कांग्रेस और स्थिर स्वार्थ / महारुद्र का महातांडव / सहजानन्द सरस्वती

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आरंभ में बेशक कांग्रेस ' भिक्षां देहि ' कहनेवालों और शासकों के सामने झोली पसारनेवालों की जमात थी। 1885 से लगायत 1928 के दिसंबर में नागपुर से पूर्व उसका काम था प्रस्ताव पास करना , रूठना बहस-मुबाहसे करना , अर्जी-प्रार्थना-पत्र भेजना , यहाँ से लेकर लंदन तक शासकों के सामने जमात बाँधकर हाथ जोड़े पहुँचना और आरजू-मिन्नत करना और अंत में कभी-कभी बेजान धमकियाँ भी दे देना। उस युग के कांग्रेसजन सिर्फ इतना ही कर सकते थे─ उनकी पहुँच यहीं तक थी। उससे आगे वे जान सकते थे , गोकि थे वे दबंग , दिमागदार , प्रतिभाशाली पुरुष और अपने समाज में प्रभाव रखनेवाले मालदार। इसका कारण था , मुल्क के ऊँचे तबके के मुट्ठीभर लोगों की ही तो दरअसल वह कांग्रेस थी। ऐसे लोग ही पढ़े-लिखे होने के कारण संगठित-सामूहिक आंदोलन और आवाज के महत्व को समझ सकते थे।

लेकिन , एक तो उनकी बिरादरी छोटी थी ; दूसरे दिमागदार और मालदार होने के कारण उनमें दब्बूपन परले दर्जे का था। स्थिर स्वार्थवाले स्वभावत: दब्बू और डरपोक होते हैं और विद्या एवं लक्ष्मी गिने-गिनाए स्थायी स्वार्थों में हैं। गुलाम बनाने पर तुले बैठे राक्षसों से लड़कर ही अपना हक हासिल किया जा सकता है। मगर सर पर गट्ठर या घड़ा रखकर कोई भी सिपाही जूझ नहीं सकता , और स्थायी स्वार्थ उस गट्ठर या घड़े के समान ही तो है। यही वजह है कि आकाओं और शासकों की मर्जी से ही जूठन हासिल किया जा सकता था , उनने किया। साथ ही , उनने एक महान कार्य और भी कर डाला , जिसका उन्हें शायद ही खयाल रहा हो या जिसे वह शायद ही संभव समझते रहे हों। मध्यमवर्ग के सबसे ऊँचे स्तर या तबकेवाले इन लोगों के इस सीमित आंदोलन के परिणामस्वरूप उनसे कुछ ही नीचे और संबध्द उच्च-मध्यम वर्ग का दूसरा तबका जाग उठा , जिसमें अधिकांश सभी प्रकार के पढ़े-लिखे लोग होते हैं।

फलत: उन्नीसवीं सदी के बीतते-न-बीतते इस दूसरे दल ने आँखें खोलीं और क्षेत्र में कूद जाना तय कर लिया। 1885 से उस शताब्दी के अंत तक कांग्रेस में जहाँ उच्च-मध्यमवर्ग के ऊपरी भाग का दबदबा रहा , तहाँ उसके बाद उसके निचले भाग ने उसमें पैर जमाना चाहा और एतदर्थ कशमकश जारी की। पूरे पंद्रह साल गुजरते-न-गुजरते लखनऊ में उस तबके के ऊपरी भाग की हार और निचले की जीत हुई। जिस प्रकार 1857 के आसपासवाले प्रथम विद्रोह के समय जो रहनुमाई , जो नायकत्व सामंतवर्ग के हाथ में आया , वह कम-बेश तीस साल तक कभी ऊपर और कभी नीचे-कभी छिपके और कभी खुलके देखा जा रहा था , और 1885 में खत्म हो गया , ठीक उसी प्रकार उस वर्ग के उच्च स्तर के हाथ में रहनेवाला नेतृत्व पूरे तीस साल बाद उसी वर्ग के निम्न स्तर को मिला। या यों कहिए कि जिस तरह सामंतवर्ग का नेतृत्व उच्च-स्तर ने छीना और बाहरी दुनिया को इसका पता तक लगने न दिया , उसी तरह उसकी लीडरी निम्न स्तर ने छीन ली , हालाँकि उसे लखनऊ का समझौता नाम दिया गया है , जो उच्च मध्यमवर्ग के उच्च एवं निम्न स्तरों या दलों के ही बीच दरअसल हुआ था। इस तरह सर फिरोजशाह मेहता प्रमृति के नेतृत्व के स्थान पर राष्ट्रीय आजादी के आंदोलन का नायकत्व , उसकी रहनुमाई बाल गंगाधर तिलक आदि ने करनी शुरू कर दी , जो ज्यादा दिनों तक टिक न सकी और 1921 में नागपुर में महात्माजी के हाथों में कार्य-कारणवश-परिस्थिति के चलते-चली गई। 1916 में लखनऊ में आई और 1921 में नागपुर में चलती बनी।

जिन परिस्थितियों और जिन हालात के चलते महात्माजी राष्ट्रीय नेता के रूप में मैदान में आए , उनका विश्लेषण-विवेचन करने के पहले यहाँ हमें एक अहम मसले पर नजर दौड़ानी है। यह तो सभी समझदार मानते हैं कि गोकि 1857 वाला विद्रोह राष्ट्रीय आजादी की ही अस्पष्ट लड़ाई थी , फिर भी उसका नेतृत्व सामंतवर्ग के ही हाथों में रहने से वह कुचल दिया गया। केवल उसकी आग कुछ समय तक खुलके , पीछे छिपे-छिपे , धक-धक जलती रही पूरे तीस साल तक। उसी आग को 1885 में कांग्रेस का नाम-रूप , इसकी सूरत-शक्ल मिली। जैसे 1857 को बाहरी दुनिया ठीक-ठीक समझ न सकी , वैसे ही 1885 को भी। मगर बात थी एक ही , इस तरह तीस साल तक राष्ट्रीय संग्राम का पहला पर्व चला।