कवियत्री बनने का चस्का / अर्चना चतुर्वेदी

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कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर होता है और दिमाग किसी महिला का हो तब तो पूछो ही ना। इनका खाली दिमाग तो नित नए चस्के का घर बन जाता है। इधर बच्चे बड़े हुए और उधर हम जैसी महिलाएँ खाली हुई. फिर लगेगा किसी को सास बहु के नाटक देखने का चस्का, तो किसी को नारद मुनि बनने चस्का यानी बातें इधर उधर करने का चस्का, किसी को सजने संवरने का तो किसी को शोपिंग का चस्का लगते देर नहीं लगती। इसी तरह हमारे बच्चे भी बड़े हो गए और अपने कामों में व्यस्त हो गए और हमारा दिन काटना मुश्किल होता जा रहा था। अब हम शहर की लुगाइयों के पास गांवो की लुगाइयों की तरह काम तो होते नहीं हैं। और घर भी छोटे छोटे, उनमें भी आधे काम महरी कर जाए, सो हमें तो मन लगाने को ही कुछ काम चाहिए था, सो हम कम्प्यूटर पर अपना समय पास करने लगे और फेसबुक पर अकाउंट खोल लिया, अरे फेसबुक वही जहाँ लोग बाग़ अपने फोटो और दिन भर की क्या खाया, कहाँ गए, वाली खबर देते हैं। हम भी लोगों की बातें पढ़ते, फोटो देखते ऐसे ही बखत काट रहे थे कि एक दिन हमने देखा कि कुछ लोग दो-दो चार चार लाइन की कवितायेँ डालते हैं और बहुत से लोगों की वाह वाही बटोरते हैं। कविता भी क्या निरी तुकबंदी होती "मैंने बनाई चाट और उसकी लग गयी वाट" टाइप अब हमने सोचा ये तो हम भी कर सकते हैं, आखिर पढ़े लिखे हैं और बचपन में बड़ी तुकबंदी की हैं जैसे मामा पजामा, भाभी चाबी... की तरह। सो हमने भी तुक भिड़ानी शुरू की और फेसबुक पर चेपने लगे और लोग खूब तारीफें करते... वाह क्या लिखा है ...बहुत खूब आदि आदि

अब तो मानो हमें चस्का ही लग गया कवितायेँ लिखने का और अपनी तारीफें सुनने का। वैसे भी हर बड़ा लेखक अपने लेखन की शुरुआत कविताओं से ही करता है, ये तो हमें भी पता था। अब तो आलम ये था कि पति देव के ऑफिस जाते ही घर का काम जल्दी पलदी निपटाते और कम्प्यूटर चला कर बैठ जाते और कवितायेँ लिखना शुरू। एक आध कवितायेँ दूर दराज की पत्रिकाओं में भी छप गयीं जिन्हें हमने अपने फेसबुक पर शेयर कर डाला और खूब लाइक बटोर डाले। ये बात और थी कि उन पत्रिकाओं का नाम किसी ने नहीं सुना था।

धीरे धीरे हमने और कवियत्रियों से दोस्ती शुरू की... और साहित्यिक कार्यक्रमों में भी जाने लगे, एक आध मंच पर कविता सुनाने का और बड़े कवियों के साथ फोटो खिचाने का मौका क्या मिला, हम खुद को सरोजनी नायडू से कम ना समझते। और कविता सुनाने का चस्का तो ऐसा लगा कि हर किसी को कविता सुना डालते, अब वह चाहे घर आया मेहमान हो या काम करने वाली महरी और तो और सामने वाला कुछ समझ रहा है या बोर हो रहा है, हमें कोई मतलब नहीं होता ये जानने का, हमें तो कविता सुनाने से मतलब। पर सुनाने के बाद पूछते ज़रूर "बढ़िया लिखी है ना हमने" ? अब कोई शरीफ आदमी बेचारा यही कहेगा ना हाँ-हाँ बहुत बढ़िया लिखी है, फिर तो हम कहते "अरे ये वाली और सुनो बहुत गजब लिखी है" और दोचार कवितायेँ और सुना डालते, ये बात और थी कि उस बेचारे की शक्ल पर ही दीखता मानो कह रहा हो "कहाँ फंस गए यार" पर इससे हमें क्या?

धीरे धीरे हालात ऐसे हो गए कि लोगबाग़ हमसे कतराने लगे और ज्यादातर लोगों ने हमारे घर आना तो छोड़ ही दिया, अपने घर बुलाने से भी बचते। कतराते तो पतिदेव भी थे, जो पतिदेव एक समय कविसम्मेलन सुनने जाते, टीवी पर कविता के कार्यक्रम देखते, वह अब कविता से दूर भागने लगे थे। और तो और हम कोई कविता ना सुना डालें आते ही कहते "डार्लिंग आज बहुत काम था ऑफिस में बहुत थक गया हूँ, खाना परोस दो, खाकर जल्दी से सो जाऊँगा" पर हम भी हार नहीं मानते, खाना परोस कर देते और जब तक वह खाते, दो चार कवितायेँ सुना डालते ये कहकर "जानू आज ही लिखी हैं और आपके अलावा सही ग़लत कौन बताएगा? आप ही तो हमारे सबसे बड़े क्रिटिक हैं, आपको कवितायेँ पसंद थी, तभी तो लिखना शुरू किया?" अब भले ही बेचारे को चार रोटी की भूख होती, दो खाकर ही उठ जाते और बिस्तर की तरफ भागते, ये बात और थी कविता पर वाह-वाह करना नहीं भूलते। आखिर रहना भी तो हमारे साथ ही था।

हमारा कवयित्री बनने का चस्का दिन पर दिन परवान चढ़ रहा था, अब हम मंच पर और टीवी पर आने का सपना संजोने लगे। एक दो कवयित्री सहेलियों से बात की तो उन्होंने समझाया कि मंच पर जाना है तो सबसे पहले बढ़िया-सा उपनाम अर्थात तकल्लुस सोचो, असली नाम से कोई कवि नहीं जाता मंच पर। हमने पूछा, "ये उपनाम क्या होता है?" तो वह हम पर ऐसे हंसी मानो सवाल करके कोई मूर्खता कर दी हो। फिर एक सहेली ने हमें समझाते हुए बताया

" पगली नाम में कुछ नहीं रखा, लेकिन उपनाम में बहुत कुछ रखा है। नाम से बड़ा उपनाम होता है। आदमी किसी का नाम भले ही भूल जाए पर उपनाम नहीं भूल पाता। उपनाम लेखक का 'ब्रांड' होता है। उपनाम लेखक को दोहरी पहचान देता है। एक में दो-दो इंसान नजर आते हैं-'टू इन वन।'

उपनाम वाला लेखक पाठक को अतिरिक्त प्रिय होता है। वह उपनाम के जरिये पाठक से लुका-छिपी खेलता है। उपनाम, लेखक और पाठक के बीच लुकाछिपी का खेल खेलता है। पाठक उपनाम देखता है, तो सोचता है कि शायद यही लेखक का नाम है। तुमने कभी कविसम्मेलन या मुशायरे नहीं सुने कैसे-कैसे अजब गजब नाम के लोग आते हैं अलबेला, निराला, उग्र, बैचेन, गुलेरी आदि कुछ लोग अपने शहर का नाम भी रख लेते हैं जैसे इलाहबादी, दनकौरी, मेरठी, कन्नौजी, इत्यादि

ये उपनाम बड़े काम का होता है और उपनाम होने से प्रसिद्धी भी जल्दी मिलती है। समझ गयीं ना अब उपनाम मतलब? " हमारी कवयित्री मित्र ने समझाते हुए कहा

"हाँ समझ तो गए पर ...तुमने तो सारे मर्दाने उपनाम बताये और हम तो जनानी हैं" ? हमने सर खुजाते हुए कहा

हा हा-हा वह जोर से हंसी निरी बुद्धू हो तुम...अरे इसमें क्या... जनाना बना दो... इन्ही नामों को जैसे हमारा है नीलम "निराली" । ऐसे ही बहुत से हैं सीमा "हटेली" , सुनीता "सुरीली" बबिता "बाबरी" ऐसे ही तुम सोच डालो कोई फड़कता हुआ नाम।

हम बड़े खुश-खुश घर पहुंचे और पतिदेव को उपनाम की कहानी बताई, तो वह हमें समझाने लगे "तुम्हें क्या ज़रूरत है नाम बदलने की और मंच पर जाने की ...घर परिवार देखो, मंच के कवियों को अलग-अलग शहरों में घूमना पड़ता है, तुम थक जाओगी, शौक तो घर पर बैठ कर भी पूरा कर रही हो ना और चाहो तो अपना संग्रह छपवा लो"

पर हम कहाँ मानने वाले, चस्का जो लगा था, ऐसे ही थोड़े छूटता। हमने कह दिया, "देखो जी... अब तक हम घर परिवार सँभालते रहे, सबका ध्यान रखते रहे, अब आगे की ज़िन्दगी हम अपनी ख़ुशी के लिए जीना चाहते हैं, हमने आपको हमेशा सहयोग दिया, अब आपकी बारी" बेचारे क्या करते हथियार डाल दिए और बोले "अच्छा जो ठीक लगे करो" और कोई चारा भी तो नहीं था उनके पास, बड़े-बड़े देवता और ऋषि मुनि भी पत्नी के आगे हार गए, फिर ये तो अदने से इंसान ठहरे।

आखिरकार बहुत सर खपाई के बाद हमें अपना उपनाम मिल ही गया जो था "अलबेली" अब हम अर्पिता "अलबेली" बन चुके थे।

हमने पतिदेव की जेब से रूपये खर्च करवाकर, अपना एक कविता संग्रह भी छपवा डाला और दो चार बड़े नामों को बुलाकर विमोचन भी करवा डाला, ढेरों कविता संग्रह फ्री में बांटे फिर भी उतना नाम न कमा सके जिसकी उम्मीद थी।

मंच और टीवी पर आने का रास्ता भी नहीं मिल रहा था। हाँ एक दो बार रेडियो पर जाने का मौका ज़रूर मिला, जिसे हम हर जान पाह्चान वाले को बताते फिर रहे थे, यहाँ तक कि फेसबुक पर भी बता डाला। ये कवयित्री बनने का चस्का हमारे सर चढ़ कर बोल रहा था, हम किसी को कुछ नहीं समझ रहे थे, अपनी पडौसन और मित्र हमें अनपढ़ गंवार नजर आने लगी थी। हम किसी से भी बात करना अपनी तौहीन समझते और यदि बात भी करते तो सिर्फ़ अपनी तारीफ़ ही करते।

खैर हमें तो मंच का भूत चढ़ा था और एक दिन हमें एक वरिष्ठ लेखिका ने समझाया कि सफल कवयित्री बनने के लिए और मंच पर या टीवी पर चमकने के लिए एक गॉड फादर की ज़रूरत होती है जैसे माधुरी दीक्षित को सुभाष घई मिले केटरीना कैफ को सलमान ने बनाया ऐसे ही। और आप तो ठीक ठाक लिखती भी हैं और ठीक ठाक दिखती भी हैं, आपको तो कोई ना कोई मिल ही जाएगा" हमारा माथा ठनका कि इसने ऐसा क्यों कहा? पर ज़्यादा गहराई से ना तो सोच पाए ना कुछ पूछ पाए.

हमने अपनी मित्र नीलम निराली से गॉड फादर के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। उसने बताया "देखो मित्र उन वरिष्ठ लेखिका ने सही फरमाया है इस साहित्य की दुनिया में भी गॉड फादर उतने ही काम की चीज हैं जितने कि फ़िल्मी दुनिया में, एक गॉड फादर हर वह काम चुटकियों में करवा सकता है जिसे करने के लिए तुम्हारी कलम और चप्पल दोनों घिस जायेंगी। यदि गॉड फादर मेहरबान हो जाए तो हर मंच हर कवि सम्मेलन में तुम्हारी वाह-वाह हो जाए. वह तुम्हे मौका ही नहीं दिलवायेगें पढने और लिखने का ढंग भी सिखा डालेंगे और तो और मैंने सुना है कई बार तो कवितायें लिख कर भी गॉड फादर ही देते हैं" निराली ने अपना ज्ञान बघारते हुए बताया

पर हमें गॉड फादर मिलेंग कैसे? और वह हमारे लिए ये सब क्यों करेंगे उनका क्या फायदा होगा इसमें? हमने प्रश्न किया

देखो अलबेली गॉड फादर कैसे मिलेंगे, उसकी चिंता ना करो, वैसे तो आजकल फेसबुक के जमाने में गॉड फादर स्वयं तुम्हे खोज लेंगे, कविसम्मेलनो और कार्यक्रमों में जाती रहो।

अरे हम पहचानेंगे कैसे? हमने उत्सुक होकर पूछा

पह्चानन मुस्किल नहीं होता सखी खैर एक बहुत प्रसिद्ध मंच के महान कवि जी का पता और नंबर हम दे देंगे, उनसे मिल लेना फिर देखते हैं क्या होता है? निराली ने कहा

आखिर एक दिन हम निराली के बताये महान कवि से मिलने जा पहुंचे। जब हमने उनके ऑफिस में प्रवेश किया तो एक बार तो अजीब-सा लगा कवि जी कई महिलाओं से घिरे एक सोफे पर बैठे थे। उनकी शक्ल देखकर हँसी बड़ी मुस्किल से रोकी ...उनका मुहं चुसे आम से कम बिलकुल नहीं था और अंडाकार खोपड़ी पर बीच-बीच में बालों से टापू बने थे, बड़ी-बड़ी बाहर को कूदती आँखे थी उम्र से अंकल जी ही थे पर इन कविराज को हमने टीवी पर भी देखा था, सो हमें लगा कि हमारा काम बन जाएगा। हमने नमस्कार किया तो कविराज ने बड़े गर्मजोशी के अंदाज में हमें अपने पास बुलाया। और उनके इशारे से सभी महिलायें इठलाती हुई चली गयी। उन्होंने हमें अपने पास सोफे पर स्थान दिया हम थोड़ी झिझक के साथ उनके पास बैठे ही थे कि हमें झटका लगा उन महाशय ने बड़े ही अजीब ढंग से हमारी कमर पर हाथ रखा और बोले "अच्छा तो आप हैं जिन्हें मंच पर कविता पाठ करना है।" हम उठने को हुए तो हमें पकड़ते हुए बोले "देखने में तो ठीक ठाक हो, कुछ लिख भी लेती हो क्या? हम कुछ बोलते उससे पहले बोले," वैसे नहीं भी लिखती होगी तो सिखा देंगे, बाकी हम तो बैठे ही है लिखने के लिए. हमने कहा "सर हम लिख लेते हैं, हमारी पुस्तक भी आ चुकी है" वह अजीब से अंदाज में बोले "तुम सुन्दर महिला हो इतना ही टेलेंट काफी है" और जोर से ठहाका लगाया। हम अन्दर तक हिल गए उनके हाथ फिर हमारी तरफ बढे कि हम झटके से खड़े हो गए. वह हमें अजीब-सी नजरों से देखने लगे और बोले भई मंच पर जाने का रास्ता हम से होकर गुजरता है वैसे भी जमाना गिव एंड टेक का है ...जितने खुश हम उतनी ऊँचाइयों पर तुम ... एक झटके में सब कुछ समझ आ चुका था कि कैसे होते हैं गॉड फादर ...

हमें रोना आने लगा, वो कुछ और बोलते उससे पहले हम वहाँ से निकल लिए. हम इतने महत्त्वकांक्षी भी नहीं कि अपने सपनो की उड़ान भरने के चक्कर में कुछ भी कर डालें। हमारा कवयित्री बनने का भूत उतर चुका था

उस रात जब पतिदेव के लिए खाना परोसा और खाना ख़त्म होने तक एक भी कविता नहीं सुनाई तो पतिदेव ने भरपेट खाकर प्रश्न किया " डार्लिंग आज कोई कविता नहीं लिखी क्या?

हमने तुरंत कहा अरे छोडो कविता वविता आप इत्ते थके हारे आये हैं। और भी बहुत काम हैं घर के अब इत्ता प्यारा परिवार और घरवार छोड़कर कहाँ वक्त है कि कवयित्री बनें। पतिदेव तो बेचारे कुछ नहीं समझे पर हम समझ चुके थे कि ये चस्का हमारे टाइप की आदर्शवादी और प्राचीनकालीन सोच पर फिट नहीं बैठता।