काई / ओमा शर्मा

Gadya Kosh से
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मैंने तो उन्हें पहले ही पहचान लिया था कि येई हरीकिशन मास्साब हैं। इसलिए नमस्ते भी की, मगर वो अपनी ही धुन में सवार थे। कुलाबे बंद करती सी चाल में ही उन्होंने सीधे हाथ को कान की तरफ ऐसे झटका जैसे बैठी मक्खी हटा रहे हों। मास्टरों की इसी आदत पर तो झूँझल आती है। सुबह से शाम तक हर छोटे-बड़े की नमस्ते लेते-लेते काले-सफेद का फर्क भूल जाते हैं। मेरा मन कितना प्रसन्न होता अगर पहचान लेते। खुद को भी अच्छा ही लगता।

अभी तो स्कूल बंद होने में देर होगी, फिर भी पता नहीं, अँगोछा लटकाए कहाँ निकले जा रहे थे। मुख्य प्रवेश द्वार से स्कूल प्रांगण तक की सड़क जहाँ तहाँ ही पक्की नजर आती थी। दो-चार रोज हुई बारिश और ट्रैक्टरों की आवाजाही से जगह-जगह खूब 'ऐला' हो गया था। किसी पारंगत हॉकी खिलाड़ी की तरह मैंने कार को ड्रिबल करके प्रांगण द्वार से सटा दिया। इधर उधर घूम रहे दो चार बच्चों तथा साइकिल स्टेंड के चपरासी ने मुझे अपलक विस्मय से ऐसे घूरा जैसे मैं इस स्कूल का पुराना विद्यार्थी न होकर किसी चिड़ियाघर का छूटा वनमानुष हूँ।

मैंने भी पूरी व्यावसायिकता से सबको अनदेखा करते हुए कार का दरवाजा खटाक से लॉक कर दिया और अधखुले फाटक में घुस गया।

हरीकिशन मास्साब यहीं दिखे थे।

श्यामू ने स्कूल के बारे में पहले ही बता दिया था कि आजकल तिलकराम, अरे वोई गणित वारौ, प्रैंसीपल है गोय। है तो बामन पर पैसन के कारण सुनता बनियों की है। मैनेजमैंट में कैई आदमी वई के हैं। पिछले तीन-चार साल में चार पाँच मास्टर 'लगवा' दिए हैं - एक लाख के रेट से। अपने गाँव के भूदेव और भीमसिंह, जो सारे (साले) दीहाओं की तरह जूतियाँ चटकाते फिरते थे, यई मारै आजकल मास्टरजी बने फिरैं हैं। मौज है गईं सासकेन की। पांयपैड़ (नजदीक) भी बिना स्कूटर के ना चलैं और ससुर नौं समझैं जैसे लियाकत से नौकरी मिली हो। तुम्हारे टैम में तो शंकरलाल थे ना, बस तभी तक सब ठीक-ठाक था। अब तौ ईमानदारी की बात है, बस धींगामस्ती होती है। एक मास्टर पढ़ाने की तैयार नहीं है। पहले तो फिर भी दो-चार पढ़ाते थे, अब तो सब झरां न्यौते की तरह ट्यूशन पीटैं हैं, तुम्हारे मन में भौत है न जाने की, तो है आओ। कर लो तसल्ली। इतनी दूर ते आए हो। फिर पता नहीं कब आओ। कानन सुनी चौं मानौ जी, आँखिन देखी मानौ...।

मुकर्रम इंटर कॉलेज यानी दसवीं तक के मेरे स्कूल को देखने-घूमने की इच्छा पर मेरा चचेरा भाई श्यामवीर मेरा 'ज्ञानवर्धन' कर रहा था। साथ चलने से भी उसने साफ मना कर दिया। 'मंई का करंगौ ऐसे चौट्टन ते मिलकै' कहकर। मैंने दो-चार पल बाद ही गाड़ी स्कूल की तरफ स्टार्ट कर दी थी।

मैं स्कूल का एक भूतपूर्व छात्र था, यह तो मन में था ही, पर सच कहूँ, यह भाव भी खूब मन में कुलाँचें मार रहा था कि मैं एक आला अफसर हूँ और उसके होने के पीछे मुकर्रम इंटर कालेज का भी पूरा हाथ है - आखिर मेरी शिक्षा की नींव तो यहीं रखी गई थी। अध्यापकों की भीड़ में तो कहीं खो जाऊँगा, इसलिए मुनासिब यही लगा कि प्रिंसिपल साब से ही मिल लूँ। अगर मौका मिला तो अध्यापकों की तरफ चला जाऊँगा।

फाटक, जहाँ मैंने अभी प्रवेश किया था, के बाईं ओर ही गूलर के पेड़ से सटा हुआ, उनका कमरा था। दो दरवाजोंवाला। कभी यहाँ, यानी अपने दिनों में, शंकरलालजी बैठते थे। स्कूल जरा भी देर से आने या कक्षा के समय वहाँ से गुजरने पर हमारा पेशाब निकलने को रहता था। उनसे अध्यापकों तक की कँपकँपी छूटती थी। वे हर रोज प्रार्थना के दौरान, मगर राष्ट्रीय गान से पहले, प्रार्थना स्थल के सामने बने चबूतरे के पास आकर खड़े हो जाते और राष्ट्रीय गान के उपरांत एक से एक नए या क्रांतिकारी विचार को हम छात्रों को बाँटते। सुबह की इस सभा में अध्यापकों की उपस्थिति भी अनिवार्य थी। उनके शरीर पर हमेशा हमने कुर्ता और धोती ही देखे। साफ और सलवटरहित। जब चलते तो धोती का एक छोर बाएँ हाथ में आ जाता। चाल में तेजी दमकती। भंगिमा में किसी विचार की कशमकश। जब बोलते तो बिना माइक के भी आवाज गूँज उठती। नथुने फड़फड़ा जाते। कोई अध्यापक यदि राष्ट्रीय गान के दौरान हिलता-डुलता दिख जाता तो हम छात्रों के समक्ष ही उसकी बखिया उधेड़ने लगते, 'ये सिखाएँगे अपने विद्यार्थियों को अनुशासन और कर्तव्यपरायणता, जिन्हें यह नहीं पता कि स्कूल का समय क्या है, राष्ट्रीय गान के मायने क्या होते हैं। वे दहाड़ते।'

बिजली गुल होने के कारण कमरे के दोनों दरवाजे खुले थे। कमरे के बाहर एक कोने में एक कुतिया बहुत निठल्ली होकर सो रही थी। एक-दो चपरासी, मेरे कदमों को उनके कक्ष की तरफ अग्रसर होता देख घूरे जा रहे थे। मैंने शालीनतावश अपना परिचय पत्र चपरासी को देकर कहा, 'जरा साब को दे दो।'

बाहर आते ही उसने गर्दन घुमाकर कहा, 'आप अंदर आओ।'

कमरे में घुसते ही एक बार तो मैं चौंक ही गया। ये वो तिलकराम थे ही नहीं जिनकी धूमिल स्मृति मेरे जेहन में थी। पहले कैसे सुर्ख और गोलमटोल हुआ करते थे, जैसे खाने में सिर्फ टमाटर ही खाते हों। अब तो उसके आधे भी नहीं। कम दूरी का मोटा-सा चश्मा मरियल चेहरे पर चुहचुहा रहा था। मेरे कार्ड को बड़े गौर और हैरत से उलट-पुलटकर देख रहे थे - जैसे कह रहे हों, भाई उपायुक्त साहब, क्या कोई गलती हो गई हमसे, जो आपको यहाँ आने का कष्ट करना पड़ा, लेकिन सहजता और विनम्रता से प्रणाम करके मैंने उन्हें समझाया - सर मैं इसी स्कूल का विद्यार्थी रहा हूँ, कोई बीसेक साल पहले। दीघी गाँव है। आपने भी कभी-कभी गणित पढ़ाया था - हमारे गणित के मास्साब तो बदनसिंह राधव थे, पर आप उनकी गैरहाजिरी में कभी-कभी...' मेरे परिचय के बाद वे न सिर्फ किसी सकते से बाहर आ गए, बल्कि फटी निगाहों से ही आश्वस्ति में प्रमुदित हो उठे, 'अच्छा-अच्छा' चेहरे की सिलवटों को पूरा खींचकर वे बोले, 'हमने सुना तो था!

भई बहुत बढ़िया, तुम पर तो पूरे जिले को नाज है, बहुत अच्छा किया जो दर्शन दिए।' अपनी रौ में वे बहे से जा रहे थे कि मैंने रोका, 'अरे सर अपने बचपन को भी कभी कोई भूल सकता है, मैंने कई मर्तबा सोचा मगर परिस्थितियाँ ही नहीं बन पाईं, एकाध बार आना हुआ तो गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही थीं।' मैंने अपनी तरफ से कृतज्ञता का प्रदर्शन किया।

इसी दौरान हाथ की घंटी को उन्होंने दो-तीन बार ट्रन-ट्रन किया। एक चपरासी आया तो उसकी तरफ गुमान से कहा, 'बाबूराम, पहचानते हो इन्हें... खैर तुम कहाँ पहचानते होओगे... जरा पानी-वानी और चाय-वाय पिलवाओ।' मैंने गौर किया वे सचमुच प्रफुल्लित थे। इससे पहले कि मैं कुछ पूछता उन्होंने तफसील से मेरे कैरियर ग्राफ का जायजा ले लिया। जब मैंने उन्हें सूचित किया कि सर्विस ज्वाइन करने से पूर्व मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में चार साल पढ़ाया भी था तो आश्चर्य से अधिक आदर में उनकी भौंहें चढ़ गईं।

'अभी पुराने अध्यापकों में कौन-कौन हैं सर' मैंने पूछा।

'तुम्हारे टाइम में कौन थे, जरा बताओ।' कहकर उन्होंने सुनने की मुद्रा बना ली।

'एक बदनसिंह थे - गणितवाले, अमीचंद थे हिंदीवाले, ज्ञानप्रकाश थे भूगोल के, रामचंद्र इतिहास के...।' मैंने कुछ नाम गिनाए, लेकिन तुरंत अहसास हुआ कि इस तरह बिना 'श्री' लगाए पहले ये नाम लिए होते तो बदतमीज करार दिया जा सकता था।

थोड़ा मुँह उठाकर और आवाज खींचकर वे बोले, 'अरे तुम तो बहुत पुरानी बात कर रहे हो। ये सब तो रिटायर हो गए। हाँ, ज्ञानप्रकाशजी को अटैक आ गया था तो वैसे नहीं है।'

मुझे लगा अपने ही स्कूल से मुझे बेदखल किया जा रहा है। बिना अपने अध्यापकों के भी कोई स्कूल अपना लगता है। मैंने जल्दी-जल्दी कुछ और नाम गिनाने शुरू किए, 'हरीकिशन, कांतीप्रसाद, सोहनपाल, हुकुम सिंह।'

'हुकुम सिंह तो रिटायर होकर ऊपर भी चले गए। कांतीप्रसाद और सोहनपाल हैं, लेकिन वो तो जूनियर क्लासों में हैं, हरीकिशन के अभी दो-तीन साल हैं।' प्रिंसिपल साहब ने एक ही साँस में पूरे तथ्य बिखेर दिए। मुझे थोड़ी राहत मिली।

'हरीकिशन क्या पढ़ाते थे तुम्हें।' मुझे लगा उन्होंने किसी मनसूबे के तहत सवाल किया था कि क्या मैं वाकई इसी संस्था से संबद्ध था या...।

'सर साइंस पढ़ाते थे - रसायन और भौतिक विज्ञान।'

'आजकल भी वही पढ़ाते हैं।'

बाबूराम फुर्ती से पानी और चाय के गिलास रख गया था। माहौल में कुछ ठंडी अनौपचारिकता थी। पहले चपरासी लोग बहुत डरे-सहमे पेश आते थे। अब वैसा कुछ नहीं था। प्रिंसिपल साब जो-जो संबंधित सवाल करते, वह सीधे-सीधे, बिना किसी आदर या अपमान भाव के, उनके उत्तर दे देता।

उसे देखकर मैं पूछ बैठा, 'हमारे टाइम में एक अली-अली हुआ करता था! अभी है क्या?'

'अरे साब वो तो बहुत पुरानी बात हो गई, आप फरियाद अली की बात कर रहे हैं ना?' मुंडी हिलाकर वह पूछने लगा।

'हाँ-हाँ फरियाद अली, घंटी बजाता था। कभी-कभी लैब में भी काम देख लेता था।' उस पुराने सूत्र ने इतने अंतराल के बावजूद भी मेरी बाँछें खिला दीं।

'वो तो साब बहुत पहले खत्म हो गया... उसका लड़का है महबूब अली, वो उसकी जगह लगा दिया है साब ने।'

मैंने 'अच्छा' कहकर प्रिंसिपल साब की तरफ रुख किया। इस 'लगवाने' वाली बात पर श्यामू की 'रेट' वाली बात, पता नहीं कैसे, किसी टूटे तारे-सी लकीर खींचकर गुम हो गई। 'सर हरिकिशन मास्साब से मुलाकात हो पाएगी।' मेरे कथन में अनुनय अधिक थी, सुझाव कम। मेरी बात पर उन्होंने हवा में बाबूराम को पुकारकर पूछा, 'ये हरीकिशन आए हैं बाबू' फिर मेरी तरफ हौले से जोड़ा, 'दिखवा लेता हूँ।' मुझे लगा अगर मैं यह कह दूँ कि मैंने उन्हें कुछ देर पहले ही बाजार जाते हुए देखा है तो कोई अनावश्यक बदमगजी हो सकती है।

'साब उनका लड़का बीमार चल रहा है। दो पीरियड तो उन्होंने लिए थे। अभी-अभी निकले हैं। खुर्जावाले डॉक्टर को दिखाने गए होंगे। आ जाएँगे थोड़ी देर में।'

बाबूराम की जानकारी पर मैं हतप्रभ हुआ, मन हुआ पूछूँ - क्या तुझे यह सब बताकर गए हैं लेकिन फिर लगा सूचना तंत्र के छोटी जगहों पर अद्भुत और द्रुत माध्यम होते होंगे, जो सूचनाओं को हरदम ऑटो अपडेट मोड में रखते हैं।

हम चाय पी चुके थे। मेरा स्कूल देखने का मन था। बावजूद इसके कि अब वह काफी जर्जर दिख रहा था। पुताई हुए भी तीन-चार वर्ष हो गए होंगे। मुख्यद्वार की नामपट्टी के मुकर्रम का दूसरा 'म' तथा 'पहासू' के 'स' की बड़े ऊ की मात्रा टूटे हुए थे। साफ-सफाई की स्थिति तो बाहर सोई कुतिया भी कुछ-कुछ बता दे रही थी। कभी नवाब इकराम अली ने अपने वालिद मुकर्रम अली की याद में, कोई छियासी साल पूर्व, अपने भव्य किले के प्रांगण को, अंग्रेज हुकूमत से कहलवाकर यह स्कूल शुरू करवाया था और इमारत के कारण ही नहीं, पास प्रतिशत के कारण भी स्कूल का पूरे बुलंदशहर जिले में नाम था। मतलब हमारे समय में। यूँ कमरे और सुविधाएँ आदि तो सामान्य से बेहतर नहीं थे लेकिन पहासू नवाब के किले की तिर्यक-गोलाकार परिधि स्कूल की शान में वह भव्यता जड़ देती थी कि नवधनाढ्यों द्वारा ज्यादा रंग-रोगन करके बनाए गए दूसरे स्कूल 'मुकर्रम' के आगे पानी ही भरते थे। किले का एक प्रवेश-निकास-द्वार, स्कूल में खुलता था। मोटी कीलों से जड़ा भीमकाय फाटक, जिसके जिस्म में खुलता-बंद होती एक छोटी किवाड़ थी। वही उपयोग में आती थी, क्योंकि फाटक तो बंद ही रहता था। कोई अकेला अंदर चला जाए तो या तो भूल-भुलइयों में फँस जाए या खौफ से मर जाए। उसे दिखाने-समझाने के लिए हमारे इतिहास के अध्यापक बाकायदा एक पीरियड मुकर्रर करते थे... किले के गोलाकार होने का राज, उनकी ऊपर की तरफ थोड़ी अंदर झुकी हुई दीवारें और पता नहीं क्या-क्या, इसी कारण हमें ज्ञात होता था।

'चलो मैं तुम्हें स्कूल दिखा देता हूँ।' वे बड़ी तत्परता से खड़े हो गए। थोड़े सरपट रास्ते के बाद दो विशालकाय इमली के पेड़ों से घिरा प्रार्थनास्थल था, लैब के सामने।

'पहले इसकी एक जालीदार बाउंड्री हुआ करती थी, कहाँ गई?'

'गई वई कहीं नहीं है, अब बच्चे ज्यादा हो गए हैं तो उन्हें हटाकर चौड़ा कर दिया है।' वे चलते-चलते ही बताते रहे। मैं उन जालीदार खाँचों का अनुमान करने लगा जो अब वहाँ नहीं थे। इस जगह से मेरा करीबी रिश्ता रहा है। जिला स्तरीय वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में जब स्कूल को प्रथम पुरस्कार दिलवाकर लाता था, तो शंकरलालजी प्रेयर के बाद मेरा विशेष अभिनंदन करते थे। मैं उनके पैर छू लेता और समस्त अध्यापक वर्ग की अनुकंपा का कृतज्ञ होता। मेरी शान में, किसी छात्र से कसीदे भी कसवाए जाते। एक बार 'आराए कि जाराए' करनेवाले हनीफ ने, 'अपना सतपाल पढ़ने में तो ओ होशियार हाई हा।' जब कहा तो माहौल ठहाकों में गूँज गया था। उस प्रस्तुति पर फिर कक्षा में अमीचंद मास्साब ने मंच और चौपाल के भेद को रेखांकित किया था।

थोड़ा आगे ही अध्यापक कक्ष होना चाहिए, मगर नहीं था। जगह सुनसान-सी थी। मैंने जब पूछा तो रुककर इशारे से वे बोले, 'अध्यापकों के लिए जगह कम पड़ रही थी, इसलिए वो देखो वो सामनेवाला कमरा कर दिया है। है न पहले से अच्छा।' उन्होंने इशारे से समझाकर स्वीकृति माँगी तो मैं 'हाँ-हाँ' कह उठा। थोड़ा और आगे चलकर हम जूनियर क्लासों यानी आठवीं तक की कक्षाओं के चौकोर घेरे में प्रवेश करनेवाले थे कि मुझे कुछ आंतरिक दबाव लगा। हो सकता है उस जगह का भी असर रहा हो क्योंकि एक चिपचिपी गंध लगातार आ रही थी।

'मैं अभी आया सर।' कहकर मैं उस तरफ मुड़ने लगा।

'अरे यहाँ कहाँ जा रहे हो, टीचर्स का अलग है, ये तो लोंडों का है' उन्होंने लगभग आपत्ति जताते हुए कहा। हमारी बातचीत और व्यवहार में बराबरी का ही धरातल था, पर लड़कों की जगह उनका 'लोंडों' का संबोधन अखरने की बजाय आत्मीय लगा।

मगर मैं बिना समय गँवाए उसमें घुस गया। बिना छत और बिना दरवाजे के आमने-सामने दस-दस खोखे बने थे। मुझे याद था, सीधे हाथ को प्रवेश से तीसरा 'मेरा' था। उसमें सामने एक हल्का सा गड्ढा था, जिसमें निशाना दागने में मुझे सुख मिलता था। कोई उसमें घुसा हो तो आसपास या सामने की कतार में स्थान खाली होने पर भी, थोड़े इंतजार के बाद, हल्का मैं अपने को उसी नियत स्थान पर करता था। आज सोचने पर कितना बचकाना लगता है यह सब।

जब मैं आया तो वे इंतजार में खड़े थे। मैंने आदतन सॉरी कहा और साथ हो लिया।

कुछ कक्षाएँ चल रही थीं। कमरों के साथ अधखुले बरामदे की कतार थी। हम उसी से होकर निकल रहे थे। प्रिंसिपल के साथ किसी सुसज्जित अजनबी को देख सारी निगाहें चौकन्नी थीं। शायद कोई स्कूल निरीक्षण का मामला हो, कम से कम हम तो यही सोचा करते थे।

एक कमरे के प्रवेश की सरहद पर मैं रुक गया। कक्षाध्यापक सहित सारे विद्यार्थी खड़े हो गए। कोई दस-बारह से ज्यादा नहीं थे। प्रिंसिपल साब पीछे खड़े थे। अपने सम्मान में खड़ा होता देख मैं अंदर ही अंदर झेंप गया। मैं सचमुच अपने को उस प्रांगण में उन्हीं में से किसी के साथ अधिक महसूस कर रहा था। मैंने बैठने के लिए कहा, मगर उन्होंने अनसुना कर दिया।

'प्रार्थना सभा के लिए तो इतना विस्तार हो गया है, पर यहाँ तो इतने कम हैं।' मेरा प्रश्न आधा प्रिंसिपल साब की तरफ तो आधा कक्षाध्यापक घूरेलालजी की तरफ था।

'हैं तो क्लास में सैंतालीस बच्चे, लेकिन देख लो, आते कितने हैं' घूरेलाल जी ने जैसे पूरी व्यवस्था को ही लपेटते हुए स्पष्टीकरण दिया।

'तो क्या हाजिरी नहीं होती है?'

'होती है, लेकिन कमिश्नर साब अब वो जमाना नहीं रहा जब हम लोग बिना डरे-सोचे नाम काट देते थे। अब तो अनुशासन लागू करना बहुत जोखिम हो गया है। हम भी सोचते हैं, जो आ जाएगा, पढ़ा लेंगे... हमारी ही कौन-सी गरज है।' उनका मुझे कमिश्नर का संबोधन अनजाने ही मेरी ईगो को कोई ठंडी फुहार देता चला गया। 'जोखिम' से श्यामू मुझे यदा-कदा अवगत कराता रहता था कि कैसे हर वर्ष ही एक न एक 'ज्यादा बनने वाले' अध्यापक को तीस बिस्तरों के नए बने पहासू अस्पताल की शरण लेनी पड़ती है। पार साल हिंदी के सागर दत्त को 'प्रसाद' दिया गया था।

मैंने 'ठीक बात है' कहकर पहली कतार के एक बच्चे से पूछा, 'कौन-सा गाँव है?'

'बलैन।'

'पढ़ना अच्छा लगता है?'

उसने कक्षाध्यापक को आँखें तरेरकर स्वीकृति में गर्दन हिलाई।

'क्या पढ़ाई हो रही है?'

'भूगोल।'

'भारत की राजधानी कहाँ है?'

'लखनऊ' उसने कहा, लेकिन दो-तीन आवाजों ने 'दिल्ली' फुसकारा तो वह झेंप गया। भूगोल के पीरियड में मेरे प्रश्न की प्रासंगिकता आपत्तिजनक हो सकती थी लेकिन जो हो गया, सो हो गया। 'आइए' बच्चों के साथ मेरी संलग्नता देख तिलकरामजी ने कुछ बोरियत के अंदाज में कहा।

वहाँ से चलकर हम प्रयोगशालाओं की तरफ आ गए। मेरा अंदर जाने का मन था। नाइट्रेट का छल्ला बनाने में एक बार मैंने पानी के बजाय हाथ की एसिड की बोतल परखनली पकड़े दूसरे हाथ पर उलट दी थी। वे मुझे बताते रहे कि प्रयोगशालाओं के लिए चुनाव तो किया गया था इन लंबे-चौड़े-ऊँचे हालों का, लेकिन न सल्फ्यूरिक एसिड होता है, न गैस बर्नर। ले-देकर बर्नियर कैलीपर्स और फोकस दूरी निकालने वाले प्रयोगों को कराकर छात्रों को 'वैज्ञानिक' बना दिया जाता है। कोई मेरे जैसा (अपनी नजीर यूँ दिए जाने पर मेरा अहम फुदक उठा) कभी-कभार आ जाए तो विज्ञान अध्यापक व्यक्तिगत रुचि लेकर बता देते हैं कि माजरा क्या है यहाँ आनेवाले छात्र घास खोदकर आते हैं और जाकर फावड़ा चलाते हैं। प्रयोगशाला का समय दरअसल आराम का समय होता है। दीवारों पर टंगे आइंस्टीन, रदरफोर्ड और मैरी क्यूरी को देखकर ही उन्हें खासा वैज्ञानिक बोध आ जाता है।

हमारा चक्रीय घेरा पूरा होने का था। हैंडपंप को देखकर मुझे खयाल आया कि इसके सामने तो कभी कला-कक्ष हुआ करता था, जिसमें गांधी, सुभाष, नेहरू, चंद्रशेखर, भगतसिंह और राणाप्रताप सहित और भी छोटी-बड़ी चित्रकारियाँ चित्रकारों के हस्ताक्षर सही टँगी रहती थीं। स्कूल आगंतुकों को छात्रों की प्रतिभा प्रदर्शन के रूप में अक्सर ही उसमें टहलाया जाता था। वही एक कमरा था जिसमें पर्दे भी लगे थे। मेरे पूछने पर वे बोले, 'अरे कमरा कहाँ जाएगा, वहीं है, पर अब उसे सामान्य कमरे की तरह इस्तेमाल करते हैं। यहाँ के लौंडे साले कलाकारी करेंगे। छपे छपाए चित्रों पर सफाई से पैंसिल फेरकर रंग-रोगन कर लाते थे।' मुझे उनकी बात तो एकदम जँची क्योंकि एक बार 'देखने के लिए' गाँव के ही एक 'कलाकार' ने चंद्रशेखर का कलैंडर जब लौटाया तो उनके शरीर और मूँछों की सीमारेखाएँ उकर आई थीं।

लेकिन 'लौंडे' के साथ 'साले' का प्रयोग हास्यास्पद लगा। अपनी बढ़ती प्रगतिशीलता के आवेश में मुझे लगा, वे थोड़ी देर में ही 'माँ की भैन की' करने लगेंगे।

हम लोग प्रधानाचार्य-कक्ष के पास पहुँचे तो दो-चार अध्यापक और आ चुके थे। घूम-घूमकर स्कूल में मेरी रुचि देखकर अथवा हो सकता है किसी प्रच्छन्न माध्यम द्वारा मेरे पद-हैसियत की खबर से मचलकर। बाबूराम ने बताया कि हरीकिशन मास्साब आ गए हैं और उसने उन्हें बता दिया था कि मैं उन्हें पूछ रहा था। तिलकरामजी अपने कक्ष में चले गए, लेकिन मैं बाहर ही अध्यापकों से घिरा रहा।

कब पास किया था इस स्कूल से, उसके बाद क्या किया, कितनी तनख्वाह मिलती है, बँगला कितना बड़ा है, हमेशा एक राज्य में रहना पड़ेगा या बदली हो जाएगी, नेता लोग परेशान तो नहीं करते, यू.पी.एस.सी. में थोड़ी बहुत जान-पहचान चलती है क्या, बच्चे क्या करते हैं - जैसे ढेरों मासूम सवाल वो मुझ पर दागते रहे। जहाँ मैं ऐसे ही सवालों की उम्मीद कर रहा था, उनके उत्तरों की भी रिहर्सल कर चुका था। एक-दो अध्यापक तो खुले आम अपने बच्चों की नौकरी लगवाने का भी प्रस्ताव देने लगे। मेरे दिए विजिटिंग कार्ड को कई तो ऐसे देख रहे थे गोया वह वार्षिक समारोह में शिक्षा मंत्री द्वारा पुरस्कृत करने का फोटोग्राफ हो।

इतनी जल्दी डिप्टी कमिश्नर बने, भाई वाह। हमें बहुत खुशी है। गंगा की कसम। खूब जोर की किस्मत है जी।

पैर छूने की मेरी आदत बहुत पहले छूट चुकी थी, वरना इस मौके से बेहतर और क्या हो सकता था। पूरी शालीनता से द्रवित होकर मैंने हाथ जोड़कर सभी को विदा में प्रणाम किया।

मैं अभी प्रिंसिपल के कमरे की तरफ मुड़ने को हुआ ही था कि गूलर के पेड़ के दूसरी तरफ खड़े हरिकिशन मास्साब ने इशारे से बुलाया।

'तुम सतपाल सिंह हो ना, दीघी के।'

'हाँ मास्साब।'

'रामपाल सिंह तुम्हारे ही चाचा हैं ना।'

'जी।'

'तुम इनकम टैक्स विभाग में हो ना।'

'एकदम सही।'

'हमें जानौ' प्रश्न को किसी अधिकार के धरातल पर ठेलते हुए उन्होंने रोका।

'क्यों नहीं मास्साब आपने 10वीं में कैमिस्ट्री पढ़ाई थी...आप।' मैं उनका उपनाम बताने को ही था कि उन्होंने अनौपचारिक होकर कहा।

'बताओ हमें कैसे पतौ'

इसका मैं क्या जवाब देता। अंदर ही अंदर मुझे कुछ हैरत हो रही थी कि कुछ देर पहले मैंने जब नमस्ते की थी, तब कितनी बेअदबी से पहचाना तक नहीं था और अब कितने जिगरी 'बन' रहे हैं।

'मुझे नहीं पता।' मैंने स्वीकारा तो उन्होंने राज खोलते हुए कहा, 'तुम्हारे चाचा हैं ना रामपाल सिंह, उनसे मिला था... बड़े अच्छे आदमी हैं साब।' फिर थोड़ा रुक-रुककर अपनी जेब से छोटी डायरीनुमा कुछ निकाला। उँगली से जीभ चाटकर चार-पाँच पन्ने पल्टे।

'तुम्हारे बँगले का नंबर ए-17, सिविल लाइंस है ना और टेलीफोन

नं. 5859654... उन्हीं से लिया था। मैं तो तुम्हें वैसे भी मिलना चाह रहा था! बहुत अच्छा हुआ जो खुद ही दर्शन दे दिए।'

इस रहस्योद्घाटन से मैं यकीनन प्रभावित हुआ। एम.फिल. करने तक की अपनी पढ़ाई में पचासों अध्यापकों ने पढ़ाया था, लेकिन अपने-अपने स्तरों पर मेरा हृदय चार-पाँच से अधिक नहीं जीत पाए थे। हरीकिशन मास्साब उन्हीं में से एक था। इसीलिए, आते वक्त जब मेरी नमस्ते को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया तो मेरे अफसरी अहम की बनिस्बत उस छात्र को चोट अधिक पहुँची थी जो उनकी स्मृति को यूँ ही लिए घूमता रहा था।

शुक्र था ऐसा नहीं था।

'चलो घर चलो, तुमसे एक काम है' उन्होंने इसरार किया। मुझे भी कोई खास काम नहीं था, सो हामी भर दी। अपने किसी भाई-बंध की नौकरी लगवाने के सिवा और क्या हो सकता है, मैंने सोचा। इस मामले में मैं अपनी सीमाएँ जानता था, इसलिए अतिरिक्त आश्वासन का एक कतरा भी नहीं देता था। मैंने एक चलताऊपने से प्रिंसिपल साब को धन्यवाद और अलविदा कहा और बाहर निकल उन्हें अपनी गाड़ी में बिठा लिया। रास्ते में फिर एक बार मुझे अपनी नौकरी, शिक्षा और परिवार संबँधी जानकारी देनी पड़ी। कस्बे की सड़कों और गंदगी को देखकर मैंने अपनी खिन्नता प्रकट की तो वे बोले, 'अरे भैया, ये यूपी है यूपी... यूपी का मतलब जानते हो यू पे' अपनी चाटुकारिता पर वे खिनखिनाए।

'आपका स्वास्थ्य काफी गिर गया है।' उनके बताए निर्देशों पर एक-दो बार गाड़ी मोड़कर मैंने कहा।

'अब बुढ़ापा आ गया सतपाल सिंह, तुमने पता नहीं कब देखा था। हर चीज पहले जैसी थोड़े रहती है।'

'आपके बेटे को, क्या नाम है उसका, क्या हुआ बाबूराम बता रहा था कि...'

'अरे भइया, कहा (क्या) बताऊँ सब टैम-टैम का खेल है...' उनका स्वर लगभग दारुण हो गया। अहसासतलब होकर उन्होंने जोड़ा 'कितना मेधावी लड़का था। दिगविजय है नाम। टैंथ में पारसाल स्कूल टॉप किया था। आज घर बैठा है। डॉक्टर कभी वायरल कहता है, कभी जूड़ी। अलीगढ़ बुलन्दशहर के बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखा दिया। पचास एक्सरे करा लिए, पर बुखार क्यों आता है, का पता नहीं लग पाया है। होम्योपैथी भी शुरू करा दी है। खुर्जावाले का इलाज अलग चल रहा है... आज भी दिखाने गया था।' वे बेतहाशा कहे जा रहे थे। मैं पूरे गौर से सुन रहा था। एक कान खोल, दूसरा बंद करके।

हाँ, यही बात तो उन्होंने वर्षों पहले, जब सबसे पहली बार पढ़ाने आए थे, कही थी। जब मैं नौंवी में आया था। पहले उन्होंने हम सबके नाम-गाम पूछे थे। अपना भी संक्षिप्त परिचय दिया था।

पूरे स्कूल में पैंट-शर्ट पहननेवाले वे शायद अकेले थे। ठंड के दिनों में टाई भी लगाते थे। सुबह ग्यारह बजे चपरासी उनके लिए खुर्जा से आया हिंदी का नवभारत टाइम्स तथा अंग्रेजी का हिंदुस्तान टाइम्स दे जाता था, जिन्हें पढ़नेवाले भी वे अकेले ही थे।

'आप लोग अपने घर-बार का कामकाज छोड़कर जब यहाँ आते हो तो यह ध्यान रखा करो कि पढ़ने आए हो, पहासू की बसों की पौं-पौं सुनने नहीं, हलवाइयों के कलाकंद की खुशबू सूँघने नहीं, गाँव में भेंसिया ने न्यार (चारा) खाया कि नहीं... अम्मा ने कंडा (उपला) पाथे कि नहीं... ये सब दिमाग में नहीं आना चाहिए। कक्षा के अंदर जो पढ़ाया जाए, सिर्फ वही दिमाग में घुसना चाहिए और वह भी ऐसे नहीं कि एक कान से घुसा और दूसरे से निकल गया, जैसे छलनी से मठा। तुम्हें उसे दिमाग में रखना होगा, रोकना होगा... ध्यान लगाकर सुनोगे तो वो रुकेगा, न रुके तो दूसरे कान को उँगली से बंद कर लो बंद कर लो।' दतचित्त होकर अपनी धाराप्रवाह हिंदी में, मेज के एक कोने से टेक लगाकर, हाथों की आवेशपूर्ण भंगिमा से, वे जैसे हम सब पर कोई सम्मोहन वर्षा रहे थे। दूसरा कान बंद करनेवाली बात को, मुझे याद है, उन्होंने इतने लंबे और प्रभावपूर्ण ढंग से वर्णित किया था कि मुझ समेत कई औरों ने उनकी इसी बात को दिमाग से न निकल देने के लिए, एक उँगली को कान में ठूँसना शुरू कर दिया था।

लेकिन हम लोग ठगे से रह गए जब उन्होंने आगे कहा, 'हमारे दिमाग में कोई बात घुसती जरूर एक कान से है लेकिन जरूरी नहीं है कि वह दूसरे से ही निकले। हो सकता है वह उसी से वापस निकल जाए, इसलिए दूसरा कान बंद करने से काम नहीं चलेगा... सब कुछ मन से, ध्यान से, दिल लगाकर सुनना पड़ेगा।'

उसी दिन से मैं उनकी भाषा, उनके व्यक्तित्व, उनके रोम-रोम से अभिभूत हो गया था। कितना अच्छा हुआ, जो इस सैक्शन में दाखिला मिला। दूसरेवाले में सिंघल साब पढ़ाते होंगे ऐसा... अजी राम का नाम लो।

और थोड़े ही दिनों में मैं उनका प्रिय छात्र बन गया था। इसका दूसरा कारण था अंग्रेजी ग्रामर पर मेरी पकड़ और रटकर ही सही, मगर धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने की योग्यता। कक्षा में विज्ञान पढ़ाने के अलावा वे जिले में होनेवाली अंतर स्कूल वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिए मेरे साथ खूब मेहनत करते। जब मैं प्रतियोगिता जीतकर आता तो शंकरलालजी से आग्रह करके वे सुबह प्रार्थना सभा में ही, सरेआम, मेरे द्वारा स्कूल को यूँ 'गौरवान्वित' किए जाने पर मुझे कंधों उठवाते। खुद मेरे प्रेरणास्रोत होते हुए मुझे दूसरों का प्रेरणास्रोत घोषित करते।

'बब्ब...बस यहीं रोक लो।' उन्होंने कुछ आवाज खींचकर बोला तो मेरा ध्यान टूटा।

घर जाने के लिए थोड़ा पैदल रास्ता था, इसलिए कार कुछ दूर पहले ही पार्क कर दी गई। उनका घर मोहक किस्म का पक्का था। पुश्तैनी जैसा। धरातल से दो तीन फीट उठान लिए। श्यामू के रहस्योद्घाटनों का असर कहीं भी लक्षित नहीं हो रहा था, लेकिन विभाग में अपने अनुभवों से मैं जानता था कि सिर्फ आँखों देखी से कुछ भी निष्कर्ष निकालना खतरनाक होता है। कई लखपतियों के घर टूटे हुए कप-प्लेटों में मैं चाय पी चुका था। किताबी खातों में बत्तीस हजार वार्षिक आय दर्शानेवाले एक महाशय के यहाँ पूरे उनचास लाख की आय का लेखा मिला था, निवेशित संपत्ति ब्यौरों समेत।

जिस कमरे में हम बैठे, वहाँ सीता स्वयंवर और कुरुक्षेत्र में भीष्म की तरफ चक्र फेंकते कृष्ण की दो बड़ी-बड़ी चित्रकारियाँ थीं। दीवार के बीच में ऊपर की तरफ एक आतिशखाना था, जिस पर बिछे हरे कपड़े पर कृष्ण, शिव, गणेश तथा दुर्गा की पीतल की छोटी मूर्तियां थीं। अगरबत्ती स्टैंड पर सूखी हुई डंडियां अटकी हुई थीं। एकाध जगह मामूली टूटे फर्श पर रंगीन फूल पत्तियों की चौकोर कतार थी। बीस वर्ष पूर्व यह सब देखता तो एक सलौने सुख से रोमांचित हो सकता था, मगर अब मुझे वह कमरा, अपने स्थापत्य और आभ्यांतर के कारण शमशेर की 'काल तुझसे होड़ है मेरी' कविता के शीर्षक को सीधे बिलाता दिख रहा था।

'पहले खाना खाओगे कि चाय-वाय पीना है।' उन्होंने कुछ तसल्ली, कुछ अधिकार से कहा।

'खाने की तो सर कोई गुंजाइश है ही नहीं, चाय पी लेते हैं।' मैंने उन्हें बताया कि कैसे गाँव का हवा-पानी मिलते ही मेरी भूख के पर निकल आते हैं और चूल्हे पर सिकीं पनफतियों के कारण तो नाश्ते के समय ही लंच जैसी भूख उखड़ आती है।

'गुड्डी।' उन्होंने हवा में जोर से पुकारा तो बीसेक वर्षीय लड़की झाँकती चली आई। उसने मुझे नमस्ते किया तो उन्होंने सगर्व मेरा परिचय कराया, 'ये सतपाल सिंह है, दीघी के। हमारे स्टूडैंट रहे हैं। आजकल इनकम टैक्स कमिश्नर हैं, जरा चाय बनवाओ।' मुझे पदोन्नति देने में उन्हें कतई संकोच या देर नहीं लगी। मुझे पता नहीं क्यों लगा कि मेरे पद को एक अदद चाय के लिए भुनाया जा रहा है।

चाय की एक-दो सुड़कियों के बीच ही वे बोले, 'तुम्हें हमारा एक काम करवाना है' उनकी आँखें स्थिर और गहराने लगीं।

'क्यों नहीं, बताइए सर।' मैं जैसे गुरु दक्षिणा के पर्व को प्रतिश्रुत था।

'तुम्हारे विभाग का एक नोटिस है, खुर्जा से। रिटर्न भरने के लिए।'

'ठीक है, रिटर्न ही भरना है ना, भर दीजिए या किसी वकील से भरवा लीजिए... विभाग में यह बहुत रूटीन चीज है।' मैंने यथासंभव सामान्य होकर समझाया। किन्हीं कारणों से विभाग के किसी हस्बेमामूल पत्र से लोगों को पटापेक्ष या रक्तचाप की शिकायत हो जाती है, यह मैं जानता था। अपने ही गुनाह कंकाल बनकर आक्रमण करते हैं या विभाग की परपीड़न प्रवृत्ति या उनका कोई खतरनाक संयोग, कहना मुश्किल है।

'नहीं वो बात नहीं है, अब तुमसे क्या छुपाऊँ। हमारे पिताजी की तो सुनार की दुकान थी, खूब चलती थी। हमारा तो जो भी टैक्स है, स्कूलवाले पहले ही काट लेते हैं। ये कुछ दिनों पहले वी.डी.आई.एस. (स्वैच्छिक आय घोषणा योजना) जैसी कुछ आई थी, फिर नहीं आनेवाली है क्या?'

मैं जितना तल्लीन होकर उनकी समस्या से जुड़ने की कोशिश कर रहा था, वे उतने ही अनगढ़ और नुनखुरे से होते जा रहे थे... पिताजी की सुनार की दुकान, वी.डी.आई.एस., छुपानेवाली बात... मास्साब चकरोट पै आके बात करौ ना, खेत में चों घुसे जा रहे हो।

मुझे थोड़ा सकून भी था कि चलो एक ज्यादा बड़ी किल्लत यानी किसी को नौकरी लगवाने की गुहार नहीं की जा रही है।

'मैं समझा नहीं।' मैंने पलक मूँद कर सर झटका।

'भइया जिन वर्षों के लिए नोटिस आया है, उनके रिटर्न तो जा ही चुके हैं... तुम ये वी.डी.आई.एस. का बताओ न!'

'किन वर्षों के लिए है नोटिस?' मुझे कुछ-कुछ आभास होने लगा था।

'पिछले तीन-चार साल के लिए' हमारे सवाल-जवाबों में डॉक्टर मरीज जैसा कुछ आ गया था। सच बोलने के सिवाय कोई रास्ता न था।

'पिछले तीन-चार साल में आपने कोई काम धंधा या खर्चा किया हो, कहीं बैंक से पैसा निकाला, भाड़ा हो...किसी से कोई दुश्मनी...?'

मेरे सवालों में कोई तारतम्य ढूँढ़ने की बारी अब उनकी थी। चाय को एक लंबे अंतिम घूँट में गटककर बोले, 'सतपाल सिंह तुम ठीक सोच रहे हो, तीन-चार साल पहले गुड्डी को कनार्टक के एक मेडिकल कॉलेज में सात लाख का डोनेशन देकर दाखिल कराया था। कुछ पैसा ट्यूशनों का था, कुछ पिताजी की दुकान का... अब तक दो लाख के करीब लड़के की बीमारी पर लग गए हैं और रही बात दुश्मनों की। तो यहाँ तो पड़ोस का कुत्ता तक दुश्मनी मानता है। हमारे बराबर में एक रामजीलाल है, यहीं प्राइमरी में पढ़ाता है... उसके पनाले से हर बरसात में सारा पानी हमारी तरफ गिरता है। मैंने खूब प्यार मोहब्बत से समझाया कि एक राज बुला के ठीक करा लो, पैसे मैं दे दूँगा तो बिरचो मेरे पैई अर्रा के बोला, 'बारिश होती है तो ये क्या मेरी गलती है। किसी और को आप समझा सकते हो, मास्टरों को नहीं। मैंने थाने में केस दर्ज कर दिया... हो सकता है उसी ने तुम्हारे डिपार्टमेंट में फरियाद की हो।'

'आपने कोई और भी खर्चा किया है?' उनके जवाब को जेहन में उतारते, बिना कोई प्रतिक्रिया किए मैंने पूछा।

'कोई पच्चीस बीघा जमीन और खरीदी थी... अब रिटायरमेंट ज्यादा दूर तो है नहीं...।'

मैंने अनुमान लगाया कि उनके पास कोई पच्चीस लाख का तो सीधा हिसाब था। इसके अलावा दूसरी आनुपातिक संपत्ति भी होनी चाहिए। पाँच-सात हजार की मासिक आवक से ये सब कर डालना असंभव था। जाहिर है, ट्यूशनों से अच्छा-खासा कमाया गया होगा और उस पर टैक्स भरने की गुस्ताखी का सोचा भी नहीं गया होगा।

'जमीन के कागज हैं आपके पास?'

'पूरे हैं।'

'तब तो और दिक्कत है मास्साब। सब कुछ आपके नाम ही होगा या आपके फादर के नाम है कुछ?'

'मैं तुम्हें क्या बताऊँ सतपाल। पारसाल उनकी डैथ हो गई, कोई बीमारी नहीं थी, लेकिन यही सोचकर वे सदमे में आ गए कि अब तो सब कुछ छिन जाएगा। उनके बाद दुकान का काम भी बंद है।' उनका चेहरा रक्तहीन और निर्जीव हो उठा।

'कोई वसीयत वगैरह है उनकी या कुछ और कागजात।'

'वसीयत की हम सोच ही रहे थे कि अचानक वो...' उन्होंने एक बार फिर सहारा ढूँढ़ती नाव पर मुझे चप्पू की तरह लादा।

कुछ पल व्योम में सोचकर मुझे गहरी साँस आई।

'मामला तो थोड़ा सीरियस है मास्साब... आपने 1997 की वी.डी.आई.एस. में कुछ नहीं किया?' सारे पहलुओं पर अपनी समझ के घोड़े दौड़ाने के बाद मैंने पूछा।

'यही तो गलती हो गई... तभी तो मैं तुमसे पूछ रहा था... गुड्डी को इतना पैसा देकर मेडिकल में कराया था, लेकिन पहले साल के बाद ही यह फेल हो गई। इतनी दूर पड़े रहकर डिप्रैशन में आ गई थी। मैंने बुला लिया। वो पैसा तो खड्डे में गया। लड़के की बीमारी अलैदा खर्च करवा रही है। अकेला लड़का है। रिटायरमेंट नजदीक आ रहा हैं, लड़की शादी करने को पड़ी है। समझ नहीं आता, क्या करें। बहुत परेशानी है सतपाल सिंह साब।' टूटते हुए वाक्यों को कहते-कहते उनकी आँखें छलछला गईं। भावुकतावश मेरी हथेली पकड़कर दबाने लगे। मैं उनके लिए 'साब' भी हो गया मेरे लिए भी स्थिति असहज थी। अपने कार्य की सीमाओं को देखते हुए कोई निश्चित आश्वासन भी नहीं दे सकता था। जो हाथ इतनी निरीहता से मुझे पकड़े था, बीसेक वर्ष सिर्फ शाबाशी में पीठ फिराता था। उस समय मैं उनसे कह देता कि पहले अपने एक तमाचा मारो, तब मैं कुछ करने की सोचूँगा तो वे अपने चार तमाचे लगा देते।

एक बार मेरे भी कम जोर का तमाचा पड़ा था आँखें कैसी छलछला गई थीं। भौतिकशास्त्र पूरा हो गया था और रसायन प्रारंभ हो चुका था। मैंडलीफ सारणी बताई गई थी। उससे पहले उन्होंने कहा था।

'रसायन शास्त्र की अपनी वर्णमाला होती है। तत्वों के संकेत इसके अक्षर होते हैं। शब्दों की तरह इनके समुच्चय की अपरिमित सीमाएँ होती हैं। इनके मेलजोल से असंख्य पदार्थ बनते हैं... कुछ जो हमें वर्षों के अन्वेषण से आज ज्ञात हैं। कितने और हो सकते हैं, अभी भी जानने बाकी हैं। मैंडलीफ का योगदान सिर्फ इसी बात में नहीं है कि उसने उपलब्ध तत्वों को अद्भुत रूप से सारणीबद्ध किया... बल्कि इसमें है कि अभी किन-किन तत्वों को खोजा जाना बकाया है, यह भी मोटे तौर पर घोषित कर दिया, यानी अभी वह तत्व खोजा भी नहीं गया है, मगर उसके गुण-दोषों को उसके जन्म से पूर्व ही लामबंद कर दिया गया है।' वे जैसे तत्व-ज्ञान की सरहदों पर चढ़कर तत्वों का ज्ञान उड़ेल रहे थे।

रासायनिक प्रतीकों और मैंडलीफ तालिका के बाद अध्याय था समीकरण संतुलित करने का, जिसकी आधार भूमिका वाली क्लास से मैं अनुपस्थित था। शायद रजाइयों के लिए अपनी कपास से रुई धुनवानी थी। माँ का आग्रह था कि मैं अपनी आँखों के सामने ही करवाऊँ, नहीं तो कारीगर लोग पुरानी रुई मिला देते हैं।

एक रासायनिक क्रिया को श्यामपट पर लिखकर उन्होंने आदतन मेरा नाम पुकारा, 'सतपाल करके दिखाओ इस समीकरण को संतुलित।' मैं अंग्रेजी, विज्ञान और गणित में अध्यापकों का चहेता था। हमेशा फीस माफ रही क्योंकि सभी खुलकर मेरी अनुशंसा करते थे।

अणु-परमाणुओं के साथ मेरी पूरी गिरफ्त नहीं आई थी। अज्ञानता में मना करने का अभी तक मौका नहीं आया था। पुकार पर, झिझक से, मैं डेस्क के सहारे झुककर खड़ा हुआ तो उनका कड़क स्वर गूँजा 'देर क्यों लग रही है, चलो।'

सशंकित उस काले समुंदर पर मैं हाथ मारने लगा। पहले समीकरण के दोनों पल्लों के ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन और सल्फेट के अणु-परमाणुओं को गिनने लगा। फिर संतुलन बिठाने के लिए हाइड्रोजन के अणु में दो की जगह तीन तो ऑक्सीजन के अणु में दो की जगह पाँच परमाणु बिठा दिए। मतलब, रासायनिक प्रक्रिया में पानी को मैंने भ्2व् के बजाय भ्3व्5 जैसा अवशेषित कर दिया। पता नहीं कौन-कौन से नए पदार्थ चट से निर्मित कर दिए। चॉक मुझसे लेकर बोर्ड की तरफ आश्वस्ति में देखकर बोले, 'हो गया समीकरण संतुलित।'

मैंने बिना बोले उन्हें देखा।

'ऐसे होता है' उन्होंने फिर कुरेदते हुए पूछा।

'जी' मेरे कहते ही एक अदद 'तड़ाक' का नाभिकीय विस्फोट मेरे बाएँ गाल पर चस्पाँ हो गया। शायद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि प्रहार इतना परिपूर्ण होगा, क्योंकि दूसरे साथियों की तरह हथेली पर संटियाँ और गालों पर तमाचे खाने का कोई अभ्यास मुझे था नहीं। इसलिए गालों को बचाव में जरा भी विचलित नहीं कर पाया था।

उस तमाचे खाने की मेरी अबोधता ने एक तरफ जहाँ मुझे नैतिक संबल दिया, वहीं हरीकिशन मास्साब को एक अपराधबोध से दूषित कर दिया था जिसका इजहार उन्होंने बातचीत के अलावा वार्षिक परीक्षा के प्रैक्टीकल में तीस में से उन्तीस की बजाय पूरे तीस नंबर दिलवाकर किया था। कक्षा में किसी और को वे बाइस से आगे नहीं फटकने देते थे।

हाँ, कल श्यामू ने बताया था कि आजकल तो सबको तीस में से तीस ही मिलते हैं क्योंकि पूरे वर्ष ट्यूशन रखने के लिए यह एक वाजिब लालच होता है।

कुछ देर की आपसी चुप्पी के दरमियान आचार-विचार करके मैंने कहा :

'मास्साब आप उस आईटीओ से मिलकर तो आओ... सीधी बात है कि वी.डी.आईएस. तो पाँच-दस साल में एक बार आती है। उसका इंतजार तो जोखिम है। पुराने सालों का टैक्स से ज्यादा तो ब्याज पड़ेगा... आप उससे बात करके अपनी इस साल की आमदनी में ही सब कुछ दिखा दो... रिक्वेस्ट करो, मान जाए तो।'

'मैं मिला था उससे प्रवीण चंद्र नाम है। मान तो वो जाएगा... पुराने सालों के केस भी नहीं खोलेगा मगर दाम बहुत ज्यादा माँग रहा है। पूरे दस लाख। सतपाल सिंह, इतना मेरे बस में कहाँ है। पहले से ही घाटे में चल रहा है सब। चीनी मिल बंद होने से जमीन भी मिट्टी के भाव हो रही है।' उनका स्वर फिर टूटने लगा।

अभी तक मैं उनकी आर्थिक कारगुजारियों की ही भनक ले रहा था, मगर अब तो वे दुनियादारी के दस्तूरों का भी बेझिझक और बिना अपराध बोध मुझे हमराज बनाने लगे थे।

मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मेरा कद घट रहा है या बढ़ रहा है।

मेरी चुप्पी में कूमिल लगाकर वे ही बोले, 'सतपाल सिंह, तुम दो ढाई तक मेरा काम करा दो, इससे ज्यादा मेरे बस का नहीं है... मैं इसीलिए तुम्हें खोज रहा था, एक बार उसका पेट भर जाए तो बात खत्म हो जाएगी... मैं जिंदगी भर तुम्हारा अहसान मानूँगा।'

'ठीक है मास्साब। क्या नाम है उसका, प्रवीण चंद्र ना, मैं देखता हूँ, आप चिंता मत करो।' मैंने तहेदिल से एक फैसला लेते हुए, उनका बोझ हल्का करते हुए कहा।

वे मुझे गाड़ी तक बाकायदा छोड़ने आए और मुसलसल पत्र लिखकर सूचित करने का आग्रह करते रहे। यह भी कि मैं उस आई.टी.ओ. पर कोई दबाव (पैसों का एवज) वगैरह न डालूँ... क्या पता वह केस और खराब कर दे... रिकॉर्ड पर और क्या-क्या चीज ले आए।'

जब आ रहा था तो इच्छा थी कि उन्हीं दिनों की एक सहपाठी स्नेहलता की तरफ भी जाऊँ। मुख्य बाजार में घर के नीचे ही उसके पिता की नट-बोल्ट (हार्डवेयर) की दुकान थी, जिस पर वह भी उन दिनों कभी कभार बैठी दिख जाती थी। क्या पता आज भी दिख जाए।

मगर मैंने गाड़ी को वापस गाँव की तरफ मोड़ लिया। मैंने गौर किया कि स्कूल से निकलते ही, अधकचरी सड़क के दोनों ओर, कृषि के पीरियड में, 'पेड़ उगाओ' अभियान के तहत लगाए गए नीम और जामुन के पेड़ों के स्थान पर बेशुमार बबूलों की बेतरतीबी पसरी पड़ी है। उन्हीं के पीछे से किसी मरे हुए पशु को खाते हुए कुत्तों के झगड़े की कचर-कचर रिस रही थी।

कमाल था, आते वक्त यह सब मैंने लक्ष्य ही नहीं किया।