कहानी का प्राण उसकी संवेदना है, विचार नहीं / काशीनाथ सिंह

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प्रख्यात आलोचक काशीनाथ सिंह से लम्बी बातचीत
साक्षात्कारकर्ता: डॉ.अभिज्ञात

कहानी, उपन्यास और संस्मरण लेखन में अनन्य योगदान देने वाले साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त साहित्यकार डॉ.काशीनाथ सिंह को हाल ही में कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद के रचना समग्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया। प्रस्तुत है इस दौरान उनकी हुई एक बेबाक बातचीत का अंश

आपकी कहानियों की संख्या बहुत कम है। 50-55 साल में मुश्किल से उतनी ही कहानियां लिखी होंगी। औसत बैठता है साल में एक कहानी का। उसके क्या कारण हैं।

यह कहना आपका सही कि मेरी कहानियों की संख्या औसत एक कहानी प्रतिवर्ष है। उसके जो कारण हैं उसमें से एक तो ये कि मैं लिखने के लिए नहीं लिखता। भीतरी दबाव से लिखता हूं। जब कभी अपने को मजबूर पाता तो लिखता हूं। दूसरी बात यह कि मैं वह नहीं लिखना चाहता जो लिखा जा चुका है या जैसा लिखा जा चुका है। मैं कुछ अलग लिखना चाहता हूं। और इसी अलग लिखने की कोशिश में मेरी कहानियां की तादाद कम है। उसका मुझे अफसोस नहीं है।

कहते हैं युवावस्था कविताओं और प्रौढ़ावस्था कहानियों के लिए मुफीद होती है। क्या आपने भी कविता से शुरूआत की थी? अनुभव के बढ़ते जाने से कहानी के मेच्योर होने का कोई सीधा सम्बंध होता है या नहीं।

शुरुआत तो मैंने कविताओं से की थी लेकिन वे बेदम थीं, कमजोर... फिर आगे लिखने की कोशिश नहीं की और लगा कि वह क्षेत्र मेरे लिए उचित नहीं है। मैं उसके लिए नहीं बना हूं। यह काम मैंने विद्यार्थी जीवन में किया था। उसके बाद कहानियां लिखने के दौरान मैंने कविता नहीं लिखी। बल्कि कुछ आलोचक-पाठक कहते यह हैं कि मेरी कुछ कहानियां कविताओं जैसी हैं। जैसे 'सुख' कहानी, उसे बहुत से लोग कविता ही मानते हैं। उसके प्रभाव को देखते हुए। कुछ आलोचकों का कहना है मेरी कहानियां एक प्रगीत की तरह हैं। जैसा प्रभाव और लयात्मकता कविता में होती है, उस तरह का प्रभाव या लयात्मकता मेरी कहानियों में है। ..और रही बात उम्र बढ़ते जाने से कहानी के मैच्योर होने की, इसमें दोनों बातें हैं। प्रसाद की एक पंक्ति है कि 'समझदारी आने पर यौवन चला जाता है।' और कहते हैं उसका उल्टा भी होता है। तो कहानियां में कहानियों के लेखन में फर्क पड़ता है। उम्र बढऩे के बाद प्राय: यह एहसास होता है कि वह कहानी के लिए बने हैं या नहीं बने हैं। लेखक खुद का आत्मनिरीक्षण या आत्मपरीक्षण करते हैं। इसलिए देखा होगा बहुत से लोग कहानी लिखते-लिखते उपन्यास लिखने लगते हैं। उन्हें लगता है कि वे उपन्यास ज्यादा बेहतर लिख सकते हैं। कुछ होते हैं जो उपन्यास लिखते हैं और अनुभव करते हैं कि जीवन का यह अनुभव उपन्यास में समाहित नहीं हो सकता, कहानी अधिक उपयुक्त है- तो वे कहानी भी लिखते हैं। जैसे.. जिन दिनों प्रेमचंद 'गोदान' उपन्यास कहानी लिख रहे थे, उन्हीं दिनों उन्होंने 'कफन' जैसी कहानी भी लिखी थी।

कैनवास के आधार पर यह तय होता है कि वह कथ्य उपन्यास में समायेगा या कहानी उसके लिए ठीक होगी।

पीने वाले गोदान में भी हैं लेकिन वह जिन्दगी उपन्यास में आ नहीं सकती थी। उम्र बढऩे के साथ-साथ विजन बढ़ाता है, दुनिया को जीवन को देश को देखने का विजन बदलता है आदमी का। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है बहुत से लेखक हैं जो मृत्यु के बारे में, जीवन की सार्थकता और निरर्थकता के बारे में लिखना उचित समझते हैं..

जैसे की निर्मल वर्मा...अपने बाद के दौर के उपन्यास 'अंतिम अरण्य' में उन्होंने मृत्यु के प्रश्न को उठाया है..

हां कई और दूसरे लेखक भी हैं। कौन सी विधा ऐसी है जो किसी के विजन को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त होती है।

आप अपने सम्बंध में भी बतायें।

कहानियां तो पचीस साल तक लिखता रहा। मुझे लगा कि कहानियों में दूसरे तो व्यक्त हो रहे हैं, मैं नहीं व्यक्त हो पा रहा हूं। मैं छूटा जा रहा हूं बार-बार, मैंने अपने को चेंज किया। मुझे लगा कि मैं यदि संस्मरण विधा अपनाऊं तो उसमें मैं अपने बारे में भी कह सकता हूं। दूसरों पर कहने के साथ-साथ। संस्मरण लिखना मैंने शुरू किया। फिर लगा कि एक दूसरी जिन्दगी.. ग्लोबलाइजेशन के बाद का हिन्दुस्तान, यह संस्मरणों में नहीं आ पा रहा है..

जैसे 'रेहन पर रग्घू'

वह तो है लेकिन बाद में। उससे भी पहले 1990 के आसपास मुझे लगा कि जो बदला हुआ देश है या दुनिया है वह संस्मरणों में संभव नहीं है। यदि संस्मरणों में संभव है तब भी उसका रूप बदलना पड़ेगा। इसके लिए अस्सी के एक मोहल्ले यानी बनारस को मैंने चुना। और फिर 'काशी का अस्सी' लिखा मैंने। लगा कि एक लोकेल है, जहां समाज के हर तबके का आदमी बैठता है, पढ़ा-बेपढ़ा, शिक्षित-अशिक्षित, बेरोजगार, प्रोफेसर, विद्यार्थी, दूधवाले, खोमचेवाले, सब्जी बेचने वाले सब लोग बैठते हैं और जो बदलाव हुआ है उस पर कैसे रिएक्ट करते हैं यह अलग चीज है, जो संस्मरणों में नहीं आ पाती। और मैंने देखना चाहा कि किसी लोकेल का भी संस्मरण होता है क्या। अस्सी पर भी संस्मरण लिखा जा सकता है, क्यों नहीं लिखा जा सकता और फिर वह कई एपीसोड में 'संतों घर में झगड़ा भारी' या 'संतों असंतों और घोघाबसंतों का अस्सी या 'कौन ठगवा नगरिया लूटल हो' या 'काशीनामा' जिस पर नाटक किया है उषा गांगुली ने। 'पांडे कौन कुमति तोहें लागी' यह तब मैंने लिखा और ये लिखने के बाद भी मुझे लगा कि गांव छूट गया है, तब मैंने 'रेहन पर रग्घू' उपन्यास लिखा।

अपने को व्यक्त करने के लिए अलग-अलग विधाओं, अलग-अलग शैलियों का आपने सहारा लिया।

यह एक तरह से सामाजिक यथार्थ से मनुष्य के भीतर उसके रिश्तों व सम्बंधों में घुसपैठ करने की हिम्मत मैंने की। कहानी अनुभव से लिखी जाती है, कल्पना से लिखी जाती है या विचार से। तीनों में किसका योगदान अधिक मानते हैं। एक बात तो यह कि कहानी यथार्थ का भाषांतर नहीं है, उसका अनुवाद नहीं है। वह एक रचना है। आर्टफार्म है, कला रूप है और कलात्मकता तब आती है उस यथार्थ में रंग भरते हैं, रूप भरते हैं, काटते-छांटते हैं। रचना के रूप में तैयार करते हैं। यथार्थ में कल्पना का मेल। कल्पना के बगैर यथार्थ रचना नहीं बन सकता। जहां तक विचार का सवाल है.. नक्सल आंदोलन के दिनों में मैंने 1970 के आसपास से लेकर 78 तक प्राय: वैसी ही कहानियां लिखीं, जिनमें विचार प्रमुख था। मैंने देखा कि एक खास तरह के पाठकों को यह कहानियां प्रभावित करती हैं। मैंने यह भी पाया कि उन पाठकों को जो विचारों से वामपंथी हैं या दूसरे विचारों के हैं लेकिन वे उस विचार से असहमत हैं, जो मैं कहानी में व्यक्त करता हूं। तो मैं मानता हूं कहानी का प्राण उसकी संवेदना है विचार नहीं। वैचारिक कहानियां या विचार पर आधारित कहानियां सामयिक होती हैं, उनका प्रभाव तात्कालिक होता है, देर तक उनका सत्य नहीं रहता।

क्या हम यह कह सकते हैं कि विचारों के बोझिल होने से कहानी के मर जाने का खतरा रहता है..

बोझिल होने से और जिस कहानी का सूत्र कोई न कोई विचार हो।

जैसे यशपाल की बहुत सी कहानियां, या शुरूआत में प्रेमचंद की वह कहानियां जिनमें गांधीवाद का प्रचार था..

ऐसी कहानियां फार्मूलाबद्ध होती हैं। इस बात को बराबर मानता हूं कि सिद्धांत सूखे होते हैं जीवन हरा होता है। और इस हरियाली को छोड़कर कुछ भी पैदा नहीं किया जा सकता है। प्रश्न: तो आप मानते हैं कि साहित्य में भी हरियाली बहुत जरूरी है.. उत्तर: हां, बिल्कुल। इसके बिना बात नहीं बनेगी।

क्या कोई व्यक्ति, कोई समाज या कोई ऐसी स्थिति है जिसको आदर्श मानकर आप सृजन करते रहे हैं? एक जमाने में अप्रत्यक्ष रूप से मुक्तिबोध के नायक नेहरू थे, रूस या चीन जैसे देशों की व्यवस्था कुछ स्वप्नदर्शियों का मॉडल थी..

मॉडल तो रचना के लिए आपको प्रेरित कर सकता है लेकिन यदि वह मिल जाये तो वह रचना नहीं कर सकता। चीजें अधूरेपन में ही पैदा होती हैं। सपना ही रचना को जन्म देता है.. सपना पूरा होना सपने का टूट जाना है। मॉडल मिल जाने का मतलब है मौन हो जाना, कुछ न करना। एक ऐसे लोकतंत्र के लिए हम लिख रहे हैं, मॉडल के रूप में तो समाजवाद है जिसको ध्वस्त होते हुए हमने देखा है..हम उस व्यवस्था की कल्पना कर रहे हैं या सपना देख रहे है.. एक ऐसा लोकतंत्र हो- जिसमें झूठ न हो, मक्कारी न हो भ्रष्टाचार और बेईमानी व घटियापन न हो, न जाति हो न हो वर्ग हो, बराबरी हो, एक जैसा सोचें-चाहें यह हमारा सपना है, जो कभी पूरा होने वाला नहीं है यह हम जानते हैं लेकिन यह सपना है जो हमें चला रहा है। तो एक लेखक की अतृप्ति, असंतुष्टि उसे चलाती है। विद्यापति, कबीर, तुलसी से लेकर आजतक का लेखन हमेशा सत्ता के विपक्ष में होता रहा है। विरोध ही हमारी ताकत है.. हमारी ताकत है असहमति। जो आप कर रहे हैं उससे हम असहमत हैं।

लिखकर क्या पाया जा सकता है और आपने क्या पाया है?

सुकून। जैसे एक रचना पूरी होती तो एक राहत की सांस हम लेते हैं... वैसी ही लिखते हैं लिखना पूरा करते हैं तो एक संतोष मिलता है उससे। जहां तक पूरे लेखन का सवाल है जो अब तक लिखा है तो वह उससे अभी असंतुष्ट हूं।

कैसा लगता है जब लेखक यह पाता है कि लिखने से कोई बदलाव नहीं हो रहा है, क्या इससे किसी तरह का व्यर्थताबोध आपने महसूस किया है?

हम चाहते तो हैं कि हम लिखकर बदलें लेकिन हम अपनी सीमाएं जानते हैं। बदलना हमारे हाथ में नहीं है। बदलना सत्ता के हाथ में है। यह काम हम चाहते हैं लेकिन वह नहीं करेगी। एक विश्वास रहता है कि हम जो लिख रहे हैं उससे उसके पाठक के भीतर एक हलचल होगी.. उनका मन सोचने को विवश होगा.. एक प्रश्न पैदा करेगा। एक निराश, टूटे हुए दुखी या हताश व्यक्ति के मन प्रश्न का उठाना ही बड़ी बात है। लेखन की सार्थकता इसी में है कि उससे सवाल पैदा हो।

आप यदि लेखक नहीं होते तो क्या होते?

लेखक न होते तो गांव पर खेती-बारी करते। कभी बचपन में सपना देखा करता था कि नदी के किनारे बैठकर बांसुरी बजाऊंगा। बांसुरी मुझे बहुत अच्छी लगती थी। मेरे गांव में पोखर थी और बंसवार थी। प्राय: घूमते-घामते हम चले जाते थे वहां। उन दिनों मेले में पिपीहरी जैसी चीज मिलती थी। खरीद कर लाते थे और बजाते थे। और सपना देखते थे कि बड़े होकर किसी पोखर या नदी या जहां कहीं भी पानी हो उसके किनारे बैठकर पिपीहरी या बांसुरी बजायेंगे।

प्रारंभ में आप किसकी रचना से प्रभावित थे क्या अब भी उनकी रचनाएं प्रभावित करती हैं?

प्रारंभ में प्रभावित थे प्रेमचंद, शरत्चंद्र और चेखव से।

क्या अब भी उन्हें पढऩे का मन करता है, क्या अब भी वे प्रभावित करते हैं?

बाद में मुझे जो लेखक अच्छे लगे वह टॉलस्टाय थे। तुर्गनेव की एक किताब है 'एक शिकारी के शब्दचित्र'- हंटर्स स्पीचेज। वो मुझे बहुत अच्छी लगी। इस प्रकार से रुचियां स्थिर नहीं होतीं, बदलती रहती हैं। और यह उम्र में मेच्योरिटी के साथ चेंज आता रहता है।

कथा आलोचना की स्थिति से आप कहां तक संतुष्ट हैं और आलोचना का सृजनात्मकता के विकास में कहां तक योगदान महसूस करते हैं?

कथा आलोचना तो नामवर सिंह के बाद बंद हो गयी लगभग। आलोचनाएं अब भी लोग कर रहे हैं लेकिन वह आलोचनाएं नहीं हैं। वे कहानी पर बातें कम लेखक पर बातें ज्यादा करते हैं उसके इर्द-गिर्द ही बातें करते हैं। आलोचना व्यक्ति केंद्रित हो गयी है।

आप नामवर सिंह के बाद क्यों कह रहे हैं वे तो हैं कम से कम वाचिक तौर पर उनकी उपस्थित बराबर रही है। वे अब कथा आलोचना नहीं कर रहे हैं।

देखिये आलोचक हैं आलोचना नहीं है। ऐसा नहीं है कि आलोचक नहीं हैं ढेर सारे आलोचक हैं। अब भी अगर कहानी की आलोचना की बात कही जाये तो नामवर सिंह अब भी शीर्ष पर हैं और मॉडल हैं। कहानी, नयी कहानी के दिन की आलोचना.. उसके बाद उन्होंने जब भी कहानियों पर टिप्पणियां की हैं या साक्षात्कार दिये हैं, कहानी पर कोई बात कही है.. आज भी ज्यादा विश्वसनीय हैं। कहानी की आलोचना की बात कर रहे हैं आप तो विश्वसनीयता को भी ध्यान में रखिए। हो सकता है कि किसी एक एक व्यक्ति के किसी संग्रह की किसी आलोचक की आलोचना कुछ लोगों को पसंद आये लेकिन वह भरोसेमंद या विश्वसनीय हो यह विश्वसनीयता हिन्दी कथा आलोचना ने खो दी है।

हर दौर की कहानियों का अपना एक मुहावरा और ढांचा होता है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। आज की कहानियां उस दौर की कहानियों से किस मामले में अलग हैं जब आपने लिखना शुरू किया था, यानी 1960 के आसपास। आज के कथाकारों की भाषा, मुहावरा या सपने के सम्बंध में आप क्या कहना चाहेंगे?

आज परम्परा से कटा हुआ लेखन कर रहे हैं नये कथाकार। या तो परम्परा से अपरिचित हैं या परम्परा उन्हें पसंद नहीं है। उनके सामने जो मॉडल्स हैं वे यूरोपीय लेखक ज्यादा हैं। विदेशी भाषाओं के। उनकी भाषा जाने क्यों पठनीय नहीं है। बेजान है। जीवंतता या जान नहीं है उनकी भाषा में। जो भाषा का एक रस होता है, भाषा का रिद्म या लय होती है वह नहीं है। लोगों के बीच से भाषा नहीं आ रही है।

मतलब यह कि आज के कथाकारों की कहानियों में सिर्फ यह प्रयास है कि अपनी बात को कनवे कर दिया जाये। उनमें मुहावरे व छंद नहीं हैं। वे भाषा का सृजन नहीं कर रहे हैं और उनकी भाषा सृजनात्मक नहीं है।

भाषा का गद्य से बड़ा ही अभिन्न सम्बंध है। गद्य की जान शब्दों का चयन, मुहावरा, व लोक संपृक्ति है। लोग कैसे उठते हैं, चलते हैं, बोलते हैं, उनकी बातचीत में कौन से शब्द ज्यादा आते हैं, बोलने वाले का लहजा क्या होता है.. इन सारी चीजों को देखने की जैसा उनके पास फुरसत नहीं है। कहानी लोक-परम्परा से हटकर आजतक लिखी ही नहीं गयी। सड़क से, फुटपाथ से, बाजार से, जीवन से कहानी की भाषा का जुड़ा होना जरूरी है। उनकी भाषा को पत्रकारिता की भाषा से अलग करना मुश्किल हो गया है। जबकि एक वह दौर था कि पत्रकारिता की भाषा भी रचनात्मक हुआ करती थी 'दिनमान' व 'रविवार' के दिनों की भाषा बड़ी क्रिएटिव हुआ करती थी, जिसका इस्तेमाल रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं में किया। ढेर सारे कवियों ने किया। कभी-कभी मुझे तो यह लगता है कि पत्रकारिता की भाषा रचनात्मक है उनकी तुलना में। कम से कम शब्दों को ढूंढा जा रहा है और वे शब्द बोलचाल के हैं।

हिन्दी के प्रकाशकों के बारे में आपकी क्या राय है। हिन्दी लेखकों के शोषण के क्या कारण हैं। अंग्रेजी लेखकों की स्थित सम्मानजनक व उनमें एक स्टारडम है। हिन्दी के लेखक पार्टटाइमर हैं..

शोषण हो रहा है हिन्दी लेखक का। इसे आप यूं समझ सकते हैं कि अपना रोना रोते हुए एक प्रकाशक अपना बिजनेस खड़ा करता है, मकान खड़ा करता है, कई-कई गाडिय़ां रखता है, कई फ्लैट्स लेता है और जिस लेखक के भरोसे वह यह कर रहा है, वह लेखक वहीं है जहां से उसने शुरू किया था। उसके जीवन में कोई फर्क नहीं आया। प्रकाशक के जीवन पर नजर डालिये तब पता चलता है कि वह लेखक का कितना शोषण कर रहा है। अंग्रेजी लेखक के बारे में प्रत्यक्ष कोई अनुभव नहीं है फिर भी इधर पढ़ा कि मलाला की जीवनी अभी लिखा नहीं गयी पता नहीं कितने करोड़ उसे मिलने जा रहे हैं जीवनी लिखवाने के।

आपकी रचना पर हिन्दी फिल्म भी बन रही है आपको आर्थिक मुनाफा हुआ कि नहीं?

मुनाफा जैसी बात वहां उठती है जहां लेखक बिकाऊ हो तो। मैंने तो फिल्म वालों से शर्त रखी थी आत्मसम्मान को लेकर। प्रेमचंद और अमृतलाल नागर अपमानित होकर लौटे हैं मुंबई से। कमलेश्वर को छोड़कर। कमलेश्वर ने फिल्मी दुनिया में अपना शोषण होने से अपने को बचाया। कमलेश्वर ने वहां के मायाजाल को समझ लिया था इसलिए वे अपने को बचा पाये, वरना हिन्दी का कोई ऐसा लेखक नहीं है, जो मुंबई गया हो और वहां से अपमानित होकर न लौटा हो। मेरे साथ दो चीजें रहीं। एक तो मैं मुंबई नहीं गया मुंबई खुद मेरे पास आया। मैं जहां था वहीं रहा। दूसरे मेरे शर्त यह रही कि आप पैसा दें न दें लेकिन एक लेखक का सम्मान जरूर रहना चाहिए। इसलिए कि प्रेमचंद से लेकर सारे लेखकों के अपमान के बारे में सुन चुका हूं। और वह मुझे नहीं चाहिए। दरअसल जो पैसा लेता है अपमानित वही होता है। यह मैंने देखा है। मैं मुंबई सिर्फ तीन दिन के लिए गया था फिल्म की शूटिंग के दौरान। आरम्भिक दिनों में जब शूटिंग शुरू हुई थी। वहां मैंने देखा जो लोग भी थे टीम के लगभग 300 सौ लोग, फिल्म निर्देशक चंद्रकांत द्विवेदी से लेकर प्रोड्यूसर तक समने भरपूर सम्मान दिया। वहां मेरे सम्मान में कोई कमी नहीं थी।

क्या आपकी रचना के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी?

यह भी मेरी शर्त में शामिल था। देखिये इसके लिए बहुत कुछ लेखक भी दोषी होता है। लेखक लिखते हैं लेकिन अपनी सीमाएं नहीं जानते। हम जो लिखते हैं चाहते हैं कि उसमें कोई रद्दोबदल नहीं किया जाये, कोई चेंज न हो। जाहिर है लिखित भाषा की अपनी सीमा है उसका पाठक वर्ग। पाठक वर्ग कितना है यह हम जानते हैं लेकिन एक साधारण आदमी, एक अपढ़ आदमी, एक रिक्शा-ठेला चलाने वाला भी देख सकता है फिल्म। फिल्म माध्यम साहित्य का सीधे अनुवाद नहीं है। वह दृश्य में ज्यों का त्यों नहीं आता। बहुत चीजें रचनाओं में सोच्य हो सकती हैं लेकिन वह तो दृश्य माध्यम है और उसे देखने वाला है वह किसी भी तबके का हो सकता है। फिल्म जो बनाता है वह चाहता है कि वह जो लगाता है कम से कम वह लौट आये। आपको चाहिए कि आप जो कहना चाहते हैं उसे डिस्टार्ट न किया जाये। और ज्यादा इफेक्टिव तरीके से दिखाया जाये। हर कदम पर दखल न दें कि मैंने तो ऐसा नहीं लिखा था ऐसा क्यों कर रहे हैं। ऐसा करके आप डायरेक्टर पर अविश्वास करेंगे। कैमरे की नजर से डायरेक्टर देखता है दृश्य माध्यम के चलते वह छूट चाहता है, वह मिलना चाहिए। हाल ही में वर्धा में कमलेश पांडे मिले थे जोबेताब और रंग बसंती फिल्मों के कहानीकार हैं। वहां सबने हमसे पूछा था कि रेणु के बाद आपकी सबसे अधिक मांग क्यों हो रही है, क्योंकि 'मोहल्ला अस्सी' फिल्म आ रही है। एक टीवी सीरियल की भी स्क्रिप्ट तैयार हुई है- 'कौन ठगवा नगरिया लूटल' पर टीवी सीरियल चंद्रकांत द्विवेदी बनायेंगे। 'रेहन पर रग्घू' की भी वहां डिमांड काफी है। कई लोग चाहते हैं उन्हें दिया जाये वे बनायेंगे। हिन्दी के लेखकों ने अपनी छवि बना रखी है वहां कि वे अपनी रचना के बारे में कहते हैं कि हमने जो लिखा है, वही बनायी जाये। फिल्मवाले उदासीन हैं हिन्दी के लेखकों से, कहते हैं उनसे बात करना ही बेकार है इस बारे में। खुद कमलेश पांडेय बता रहे थे इसके बारे में। मैं खुद भोग चुका हूं इसके बारे में 'अपना मोर्चा' उपन्यास जिस समय मैंने लिखा था सुधीर मिश्रा चाहते थे कि उस पर फिल्म बनायें। वे इसमें परिवर्तन चाहते थे मैंने कहा था नहीं। यह छूट मैं नहीं दूंगा। यह गलती मैं कर चुका था। दूसरे चंद्रप्रकाश द्विवेदी के बारे में माना जाता है कि उन्होंने हिन्दी व दूसरी भाषा के नाटकों को पढ़ा है, जो भी उपन्यास चर्चा में आते हैं, उन्हें पढ़ा है। साहित्य से गहरा ताल्लुक रखने वाले हैं। मुझसे मुलाकात के पहले वे मुंबई में साल छह माह पहले 'काशी का अस्सी' पढ़ चुके थे और सौ- पचास प्रतियां खरीदकर दोस्तों में बांट चुके थे और प्रतिक्रिया देख ली थी तब मुझसे बात की थी। काफी ठोक बजाकर फिल्मी दुनिया के लोग हिन्दी के लोगों से बात करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि हिन्दी के लोग अंधेरे में रहते हैं। हिन्दी साहित्य के लोगों का फिल्मी दुनिया के लोगों से ताल्लुक बन नहीं सका है।

उर्दू वाले छाये रहते हैं। वे बेइज्जत होकर फिल्मी दुनिया से नहीं लौटे।

हां। उन्होंने अपने आपको फिल्मी दुनिया के हिसाब से ढाल लिया। वे यह समझ लेना चाहते हैं कि प्रोड्यूसर क्या चाहता है डॉयरेक्टर क्या चाहता है, नाटक करने वाले क्या चाहते हैं। मोहन राकेश के 'आधे अधूरे' नाटक के मंचन के दिनों में अल्का जी ने उनसे कहा कि तुम तो नाटक जानते नहीं हो। तुम यहां आओ और जानो कि हमें क्या चाहिए। रंगकर्मी और नाटककार एक दूसरे के साथ मिलकर काम करते हैं और स्टेज पर जब नाटक जाता तो उस समय भी उसमें डायलॉग बदलते हैं भाषा बदलती है। बाद का क्या रूप होगा, सीन किस रूप में जायेगा यह लेखक नहीं जानता। गिरीश कर्नाड का 'तुगलक' अच्छा मना जाता है क्योंकि वे रंगमंच को जानते हैं, विजय तेंदुलकर नाटक को जानते थे मोहन राकेश ने जाना। उर्दू में मंटो थे, किशन चंदर थे फिल्मी दुनिया व उनके बीच एक समझदारी थी। उनकी क्या डिमांड है, हमें क्या करना है। वे साहित्य को एक तरफ रखते थे कि हमें साहित्य के लिए लिखना है तो इस तरह लिखना है। फिल्म के लिए लिखेंगे तो ऐसा लिखना होगा। यह फर्क वे जानते हैं, यह हम नहीं जानते हैं। हम यह नहीं जानते, पटकथा क्या होती है यह मीडियम क्या है इससे अनभिज्ञ हैं। जब चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने पटकथा लिखने की बात की तो हमने कहां हमें काफी वक्त लगेगा। आप लिख लें। आपने 'चाणक्य' की पटकथा लिखी है। उपन्यास का टेक्स्ट, उसकी आत्मा सुरक्षित रहनी चाहिए।

फिल्मी दुनिया से सम्पर्क के बाद अब आपकी रचनाशीलता में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक माना जाना चाहिए। आपके लेखन में क्या परिवर्तन आया है?

फिल्मों के लिए तो मैंने कभी लिखा नहीं, लिखूंगा भी नहीं। मैं जो लिख रहा हूं उस पर फिल्म बन रही है यह अच्छी बात है। शुरू में जिन चीजों ने मुझे अट्रैक्ट किया और फिर रंगकॢमयों और फिल्मवालों को को मेरी जिस खूबी ने अट्रैक्ट किया उसी खूबी को जारी रखना है। मेरे दौर के लेखकों में सबसे अधिक मंचन मेरी रचनाओं के हुए हैं। उषा गांगुली के 'काशीनामा' के अलावा, एनएसडी ने कई नाटक किये। 'अपना रास्ता लो बाबा' देवेंद्र राज अंकुर ने किया। 'कविता की नयी तारीख', 'कौन ठगवा नगरिया लूटल' का मंचन किया था एनएसडी ने। प्रेमचंद के बाद मेरी कहानियों के साथ सबसे ज्यादा मंचन हुए हैं। फिल्म वाले मेरी तरफ आये तो उसका क्या कारण है। मैं चीजों को दृश्यों में, बिम्बों में देखा करता हूं। मेरी जो अपनी पहचान व शख्सियत है वह यह है कि मैं जो लिखता हूं चाहता हूं कि केवल पढ़ा न जाये, पाठक उसे सुनता हुआ भी महसूस करे, देखता हुआ भी महसूस करे। पाठ्य पाठ्य तक सीमित न रहे दिखायी पड़े लोगों को। यह हमारी कहानियों और उपन्यासों में है, संस्मरणों तक मैं है। त्रिलोचन पर मेरे संस्मरण को यदि किसी ने पढ़ा है तो उन्हें त्रिलोचन दिखायी पड़ते हैं।

हिन्दी की वाचिक परम्परा और लिखित परम्परा अलग रही है। भदेस शब्दों का इस्तेमाल आप लिखित साहित्य में कर रहे हैं क्या इससे भाषा का सौंदर्य नष्ट नहीं होता?

कई बातें हो सकती हैं इसमें। गालियों के लिए लोग डाट्स छोड़ा करते थे. बिन्दु बिन्दु..मुझे वही अश्लील लगता था। जब आपमें साहस नहीं होगा तो आप क्यों कर रहे हैं ऐसा काम। एक लेखक को माना जाता है कि वह खतरा उठाने वाला है। यदि आप खतरा उठाने से डर रहे हैं तो पाठक से क्या उम्मीद करते हैं। ऐसा वे लोग कर रहे हैं जो ड्राइंगरूम से बाहर नहीं जाते। ये अभिजात तबके के भद्र व शरीफ लोग दुनिया भर के सारे गंदे काम करेंगे लेकिन उसे ड्राइंगरूम तक सीमित रखेंगे। सड़क पर निकलिये तो जरा। हर किसान को अपने बेटे-बेटी को मां-बहन की गाली देते हुए गाली देते हुए सुना है। खूंटा को, ठोकर लग गयी तो पत्थर को गरिया रहे हैं, बैल को गरिया रहे हैं, भैंस को गरिया रहे हैं। वे उसे गाली समझ कर नहीं गरियाते। यह उनकी जुबान का अंग है, गाली अपने आप निकलती है। मैं जिस नगर में रहता हूं बनारस, मैं जिस मोहल्ले में रहता हूं वह पंडों का मोहल्ला है, वहां मैंने कभी किसी को नहीं देखा कि उसने अपने घर में अपने बच्चों, औरत और सांड़, गाय, फलाने, ढमाके को गाली दी हो और उसने उसे गाली समझा हो। यौनांगों से सम्बंधित दुनिया की हर भाषा में गाली दी जाती है। विदेशी उपन्यास पढऩे वालों ने बताया। हालैंड में किसी ने मेरे ऊपर एक पेपर पढ़ा, उसने बताया। इतालवी में मेरी रचनाओं का अनुवाद कर रही एक लड़की ने मुझे बताया कि हमारी भाषा में यह गालियां हैं। नारी पुरुष के अंगों को लेकर गाली दी जाती हैं और बड़े सहज ढंग से दी जाती हैं। मुझे लगा कि अपनी रचनाओं में इस नगर के जीवन को दिखाने के लिए यह जरूरी है। यह उत्तर प्रदेश का गांव हो सकता है, मध्यप्रदेश और हरियाणा का भी गांव हो सकता है। यह दिल्ली नहीं है। जो उस गांव की जिन्दगी को जी रहे हैं, उनके लिए गालियां स्वाभाविक हैं। उपन्यास में उस यथार्थ को दिखाने से मुझे गुरेज नहीं करना चाहिए, हिम्मत से काम लेना चाहिए। बनारस में गालियों को लेकर किसी ने आपत्ति नहीं की। महानगरों या तथाकथित संभ्रांत किस्म के साहित्यकारों द्वारा की गयी। अब तो खैर स्वीकृत हो गयी हैं। इतना ही नहीं इस उपन्यास जिसमें गालियां थीं और हिम्मत करके पहले चंद्रकांत द्विवेदी फिल्म बना रहे हैं लेकिन उनकी फिल्म से पहले प्रदर्शित हुई 'गैंफ आफ वासेपुर' में भी हैं। मैंने द्विवेदी से कहा अनुराग कश्यप बाजी मार ले गये। अनुराग ने भी पहले मुझसे अप्रोच किया था, उनसे बात बनी नहीं।

हिन्दी के शीर्ष आलोचक का भाई होने के फायदे और नुकसान दोनों क्या रहे?

मैं सिर्फ फायदे के बारे में बोल सकता हूं, नुकसान के बारे में नहीं बोल सकता। लोग कहते हैं कि बड़ा नुकसान हुआ है पर उसके बारे में सोचा नहीं है। फायदा यह हुआ कि वे हमारे गुरु रहे हैं। उन्होंने हमें पढ़ाया है बीए में। उनका जब कभी बनारस आना-जाना होता है तो मैं जो कहानी लिखता रहा हूं उन्हें पढऩे के लिए देता हूं, उसके बारे में बातें करते रहते हैं। मैं सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं जिससे अनुमान लगा सकते हैं कि फायदा क्या हुआ। छपने से पहले 'देश तमाशा लकड़ी का' मैंने 1991 में डरते-डरते उन्हें दिया था पढऩे के लिए। कभी किसी रचना में उनके कहे अनुसार मैंने बदलाव किया नहीं है, कम से कम उस रचना में नहीं। लेकिन मैंने ये जरूर उनसे जानना चाहा कि इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी। वे साहित्यिक टेंपरेचर के बैरोमीटर हैं। उनकी प्रतिक्रिया से अनुमान लगा सकता हूं। वे देश भर में घूमने वाले आदमी हैं, मैं एक जगह बनारस में बैठकर लिखता हूं। तो लोग क्या सोच सकते हैं इसके बारे में वे बता सकते हैं। दुनिया भर के लोगों ने नाक भौं सिकोड़ा। 'काशी का अस्सी' पर। गालियों से शुरूआत वहीं से की थी, जिसे आज भी लोग मानते हैं कि सबसे अच्छा वही है। नामवर सिंह पहले आदमी थे जिसने उसका स्वागत किया था। जिससे समझा जा सकता है कि वे इतने पुराने आदमी होने के बावजूद कितने आधुनिक आदमी हैं। और यह कि वे लेखक के काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करते।