कविता में प्रकृति की लय (विजेंद्र) / नागार्जुन

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दरअसल नागार्जुन प्रकृति के कवि नहीं हैं। प्रकृति उनके यहां प्रसंगात् है। आकस्मिक है। पर जब भी वे कविता में प्रकृति चित्रित करते हैं, बेजोड़ होती है। हिंदी में सुमित्रानंदन पंत पूरी तरह प्रकृति के कवि हैं। कहना चाहिए, प्रकृतिमय। निराला उतने प्रकृतिमय नहीं हैं। पर वे प्रकृति को अपने कवि से अलग नहीं कर पाते। जनवादी कवियों में त्रिलोचन और केदार, दोनों ही प्रकृति के बिना अधूरे हैं। नागार्जुन की कविता से यदि प्रकृति की कविता निकाल दी जाये तो उनकी कविता के सारतत्व में बहुत कम अंतर आयेगा। अंग्रेज़ी में महाकवि वर्डस्वर्थ बिना प्रकृति के कविता लिखने की प्ररेणा ही नहीं पाते। उनके लिए प्रकृति एक मंदिर है। उसके वे एकमात्रा पुजारी हैं। नागार्जुन प्रकृति के प्रति इतने न तो आकर्षित हैं, न मोहासक्त। यहां मुझे एक संस्मरण याद आता है। नागार्जुन भरतपुर मेरे घर कई दिन रहे। पर उन्होंने भरतपुर के विश्वविख्यात पक्षी विहार ‘घना’ को देखने के लिये कोई इच्छा नहीं जतायी। एक-दो बार मैंने संकेत भी किया, पर टाल गये। त्रिलोचन जितने दिन मेरे यहां भरतपुर रहे, उनका ज़्यादा समय ‘घना’ में ही बीता। उन्होंने वहां की प्रकृति का रेशा रेशा नाम और गुणों से जानना चाहा। वहां के किसानों से बातचीत कर वहां के वृक्षों, वनस्पतियों, बेलों, लताओं तथा झाड़ियों को बड़ी उत्सुकता से जानने की बेचैनी दिखायी। यहां दो बड़े कवियों की प्रकृति के प्रति रुचि को जान सकते हैं। एक बार नेरुदा से किसी ने पूछा, उन्हें प्रकृति से इतना प्रेम क्यों है। उन्होंने कहा कि वे ‘प्रकृति से अलग होकर नहीं’ रह सकते। होटलों में कुछ दिन वे गुज़ार सकते हैं। एक-आध घंटे हवाई जहाज़ में रहना भी उन्हें अच्छा लगता है। लेकिन उन्हें सच्ची प्रसन्नता ‘वनों, रेत पर, या नाव खेते’ हुए मिलती हैμजहां आग, धरती, पानी और हवा से सीधा संपर्क हो सके। कवि का प्रकृति से सीधा संपर्क उतना ही ज़रूरी है जितनी कविता में शब्द की अचूक साधना। ऐसा आग्रह नागार्जुन का नहीं है। उनकी कविता का क्षेत्रा है संघर्षशील ‘सर्वहारा’, उसकी जयपराजय, उसका संगठित होना, किसान आंदोलन, श्रमिकों और मझोले किसानों का मज़बूत एका, बूर्जुआ सत्ता को ललकारते रहना, उसके कूट छद्म को तार तार करना, सामाजिक गतिकी को अग्रगामी दिशा देना, सर्वहारा के लिए एक सुंदर समतामूलक तथा सामाजिक न्यायपरक व्यवस्था का सपना देखना। इसी पृष्ठभूमि में प्रकृति भी उनको नयी ऊर्जा देती है। मुझे लगा, नागार्जुन में प्रकृति एक दुखांत नाटक के बीच अंतराल जैसी है। विश्व के महानतम नाटक रचयिता शेक्सपीयर के महान दुखांत नाटकों में किसी भी त्रासद दृश्य के बाद वस्तुस्थिति के बिल्कुल प्रतिकूल फ़िज़ा रची जाती है। इसके दो काम हैं। एक तो त्रासदी के असर को और गहरा करना, विपरीत फ़िज़ा बनाकर; दूसरे, जो घटा है, नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 265 उसके क्या नतीजे हो सकते हैं, उस पर सूझबूझ की रचनापरक टिप्पणी करना। नागार्जुन की समग्र कविता जनता के संघर्ष और उसकी त्रासदी की कविता है। ऐसी कविता पढ़ते-पढ़ते जब हम मनोरम प्रकृति के बीच कुछ क्षण गुज़ारते होते हैं तो हम उस तनाव से थोड़ा मुक्त अनुभव करते हैं। यह भी लगता है कि जीवन निरी त्रासदी नहीं है, उसमें जीवन का सौदर्य, उल्लास तथा उद्देश्यपरक सार्थकता बची हुई है। नागार्जुन की प्रकृति की लय में कई तरह के आरोह-अवरोह होकर भी उसकी केंद्रीय एकान्विति बराबर बनी रहती है। मुझे उनकी कुछ कविताएं बहुत महत्वपूर्ण लगीं। एक है, ‘पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने’। इस कविता की पृष्ठभूमि परमान नदी के आसपास की प्रकृति तथा नदी के कीचड़-भरे किनारे हैं। यहां कवि बिना किसी व्यवधान तथा दुनियादारी की हड़बड़ी से मुक्त होकर प्रकृति में आकंठ डूबना चाहता है। यह कातिक का महीना है। सुबह होने को है। सुबह होने का धुंधलका ओस बूंदों से भीगा है। कवि सोचता है: थोड़ी देर में सूर्योदय होगा। बाल रवि अगहन में पकने वाले धान की दुद्धी मंजरियों को आभामय बनायेगा। उनका सौंदर्य निखर उठेगा। कवि कीचड़ लिथड़ी खेत की मेंड़ों पर निकल जाता है। यहां के प्रशांत क्षणों में उसे अपना बचपन याद आता है। जैसे कवि कई युगों के बाद वहां लौटा हो। कवि के मन में बाल रवि को देखने की बड़ी इच्छा है। बाल रवि कभी महाकवि तुलसी ने भी देखा था। वे राम के संदर्भ में बिंब रचते हैं: ‘उदित उदय गिरि मंच पर / रघुवर बाल पतंग’। नागार्जुन बार-बार अपने साथी रत्नेश्वर को प्रकृति के बीच बड़े संकेत से सजग करते हैं। प्रकृति के बीच हड़बड़ी नहीं; न उतावलापन। इनसे रस भंग होता है। प्रकृति भी अपमानित अनुभव करती है। कविता में प्रकृति का फलक बड़ा है। यहां कवि का सूक्ष्म पर्यवेक्षण भी है। कवि को प्रतीक्षा है: शरद का बाल रवि परमान नदी की ‘द्रुतविलंबित लहरों’ पर चमकेगा। नागार्जुन की कविता में प्रकृति की लय ऐसे ही विलक्षण रूपकों से रची गयी है। सब जानते हैं, यह एक वर्णवृत्त है। इसमें प्रत्येक चरण में एक नगण, दो भगण, एक रगण होते हैं। मैंने सोचा, आखि़र नागार्जुन ने ऐसा अमूर्त रूपक, मूर्त लहरों के सादृश्य को क्यों चुना? शायद लहरों में व्याप्त मंद गति, जैविक लय, सौम्य नाद को व्यक्त करने के उद्देश्य से ऐसा अमूर्त तथा शास्त्राीय रूपक चुना हो। इससे बेहतर रूपक उन्हें और न लगा होगा। दूसरे, पंक्ति में कविता की लय खंडित नहीं होती। कई बार कविता में लय तथा वाक्यविन्यास साधने को कवि ऐसे रूपक, उपमा या विशेषण ले आता है जो सादृश्य की दृष्टि से उतने सटीक नहीं होते। न उनमें समृद्ध बिंब का भावसाहचर्य होता है। मूर्त वस्तु को एक ख़ास छंद जैसी अमूर्त वस्तु से क्यों बताया है कवि ने, यह सोचने की बात है। वैसे समृद्ध बिंब वही है जो अमूर्त भाव को मूर्त रूपक से कहे। मूर्त को अमूर्त से कहना कविता में अच्छा नहीं माना जाता। उपनिषद् में ऋषि को ‘जीव’ और ‘आत्मा’ जैसी अमूर्त चीज़ों को कहने के लिए ‘द्वा सुपर्णा’ जैसा जीवित बिंब चुनना पड़ा था। हमें वेदांत दर्शन से असहमति हो, पर बिंब आज भी तरोताज़ा और जीवित बना हुआ है। अमूर्त बिंब वाग्मिता या ‘कन्सीट’ कहे जाते हैं। शुक्ल जी इसे ‘अद्भुतत्त्व’ कहते हैं। नागार्जुन प्रकृति का जब चित्राण करते हैं, तब उन चीज़ों को भी कहते हैं जहां कवि अक्सर असजग रहे हैं। जैसे सैकतपुलिन, नीलकंठ, जवान पाकड़ की फुनगी, बूढ़े पीपल की बदरंग डाल, मौलसिरी की सघन पत्तियां आदि। प्रकृति के ये ऐसे उपकरण हैं जिन्हें सामान्यतः हम देखते सराहते हैं। इन से कवि रूपक, उपमा तथा विशेषण आदि भी उत्खनित करते हैं। पर कछारों के पास की कीचड़, उनमें बने पशुओं 266 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 के खुर, सामान्यतः कवियों की दृष्टि से ओझल रहते हैं। नागार्जुन ऐसी सामान्य चीज़ों को कभी नहीं छोड़ते। यही नहीं, कींच में बने पशु खुर उन्हें संुदर लगते हैं: उतर पडूंगा तत्क्षण पंकिल कछार में बुलायेंगे अपनी ओर भारी खुरों के निशान यहां ‘भारी खुर’ भी हमारा ध्यान खीचता है। संकेत है गाय, बैल, भैंस आदि के खुर। बकरी या हिरन के खुर नहीं। एक और अभिनव प्रसंग है। यानी कवि का सहसा ‘दुधारू भैसों’ की याद में मस्तक झुकाना। यहां एकदम बदला सौंदर्यबोध है। एक प्रकार से कुलीन सौंदर्यबोध पर रचनापरक व्यंग्य। नागार्जुन के यहां प्रकृति के ऐसे उपकरण नहीं हैं जिन्हें नया कहा जाये। दरअसल वे प्रकृति के बीच पहुंच कर उस लोक से जुड़ते हैं जो आज की कविता में लगभग ग़ायब हो रहा है। जनपदों तथा ग्रामांचलों से अपना रिश्ता बनाते हैं। आज की कविता में प्रकृति का न होना संकेत है कि हम लोक से कटे हैं। हमने अपने जनपदों को भुलाया है। ग्रामांचलों की उपेक्षा की है। परोक्षतः हम अपनी जातीयता के रंग को खोते जा रहे हैं। नागार्जुन हर बार सजग करते हैं कि हम अपने जनपदों को न भूलें। ग्रामांचलों से दूरियां न बनायें। अपनी जातीय जड़ों को न त्यागें। इसी व्यापक संदर्भ में वे कहते हैं: यह बाल रवि कहां दिखता है रोज़ रोज़ सोते ही बिता देता हूं शत शत प्रभात छूट सा गया है जनपदों का स्पर्श (हाय रे आंचलिक कथाकार) यहां मध्यवर्गीय कुलीन जीवन शैली पर भी व्यंग्य है। हम बाल रवि न देख कर प्रौढ़ रवि ही देख पाते हैं। इसमें कवि अपने को भी शामिल करता है। जनपद की याद त्रिलोचन को भी आती है: उस जनपद का कवि हूं जो भूखा दूखा है नंगा है, अनजान है, कलाμनहीं जानता कैसी होती है, क्या है ऐसी ही जनपदीय चेतना केदार बाबू में है। न तो ‘केन नदी’ को भूलते हैं, न ‘टुनटुनिया पत्थर’ को, न बुंदेलखंड के ‘कठा आदमियों’ को। ये तीनों कवि भारतीय महान काव्य परंपरा को इसी तरह विकसित करते हैं। उसका पुनर्नवन भी करते हैं। जनपदों, ग्रामांचलों तथा लोक से दूरी बनाकर हमने अपनी संघर्षशील जनता से भी दूरी बनायी है। कविता की लोकधर्मी पहचान भी खोयी है। उक्त कविता के प्रकृति चित्राण में अहम बात है, कवि के आस्थागत अंतर्विरोध। नागार्जुन अपने को नास्तिक कहते रहे हैं। लेकिन प्रकृति के बीच वे अपने को जनजीवन के इतने क़रीब पाते हैं कि उन्हें उसी में ‘अस्ति’ का भाव प्रतिबिंबित होता लगता है। वैसे ‘अस्ति’ का अर्थ ईश्वर में विश्वास करना हमारे यहां जानबूझ कर चलाया गया है। यह अब एक रूढ़ि है। अस्ति का अभिप्रायमूलक अर्थ है किसी सत्ता को मानना। प्रकृति से बड़ी और कोई सत्ता नहीं है। यह विज्ञान सम्मत सत्य है। वह हम से स्वायत्त है। हमने उसका सृजन नहीं किया। वही मनुष्य के अस्तित्व का मूल है। इसी व्यापक अर्थ में नागार्जुन प्रकृति को ‘अस्ति’ मानते हैं। अपने को तत्क्षण ‘आस्तिक’। कई बार प्रकृति के बीच हम ‘स्व’ को भूलते नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 267 हैं। अपनी मानवीय सीमाओं से ऊपर उठते हैं। यह प्रकृति का विरल प्रभाव है जो हमें उसकी स्वायत्त सत्ता को मानने के लिए विवश करता है। नागार्जुन जब कहते हैं: ‘पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने मेरे नास्तिक को’, इसका सार है प्रकृति की सर्वस्वायत्तता को स्वीकार कर उससे अपने द्वंद्वमय रिश्तों को समझना। प्रकृति को लेकर उनकी दूसरी महत्वपूर्ण कविता है, ‘मेरी भी आभा है इसमें।’ यहां भी सूर्य से कविता का प्रारंभ होता है। सूर्य नागार्जुन की कविता में रूपक, उपमा, विशेषण तथा प्रतीक के रूप में बराबर प्रयुक्त हुआ है। इसमें संदेह नहीं नागार्जुन प्रकृति की स्वायत्त सत्ता को नतमस्तक होकर स्वीकार करते हैं। पर उसे मनुष्य निरपेक्ष नहीं, मानते। उनके लिए वह सापेक्षतः स्वायत्त है। जो विशाल भूखंड सूर्य से तप रहा है, वह मनुष्य निरपेक्ष नहीं है। कवि उसमें अपनी भी आभामय छवि देखता है। यानी यदि मनुष्य न हो तो सूर्य को कौन सराहेगा। इसीलिए कवि का यह कहना बहुत ही प्रासंगिक है: नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है मेरी भी आभा है उसमें। इसका एक सांकेतिक अभिप्राय यह भी हो सकता है कि आज़ादी के बाद जो भारत निर्मित हुआ है, उसमें कवि की, यानी सामान्य जन की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। पहली कविता में प्रकृति सर्वसत्ता है। यहां वह मनुष्य सापेक्ष है। कुछ लोगों को यह कवि की दृष्टि का अंतर्विरोध लग सकता है। पर वह है नहीं। नागार्जुन का काव्य-विज़न दो विपरीत तत्वों की एकरूपता का सच है। हर बड़े कवि में ऐसा होता है। इसे अंतर्विरोध न कहकर दो विपरीत तत्वों की एकरूपता कहना ही उचित होगा। यानी प्रकृति सर्वसत्ता है। वह निरपेक्ष है। पर मनुष्य के बीच यह मनुष्य सापेक्ष भी है। विपरीत तत्वों की एकरूपता का मार्क्सवादी सिद्धांत वैश्विक है। कालातीत भी। ‘ईश’ उपनिषद् में शांति पाठ है। वहां कहा गया है: पूर्णमदः पूर्णमिदम् यानि ‘इदम्’ वस्तु सत्य भी पूर्ण है। ‘अदः’ जो इदम् नहीं है, वह भी पूर्ण है। यदि मार्क्सवाद की भाषा में कहें तो एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं हो सकता। यही नहीं, ये दोनों परस्पर टकराते हैं। सहअस्तित्व भी बनाये रखते हैं। परस्पर निर्भर होते हैं। इसीलिए अंतर्विरोध सार्वभौम सत्य है। विपरीत तत्वों की एकरूपता इसका सार है। जीवन और प्रकृति में दोनों छाया-प्रतीति तथा सारतत्व की तरह दृश्य-अदृश्य तथा व्याप्त रहते हैं। इससे लगता है, नागार्जुन की पहली कविता तथा दूसरी कविता के अंतरंग सूत्रा जुड़े हैं। यही वजह है, स्थिति आने पर विपरीत तत्व एकरूप होकर सजीव हो उठते हैं। यहां तक कि वे एक दूसरे में बदल भी जाते हैं। नागार्जुन सूर्य की प्रचंडता में, भीनी-भीनी खुशबू वाले रंग-बिरंगे खिले फूलों में, भरे खलियानों में, अपनी रगों में बहते शोणित की बूंदों में जब अपने अस्तित्व की आभा देखते हैं, तो वे विपरीत तत्वों की एकरूपता का ही अनुभव करते लगते हैं। आखिर कोई कवि प्रकृति के रूपक, उपमाएं, विशेषण, उत्प्रेक्षाएं क्यों चुनता है। यह हमारे अचेतन की वह चिकीर्षा है जो प्रकृति को अपने अनुसार रूपांतरित होते देखना चाहती है। प्रकृति का मानवीकरण कविता में इसका बेहतरीन उदाहरण है। नागार्जुन अपनी एक कविता में कहते हैं: 268 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 गीली भादों रैन अमावस कैसे ये नीले उजास के अच्छत छींट रहे जंगल में कितना अद्भुत योगदान है इनका भी वर्षा मंगल में लगता है ये ही जीतेंगे शक्ति प्रदर्शन के दंगल में लाख-लाख हैं सौ हज़ार हैं कौन गिनेगा बेशुमार हैं मिल-जुल कर दिप-दिप करते हैं कौन कहेगा जल मरते हैं जान भर रहे हैं जंगल में जुगनू हैं ये स्वयंप्रकाशी पल-पल भास्वर, पल-पल नाशी कैसा अद्भुत योगदान है इनका भी वर्षा मंगल में इनकी विजय सुनिश्चित ही है तिमिर तीर्थ वाले दंगल में इन्हें न तुम बेचारे कहना अजी यही तो जोति कीट हैं जान भर रहे हैं जंगल में यह पूरी कविता नागार्जुन में प्रकृति की लय को और खोलती है। यहां गीली, भादों की अमावस रात है। अंधेरी छायी है। जुगनू उस अंधेरे को प्रकाश के अच्छत छींट कर भंग कर रहे हैं। कवि कहता है कि वर्षा मंगल में इन जुगनुओं का अद्भुत योगदान है। एक जगह कवि प्रकृति में मनुष्य की आभा देखता है। यहां वह जुगनुओं को अंधकार के विरुद्ध योद्धाओं की तरह लड़ते देखता है। इस वाक्य में आकर, कि ‘लगता है वे ही जीतेंगे...’ मानो जुगनू सर्वहारा शक्ति के प्रतीक बन गये हों। वे असंख्य हैं, प्रदर्शन के दंगल में। मिल-जुल कर दिप-दिप प्रकाश करते हैं। हमें यह न समझ लेना चाहिए कि वे पल भर में जल कर नष्ट हो जायेंगे। वे स्वयंप्रकाशी है। यानी अपनी आंतरिक शक्ति से ही वे प्रकाशित होते हैं। यह भी कि वे हर क्षण प्रकाशित हैं। हर क्षण नष्ट होते हैं। यह द्रव्य के ऊर्जा में और ऊर्जा के द्रव्य में बदल जाने की प्रक्रिया है। उसकी अनूठी लय है। प्रकृति हो या जीवन, नष्ट कुछ नहीं होता। रूप बदलता है। उसके साथ वस्तु का गुण धर्म और सौंदर्य बदलता है। इनकी विजय सुनिश्चित ही है तिमिर तीर्थ वाले दंगल में जुगनुओं में कवि सर्वहारा जैसी अजेय शक्ति का संकेत करता है। जो अंधकार को तोड़ते हैं, उन्हें असहाय या बेचारे कहना ठीक न होगा: नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 269 उन्हें न तुम बेचारे कहना अजी यही तो ज्योति कीट हैं, जान भर रहे हैं जंगल में यह वही प्रक्रिया है जहां कवि कविता में प्रकृति को रूपांतरित होते देखना चाहता है। यानी वह सर्वस्वायत्त होकर भी निरपेक्ष नहीं है। हमारे यहां इसी को आचार्य आनंदवर्धन ने बड़े औचित्य से कहा है: अपारे काव्य संसारे कविरेकः प्रजापति यथास्मे रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते यहां भी बलाघात कवि की इच्छानुसार वस्तु जगह को रूपांतरित करने पर है। यह रूप परिवर्तन वस्तु में निहित अंतर्विरोधों की बारीक़ प्रक्रिया से ही संभव होता है। मार्क्स का मत है कि सारी पौराणिक कथाएंμमिथक में कल्पना के द्वारा प्रकृति की शक्तियों पर काबू पााने की इच्छा का ही प्रतिबिंबन है। नागार्जुन द्वारा प्रकृति से उत्खनित रूपक, उपमाएं, उत्प्रेक्षाएं, विशेषण या प्रकृति का मानवीकरण इसी सत्य की ओर संकेत करते हैं। ध्यान देने की बात है कि कवि प्रकृति में चाहे जितना डूबा रहे, वह सर्वहारा का संघर्ष कभी विस्मृत नहीं करता। वह उनकी कविता का सर्वदा नाभिकेंद्र बना ही रहता है। सर्वहारा-चेतना के प्रति इतनी सजगता बहुत कम कवियों में मिलेगी, प्रकृति के साथ, उसके व्यापक संदर्भ में। नागार्जुन को ‘शिशिर की निशा’ धुंध में डूबी लगती है। ‘नखत उदास’ लगते हैं। चांद गगन के बीचो-बीच ‘खांसता’ दिखता है। वह ‘हांफता’ भी है। मुक्तिबोध को चांद का मुंह आखि़र टेढ़ा क्यों लगा होगा? नागार्जुन को घन ‘कुरंग’ लगता है। मेघ ‘बजते’ हुए लगते हैं। सूरज उन्हें ‘तेजाब की फुहारें’ छिड़कता लगता है। कलियां ‘मुंहबायीं’ लगती हैं। कोयल ‘क़लमुंही।’ नागार्जुन में प्रकृति की लय का एक और रुचिकर पहलू है। वह प्रकृति द्वारा किये गये विनाश में ही निर्माण देखते हैं। यह सच भी है। जैसे जीवन के साथ मृत्यु। अंधकार के साथ आलोक। यानी एक का अस्तित्व दूजे के बिना आधा-अधूरा है। विपरीत तत्वों की एकरूपता का मार्क्सवादी नियम द्रव्य के हर रूप पर हर जगह लागू होता है। हम बाढ़ को नहीं चाहते। सूखा से डरते हैं। पर दोनों ही सच हैं। इनमें से एक के बिना दूसरे का सच अधूरा है। प्रकृति विपरीत तत्वों की एकरूपता को कभी नहीं त्यागती। नागार्जुन ने इस बात को अपने काव्य संग्रह की एक कविता ‘चीलों की चली बारात’ में भलीभांति कहा है: लाभकारी जलप्रलय को गालियां मत दे अबे, नादान न आये सैलाब तो बंजर बनेगी भूमि, उपजेगा कहां से धान? यहां वही ध्वनि है। विनाश और निर्माण का सह-अस्तित्व अनिवार्य है। यह प्रकृति का अटल नियम है। इसे मनुष्य नहीं बदल सकता। सामान्य पाठक नागार्जुन की यह बात सुनकर कुछ चकित हो सकते हैं, पर यह सच है। न हम बाढ़ को रोक पाये हैं। न अकाल को। दोनों को मनुष्य झेलता है। उनसे लड़ता है। जीता है। प्रकृति की यही लय है नागार्जुन की कविता में, जो विपरीत तत्वों की एकरूपता के द्वंद्व तथा सहअस्तित्व को कहती है। इसी कविता में कवि मनुष्य की अनुमानित अजेय शक्ति तथा प्रकृति के अविजित रूप को आमने-सामने रखता है। यह सच है, प्रकृति अपने विकराल रूप में विनाश करती है। पर हमने उसे जीतने के प्रयत्न कम नहीं किये हैं। प्रकृति और मनुष्य के बीच सहअस्तित्व 270 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 तथा संघर्ष सतत है। रहा है। आगे भी रहेगा। क्योंकि इसके बिना कोई विकास संभव नहीं है। न नवनिर्माण की कोई संभावना बचती है। नागार्जुन कहते हैं: चुनौती है तुम्हारी सामर्थ्य को बस कोसी के असंयत तीर हो रहे हम क्षुब्ध और अधीर देख लो तुम हमारा दृश्य चीर प्रकृति के दुर्दांत पैरों को न सकती बांध क्या जनशक्ति की जं़जीर हाय नाहक देश माता के दृगों से बह रहा है नीर। यहां प्रकृति की अविजित शक्ति को जनशक्ति की चुनौती है। मनुष्य का समग्र इतिहास ऐसी चुनौतियों से भरा पड़ा है। महाविनाश होते हैं। युद्धों से। बाढ़ से। सूखा से। अकाल से। मनुष्य ने प्रकृति को बहुत कुछ वश में भी किया है। पर अभी न भूकंप रुके। न सुनामी। न ज्वालामुखी उद्गार। पर यह सब होते हुए भी मनुष्य की सृजन-यात्रा रुकती नहीं। क्या यहां यह संकेत नहीं कि ध्वंस और निर्माण जीवन की समग्रता को बताते हैं। यदि हम सिर्फ़ निर्माण को ही सर्वसत्य कहें तो यह इतिहास और विज्ञान दोनों को झुठलाना होगा। नागार्जुन की कविता में प्रकृति की व्यापक लय हमें उक्त बात का सदा संकेत देती रहती है। कहना न होगा कि यही वह बारीक़ प्रक्रिया है जिसके द्वारा नागार्जुन प्रकृति के सौंदर्य को मानवमूल्यों की ऊंचाई तक ले जाते हैं। वे मनुष्य को सचेत भी करते हैं। ‘पुरानी जूतियों का कोरस’ में उनकी एक कविता है, ‘नदियां’ बदला ले ही लेंगीे’। पूरी कविता वर्तमान बूर्जुआ व्यवस्था पर सीधा प्रहार है। यहां प्रकृति बहुतायत में नहीं है, जैसा कविता के नाम से लगता है। पर कविता के अंत में कवि नदियों का प्रसंग उठाता है: हां, पानी में आग लगाओ नदियां बदला ले ही लेंगी नयन-नीर सिंचित खेतों को शोणित की धारें धो देंगी अंत करेंगी यही तुम्हारा यही तुम्हारी जड़ खोदेंगी यहां साफ़ है, नागार्जुन प्रकृति के क्रूर विदोहन की तरफ़ संकेत कर रहे हैं। इस संदर्भ में ‘मार्क्स की इकौलोजी’ (डंतगष्े म्बवसवहल रू डंजमतपंसपेउ ंदक छंजनतम इल श्रवीद ठमससंदल थ्वचेजमतए 2001) पुस्तक बहुत प्रासंगिक जान पड़ती है। इसके लेखक हैं, जॉन बैलामे फॉस्टर। मार्क्स ने बहुत पहले मनुष्य और प्रकृति के बीच ‘मैटॉबोलिक रिफ़्ट’ की बात कही है। उन्होंने माना है कि सारा समाज, एक राष्ट्र...ये सब पृथ्वीμप्रकृति के अर्थ मेंμके स्वामी नहीं हैं। बल्कि भोक्ता हैं। लाभ उठाने वाले। अतः इनका दायित्व है कि प्रकृति को समृद्ध और विकसित अवस्था में इसे आगे आने वाली पीढ़ियों को सौंप दें। उन्होंने संकेत दिया है कि पूंजीवादी व्यवस्था में प्रकृति और मनुष्य के बीच उक्त ‘मैटॉबोलिक रिफ्ट़’ बढता ही जायेगा। नागार्जुन इसी ‘रिफ़्ट’ को ‘पानी में आग लगाओ’ कहकर व्यक्त कर पा रहे हैं। नागार्जुन की प्रकृति में भूमि और बादल बहुत प्रमुख हैं। इन दोनों के अद्भुत चित्रा वह रच पाते नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 271 हैं। वे ‘काली-भूरी-पीली-मिट्टी’ की सुगंध से उल्लसित होते हैं। ‘रक्ताभा भूमि’ पर ‘उगते दूर्वांकुर’ उन्हें मोहते हैं। केरल की ‘सरसब्ज़ धरती’ में धान, नारियल, काजू के वन उन्हें प्रेरित करते हैं। इसी भूमि से उन्हें ‘किसानों-श्रमिकों’ की नयी संस्कृति रची जाती दिखती है। ध्यान देने की बात है भारत में मझोले किसानों, भूमिहीन खेतिहरों तथा श्रमिकों को एकजुट किये बिना कोई बड़ा बुनियादी परिवर्तन संभव नहीं है, नागार्जुन की कविता में यह व्यापक काव्यध्वनि है। कई बार नागार्जुन को ‘भूमि दग्ध’ दिखती है। तो कई बार वह ‘रत्नप्रसविनी’ भी। उन्हें जन, जनपद, ग्रामांचल, तथा वहां की परिचित प्रकृति बहुत अच्छी लगती है। नागार्जुन निरी प्रकृति में नहीं खोते। जनपद और ग्रामांचलों की प्रकृति में किसानों की जीवन क्रियाएं खनकती रहती हैं। इसीलिए वे कहते हैं: प्रकृति की इस लीला को एक टक देखते रह जायेंगे। धरती का मानवीकरण वे बड़े संश्लिष्ट ढंग से करते हैं: धरती के बाल, मुखमंडल, कंधे, उभरे हुए सीने बीच-बीच में भींग जाते हैं मगर बिचारी धरती के होंठ सूखे-के-सूखे हैं। कवि ने होंठों के लिए ‘कगार’ रूपक चुना है। इसी तरह एक जगह कहते हैं, ‘झुलसा पड़ा’ है यहां ‘दिल का बगीचा’। नागार्जुन ने आदिवासियों से कहवाया है: जंगल और पहाड़ हमारे बाप हैं, चाचा हैं नदियां हमारी मां हैं, मौसी हैं, मामी हैं झरने हैं हमारे सगे ये खोह, वो झरमुट, वो कछार पत्रों टहनियों से छायी हुई ये झोंपड़ियां ये हैं हमारे, गांव, शहर, ज़िला (‘अपने खेत’ कविता से) ‘लाल खून’ से दरक गयी ‘धरती’ उन्हें बेचारी लगती है। असहाय भी। वहीं वसुधा को होता है ‘सुलभ सागर का आलंगिन’। नागार्जुन की कविता में वैसे तो लगभग सभी ऋतुओं के चित्रा हैं। पर उन्हें वर्षा ऋतु तथा बादल बहुत प्रेरित करते हैं। इसका कारण है, इन दोनों का किसान जीवन से गहरा जुड़ाव। बादलों को उन्होंने ‘आवारा’ कहा है। पावस को ‘ऋतुओं के प्रतिपालक ऋतुवर’। ‘शिशु घन’ कहा है। आगे कहा है, ‘वर्षा वो ऋतु है, ऋतुओं में सबसे महान’। नागार्जुन बादल को ‘भगवान’ भी कहते हैं। निराला ने भी बादल पर अनेक कविताएं लिखी हैं। पर उन्हें वसंत ज़्यादा प्रिय है। त्रिलोचन और केदार को भी। पर निराला बादल को ‘भगवान’ नहीं कहते। वे उसे कहते हैं ‘ऐ विप्लव के वीर’। जिसे ‘बुलाता कृषक अधीर’। नागार्जुन के बादल के साथ सभी किसान नालबद्ध हैं। किसान के साथ धरती है। कवि जानता है कि किसान भारतीय स्वाधीनता संग्राम के केंद्र में है। इस तरह नागार्जुन किसानों और श्रमिकों को एक करने की प्रक्रिया को तेज़ कर रहे हैं। केदार में भी कहीं-कहीं यह प्रक्रिया लक्ष्य की जा सकती है। मुक्तिबोध में किसान लगभग ग़ायब हैं। कहीं-कहीं नागार्जुन की कविता में प्रकृति चित्राकला के 272 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 क़रीब पहुंचती लगती है: ‘श्वेत घनों से प्रतिबिंबित है/श्याम सलिल झीलों का आनन।’ नागार्जुन ‘बेलगाम लहरों’ से ‘मछुआरों का गठबंधन’ दिखाते हैं। पानी की सतह पर ‘ढेर-ढेर झाग’, ‘कास-कुसुमों’ का भ्रम पैदा करते हैं। कई बार नागार्जुन एक साथ प्रकृति में विरोधी और चौंकाने वाली स्थितियों को बताते हैं, रत्नगर्भा संकलन में ‘राम-लक्षमण’ कविता की पंक्तियां हैं: नीरज नील निरभ्र परम रमणीय ज्यों हो शरद् प्रकृति का विजय वितान इसके तत्काल बाद कहते हैं: सड़ी घास की, सड़े पात की गंध अध सूखे कर्दम की गीली वास नागार्जुन में कीचड़ की छवियां बार-बार आती हैं। उनकी पूरी कविता से ध्वनि आती है कि वे कुलीन सौंदर्यबोध को देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकते। दूसरे, वे यथार्थ की भूमि से कभी दूर नहीं होना चाहते। कहा भी है: अधसूखे कर्दम की गीली वास ध्यान खींच है लाती है भू पर, ओह इसके बाद धरती पर पशु खुर, कंटक, चरवाहों के पैर, जो अपनी छाप छोड़ गये हैं धरती पर। सच में कहा जाये तो ‘नीरज नील नीरभ्र परम रमणीय’, नागार्जुन की चित्तभूमि नहीं है। उनकी रुचि है विकट झाड़-झंखाड़ों में। मिथिला की भूमि में है। वे जामुन, लीची, कटहल, आम, शरीफा, कदली-थंभ आदि में रुचि लेते हैं। कहा है: गणों में ज्यों हम लिच्छवि श्रेष्ठ फलों में त्यों यह राजा आम ‘रत्नगर्भा’ शीर्षक लंबी कविता में नागार्जुन पृथ्वी की अनदेखी खनिज दुनिया का भी बखान करते हैं: देख कर हरे-भरे ये क्षेत्रा मुदित होते न तुम्हारे नेत्रा ... रजत, कांचन, मणि, मुक्ताजाल पद्म, हीरक, वैदूर्य, प्रवाल ... लाख, अबरख, शीशा, औ कांच कांस, पीतल, लोहा ताम जाने और कितने हैं जिनकी गिनती नहीं कही जा सकती। गिनाऊं यदि चीज़ों के नाम सुबह से हो जायेगी शाम नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 273 कई बार नागार्जुन प्रकृति के वर्णन से कुलीनों के सौंदर्यबोध को आहत कर हमें चौंकाते भी हैं: ‘कावेरी सागर कन्या रेत पर सोयी सारी रात / दिव्य मूत का लवण सरोवर...’। कहकर जैसे वे स्वयं पर ही हंस रहे हों। नागार्जुन की प्रकृति-लय में ‘हिम के फाये’ बरसते हैं। दांतदार पहिया से तराशी जाती है परत-परत। उन्हें ‘अलसी के ताज़े फूल’, ‘अमराई की मंजरियां’, ‘टूसे....’, ‘फूट रहे गंध कषायित गुच्छ/अरुण हरित-प्रभु मंजरियों के’ अच्छे लगते हैं। नागार्जुन को नंगी टहनियां अच्छी लगती हैं। ‘पत्रा हीन नग्न गाछ’। इसी तरह ‘गंवई चंदनवर्णी पगडंडियां’ उन्हें आकर्षित करती हैं। ‘चंपई कांति’, ‘गुलाबी धूप’ के प्रसंग शमशेर की कविता की याद दिलाते हैं। नीम, सहजन, आमला, अमरूद, महुआ, शालवन तथा देवदार आदि वृक्षों के चित्रा बड़ी खूबसूरती से सामने आते हैं। नागार्जुन ने पुरवैया को ‘छिनाल’ कहा है। पिछले दिनों इस शब्द को लेकर हिंदी में बड़ा बवाल मचा था। सामाजिक अंतर्विरोध दिखाने को नागार्जुन दो-टूक बात प्रकृति के माध्यम से कहते हैं: बेबस-बेसुध सूखे रुखड़े हम ठहरे तिनकों के टुकड़े टहनी हो तुम भारी भरकम डाल बीत गयी सर्दी बीत गया माघ रानी के खसम ने मारा है बाघ जैसा मैंने शुरू में कहा, नागार्जुन मूलतः प्रकृति के कवि नहीं हैं। प्रकृति उन्हें लोक से संपर्क रखने तथा उसके संघर्ष को दिखाने का नाटकीय अंतराल है। दूसरे, उनके यहां बहुत ऊबड़-खाबड़, वन-बेहड़ों, खादर, डांग, पर्वतों, चट्टानों, पठारों, रेत के ढूहों, रेतीली लहरों, आदि के चित्रा ना के बराबर है, जैसे मुक्तिबोध की कविता ‘चंबल की घाटी’ में हैं: अजी यह चंबल की घाटी है पहाड़ों के बियावान अजीब-उठान और धंसान-नीचाइयां पठार के दर्रे, कटीले कगार सूखे झरनों की बहुत तंग और गहरी हैं पथरीली गलियां गोल-गोल टीले व खंडहर-गढ़ियां नागार्जुन में छोटानागपुर की पठारी चट्टानों के चित्रा भी नहीं हैं। दरअसल निराला की तरह नागार्जुन, केदार तथा त्रिलोचन में गंगा-जमुना के दोआब की प्रकृति बोलती है। उसमें भी नागार्जुन में मिथिला, केदार में बंुदेलखंड, निराला और त्रिलोचन में अवध के इलाके की प्रकृति की लय प्रमुख है। इन बड़े कवियों में प्रकृति उनकी विश्वदृष्टि तथा अचेतन की परतें तो खोलती है, पर वह स्वयं एक स्वायत्त चरित्रा नहीं बन पाती, जैसे वाल्मीकि में या कालिदास में। अंग्रेज़ी के महाकवि वर्डस्वर्थ तथा प्रसिद्ध उपन्यासकार टॉमस हार्डी में प्रकृति स्वायत्त चरित्रा के रूप में अपनी लय रचती है। बल्कि कहें, विश्व के विराट मंच पर वह एक अदभ्य अभिनेता की भूमिका निभाती है। यहां यह सवाल ज़रूर उठेगा कि विश्व के सभी महान कवियों में प्रकृति की अभिप्राय-मूलक प्रचुरता 274 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 है। वह कविता में आज भी बिलकुल ताज़ा छवियों के साथ जीवित है। उसकी लय बड़ी व्यापक है। वह कविता में बिखरे सूत्रों को एक सूत करती है। हमारे प्राचीन क्लैसिक्स के विचार भले ही पुराने पड़ गये हों, पर प्रकृति के समृद्ध बिंब आज भी उसी तरह मनुष्य के आभ्यंतर सौंदर्य की लय बनाते हुए हैं। उनकी स्वायत्त अस्मिता हमें आज भी आकर्षित करती है। वह बड़ी जीवंत है। यदि उसे कविता से निकाल दिया जाये तो बहुत सारी कविता विरस होगी। इकहरी भी। कविता की इस अपूरणीय क्षति का कोई विकल्प नहीं जो उसकी जगह ले सके। पर क्या वजह है, आज की अधिकांश कविता से यह ग़ायब है। क्या प्रकृति की लक्षित अनुपस्थिति ने कविता को इकहरा नहीं बनाया? क्या वह सिलपट नहीं दिखायी देती? क्या उसमें समृद्ध भावसाहचर्यों की कमी नहीं अखरती? हमारे महान कवि नागार्जुन की कविता में प्रकृति की लय के साथ हमें इस बात पर भी आगे सोचने की ज़रूरत है। कविता की ज़्यादा क्षति न हो, उसके लिए भी यह ज़रूरी है। मो.: 09928242515