूर करूंगा जो उनकी किताब और लेखनी की जान है।

पहले बात करते हैं उनकी गजलों की; दरवेश भारती की ग़ज़लों में आम आदमी के जज्बात झलकते हैं। आम आदमी बिल्कुल आम की तरह ही होता है जब तक मिठास है तब तक खूब सेवा सत्कार होता है जब मिठास खत्म तो गुठली की तरह चूस कर फेंक दिया जाता है। वर्तमान समय में आम आदमी के जज्बातों के साथ हर कोई खेल रहा है चाहे वह सत्ता हो, न्यायपालिका हो, प्रशासन हो, बाज़ार हो या मीडिया। गजलकार आम आदमी की पीड़ा, संघर्ष तथा शोषण के विभिन्न आयामों को अपने शेरों के माध्यम से कहते हैं। यह दौर ऐसा आ गया है जहाँ जिंदा रहने के लिए लूट, आतंक, चुप्पी, बेईमानी, विश्वासघात, कुतर्क आदि का सहारा लेना पड़ता है, राहत इंदौरी का एक शेर है-

आंखों में पानी रखो, होठों पर चिंगारी रखो,
जिंदा रहना है तो तरकीबे बहुत सारी रखो।

दरवेश भारती भी आम आदमी को जिंदा रहने के लिए इसी तरह की कलाकारी सीखने को कहते हैं-

जिंदगी जीना कहाँ आसान है इस दौर में,
इस को जीने के लिए फनकार होना चाहिए।

बाजारवाद की नींव दो चीज पर टिकी है-कृत्रिमता और प्रतिस्पर्धा; जो जितना दिखता है वही बिकता है यही बाज़ार का मुख्य ध्येय है। बाज़ार में कोई किसी का सगा नहीं होता राजनीति की तरह, यहाँ सिर्फ़ स्वार्थ और पैसा चलता है। यह नीति व्यापार एवं मुनाफे तक ठीक था लेकिन जब यही नीति जीवन जीने तथा रिश्ते निभाने में आने लगी तब मानवीय समाज अस्त-व्यस्त और कृत्रिमता से लैश हो गया है; जहाँ थोड़े स्वार्थ के लिए रिश्ते टूट जा रहे हैं, तलाक हो जा रहा है, हत्या कर दी जा रही है, घुट-घुट कर लोग आत्महत्या कर ले रहे हैं, वृद्धों की स्थिति दयनीय हो गई है आदि। घर में बाजारवादी नीति के प्रवेश करने से ग़ज़लकार आहत और खिन्न है जो आम आदमी को स्वार्थ के मैदान में खड़ा कर रेस का घोड़ा बना दिया है-

घरों तक आ चुके बाजारबाद ने यूं किया,
कि आज अपने ही अपनों से जा रहे हैं छले।

भागदौड़ की ज़िन्दगी में आज अपने लिए समय नहीं है; हम किसी समस्या या झगड़े का निपटारा मिल बैठकर नहीं करते हैं। अब मानवों के खून में नफरत तथा आत्ममुग्धता इतना अधिक फैल चुकी है कि उसे अपने सिवा हर चीज़ बकवास नजर आती है-

आदतन यूँ सोचता है हर कोई,
उसके साये से नहीं बेहतर कोई।

वे आम आदमी की कृत्रिमता और दोमुंहेपन से भी आहत हैं वे लिखते हैं कि जीवन में सजना-संवरना ज़रूरी है लेकिन दूसरे को हक मारकर नहीं; अगर हम अपने साथ-साथ दूजों को भी संवारे तो यह कृत्रिमता सही दिशा में जा सकती है-

सजावट लाजिमी है ज़िन्दगी में,
सजो खुद साथ औरों को सजाओ।

आम आदमी स्वार्थ की आग में दहक रहा है, वह स्वार्थ साधने के लिए मानवीय मूल्यों को ताक पर रख दिया है तथा स्व की मरीचिका में फंसकर जीवन तबाह कर रहा है। वह जिधर अपना फायदा देखता है उसी को अपना भगवान मान लेता है; रिश्ता, प्रेम, सियासत, मीडिया सबका यही हाल है। दोहरा चरित्र, नक़ाब के पीछे छुपा शैतानी चेहरा और कथनी-करनी में फर्क वर्तमान समय की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जा सकती है; वसीम बरेलवी जी का एक शेर है-

उसी को जीने का हक है जमाने में,
इधर का लगता रहे उधर का हो जाए।

इस संक्रमण काल में जहाँ मानवाता का कोई अस्तित्व नहीं रहा ऐसे में किसी पर भरोसा करना, प्रेम करना, दोस्त बनाना बड़ा ही कठिन काम है। दरवेश जी की गजलें आम आदमी की स्वार्थपरता और गिरते मानवीय मूल्यों को समाहित करती है-

एक खुदा को छोड़कर सज्दा करे हैं दर-ब-दर,
आज हर एक शख्स ने कितने खुदा बना लिए।

बुलंदी पर पहुँचकर ज़्यादा अहंकार करने से बुलंदी और क्षमता दोनों की शक्ति छीन होती है-

बुलंदी हो बुलंदी-सी तो यह मशहूर करती है,
अगर हद से ज़्यादा हो तो यह मगरूर करती है।

टूटते बिखरते रिश्ते तथा पीढ़ीगत विचारों के द्वंद पर कवि लिखता है-

आज तक जो बाप से सुनता रहा था,
बाप को बेटा वह समझाने लगा है।

समाज में सच बोलना मौत को दावत देने जैसा है। यथार्थ की सच्चाई तथा सच का साथ देने वाला या तो समाज में कुचल दिया जाता है या मौत के घाट उतार दिया जाता है; न्यायालय, न्यायाधीश, सिस्टम, सत्ता, बाज़ार सब झूठ की बुनियाद पर चल रहे हैं ऐसे में आदमी मिथ्यापन को अपना रहा है और सत्य की आराधना करने वाले को दुश्मन मान रहा है-

सामने जो कहा नहीं होता,
तुमसे कोई गिला नहीं होता,
जो खफा है खफा नहीं होता,
हमने घर सच कहा नहीं होता।

समाज में परिवर्तन की मांग करने वाले, सच का साथ देने वाले तथा सत्ता से सवाल पूछने वालों का क्या हश्र होता है इस पर भी कवि चिंतित है-

वो इंकलाब के नारे जो गूंजे थे घर-घर,
दबा दिये गये यूँ उनका पता न चला।

लोकतंत्र की स्वार्थपरता तथा उसके गिरते स्तर से प्रभावित होकर आम आदमी "झुनझुना" मात्र बनकर रह गया है जब चाहे उसे कोई भी बजा देता है, लेखक की चिंता आम आदमी के इस हालात पर भी है-

हालात रही आवाम की क्या लोकतंत्र में,
दुष्यंत की जबान में सब झुनझुने रहे।

गजलकार की गजलों की एक चिंता वर्तमान लेखन परंपरा तथा मंचों को लेकर भी है, आज जब कवि-सम्मेलन और मुशायरा में साहित्य की जगह चुटकुले परोसे जा रहे हैं; कृत्रिमता से लैश कवि भावहीन होकर खूब पैसा कमा रहा है तथा सहित्य अपनी शुचिता पर आंसू बहा रहा है। साहित्य में सत्ता और बाज़ार का हस्तक्षेप उसकी जीवंतता को खत्म कर रहा है, वे आज के मुशायरा और कवि सम्मेलनों पर व्यंग करते हुए लिखते हैं-

कुछ इस तरह वह हसीं महफिलों की जान हुए,
जरा-सी दाद मिली क्या कि आसमान हुए।

इस पुस्तक का दूसरा पहलू-दोहा, नज्म तथा रूबाइयों का है, दरवेश जी के दोहे गजलों की भांति मारक तथा व्यंग्य प्रधान है, लक्षणा और व्यंजना जैसे शब्दशक्ति का सुंदर प्रयोग देखने को यहाँ मिल जाता है। दोहे की भाषा बहुत ही सरल है जो उन्हें अर्थवान और लोकप्रिय बनाती हैं। दोहों की विषय वस्तु की अगर बात करें तो यहाँ भी आम आदमी का दर्द दिख जाता है। वैयक्तिक मन की घुटन, सत्ता का स्वार्थपन, प्रेम तथा अध्यात्म जैसे विषयों पर दोहे लिखे गए हैं। आज देश की तरक्की सिर्फ़ कागजों पर हो रही है, योजनाएँ रोज बनती है, पैसे भी उठ जाते हैं लेकिन विकास जस का तस रहता है उदाहरण के लिए-गंगा कि सफाई, भ्रष्टाचार, किसानी समस्या तथा गरीबी उन्मूलन। दरवेश जी ने दोहों का प्रयोग सत्ता से सवाल पूछने के लिए करते हैं-

बाहर से तो लग रहे, उन्नति और विकास।
अंदर ही अंदर मगर, पसर रहा है हास॥

वर्तमान समय की सियासत में खिलाड़ी, कलाकार, अभिनेता आदि का खूब प्रवेश हो रहा है, वह कला का दो-चार हुनर दिखा कर चुनाव तो जीत लेते हैं लेकिन फिर कभी उस क्षेत्र में नहीं जाते और ना ही विकास के लिए कोई काम करते हैं; इस समस्या कि तरफ भी दोहाकार का ध्यान जाता है जो वर्तमान युग में प्रसांगिक भी है-

अभिनेता भी रंग गए, राजनीति के रंग।
कलावंत, गुणवंत ही दिखते आज मलंग॥

दरवेश जी की नज्में श्रृंगार, प्रेम, विरह तथा महापुरुषों पर लिखी गई हैं, व्यक्ति के मन को शुद्ध करने तथा इसकी अस्मिता को सीमित करने की बात इनकी नज्म करती नजर आती है तो वहीं दूसरी ओर महापुरुषों के जीवन से सीख लेकर अपना जीवन संवारने तथा समाज में निर्वासित लोगों को मुख्यधारा में लाने की भी बात करती है-

पथ के संकट टीलों से टकराना होगा,
हिंसक जीवों को भी गीत सुनाना होगा,
क्लेश-कंटकों को-को भी गले लगाना होगा,
नव-साहस, नव प्राण, नव बल से बढ़ना रे मन।

इसके अतिरिक्त उन्होंने उर्दू का प्रसिद्ध छंद "तज्मीन" में भी कविताएँ लिखी हैं तो वहीं संस्कृत के कुछ नीतिपरक श्लोकों का पद्यानुवाद कर "संजीवनी" के रूप से संकलित किया है इसके अतिरिक्त उन्होंने कत्आ** तथा सोनेट भी लिखे हैं। उनकी रुबाई सरल शब्दों में कही गई है इसलिए वह जनमानस के काफी करीब जान पड़ती है, इनकी रूबाइयों में प्रेम, सवाल तथा समस्याएँ एक साथ दृष्टिगोचर होती हैं वह सियासत की बाजारवादी नीति और चरित्र पर एक रुबाई लिखते हैं-

कल था दुनिया पर छाया कोई,
है पड़ा आज औंधा कोई,
यह सियासत भी क्या चीज है,
इसका आगा न पीछा कोई।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दरवेश जी की शायरी आम आदमी की जज्बातों के साथ-साथ उनके दुख-दर्द और संघर्षों की कहानी भी लिखती है। उर्दू के लफ्जों का भरपूर इस्तेमाल इनके भावों को कहीं-कहीं दुरूह ज़रूर बनाती है लेकिन शिल्प की कसावट उसे अतिदुरूह होने से बचा ले जाता है। अतः कह सकते हैं कि प्रांजल भाषा का प्रयोग कर आम आदमी की व्यथा का महाकाव्य इस पुस्तक में लिखने की सफल कोशिश की गई है। तभी तो राहुल शिवाय कहते हैं-

शायरी की कश्तियों का बन गया पतवार वो,
दर्द की लहरों से ग़ज़लों की रवानी दे गया।